सुनो कौशिकी’, ‘महाप्रस्थान के पीछे’ (कविता संग्रह),‘अब तो दे दो मुझे अंधेरा यह’ (ग़ज़ल संग्रह), ‘मानुस कंपनी’ (कहानी संग्रह)।सम्प्रति : बैंक में कार्यरत।

सरजुग बाबू नहीं रहे, लेकिन गांव में उनके नाम पर एक आदमकद प्रतिमा जरूर रह गई थी, गांव के बाहर एक चौराहे पर। उनकी जन्मतिथि और पुण्यतिथि पर साल में कम से कम दो बार लोग प्रतिमा के सामने इकट्ठे होते और उसे धूप-दीप दिखाकर फूल-माला अर्पित करते। बाकी दिन प्रतिमा के रूप में सरजुग बाबू उस सुनसान चौराहे पर अकेले खड़े रहते थे, गांव की ओर मुस्कुराते हुए एकटक देखते हुए!

जब से उस चौराहे पर, वित्तीय साक्षरता के एक समर्पित ग्रामीण कार्यकर्ता की हत्या हुई थी, उधर लोगों का आना-जाना कम हो गया था।

कहते हैं, उस वारदात के तुरंत बाद पहुंची पुलिस को जब गवाह नहीं मिल रहा था, अपने जवान बेटे की खून से लथपथ लाश से लिपटकर रोती-चीखती बेबस बूढ़ी मां प्रतिमा से गुहार लगा रही  थी, ‘कोई कुछ नहीं बोल रहा सरजुग बाबू, तुम तो देखे हो न? अब तो बता दो उस राच्छस का नाम…!’

पुलिस ने कहा था, ‘पागल हो गई है बुढ़िया!’

लेकिन समय सब घाव भर देता है। पिछले पांच सालों में बहुत कुछ बदला है।

चौराहे पर अब सिर्फ वह प्रतिमा ही नहीं है। उसके चारों ओर सड़क के नीचे कई छोटी-छोटी दुकानें खुल गई हैं। गाड़ियों की आवाजाही और लोगों की चहल-पहल भी बढ़ गई है। साथ ही बढ़ गया है सड़क पर धूल का उड़ना भी।

यह प्रतिमा रोज इस धूल में नहाती है। इसपर रोज धूल की नई परत चढ़ जाती है। नख से शिख तक धूल-धूसरित सरजुग बाबू को पहचानना थोड़ा मुश्किल होता है। प्रतिमा के पैरों के नीचे एक काली पट्टी पर सफेद अक्षर में लिखा उनके नाम पर सूखा गोबर लटका है, शायद किसी आवारा गाय-भैंस ने कभी इस पर…। सिर्फ नाक ही दिखती है। यह ऊंची – खड़ी नाक ही बताती है कि यह सरजुग बाबू की प्रतिमा है।

वह सचमुच धरतीपुत्र थे। जबतक धरती पर जीवित चल-फिर रहे थे, यहां की गोबर,  मिट्टी- धूल भी उन्हें बहुत खींचती थी। अब जब वह नहीं रहे और सिर्फ उनकी प्रतिमा है तो वह गोबर, मिट्टी-धूल को हर क्षण अपनी तरफ खींच रही है तो इसमें अचरज क्या है!

अचरज इस बात में है, लोग उन्हें इतनी जल्दी भूल गए!

अब कोई फूल-माला नहीं। कोई धूप-दीप नहीं, साल में एक बार भी नहीं। हां, लोग इतना जरूर कहते हैं कि जबतक इस चौक का नाम सरजुग बाबू चौक रहेगा, तबतक उनका नाम जरूर रहेगा।

…लेकिन चौक का नाम सरजुग बाबू चौक रहेगा तब तो?

पांच साल बाद अब गांव  में एक नए तरह का बौद्धिक घमासान जारी है। विकास मतलब पुराने के ऊपर नए का निर्माण ही तो है!

नया हाई स्कूल, नया अस्पताल, नया पंचायत भवन, नया वाचनालय-पुस्तकालय, नए शौचालय, कंप्यूटर साक्षरता केंद्र, नई सड़कें, नए चौक-चौराहे..। वाजिब है कि विकास और उपलब्धि के इतने सारे प्रतिमानों-प्रतीकों के  नाम भी नए होने चाहिए। पुराने नाम से अथवा बिना नाम के, नई पहचान मिलेगी क्या?

इसलिए नए-पुराने सभी नामों पर विचार-पुनर्विचार हो रहा है। कौन-सा नाम हटाएं और कौन-सा सटाएं, तय करना मुश्किल हो रहा था। कुछ लोग कह रहे थे, ‘कुछ मुश्किल नहीं है, यहां अब कर्त्ता-धर्ता सब के मन में ही खोट है। सरजुग बाबू आज होते तो आम सहमति कब की बन गई होती।’ यही नहीं, प्रत्येक नाम की वकालत के लिए नामधारियों के दबंग बेटे-पोते हैं। इनमें नवोदित पदधारी लोग जैसे वार्ड-सदस्य, पंचायत समिति-सदस्य, किसी पार्टी का झंडा ढोनेवाला, भूतपूर्व सरपंच तो हैं ही, कुछ पुश्तैनी रक्त वाले पुराने परिवार के व्यक्ति भी हैं।

सुनने में आया कि कल से संतमत सत्संग मंदिर के दास जी भी अपने गुरुमहाराज का नाम लेकर अभ्यर्थियों की कतार में खड़े हो गए हैं। किसी ने यह भी याद दिलाया, ‘सबसे अच्छा उस कवि का नाम होगा, कवि समदरसी जी…।’

इतना ही नहीं, बहस इस पर भी जारी थी कि भवन, सड़क या चौक के लिए कौन-सा नाम उपयुक्त होगा। सुंदर शर्मा बोल रहा था, ‘सरजुग बाबू सार्वजनिक शौचालय कैसा रहेगा लाल जी बाबू?’

जवाब में लाल जी बाबू ने कहा था, ‘यह वैसा ही रहेगा जैसा आपके हिसाब से छेदी शर्मा कंप्यूटर साक्षरता केंद्र रहेगा।’ छेदी शर्मा सुंदर का बाप था। सुनकर सुंदर को पता ही नहीं चला कि लाल जी बाबू ने जो कहा, खुश होकर कहा कि नाराज होकर लेकिन उसे थोड़ी तसल्ली जरूर  हुई।

इतनी कम और छोटी रिक्तियों के लिए इतने सारे बड़े-बड़े नाम?

लेकिन सरजुग बाबू का नाम लेनेवाला कोई है तो बस दो ही हैं, एक शंभुनाथ उनका पोता और दूसरा; लाल जी सहनी, पेशे से पत्रकार।

शंभुनाथ के मुंह में न दांत है और न ही पेट में आंत। बेपेंदा लोटा, लुढ़ककर कभी इधर कभी उधर, समाज में कोई पहचान नहीं। जिसकी अपनी ही कोई पहचान नहीं वह अपने पुरखे को क्या पहचान दिलाएगा और अगर पहले से कोई पहचान हो भी तो उसे वह बनाए रख पाएगा क्या? अब वह जमाना गया, जब बापदादा के नाम पर थोड़ीबहुत पूछ हो जाती थी।

लाल जी गांव का सबसे पढा-लिखा व्यक्ति था। समाजशास्त्र पर उसकी डिग्री थी। बचपन से वह सरजुग बाबू के विचार और सामाजिक कार्यों का कायल था। पत्रकारिता के साथ-साथ गांव-समाज की सेवा को अपने जीवन-धर्म का हिस्सा समझता था। सरजुग बाबू के निधन पर उसने एक स्थानीय अखबार में जो भावपूर्ण और तथ्यपरक लेख लिखा था उसे लोगों ने बहुत सराहा था। लेकिन उनके जाने के बाद वह अकेला रह गया था।

उधर गांव में नाम को लेकर चल रही उठापटक में शंभुनाथ को न कोई पूछता था और न ही वह इसके बारे में किसी से कुछ कहता था। हां, एक बार इतना जरूर कहा था, ‘नाम और मूर्ति की ही लड़ाई है न? तो मूर्ति रहने दो और उसके नीचे लिखा नाम मिटा दो, और वहां लिख लो सब अपने-अपने बाप-दादा का नाम।’ यह सुनकर गांव  के लोग हँस पड़े  थे, ‘पोता तो दादा से भी आगे निकल गया। शांति और सबको खुश करने का नया रास्ता!’

मगर गांव  में अब शांति कैसे रहेगी? सबकी खुशी कौन देखेगा?

सुंदर शर्मा ने जब से गांव पकड़ा है, पार्टी-बंदी बढ़ गई है। कुछ दिन तक उसने स्थानीय लाल सेना का लाल झंडा ढोया था। कहते हैं, एक दिन उसने बाप को लाल प्रणाम या लाल सलाम कहा था तो अनपढ़ बाप को भी इसमें कुछ अपच लगा था, ‘लाल झंडा तो ठीक है बेटा, प्रणाम-सलाम भी लाल?’

सुंदर को पता था उसके पिता जी सरजुग बाबू का पक्का चेला हैं, उनका चढ़ा रंग चोखा है तो कोई और रंग चढ़ेगा कैसे? भले ही वह लाल हो या…।

लाल सेना के एरिया कमांडर से वर्चस्व को लेकर अनबन हो गई तो एक दिन रातोंरात सुंदर सेना छोड़कर भाग गया। उसे मालूम था कि ऐसे भगोड़े और द्रोही लोगों को सेना के खूंखार लड़ाके पाताल से भी ढूंढ़ निकालते हैं और छह इंच छोटा कर देते हैं। सो वह पूरे पांच साल तक इलाके में कहीं दिखा ही नहीं। कहां लापता हो गया, किसी को नहीं मालूम। शायद पाताल से परे!

इलाके से सेना के समूल सफाए के बाद एक दिन अपने गांव में वह एकाएक प्रकट हुआ तो उसके घर पर लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी थी उसे देखने। किसी बुजुर्ग ने कहा था, ‘इतनी भीड़ तो सरजुग बाबू जैसे जुगपुरुष के अंतिम दर्शन के लिए भी नहीं जुटी थी।’

आजकल सुंदर एक पार्टी में घूमने लगा है। वह पार्टी कोई और नहीं बल्कि सत्ताधारी गठबंधन का ही एक घटक दल है। गांव में अब उसकी खूब चलती है, खासकर युवावर्ग में उसके प्रति बहुत आकर्षण है। वे कहते भी हैं, ‘लाल सेना की दुनिया से वापस आना और वह भी बाल-बाल बचकर, कोई साधारण अंतड़ीवाले के वश की बात नहीं है। फिर पांच साल तक घर-परिवार से दूर, इतना लंबा अज्ञातवास आजकल कौन झेलता है? सुंदर भैया सचमुच हीरो है हीरो।’

अगले साल चुनाव है। सुंदर अगला चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचने का सपना देख रहा था। इसके लिए क्षेत्र में जातीय गोलबंदी तो अनिवार्य शर्त है, साथ ही आम जनता की सहानुभूति भी कम जरूरी नहीं है। इसलिए वह कहा भी करता, ‘जान पर खतरा अभी भी है, लाल सेना इस इलाके में खतम हुई है और बाकी दूसरे क्षेत्र में तो अभी भी है, सो कौन ठिकाना, कब कौन कहां…!’ लोगों में उसके प्रति सहानुभूति बढ़ भी रही थी।

गांव  में नामकरण के मुद्दे को सुंदर ने हवा दी थी। तभी लोग सरजुग बाबू जैसे सर्वमान्य पुरुष के नाम में भी जाति देख रहे हैं। उनके व्यक्तित्व पर भी ऊंगली उठाई जा रही है। लाल जी को ये ऊंगलियां सुइयों की तरह चुभ रही हैं।

आए दिन सुंदर कहा करता, ‘सबको साथ लेकर चलने की सरजुग बाबू की सोच और उनकी आदर्शप्रियता ने गांव की नई पीढ़ी को किसी काम के काबिल नहीं छोड़ा। पंचायत के दूसरे गांव में लोग कहां से कहां पहुंच गए। लोग पैसेवाले हो गए, जाकर देखो, सबके घर के सामने कोई न कोई छोटी-बड़ी गाड़ी खड़ी मिलेगी, और यहां? मोटरसाइकिल पर भी आफत है! मुखिया, सरपंच, सब दूसरे गांव से बनते हैं, अपने गांव में कोई युवा नेता नहीं। सरकारी योजना और ठेकेदारी का काम इस गांव के लोगों को कहां से मिलेगा? सिर्फ स्कूल, अस्पताल या सड़क से पेट भरेगा? जितना मान-आदर और महत्व था, वह चाहते तो एक चुटकी में मुखिया, सरपंच और प्रमुख बना सकते थे इस माटी से, लेकिन खुद गांधी बनने के चक्कर में रह गए। अरे, बेटे-पोते को नहीं बना पाए तो गांव को कहां से बना पाते? इसलिए तो गांव भी सड़क पर खड़ा है और खुद सरजुग बाबू चौराहे की छाती पर खड़े होकर धूल फांक रहे हैं। अरे भाई, सत्ता से इतना दूर रहोगे, तो शक्ति आएगी कहां से? और शक्ति नहीं तो पैसा कहां से आएगा?’

लाल जी जान रहा था, सुंदर शर्मा गांव में जहर क्यों घोल रहा है? लेकिन कोई उसके साथ नहीं था। फिर भी अकेले ही वह लोगों को समझाता था, ‘खाने-कमाने से किसने किसको रोका? सरजुग बाबू सिर्फ इतना कहते थे कि गलत मत करो, न ही गलत का साथ दो, अपने अधिकार मत छोड़ो, न दूसरे का हक मारो, सरकार पर भरोसा भी रखो और जरूरत पड़े तो सरकार से लड़ो भी। डरो मत, सच पर अडिग रहो तो एक दिन सामनेवाला भी सच को जरूर स्वीकारेगा। सबको साथ लेकर ही आगे बढ़ सकते हैं। हमारे पुरखों ने बहुत सोच-समझकर लोकशाही का रास्ता अपनाया था। लोकशाही मतलब सबको अवसर, सबको अधिकार, कोई खास नहीं कोई आम नहीं। अब बताइए, इसमें नई पीढ़ी को निकम्मा बनानेवाली बात कहां है? उन्होंने हमें पुलिस-थाना,  ब्लॉक और जिला के सरकारी अफसर-कर्मचारी की दलाली करने से रोका था, नहीं तो इस गांव में भी ऐसे लोग कीड़े-मकोड़े की तरह फर गए होते और हमारी जड़ को पहले ही काट खाते। अब जो करना है करो। सरजुग बाबू थोड़े देखेंगे, वे तो ऐसे भी गांव से बाहर ही हैं।’

लेकिन लाल जी की सुनता कौन है? सब  सुंदर के पीछे पगला गए हैं।

आज सरजुग बाबू होते तो गांव में इतनी पार्टीबंदी होती क्या? उनके निधन पर लाल जी ने कहा थाफूल तो पहले से अलगअलग थे ही, बस माला के धागे के टूटने की देरी थी। वह धागा भी अब टूट ही गया। अब देखना फूल कैसे बिखरते हैं। सबकी अपनीअपनी पार्टी होगी और अपनाअपना झंडा। पब्लिक के लिए सरकार से लड़नेवाला तो गया। अब देखना, कमाने वाला आएगा। भांड़ में जाए आम जनता, लड़ने वाला तो गया।

लाल जी सही कह रहे थे, ‘लड़ने वाला गया। अब तो जो है सब लड़ानेवाला है। सो लड़ाई जारी है, नाम की, पार्टी की, जात की…!’

लाल जी एक सप्ताह के लिए बाहर गए थे। उनके किसी करीबी ने फोन पर बताया कि गांव  में माहौल गर्म है। शर्मा-टोली के लोग बोल रहे थे, ‘सरजुग बाबू की मूर्ति कभी भी…।’

लाल जी ने शंभुनाथ को फोन किया, ‘अरे, गांव में रहकर भी तुम कौन-सी दुनिया में रहते हो? तुम्हारे दादा जी की मूर्ति पर…।’

हलांकि शंभुनाथ को कल इसकी थोड़ी-सी भनक लगी थी। फिर भी उसे यकीन नहीं हो रहा था कि शर्मा टोलीवाले ऐसा करेंगे, क्योंकि उनके दादा ने गांव के लिए क्या किया है, सुंदर के बाप को भी मालूम है। पूरा इलाका जानता है। ऐसा अनर्थ करने की हिम्मत सुंदर नहीं करेगा… लेकिन लालजी अगर कह रहे हैं तो झूठ नहीं  हो सकता।

इसलिए आज सुबह-सुबह वह पुलिस थाना जा पहुंचा।

शंभुनाथ भावुक होकर बोला, ‘सर, पक्की खबर है, यह सुंदर शर्मा उसे तुड़वा कर ही रहेगा। गांव में उसने मूर्ति के खिलाफ खूब हवा बनाई है। मूर्ति की जान को खतरा है सर।’

शंभुनाथ की शिकायत पर दारोगा जी मुस्कुराए।

‘सुंदर शर्मा का जात कितना है संख्या में?’

‘सर, बारह आना तो वही लोग हैं। पहले ऐसा नहीं था। जब से सुंदर शर्मा ने गांव पकड़ा है, खाली जहर उगल रहा है। कहता है, चौक पर अपने बाप की मूर्ति लगाएगा। किसी ने यहां तक बताया कि मूर्ति बनाने का आर्डर भी दे दिया है।’

चौकीदार ने हँसते हुए कहा, ‘हजूर उसका बाप तो किलास का ‘चसचारा’ और ‘घरढुक्का’ था। चसचारा मतलब फसल चुराने वाला और घरढुक्का मतलब रात को दूसरे की औरत…! गांव परेशान रहता था। पड़ोस में कंकला गांव के लोगों ने एक बार उसे फसल चुराते ही रात को पकड़ा था तो सुबह सरजुग बाबू के ही कहने पर उनलोगों ने चेतावनी देकर उसे छोड़ दिया था, नहीं तो वे लोग जान से…। बाद में सरजुग बाबू के संगत में आकर वह सुधर गया था, लेकिन हजूर वह तो अभी जिंदा है!’

‘क्या रे शंभुनाथ, सुबह-सुबह पुलिस को ही उल्लू बनाने आया है? जिंदा का कहीं मूर्ति लगाते हैं? फुटो यहां से।’ दारोगा जी तमतमाए।

‘सर, पूरी बात तो सुनिए। उसका बाप अभी जिंदा है, लेकिन कब टपक जाए, मालूम नहीं। डाक्टर ने जवाब दे दिया है। इस बार के जाड़े में तो…।’

‘क्या बकवास कर रहे हो शंभुनाथ, तुमको अपने दादा की मूर्ति की फिकर है या सुंदर शर्मा के बाप की मूर्ति की? शिकायत लिखवानी है, लिखवा लो। मगर उलूल-जुलूल मत बोलो। सुबह-सुबह आ गए टाइम और मूड खराब करने, बिना कुछ बूझे-समझे।’

… लेकिन शंभुनाथ बकवास नहीं करता। सुंदर के पिता जी सचमुच पिछला वसंत नहीं देख पाए।

दो साल बाद।

‘सुंदर शर्मा जिंदाबाद’ ‘…पार्टी जिंदाबाद’ के नारों से इलाके का आसमान गूंज रहा था। रुपौली विधानसभा की जनता ने उसे आखिर जिता ही दिया।

आसमान से शाम का अंधेरा उतरकर जमीन पर फैल रहा था।

बहुत बड़ा विजय-जुलूस सरजुग बाबू चौक की तरफ बढ़ा जा रहा था। चारों तरफ पुलिस तैनात थी। जयजयकार करते हुए लोग तेजी से सरजुग बाबू की मूर्ति की ओर बढ़े जा रहे थे। आगे-आगे विधायक जी खुली जीप पर खड़े, हाथ जोड़े, फूल-मालाओं से लदे, पुष्प-वर्षा के बीच शनैः शनैः बढ़ रहे थे। रोशनी और जश्न में डूबी भीड़ पीछे-पीछे।

आधी भीड़ चौक से आगे जा चुकी थी। तभी पीछे नारेबाजी के बीच भगदड़ मची। शायद पीछे समर्थकों से खचाखच भरे एक ट्रक ने किसी को ठोकर मार दी थी… ‘किसी’ को नहीं बल्कि सरजुग बाबू को… उनकी मूर्ति अर्राकर गिर पड़ी, लोगों ने फिर जीत के नारे लगाए… पैरों तले मूर्ति के हाथ-पैर… खड़ी नाक… बड़े-बड़े कान… रौंदते हुए भीड़ आगे सरक रही थी। उमड़ती भीड़ और चढ़ते शोर में कुछ मालूम भी नहीं पड़ रहा था।

मूर्ति ही तो थी, क्या नई, क्या पुरानी?

लेकिन लाल जी के लिए वह सिर्फ मूर्ति नहीं थी। वह सरजुग बाबू ही थे ज़िंदा, अभी भी उसमें वही खून दौड़ रहा था, बस धड़कनें बैठ गई थीं। आंखें अभी भी देख रही थीं एकटक, बस पुतलियां स्थिर हो गई थीं। सांस नहीं चल रही तो क्या हुआ? सरजुग बाबू की जिंदगी क्या कभी सांस की मोहताज बनकर रहेगी?

लाल जी भीड़ के पीछे खड़ा था, चुपचाप देख रहा था, जैसे ‘एक पुरुष भींगे नयनों से’…! धूल-धूसरित पीली क्षीण रोशनी में ऊपर तैरते असंख्य धूलकण… नीचे टूटे-फूटे इधर-उधर  सरजुग बाबू के अंग-प्रत्यंग!

टुकड़ों से कोई आभा निकलकर चारों तरफ फैल रही थी।

लाल जी को डबडबाई आंखों से सब साफ-साफ दिख रहा था। उसके मुंह से अनायास निकल पड़ा- विध्वंस! अरे! यह सिर, सरजुग बाबू का सिर!

भावावेग में उसने वह क्षत-विक्षत सिर जैसे ही उठाया, उसे लगा- …ऊंची-खड़ी नाक से लाल? यह क्या? खून? …शंभुनाथ! दौड़के आओ …सरजुग बाबू का खून…

वह पागल की तरह चिल्लाया, ‘दौड़ो, आओ, गांव वालो! शंभुनाथ! किधर है? आओ, देखो, सरजुग बाबू सचमुच जिंदा हैं, गांव ..वा..लो,.. शंभु..ना..थ…!

लाल जी टुकड़े चुनते हुए चिल्ला भी रहा था। उधर शंभुनाथ विजय-जुलूस की भीड़ में खो गया था।

फ्लैट नंबर – 303, तीसरी मंजिल, न्याति इथोस सोसाइटी, यूकॉन बिल्डिंग, कॉरिन्थिन क्लब के पास, उंड्री मार्ग, मुहम्मदवाड़ी, पुणे, महाराष्ट्र– 411060 मो.8806668710