चर्चित कथाकार। अद्यतन उपन्यास जिन्हें जुर्मइश्क़ पे नाज़ थाऔर अद्यतन कहानी संग्रहअभी तुम इश्क़ में हो।संप्रति : संपादक विभोम स्वर, शिवना साहित्यिकी

वसंत किसी मौसम का नाम नहीं है, वसंत जीवन की एक अवस्था का नाम है…’

डायरी के पहले ही पन्ने पर यह लिखा हुआ है। अब तो याद भी नहीं कि यह कोटेशन कहाँ से पढ़कर उसने अपनी डायरी में लिख दिया था। किसका है, यह भी पता नहीं। शुभ्रा ने डायरी को जैसे ही खोला वैसे ही उसे यह कोटेशन दिखाई दिया। आज बरसों बाद शुभ्रा ने अपनी इस डायरी को खोला है। आज जब पीछे मुड़ कर देख रही है तो कितना सच लग रहा है यह एक कोटेशन। वसंत सच में कोई मौसम नहीं है, जीवन अपनी गति से चलता हुआ जब उम्र की एक विशेष अवस्था में आता है, तो उसे ही वसंत कहा जाता है। जो कुछ भी बाहर है, वह वसंत नहीं हो सकता, जो कुछ भी आपके अंदर चल रहा है, वही वसंत होता है। प्रेम में होना ही तो वसंत में होना होता है।

प्रेम किसी व्यक्ति से नहीं किया जाता है, प्रेम उम्र की उस अवस्था से किया जाता है, जिसमें वह व्यक्ति उस समय है।’

डायरी के अगले ही पन्ने पर दूसरा कोटेशन लिखा हुआ है। शुभ्रा कोटेशन के शब्दों पर कोमलता से उंगलियाँ फिराने लगी। जाने कहाँ-कहाँ से पढ़ कर लिखे गए थे ये कोटेशन। उम्र की उस अवस्था में जिसे वसंत कहा जाता है। कितना सच लिखा है इस दूसरे कोटेशन में। सच में हम किसी व्यक्ति से प्रेम कहाँ करते हैं? हम तो उस अवस्था से प्रेम करते हैं, जिसमें वह व्यक्ति होता है, जिसे जीवन की वसंत अवस्था कहा जाता है। इसीलिए तो अक्सर होता है कि प्रेम के बाद जब विवाह भी हो जाता है, तो प्रेम कुछ समय बाद छीजने लगता है। असल में प्रेम नहीं छीजता है, आपकी उम्र छीज रही होती है। होता यह है कि इस कारण वह अवस्था बीत रही होती है। फिर वही व्यक्ति आपके साथ होता है, आपके जीवन में होता है, लेकिन प्रेम नहीं होता है। प्रेम असल में समय के एक विशेष खंड से किया जाता है।

इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप स्त्री हैं कि पुरुष, लेकिन जब आप जीवन के प्रथम प्रेम में होते हैं, तो आप एलिस इन वंडरलैंड होते हैं।’

उफ… ये तो उसका सबसे पसंदीदा कोटेशन था किसी समय। उसने अपने वंडरलैंड की स्मृति में लिखा था इस कोटेशन को। वह वंडरलैंड, जो जीवन में एक सुखद झोंके की तरह आया और चला भी गया। उम्र वसंत की दहलीज पर खड़ी थी, एक कदम बढ़ाते ही वसंत में प्रवेश हो जाना था। वसंत आने के पहले ही जीवन में वसंत के प्रश्न उपस्थित होने लगे थे। प्रेम असल में वसंत के प्रश्नों का उत्तर देने का ही दूसरा नाम होता है। वसंत के प्रश्नों का उत्तर सही समय पर दे देना चाहिए, नहीं तो वसंत प्रेतछाया बन कर पूरे जीवन के साथ-साथ चलता रहता है।

शुभ्रा ने भी एलिस इन वंडरलैंड होने को अनुभूत किया था जीवन में। और वो भी लगभग वसंत में। लगभग वसंत इसलिए, क्योंकि तब उसकी उम्र पर वसंत पूरी तरह नहीं आया था, वसंत के आने की कुछ अस्पष्ट सी आहटें ही थीं, जो तन पर और उससे ज्यादा मन पर महसूस हो रही थीं उस समय। वसंत और एलिस का वंडरलैंड ये दोनों दो अलग-अलग बातें नहीं हैं, असल में ये दोनों एक ही हैं। दोनों आभासी हैं, दोनों फैंटेसी हैं। प्रेम भी तो एक प्रकार की फैंटेसी ही है। फैंटेसी की कमजोरी यह है कि वह बुद्धि और ज्ञान के प्रकाश में मर जाती है। इसीलिए जीवन की वसंत अवस्था, मतलब जवानी की दहलीज पर होनेवाला प्रेम स्त्री, पुरुष सबको एलिस कर देता है और तितली के परों पर बैठा कर ले जाता है वंडरलैंड में। फैंटेसी का यह वंडरलैंड उसके बाद फिर जीवन में नहीं मिलता है, क्योंकि उसके बाद उम्र के साथ-साथ ज्ञान और बुद्धि का विकास हो जाता है। प्रेम को यदि फैंटेसी कहा जाए, इस फैंटेसी के हत्यारे दो ही हैं- ज्ञान और बुद्धि।

आप किसी से रोज मिल रहे हों, सामान्य रूप से मिल रहे हों, मगर फिर भी एक दिन सुबह जब दिन शुरू होता है तो अचानक आपको लगता है कि आप उसके साथ प्रेम में हैं।’

अगले कोटेशन को पढ़कर शुभ्रा के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कराहट आ गई। हरिया उसके लिए कोई नया परिचय नहीं था। जब से ननिहाल जाती रही, तब से ही हरिया को देखती रही। अपनी माँ के साथ आता था हरिया। उसकी माँ सुखिया शुभ्रा के ननिहाल में सफाई करने आती थी रोज। उन दिनों छोटे गांव-कस्बों में घरों में पक्के और व्यवस्थित स्नानघर तथा शौचालय नहीं बनते थे। पुरुष नदी पर जाकर नहाते थे और वहीं शौच आदि से निवृत्त हो आते थे। अधिकांश घरों में महिलाएं भी यही करती थीं, लेकिन उसका ननिहाल थोड़ा संपन्न घर था, इसलिए वहाँ महिलाओं के लिए घर के आंगन के दूसरे सिरे पर कच्चा शौचालय और स्नानघर बना हुआ था। सुखिया उसी की सफाई करने आती थी। सुखिया की गोद में जब पहला ही बेटा हरिया आया, उसके कुछ ही दिन बाद उसके पति की जहरीली शराब पीने से मौत हो गई थी। कुछ दिन रोने-पीटने के बाद सुखिया ने जीने के लिए अपने पति के काम वाले घरों का ही साफ-सफाई का काम पकड़ लिया था। कुछ और घरों में भी साफ-सफाई के लिए जाती थी वो मगर उसका घर शुभ्रा के ननिहाल के आसरे ही चल रहा था। नानी जब-तब उसकी अलग से भी मदद करती रहती थीं। गांव के बाहर की तरफ एक टूटे-फूटे कच्चे घर में रहती थी सुखिया। मामा के खेतों पर जाने के रास्ते में ही सुखिया का घर पड़ता था। कभी खेत पर जाते समय शुभ्रा को अगर सुखिया बाहर बैठी दिख जाती, तो शुभ्रा वहीं से चिल्ला कर कहती ‘राम-राम’ और उधर से सुखिया भी हाथ जोड़ देती थी।

जब सुखिया सफाई करने आती, तो हरिया भी सुखिया के साथ ही आता था। जब तक सुखिया सफाई करती, तब तक आंगन के दूसरे सिरे पर ही बैठा रहता था। सुखिया का शुभ्रा के ननिहाल के घर में आंगन से आगे प्रवेश वर्जित था। पीछे के दरवाजे से अंदर आती थी और वहीं से साफ-सफाई कर के वापस चली जाती थी। यह वर्जना हरिया के लिए भी थी, वह भी आंगन के सिरे के आगे कभी नहीं आता था। सुखिया कई बार तो आने के बहुत देर बाद सफाई का काम करती थी। असल में आंगन से लगे हुए बरामदे में नानी के बैठने का तखत था, सफाई के पहले सुखिया आंगन के दूसरे सिरे पर बैठ जाती थी और नानी के साथ देर तक बातें करती रहती। कई बार दोनों मामियाँ भी वहाँ आकर बैठ जाती थीं। सुखिया नानी को गांव की, पास के गांवों की बातें बताती रहती थी। जब शुभ्रा और उसकी मम्मी वहाँ जाते थे, तो सुबह-सुबह शुभ्रा भी अपनी मम्मी के साथ वहीं नानी के तखत पर बैठकर सुखिया की बातें सुनती थी। गजब की जानकारियां हुआ करती थीं सुखिया के पास। पता नहीं कहाँ-कहाँ की बातें करती रहती थी। सुखिया आती तो सुबह जल्दी ही थी, मगर नानी के साथ बातचीत का दौर कभी घंटे भर तो कभी दो-ढाई घंटे भी चलता रहता था, उसके बाद ही सफाई करती थी सुखिया।

ननिहाल की लाड़ली रही है शुभ्रा। दो मामाओं और एक उनकी बहन, मतलब शुभ्रा की मम्मी, इन तीनों भाई-बहनों के बच्चों में एकमात्र लड़की है वह। बड़े मामा के दो और छोटे मामा के तीन बेटे और अपने घर में शुभ्रा और उसका छोटा भाई। इस तरह ननिहाल पक्ष में वह अपनी पीढ़ी की अकेली लड़की है। जब गर्मी की छुट्टियों में सातों इकट्ठे होते, तो मिलकर घर को सिर पर उठा लेते थे।

हरिया भी शुभ्रा का हमउम्र ही था लगभग। सात-आठ बरस की थी वो, जब यूँ ही आंगन में खेलते समय उसने हरिया को भी अपने साथ खेल में शामिल करना चाहा था। मगर सुखिया ने ही तुरंत मना कर दिया था ‘नहीं-नहीं शुभी जीजी, वो नहीं खेलेगा, आप भैया लोगों के साथ ही खेलो।’ शुभ्रा को तो यही बहुत अजीब लगता था कि सुखिया उसकी मम्मी की उम्र की होने के बाद भी उसे जीजी कह कर क्यों बुलाती है, सीधे नाम क्यों नहीं लेती। तब उसे बहुत कुछ पता नहीं था। ये भी नहीं पता था कि हरिया किस कारण उसके साथ नहीं खेल सकता है। क्यों हरिया और सुखिया आंगन में खिंची हुई एक लक्ष्मण रेखा को पार नहीं कर पाते हैं।

हर साल जब गर्मी की छुट्टियों में शुभ्रा ननिहाल जाती, तो हरिया को कुछ और बड़ा पाती थी। हर साल वह भी तो थोड़ी बड़ी होकर पहुंचती थी अपने ननिहाल। उस समय दस-बारह की उम्र रही होगी उसकी, जब उसने देखा था कि हरिया भी अपनी माँ का हाथ बंटाने लगा था। सुखिया हरिया को शौचालय या स्नानगृह की सफाई तो नहीं करने देती थी, मगर नानी के कहने पर वह छत की सफाई करने चला जाता था। आंगन से जिस सिरे पर एक तरफ शौचालय और स्नानगृह बने थे, उसी सिरे पर दूसरी तरफ सीढ़ियाँ थीं छत पर जाने के लिए। ये सीढ़ियाँ छत पर बने टॉवर में खुलती थीं। टॉवर का दरवाजा छत पर बने एक कमरे में खुलता था, जिसमें ढेर सारा काठ-कबाड़ भरा था। उस कमरे से एक दरवाजा छत पर खुलता था। गर्मी की छुट्टियों में जब शुभ्रा पहुंचती, तो उसके बाद सारे बच्चे रात को छत पर ही सोते थे। इसीलिए नानी छत को साफ करवाती रहती थीं।

नानी के कहते ही हरिया झाड़ू लेकर छत पर चला जाता था। कभी-कभी पानी से धो कर भी आता था पूरी छत। जब पानी से छत धुलवानी होती थी, तो किसी न किसी बच्चे को छत पर जाना होता था, छत की टंकी से बाल्टी में भर-भर कर छत पर पानी डालने के लिए। हरिया न तो टंकी को छू सकता था और न बाल्टी को ही। अक्सर शुभ्रा ही उस समय नानी के पास तखत पर बैठी होती थी, इसलिए उसकी ही ड्यूटी लगती थी इस काम पर। बाकी बच्चे तो उस समय जानबूझ कर इधर-उधर हो जाते थे कि कहीं छत न धुलवाना पड़ जाए। और शुभ्रा शायद जानबूझ कर उस समय वहीं बनी रहती थी कि उसे ही छत धुलवाने का काम मिले। शुभ्रा बाकी बच्चों की तरह बाल्टी भर-भर कर नहीं फेंकती थी, बल्कि हरिया को भीगने से बचाते हुए धीरे-धीरे मग से पानी छत पर डालती थी।

एक क्षण पहले तक आपको पता भी नहीं होता है कि प्रेम किस बला का नाम है, दूसरे ही क्षण आपकी आंखें किसी की आंखों से टकराती हैं, और तीसरे ही क्षण आप प्रेम में होते हैं।’

शुभ्रा ने अगले पेज पर लिखे हुए कोटेशन को पढ़ा और उसके नीचे बने हुए स्कैच को देखा। कुछ नहीं है, बस एक आंख बनी है, जो किसी दीपक की लौ की तरह बनाई गई है। थोड़ा बहुत स्कैच बना लेती थी वह। इस तीन क्षण वाली थ्योरी को उसने भी कभी सच होते हुए देखा था। बचपन में जब भी आती थी, तो मामा के बच्चों के साथ मिल कर ही छत पर खेलती थी। सतोलिया, पिट्ठू, धप्पा, गप्पे, चपेटे… उम्र बढ़ती गई और उम्र के साथ बचपन के खेल भी बीतते चले गए। वह आती रही और बीच में समय बीतता रहा, उम्र बढ़ती रही। उस लगते वसंत के समय में ही शुभ्रा उस साल गई थी अपने ननिहाल। हर साल जाती थी, उस साल भी गई थी।

उन दिनों स्कूलों में गर्मी की लंबी छुट्टियाँ हुआ करती थीं, अप्रैल से जून तक की छुट्टियाँ। और उन दिनों छुट्टी का मतलब भी छुट्टी ही होता था। हर साल गर्मी में कम से कम एक महीने के लिए तो ननिहाल जाती ही थी वह। उसी तरह उस साल भी गई थी। हालांकि वह मई का तपता हुआ महीना था, मगर उसके जीवन में वह साल लगते वसंत का साल था। देह पर वसंत के आगमन के संकेत लिए हुए पहुंची थी वह अपने ननिहाल। अपने वंडरलैंड में। नानी का घर उसके लिए वंडरलैंड ही था, एलिस का वंडरलैंड, जहाँ जाकर वह बाकी सारी दुनिया को भूल जाती थी।

इस समय तक शुभ्रा की उम्र ऐसी हो गई थी कि उसे बहुत सारी बातें समझ में आने लगी थीं। समझ में आने लगा था कि क्यों सुखिया और हरिया आंगन के बीच की रेखा को पार नहीं करते हैं। क्यों सुखिया और हरिया के लिए वहीं स्नानगृह के पास दो फूटे हुए कप रखे रहते हैं, जिनमें ऊपर से डाल कर उनको चाय दी जाती है। शुभ्रा के अंदर का विद्रोही मन इस व्यवस्था को तोड़ना चाहता था, मगर यह सदियों से चली आ रही परंपरा थी। वे लोग जो इस परंपरा का शिकार हो रहे थे, वे भी इसके आदी हो चुके थे और इस व्यवस्था को यथास्थिति बनाए रखना चाहते थे। सुखिया और हरिया स्वयं ही उस रेखा को पार करना नहीं चाहते थे।

शुभ्रा की इच्छा होती थी कि वह इस लक्ष्मण रेखा को पार कर उस तरफ पहुंच जाए जहाँ सुखिया बैठी है। मगर ऐसा करना भी उसे संभव नहीं लगता था। सदियों से जिस प्रकार ढाला जाता रहा है, उससे बाहर आने के लिए बहुत ऊर्जा की आवश्यकता होती है। एक विस्फोट करना होता है अपने आप को उन सबसे बाहर निकालने के लिए, जो जंजीरों की तरह आपको जकड़े हुए हैं। जंजीरें, जो बाहर से देखने पर बिलकुल नहीं दिखाई देती हैं, लेकिन अंदर मन पर बहुत गहरे तक कसी हुई होती हैं।

इस बार जब पहुंची थी तो हरिया को भी बदला हुआ पाया था। बहुत बदला हुआ। एक उम्र होती ही ऐसी है कि उस उम्र में उम्र का ही एक सौंदर्य आ जाता है। हरिया बहुत अलग तरह का दिखने लगा था। सांवला रंग, घुंघराले बाल, हल्की-हल्की मूंछों की रेख, गले में काले डोरे में लटक रहा एक ताबीज, दोनों कानों में चांदी या शायद गिलट की छोटी-छोटी बालियाँ, सीधे हाथ की कलाई पर कई बार लपेट कर बांधा गया काला धागा, और उसके पास ही एक गोदना। और सबसे अधिक ध्यान उसका आकर्षित हुआ था हरिया के होंठों की तरफ। हल्की नीली झांई होठों के किनारे-किनारे नजर आई थी शुभ्रा को। अंदर की तरफ यह नीला रंग धीरे-धीरे थोड़े कम गुलाबी रंग में घुल रहा था।

शुभ्रा को हमेशा से नीले-बैंगनी फूल बहुत पसंद रहे हैं। इसलिए, कि वह अलग होते हैं। हर तरफ जब लाल, पीले, नारंगी, स़फेद फूल खिले होते हैं, तब उनके बीच खिला हुआ नीला फूल कितना आकर्षित करता है। घर के बाहर लगी अपराजिता की बेल में जब फूल खिलते, तो शुभ्रा सम्मोहित होकर उनको देखती रहती। या कृष्ण कमल की बेल में खिला राखी फूल, जो खिलता तो बैंगनी रंग में लेकिन दूसरे दिन तक गाढ़ा नीला हो चुका होता। उस दिन पहली बार जब हरिया के होंठों को देखा, तो उसे लगा कि वह होंठ नहीं बल्कि नीलकुसुम हैं। तीन क्षणों का खेल पूरा हो चुका था। और इस खेल के पूरा होने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई थी नीलकुसुम की उन दो पंखुरियों ने, जो हरिया के चेहरे पर थीं। उस दिन भी सब कुछ पहले की ही तरह था, सुखिया वहीं बैठ कर नानी और मम्मी को दुनिया-जहान की बातें बता रही थी। शुभ्रा भी वहीं तखत पर बैठी थी पहले की ही तरह। और हरिया भी उसी तरह सुखिया के पास खड़ा था। पूरा दृश्य वैसे का वैसा ही था, जैसा पिछले कई बरसों से वह देखती आ रही थी मगर इस बार तीन क्षणों में सब कुछ बदल चुका था।

प्रेम के उपजने के कई कारण होते हैं, कई बार यह सहानुभूति की कोख से भी जन्म ले लेता है, क्योंकि प्रेम असल में करुणा के विगलन से उत्पन्न होता है।’

यह कोटेशन तो उसका सबसे पसंदीदा कोटेशन रहा है। जब किसी लिखी हुई बात में अपने मन की झलक मिल जाए, तो वह बात दिल के बहुत करीब हो जाती है। शुभ्रा को भी उस समय कहाँ पता था कि जो कुछ यह हो रहा है, यह प्रेम है या प्रतिरोध है। शायद दोनों। उस ही एक वर्ष में उसके जीवन में सबसे ज्यादा उथल-पुथल चल रही थी। वसंत की दस्तक तन और मन दोनों को प्रभावित कर रही थी। और इसका प्रभाव यह हो रहा था कि शुभ्रा को अपने अंदर एक विचित्र प्रकार की जिद पैदा होती हुई दिख रही थी। यह जिद क्रोध में बदल जाती थी। शायद हार्मोनल परिवर्तन का असर था ये। आज पीछे मुड़ कर अपनी कहानी को देख रही है, तो महसूस हो रहा है कि बचपन से जवानी में जाते हुए बच्चे कई बार केवल अपने घर के वातावरण से घबरा कर, या किसी बात से नाराज होकर बाहर प्रेम तलाश लेते हैं। यह प्रेम असल में एक प्रतिरोध ही होता है।

उसका नीलकुसुम असल में आकाश कुसुम था, जिसे प्राप्त करना लगभग नामुमकिन था। शुभ्रा अपने नीलकुसुम को दो कदम की दूरी पर रोज खिला हुआ देख रही थी मगर हाथ बढ़ा कर तोड़ नहीं पा रही थी। नीलकुसुम वर्जित प्रदेश में खिला हुआ था। नीलकुसुम और उसके बीच घनी झाड़ियाँ थीं नागफनी की, लंबे और नुकीले कांटों की झाड़ियाँ। इन झाड़ियों के बीच-बीच से देखने पर उस तरफ खिला हुआ नीलकुसुम दिखता तो था, पर उसे छुआ नहीं जा सकता था। बरसों-बरस से परंपरा और संस्कृति के नाम पर इन झाड़ियों को खाद-पानी देकर सींचा जा रहा था। इन झाड़ियों को और घना तथा ऊंचा कर के दुनिया को दो हिस्सों में बांटा जा रहा था। परंपरा चाहती थी कि यह झाड़ियाँ इतनी घनी हो जाएं कि उस तरफ की हवा भी इस तरफ न आ पाए।

उस साल उन तीन क्षणों के बाद का समय उसके लिए बहुत कठिन रहा था। बचपन बीत चुका था और खेलने की उम्र को अपने साथ ले जा चुका था। वंडरलैंड जीवन से जाने कब विदा हो जाता है, अपने पीछे बस स्मृतियों का एक गुबार छोड़ जाता है। वो जिस वंडरलैंड में बच्ची बनी हुई थी, वह वंडरलैंड अचानक बदलने लगा था। मगर इन सबके बीच घटित हुई दो घटनाओं ने उसके अंदर हलचल पैदा कर दी थी। उस दिन घर में महिलाओं की कोई पूजा थी, जिसके कारण सारी महिलाएं सुबह जल्दी नहा-धो कर पूजा घर में पूजा कर रही थीं, एक पंडित आए हुए थे, जो पूजा करवा रहे थे। नानी, मामियां, शुभ्रा की मम्मी और पड़ोस की भी कुछ औरतें पूजा घर में थीं। मामाओं के बेटे, शुभ्रा और शुभ्रा का भाई सब छत पर सोए हुए थे। बड़े मामा रोज की तरह खेत पर गए हुए थे और छोटे मामा बैठकी में बैठे हुए थे। शुभ्रा की नींद खुली, तो वह उठ कर बैठ गई थी। छत की मुंडेर पर लगी हुई फूलदार जाली में से उसने नीचे देखा कि हरिया वहीं नीचे बैठा हुआ है और सुखिया स्नानगृह को साफ कर रही है। नानी भी पूजा में व्यस्त थीं, इसलिए सुखिया आते ही सफाई के काम में लग गई थी। शुभ्रा उस जाली में से हरिया को देखती रही थी।

जाली उसके करीब थी, इसलिए वह तो हरिया को देख सकती थी मगर हरिया उसे नहीं देख सकता था। कुछ ही देर में शुभ्रा ने देखा कि छोटे मामा आए और सीधे स्नानगृह में चले गए, उनके अंदर जाते ही दरवाजा बंद हो गया था। शुभ्रा चौंक गई थी यह देख कर। अंदर तो पहले से सुखिया है, जो सफाई कर रही है। उसने हरिया की तरफ देखा था, हरिया अपने हाथ में पकड़ी हुई लकड़ी के सिरे को जमीन में भोंक रहा था, ग़ुस्से में। शुभ्रा कुछ देर तक देखती रही थी जाली में से ही, फिर अचानक उठ कर खड़ी हो गई थी। जैसे ही उठ कर खड़ी हुई थी, वैसे ही हरिया से उसकी आंखें मिली थीं। वह चेहरा अभी तक याद है शुभ्रा को। कितना कुछ था उस चेहरे पर- क्रोध, अपमान, पीड़ा, लाचारी, दुख। सबके मिले-जुले प्रभाव से हरिया का चेहरा बुरी तरह से बिगड़ा हुआ था।

शुभ्रा उस चेहरे के उन भावों में डूबी देखती रही थी उस चेहरे को। तब तक, जब तक स्नानगृह का दरवाज़ा खुलने की आवाज नहीं आ गई थी। जैसे ही दरवाजा खुलने की आवाज आई थी, वैसे ही शुभ्रा तुरंत नीचे बैठ गई थी। वहीं बैठे हुए उसने जाली में से देखा था छोटे मामा को स्नानगृह से बाहर निकलते हुए और हरिया की तरफ से बेपरवाह होकर अंदर जाते हुए। हरिया भी सिर झुकाए बैठा था, मानो उसने कुछ देखा ही न हो। जो कुछ उस समय हरिया के अंदर चल रहा था, उसे अपने अंदर भी महसूस किया था उस दिन शुभ्रा ने, जैसे वह सब कुछ उसने हरिया की जगह बैठ कर देखा हो। और शुभ्रा ने तो उस दिन देखा था उस घटना को, हरिया तो बचपन से ही शायद इन सब को देखता आ रहा था, तभी तो छोटे मामा बेफिक्र अंदाज में हरिया को नजरअंदाज करते हुए पहले स्नानगृह में और फिर वहाँ से निकल कर वापस अंदर चले गए थे। कुछ देर बाद सुखिया निकली थी बाहर। आकर सीधे हरिया के पास खड़ी हो गई थी। हरिया, जो नीचे मुंह किए बैठा था। सुखिया ने आकर हरिया के सिर पर हाथ रख दिया था और आंचल से अपनी आंखें पोंछने लगी थी।

उस घटना के साथ ही शुभ्रा के दिमाग़ में बहुत सी बातें कौंध गई थीं। छोटे मामा एक-दो दिन छोड़कर किसी रात को बहुत देर से आते थे। वैसे ज्यादातर बड़े मामा और छोटे मामा खेत से साथ ही लौटते थे, मगर किसी दिन बड़े मामा तो शाम को ही आ जाते थे, मगर छोटे मामा देर रात आते थे। जिस दिन छोटे मामा देर से आते थे, उस दिन नानी बस इतना ही कहती थीं, ‘आज फिर अटक गए बबलू महाराज कहीं।’ बबलू छोटे मामा का घर का नाम था। और ये भी कि खेत के मजदूरों का, हरवाहों का हिसाब सब बड़े मामा ही करते थे, मगर सुखिया का हिसाब छोटे मामा करते थे। जिस दिन पैसे मिलने का दिन होता था, उस दिन सुखिया सामने के दरवाजे के बाहर बने चबूतरे के कोने पर खड़ी हो जाती थी। छोटे मामा के आते ही सुखिया अपना आंचल पसार देती थी। ऊपर चबूतरे पर खड़े होकर दूर से ही छोटे मामा उसके आंचल में पैसे गिरा देते थे। सुखिया आंचल समेट कर चली जाती थी। सुखिया को कितने पैसे दिए जा रहे हैं, यह सुखिया और छोटे मामा के अलावा किसी को पता नहीं चलता था।

और उसके शायद दूसरे या तीसरे ही दिन वो दूसरी घटना घटी थी। उस दिन सुखिया सफाई में लगी थी, नानी और मम्मी के साथ शुभ्रा तखत पर बैठी थी और हरिया भी अपनी जगह पर बैठा हुआ था। अचानक छोटे मामा अंदर से आंगन में आए थे और पीछे के दरवाजे की तरफ बढ़ गए थे। पीछे का दरवाजा जहाँ से सुखिया और हरिया का आना-जाना होता था, वह दरवाजा बस इसी काम में उपयोग होता था। सुखिया और हरिया के आने-जाने के लिए या फिर कचरा फेंकने के लिए। उसी दरवाजे से लग कर बैठते थे हरिया और सुखिया।

उस दिन छोटे मामा के हाथों में कुछ कागज थे, जिनको वह अच्छे से चिंदी-चिंदी करते हुए पीछे फेंकने जा रहे थे। शायद कुछ गोपनीय कागज थे, जिनको छोटे मामा अच्छे से नष्ट कर के खुद ही फेंकना चाहते थे। कागज फाड़ने में छोटे मामा का ध्यान इतना लगा हुआ था कि दरवाजे के पहले जहाँ आंगन कुछ ऊंचा था, वह उन्हें नहीं दिखा और उन्हें बुरी तरह से ठोकर लगी थी। ठोकर खाकर वो मुंह के बल जमीन पर गिरने को ही थे कि बिजली की फुर्ती से हरिया उठा था और गिरते हुए छोटे मामा को बांहों में थाम लिया था। छोटे मामा को संभालते-संभालते हरिया छोटे मामा को बांहों में लिए हुए ही जमीन पर गिर गया था। पहले नीचे हरिया गिरा और उसके ऊपर छोटे मामा। छोटे मामा को तो हरिया के ऊपर गिरने के कारण बिलकुल चोट नहीं आई थी, लेकिन शुभ्रा ने देखा था कि हरिया का सिर दरवाजे की चौखट से बुरी तरह टकराया था। छोटे मामा कुछ ही देर में हरिया की बांहों से अपने आप को छुड़ा कर फुर्ती से उठ कर खड़े हो गए थे। उनके उठते ही अपने सिर को हाथों से मलते हुए हरिया भी उठ कर खड़ा हो गया था। हरिया के उठते ही छोटे मामा ने कस कर एक थप्पड़ मार दिया था उसे, यह चिल्लाते हुए- ‘साले, अपनी औक़ात भूल गया है क्या? हिम्मत कैसे हुई तेरी मुझे हाथ लगाने की?’ और झुँझलाते हुए वहाँ से चले गए थे स्नानगृह की तरफ। उस दिन एक बार फिर शुभ्रा ने क्रोध, अपमान, पीड़ा, लाचारी, दुख ये सारे भाव एक साथ देखे थे हरिया के चेहरे पर। हरिया अपने सिर को हाथों से मलते हुए चुपचाप बैठ गया था अपनी जगह पर। नानी, मामी और मम्मी के लिए तो जैसे कोई घटना घटी ही नहीं थी, वे पहले की तरह बातों में लग गई थीं।

शुभ्रा ने उस दिन जाना था अंधेरे और उजाले की अलग-अलग सचाइयों के बारे में। उजाले में जब सब देख रहे होते हैं, तब सच अलग होता है और जब अंधेरे में कोई नहीं देख रहा होता है, तब सच अलग होता है। अभी दो-तीन दिन पहले जिसकी माँ के साथ छोटे मामा स्नानगृह में पवित्र हो रहे थे, उसके ही बेटे के छू लेने के कारण वे अपवित्र हो गए थे। उस दिन एक विचित्र-सी घृणा ने जन्म लिया था शुभ्रा के अंदर। यह घृणा ऊपर से तो छोटे मामा के प्रति ही जन्मी थी, मगर शायद वह घृणा उस पूरी व्यवस्था के प्रति थी, जो छोटे मामा जैसे कई-कई पुरुष संचालित कर रहे थे। उस दिन शुभ्रा के अंदर कुछ पिघल रहा था हरिया के प्रति। वह हरिया के दुख में अपने आपको भागीदार बनाना चाह रही थी। उसकी इच्छा हो रही थी कि वह दौड़ कर जाए और छोटे मामा ने जहाँ थप्पड़ मारा है, वहाँ सहला दे अपने हाथों से।

प्रेम हमेशा प्रेम के कारण ही नहीं होता है, कभीकभी वह प्रतिरोध या विरोध के कारण भी होता है।’

डायरी के अगले ही पन्ने पर लिखे हुए कोटेशन के नीचे बहुत सी बेतरतीब रेखाएं खिंची हुई हैं। शुभ्रा को याद आया कि यह रेखाएं उसने क्रोध में खींची थीं। उन दो घटनाओं के कारण जो क्रोध उसके अंदर जन्मा था, यह रेखाएं उसी क्रोध के कारण खींची थी उसने। शुभ्रा के मन में हरिया के प्रति जो कुछ था, वह उससे पहले शायद प्रेम नहीं था, बस आकर्षण था मगर उन दो घटनाओं के कारण उसके अंदर की जिद ने उस आकर्षण को प्रेम में बदल दिया था। हरिया के प्रति उसके मन में जो कुछ था, वह हरिया के प्रति प्रेम तो था, मगर उस प्रेम से ज्यादा कहीं था, छोटे मामा के प्रति क्रोध और उस क्रोध के कारण उपजी हुई जिद। उस जिद ने नीलकुसुम को पाने के आकर्षण को और बढ़ा दिया था। उस जिद ने शुभ्रा के अंदर उन नागफनी की कंटीली झाड़ियों का सारा डर समाप्त कर दिया था।

छोटे मामा द्वारा हरिया को थप्पड़ मारने के दो-तीन दिन बाद की बात है, उस दिन भी छत धुलवाने के लिए शुभ्रा गई थी। हरिया उस दिन शुभ्रा की नजरों से नजर मिलाने से बचता हुआ छत साफ कर रहा था। शुभ्रा समझ रही थी हरिया के अंदर के द्वंद्व को। एक जवान होते लड़के को शर्मिंदा कर देने वाली दो घटनाएं जिस लड़की की आंखों के सामने घटी थीं, उससे नजरें कैसे मिलाई जा सकती थीं। शुभ्रा उस दिन हरिया के अंदर की पीड़ा को अपने अंदर महसूस कर पा रही थी। वह चाह रही थी हरिया को पिछले दिनों घटी दोनों घटनाओं के कारण जन्मी शर्मिंदगी के एहसास से बाहर निकालना। कुछ ऐसा करना चाह रही थी कि हरिया जिस लाचारगी की घुटन को भोग रहा है, उससे मुक्त हो जाए। उस दिन छत पर पानी डालते हुए शुभ्रा बस इसी बारे में सोच रही थी। सोच रही थी और शायद किसी निर्णय पर पहुंचती भी जा रही थी।

छत साफ करवाने के बाद उसने बाल्टी और मग को वहीं एक तरफ रख दिया था। हरिया छत का अंतिम सिरा साफ कर रहा था। शुभ्रा को वैसे भी इंतजार करना था, क्योंकि छत के टॉवर का दरवाजा उसी को लगाना था। हरिया को दरवाजा छूने की मनाही थी। छत को पूरी तरह साफ कर हरिया झाड़ू को हाथ में लेकर जब टॉवर की तरफ आ रहा था, तब शुभ्रा दरवाजे से काठ-कबाड़ वाले कमरे में आ गई थी। कुछ ही देर में हरिया भी आ गया था। हरिया नीचे जाने के लिए जब शुभ्रा के पास से होकर गुजर रहा था, तब अचानक शुभ्रा ने उसकी कलाई पकड़ ली थी। हैरत में पड़े हरिया के हाथ से झाड़ू छूटकर गिर गई थी। वह आश्चर्य से शुभ्रा की तरफ मुड़ा था। हरिया कुछ समझ पाता उससे पहले ही शुभ्रा ने बढ़कर नीलकुसुम की पंखुरियों को अपना निशाना बना लिया था। रक्तकमल की पंखुरियां नीलकुसुम की पंखुरियों पर जाकर बिछ गई थीं। अलब्ध आकाश कुसुम की नीली पंखुरियां शुभ्रा के होंठों की जद में आ गई थीं।

कुछ देर तक हरिया स्तब्ध-सा खड़ा रहा था। फिर थोड़ी देर बाद रक्तकमल, नीलकुसुम की गहराइयों में समाने लगा था। नीलकुसुम की पंखुरियाँ रक्तकमल की पंखुरियों को और गहरा, और गहरा खींच लेना चाह रही थीं अपने अंदर। उस समय शुभ्रा को कुछ पता नहीं था कि ये सब क्या है, छोटे मामा के अपराध का प्रायश्चित है, प्रेम है, प्रतिरोध है, या ये सब हैं। उसे बस यह पता था कि वो हरिया को उन दो घटनाओं के कारण उत्पन्न शर्मिंदगी से बाहर निकालना चाहती थी और उसके लिए उसे इससे अच्छा कोई उपाय नहीं सूझा था। क्योंकि उस शर्मिंदगी का कारण यह था कि शुभ्रा के सामने वे दोनों घटनाएं घटी थीं। शर्मिंदगी का कारण वो घटनाएं नहीं थीं, शर्मिंदगी का कारण यह था कि शुभ्रा के सामने वे दोनों घटनाएं घटी हैं।

जीव विज्ञान की किताब में शुभ्रा ने पढ़ा था शरीर में पाई जाने वाली मोटर और संवेदी तंत्रिकाओं के बारे में। पढ़ा था कि संवेदी तंत्रिकाओं के तंतुओं के अंतिम सिरे त्वचा के जिस हिस्से में सघन होते हैं, वह हिस्सा स्पर्श के प्रति संवेदनशील होता है। हमारे शरीर में होंठ सबसे अधिक संवेदनशील होते हैं स्पर्श के प्रति। इसका एक कारण तो यह है कि होंठों की बाहरी त्वचा कुछ पतली होती है और दूसरा ये कि होंठों की त्वचा पर संवेदी तंत्रिकाओं के तंतुओं के अंतिम सिरों की संख्या सर्वाधिक, लगभग एक अरब होती है। इतनी बड़ी संख्या होने के कारण होंठों पर स्पर्श की अनुभूति दो प्रकार से होती है, एक तो सामान्य स्पर्श अनुभूति का संकेत मस्तिष्क के लिए और दूसरी मीठी और मधुर अनुभूति जो आनंद उत्पन्न करती है। उसके मन में कौतूहल था इस सूचना को लेकर। कौतूहल ये कि जब ये एक अरब संवेदी तंतु हाथों के स्पर्श से ही इतना आनंद उत्पन्न करते हैं, तो क्या होता होगा जब इन एक अरब संवेदी तंतुओं के अंतिम सिरे, दूसरे एक अरब संवेदी तंतुओं के अंतिम सिरों से स्पर्श संवेदन प्राप्त करते होंगे? विज्ञान की छात्रा थी इसलिए हर बात को प्रैक्टिकल से समझने की आदत थी।

उस दिन बहुत देर तक रक्तकमल और नीलकुसुम की पंखुरियां उलझी रही थीं। कुछ देर बाद जब पंखुरियां अलग हुईं तो शुभ्रा ने हरिया के चेहरे को अपने हाथ में लेकर उसकी आंखों में झांका था। और हरिया ने भी देखा था शुभ्रा की आंखों में। शुभ्रा ने देखा था कि अब हरिया की आंखों में शर्मिंदगी नहीं थी। शुभ्रा ने आगे बढ़कर एक बार फिर नीलकुसुम की पंखुरियों को बहुत धीमे से अपने होंठों से छू लिया था, कुछ देर तक फिर हरिया की आंखों में देखती रही थी और फिर हरिया का हाथ छोड़ कर दौड़ती हुई सीढ़ियों की तरफ बढ़ गई थी।

उस दिन के बाद ये सब फिर हुआ, फिर-फिर हुआ। हर बार छत धुलने के बाद मन भी धुलता रहा। धुलता रहा स्पर्श संवदेन की मद्धम-मद्धम फुहारों में। एक अरब संवेदी तंतुओं के स्पर्श संवेदन की फुहारों में। इस बीच कहीं कोई संवाद दोनों के बीच नहीं हुआ था। बस एक मौन था। छत पर जब दोनों पहुंचते तो पूरे समय खामोशी पसरी रहती थी छत पर। शुभ्रा पानी डालती रहती और हरिया छत साफ करता रहता। कहीं कोई संवाद नहीं। छत साफ करने के बाद काठ-कबाड़ के कमरे में आते ही, नीलकुसुम और रक्तकमल दोनों चुंबक के विपरीत ध्रुवों की तरह खिंच जाते थे।

उसकी वापसी के दो-तीन दिन पहले जब छत के कमरे में एक अरब संवेदी तंतु दूसरे एक अरब संवेदी तंतुओं से स्पर्श संवेदन की मीठी अनुभूति प्राप्त कर रहे थे, उसी समय सुखिया आ गई थी वहाँ। टॉवर से होते हुए जब सुखिया कबाड़ के कमरे में पहुंची तो वहाँ का दृश्य देख कर गश सा खा गई थी। शुभ्रा और हरिया भी सुखिया की उपस्थिति के कारण उसी गश की स्थिति में आ गए थे। शुभ्रा ने देखा था कि सुखिया का चेहरा डर, दहशत जैसे भावों से कांप रहा था। सुखिया ने बिना कुछ बोले बस हाथ से हरिया को नीचे जाने का इशारा किया था और जब हरिया नीचे चला गया था, तो सुखिया शुभ्रा के पैरों में गिर पड़ी थी। बेआवाज रोते हुए। बीच-बीच में अस्पष्ट से कुछ शब्द शुभ्रा को सुनाई दे रहे थे- ‘मार डालेंगे’, ‘कहाँ जाएंगे’, ‘जीने का सहारा है’, उन शब्दों में शुभ्रा को वह सारे भाव महसूस हो रहे थे, जो सुखिया उस तक पहुंचाना चाह रही थी। कुछ देर तक रोते रहने के बाद सुखिया उठ कर आंचल से आंखें पोंछती हुई नीचे चली गई थी।

उसके बाद फिर शुभ्रा का हरिया से मिलना नहीं हुआ। उस दिन के बाद शुभ्रा दो-तीन दिन और रही थी ननिहाल, मगर हरिया नहीं आया था। सुखिया अकेली ही आती रही थी। फिर शुभ्रा आ गई थी वहाँ से। वापस आ जाने के कुछ दिन बाद पता चला कि सुखिया को लेकर वहाँ ननिहाल में कुछ तमाशा हुआ है और बड़े मामा ने सुखिया को काम पर आने को मना कर दिया है। फिर अगली बार जब शुभ्रा ननिहाल गई थी, तो पता चला था कि सुखिया हरिया को लेकर यह गांव हमेशा के लिए छोड़कर अपने मायके वाले गांव चली गई है। उसके बाद जीवन ने अपनी गति पकड़ ली। मेडिकल कॉलेज में एडमिशन और उसके बाद पढ़ाई, फिर एम.एस. करना, जॉब और इन सबके बीच सब कुछ विस्मृत होता चला गया। उसके बाद जीवन में कितने ही चुंबन आए, मगर जीवन का वह प्रथम चुंबन, जो प्रेम का भी और प्रतिरोध का भी चुंबन था, आज भी मीठी याद के रूप में सुरक्षित है। आज भी ननिहाल जाती है, तो छत की उस काठ-कबाड़ वाली कोठरी से गुजरते हुए सिहर उठता है उसका तन। अब तो जाना भी बहुत कम होता है, मामा के बेटों के यहाँ कुछ कार्यक्रम होता है, तो ही जाती है। बहुत प्यार से बुलाते हैं उसे, बहुत मान-सम्मान देते हैं, इसलिए चली जाती है। अब तो उस घटना को पैंतीस बरस से भी ज्यादा हो गए, मगर आज तक हरिया से कहीं मिलना नहीं हुआ।

जीवन के प्रथम चुंबन की अनुभूति से बढ़कर जीवन में आगे कुछ भी नहीं मिलता है। इसीलिए इस अनुभूति को सहेज कर रखना चाहिए।’

शुभ्रा ने डायरी का पन्ना पलटा, तो अगले ही पेज पर यह कोटेशन मिला। यह कोटेशन उसने बहुत बाद में लिखा था। शायद कॉलेज के दिनों में कभी अचानक हरिया को याद करते हुए लिखा था यह कोटेशन। और इसके आगे कोई कोटेशन नहीं है। बस यहीं पर समाप्त हो गए हैं सारे कोटेशन। इसी पेज पर एक अपराजिता का फूल रखा हुआ है। सूखा हुआ फूल। जिस दिन यह कोटेशन लिखा था, उस दिन कॉलेज के हॉस्टल के दरवाजे पर लगी हुई अपराजिता की बेल से एक फूल तोड़ कर यहाँ रख दिया था, उस प्रथम चुंबन की याद में। तब से यह फूल यहीं रखा है। दोनों तरफ के पेजों पर फूल के चिपकने के निशान बन गए हैं। शुभ्रा ने आहिस्ता से फूल को उठाया और धीरे से अपने होंठों का स्पर्श उसकी सूखी हुई पंखुरियों पर कर दिया।

‘क्या बात है डॉक्टर साहिबा, आज क्लीनिक नहीं जाना है क्या? आपके मरीज इंतजार कर रहे हैं।’ पीठ के पीछे से आनंद की आवाज आते ही शुभ्रा चौंकी और फूल को वापस उसकी जगह पर रख कर डायरी को बंद कर उठ खड़ी हुई। पीछे मुड़ी तो देखा आनंद कमरे के दरवाजे पर खड़े हैं। आनंद शुभ्रा के पति हैं, डॉक्टर हैं। दोनों का क्लीनिक एक ही है, बस बैठने का समय अलग-अलग है। आनंद जब घर आते हैं, तब शुभ्रा क्लीनिक जाती है। दोनों ने प्रेम विवाह किया है, और दोनों सुखी दाम्पत्य जीवन जी रहे हैं। बच्चे दूसरे शहरों में पढ़ रहे हैं और अब दोनों की दिनचर्या में घर से क्लीनिक और क्लीनिक से घर आना-जाना शामिल है।

‘क्या है इस डायरी में?’ आनंद ने दरवाजे के पास से ही मुस्कराते हुए पूछा।

‘डायरी में….! डायरी में नीलकुसुम है…।’ शुभ्रा ने भी मुस्कराते हुए उत्तर दिया।

‘नीलकुसुम…?’ आनंद ने कुछ उलझन भरे स्वर में कहा।

‘आप नहीं समझेंगे डॉक्टर साहब, आप इंग्लिश मीडियम स्कूलों में पढ़े हैं, हम हिंदी मीडियम वालों की भाषा नहीं समझ सकेंगे आप…।’ शरारत से मुस्कराते हुए कहा शुभ्रा ने और डायरी लिए अपने कमरे की तरफ बढ़ गई।

संपर्क सूत्र : पी.सी. लैब, शॉप नं. 3-4-5-6, सम्राट कॉम्प्लेक्स बेसमेण्ट, बस स्टैंड के सामने, सीहोर मध्य प्रदेश 466001 मो. 9977855399