वरिष्ठ रचनाकार।अब तक दस कहानी संग्रह, तीन उपन्यास और एक संपादित पुस्तक।नवीनतम कहानी संग्रह–‘एक नदी थी यहां’।एसोसिएट प्रोफेसर पद से सेवानिवृत्त।
रात को ठीक से नींद नहीं आ पाती। कितनी ही बार नींद खुलती है। नींद खुलती है तो शरीर का पोर-पोर दुखता हुआ महसूस होता है। डॉक्टर ने नींद की गोली और दर्द की दवाई भी लिखी है। पर कितनी बार लेंगे ये फिजूल की दवाइयां? नींद की गोलियां तो नहीं ही लेना चाहते। अलबत्ता दर्द का जब बहुत तीव्र अनुभव होता है तो एकाध बार दवा ले लेते हैं।
इस समय भी नींद खुली है तो उठकर बैठ गए हैं। लेटे-लेटे दर्द ज्यादा अनुभव हो रहा था, सो बैठ जाना ही ठीक लगा। बैठकर थोड़ा आराम लग रहा है। पेशाब जाने की इच्छा जगने लगती है। डॉक्टर की हिदायत है, अकेले उठकर कहीं नहीं जाना है। किसी को साथ लेकर ही चलें। ठीक बगल में पत्नी सोई है, एकदम शांत और शायद गहरी निद्रा में। उसे जगाने का मन नहीं हुआ। वैसे भी घुटने के ऑपरेशन के चलते रात को ठीक से सो नहीं पाती। बीच-बीच में जगकर उन्हें देखती रहती है। तनिक उधेड़बुन में रहने के बाद सोचा, टॉयलेट है ही कितनी दूर। कमरे से लगा हुआ ही तो है। पास में ही वॉकर है।
वॉकर के सहारे धीरे-धीरे उठ खड़े होते हैं। कुछ पल कांपते से जस के तस खड़े रहते हैं। कमरे के हल्के उजास में वॉकर टेकते हुए टॉयलेट की ओर बढ़ने लगे। लगा, जल्दी नहीं करेंगे तो कपड़े गीले हो सकते हैं। पिछले कुछ समय से अकसर ही ऐसा होने लगा है। तेजी से पांव बढ़ाने की कोशिश की तो पांव एकदम से लड़खड़ा गए। तत्काल एक हाथ से दीवार का सहारा लिया। पत्नी को शायद कुछ आहट-सी महसूस हुई थी कि एकदम से आंखें खुलीं। चौंककर उनकी ओर देखा। घबराई-सी उठ खड़ी हुई। तुरंत पकड़कर सहारे से टॉयलेट ले गई। पायजामा नीचे कर सीट पर बिठाया, खुद दरवाजे की आड़ लेकर खड़ी हो गई।
कुछ क्षण सजग-सी खड़ी रही, फिर पूछा, ‘निपट लिए?’ हामी पाकर पलटीं, सहारे से खड़ा किया। पायजामे का नाड़ा बांधने लगी तो लगा, पायजामा गीला हो चुका है। कमरे में लाकर कुरसी पर बिठाते हुए बोली, किंचित नाराजगी से, ‘तुमसे कहा है न, अकेले मत उठना। डॉक्टर ने भी सचेत किया है। लेकिन तुम हो कि…।’ पत्नी झुंझलाई। ‘मुझे आवाज देते। मेरी थोड़ी आंख क्या लग गई कि बस…’ पत्नी को अपने पर भी कोफ्त हुई।
वे खुद ही पलंग पर उठकर बैठ थे, वॉकर के सहारे खड़े भी हो गए थे, टॉयलेट की ओर घिसटना शुरू किया था, पर उसकी नींद खुली कैसे नहीं? अगर कहीं लड़खड़ाकर गिर पड़ते तो… पत्नी का दिमाग भन्नाया। कुछ भी हो सकता था। किससे मदद के लिए कहती भला? बेटा-बहू अपने कमरे में गहरी नींद सोए होंगे। उनसे कुछ कहना…ना,पत्नी का साहस नहीं होता। तुरंत उसने उन्हें कुरसी पर बिठाकर ट्यूब लाइट जलाई। गीला पायजामा उतारकर, दूसरी धुली पायजामा पहनने में मदद की। गीले पायजामे को बाथरूम में रखने के लिए उठाने लगी तो उन्होंने उसका हाथ पकड़ लिया। वह उनका मंतव्य समझ गई, बोली, ‘चिंता मत करो। मैं सुबह बाथरूम में नहाते हुए धो लूंगी। उनके कपड़ों के साथ मशीन में नहीं डालूंगी।’ पिछली बार उनका पेशाब से गीला पायजामा भी मशीन में डाल दिया था तो बहू ने सुदीप्त के आगे नाराजगी जताई थी। सुदीप्त कुछ बोला नहीं, पर उसके चेहरे पर नाराजगी साफ दिखाई दी थी।
पायजामा बदल चुका तो उन्हें कुरसी से पलंग पर ले आई। बोली, ‘तुम भी कमाल करते हो। मुझे जगाना चाहिए था। अब से मुझे रात भर जगकर तुम्हारा पहरा करना होगा।’ उनके चेहरे पर खिसियाहट व्याप गई। बोले, ‘तुम अकसर जगी ही तो रहती हो। इस समय देखा, तुम्हें अच्छी-सी नींद आ रही है। सोचा, सोए रहने दो, कर लूंगा मैं किसी तरह। पर…’ वे रुक गए पल भर, पत्नी का हाथ थाम थपथपाने लगे। भर्राए गले से बोले, ‘तुम्हें देख आजकल मां बहुत याद आने लगी है। मां ऐसी ही फिक्र करती थी मेरी।’
उन्हें बचपन की वह घटना याद आने लगी थी, जब फुटबॉल खेलते हुए वे फिसल गए थे। महीने भर तक बिस्तर पर ही पड़े रहे थे। बिस्तर ही उनका संसार बना रहा था। मां ही तब गू-मूत सब साफ करती थी। उनकी आंखें भरने लगीं अनायास।
पत्नी ने झिंझोड़ा, ‘आजकल यह सब क्या होने लगा है तुम्हें। बात-बात पर आंखें भर लाते हो। ऐसे तो नहीं थे तुम।’ उन्होंने सुना, लेकिन कुछ उत्तर नहीं दिया। ऐसे सुना जैसे दूर से आती एक निरर्थक-सी ध्वनि सुन रहे हों। बोले, ‘जब आदमी बूढ़ा होने लगता है, और असमर्थ भी, तब कदाचित ऐसा ही होता है।’ पत्नी की हथेली को वे थपथपाने लगे। पत्नी मुस्कराई, बोली,‘अभी बूढ़े कहां हुए हो तुम। अच्छे खासे जवान हो। बस इस ऑपरेशन के बाद की सावधानियों से निपट जाओगे, तो सब ठीक हो जाएगा। पहले की तरह भागने-दौड़ने लगोगे।’
उन्होंने भी मुस्कराने की कोशिश की। बोले, ‘दिलासा देने में माहिर हो गई हो तुम। पर इस गीलेपन के लिए क्या करूं?’ वे असहायता के बोध से भर गए। कमजोर पड़ने लगे। पत्नी तनिक संजीदा हुई। बोली, ‘उम्र बढ़ने के साथ ऐसा होता है। रोकने की क्षमता कम हो जाती है। मुझे भी ऐसा होने लगा है। जरा-सी देर हुई नहीं कि… पर तुम्हें ज्यादा हो रहा है। एक काम करती हूँ, कल तुम्हारे लिए डाइपर मंगा देती हूँ।’
‘हां, कुछ समय डाइपर का इस्तेमाल करना ठीक रहेगा। जब ठीक से चलने-फिरने लगूंगा तो फिर शायद जरूरत न पड़े। लेकिन पंकज या बहू से मत कहना।’
‘निश्चिंत रहो तुम…’ पत्नी किंचित गंभीर हुई। ‘जब दोनों ऑफिस चले जाएंगे तो नीचे गार्ड को फोन कर मंगवा लूंगी।’
वे कुछ सोचते से चुप रहे। फिर जैसे अचानक ही कुछ याद आया। बोले, ‘रहने दो डाइपर… महंगा आता है शायद। पैसों की वैसे ही…’
‘अब तुम रहने दो। मैं अपने साथ पर्याप्त पैसा लेकर चली हूँ। ऑपरेशन का मुख्य खर्चा तो निकल गया। बाकी सब भी हो जाएगा।’
उन्होंने एक लंबी सांस खीचीं। कुछ और कहना चाहते थे कि पत्नी बोली, ‘अब इस वक्त सो जाओ। आराम करो। कल बात करेंगे।’ पत्नी ने सहारे से उन्हें लिटा दिया। बोली, ‘अब कुछ आंय-बांय मत सोचना। कोशिश करो कि नींद आ जाए।’
पत्नी की बात मानकर वे चुप जरूर हो गए। पर भीतर का हल्ला–बोल शुरू हो गया था। वे एक राष्ट्रीय अखबार में काम करते थे। जीवन भर उसी अखबार से जुड़े रहे। रिटायर हुए तो अचानक ही लगा, आर्थिक तंगी की शुरुआत हो गई है। अखबार से थोड़ा–बहुत जो पैसा मिला, वह कस्बे के अपने पैतृक मकान को ठीक कराने में खर्च हो गया।
गनीमत थी कि पत्नी सरकारी स्कूल में इंटरमीडिएट की अध्यापिका थी। उनके रिटायर होने के चार साल बाद वह भी रिटायर हो गई। रिटायर हुई तो उसे मिले सारे पैसे भविष्य की आकस्मिकता के लिए बैंक में रख दिए। बाकी रोजमर्रा के खर्च के लिए पत्नी की पेंशन थी। वे खुद भी अखबारों के लिए कुछ न कुछ लिखा करते। थोड़े बहुत पैसे वहां से भी मिल जाते।
दिन ठीक-ठाक गुजर रहे थे। हालांकि उम्र बढ़ने के साथ-साथ डॉक्टर और दवा का खर्च बढ़ने लगा था। सो अपनी बहुत-सी आदतें उन्हें बदलनी पड़ी थीं। अखबार में काम करते हुए चाय की लत पड़ चुकी थी। सिगरेट भी बहुत फूंकते थे। देर रात तक, जब तक आखिरी पृष्ठ मशीन पर न चला जाए बैठना मजबूरी थी। तब चाय और सिगरेट ही सहारा हुआ करती। लेकिन धीरे-धीरे सिगरेट की आदत कम करते-करते अब लगभग दो सिगरेट में आ गए थे। चाय भी दिन भर में कुल जमा तीन हो गई हैं। और भी तमाम दूसरे खर्चों को जरूरत की तुला पर तौलकर ही आगे बढ़ते हैं। पहले रात को भोजन से पूर्व एकाध पैग लेने की आदत रही है। अब टाल देते हैं।
पिछले कुछ अरसे से दोनों घुटनों ने जवाब देना शुरू कर दिया था। जिसने जो बताया उसी तरह से घुटनों की सेवा करते रहे। डॉक्टरों को भी दिखाया, दवाइयां लीं। एलोपैथी के अलावा आयुर्वेद व होम्योपैथी का भी सहारा लिया। पर घुटने एकदम जिद्दी हो गए थे। उनपर किसी मान-मनौवल का असर नहीं हो रहा था।
बाहर से आए एक विशेषज्ञ डॉक्टर ने बताया था, जल्दी से जल्दी घुटनों का ऑपरेशन करवा लें, वर्ना व्हील चेयर पर आना पड़ेगा। खर्चे के बारे में पता किया तो मन ने सहमति नहीं दी। ऊपर से कुछ ऐसे लोग भी मिले जिन्होंने ऑपरेशन की सफलता पर संदेह व्यक्त किया। अधिकांश का यही मानना था… बेकार है, ऑपरेशन कराना। बहुत कम सक्सेस होता है। उनका विचलन बढ़ता गया।
लेकिन पत्नी नहीं मानी। बोली, ‘अच्छे से अच्छे अस्पताल में जाकर कराएंगे। बाकी पैसों की वजह से संकोच मत करो। बैंक में है न पैसा मेरे फंड का। जितनी जरूरत है उतना निकाल लेंगे। बाकी एक बार पंकज से पूछ लेती हूँ। वह दिल्ली में है तो वहां अच्छे डॉक्टर तो बहुतेरे हुए।..’
उन्होंने तत्काल मना किया। बोले, ‘उसे बताने की जरूरत नहीं है। जो करेंगे हम खुद ही करेंगे।’ पंकज उनका बड़ा बेटा था। छोटा डेनमार्क चला गया। वहां विश्वविद्यालय में अंग्रेजी पढ़ाता है। वहीं शादी कर ली। शादी के बाद पंद्रह दिन के लिए भारत आया था। घर पर सिर्फ दो दिन रहकर, पत्नी को भारत घुमाने चल दिया। फिर दिल्ली में भाई से मिलते हुए वहीं से वापस डेनमार्क। उन्हें अकसर ताज्जुब होता है आज की संततियों पर। उनका होना, न होना एक सा क्यों हो गया है। अपने माता-पिता के लिए जैसे उनका कोई दायित्व ही न हो। कोई मतलब ही नहीं। कोई पूछता भी नहीं।
पंकज हालांकि भारत में ही है। दिल्ली में नौकरी करता है पर वह भी उनके लिए जैसे विदेश में हो। दिल्ली में रहते हुए उसने भी अपने मन की शादी कर ली है। लड़की पूर्वोत्तर में अरुणाचल की है। पता नहीं ईसाई है या आदिवासी परिवार की। उन्होंने जानना भी नहीं चाहा। दोनों मल्टीनेशनल बैंक में एक साथ काम करते हैं। बीच में सुना था, दिल्ली के किसी पॉश इलाके में अपना अपार्टमेंट खरीद लिया है।
पत्नी ने समझाया, ‘पूछने में क्या हर्ज है। बेटा ही है अपना। बाकी हमारी जैसी मरजी होगी, वैसा करेंगे…।’
वे कुछ नहीं बोले थे। एकदम चुप्पी साध ली।
पंकज से बात की तो उसने कोई उत्साह नहीं दिखाया था। टालता हुआ-सा बोला, ‘घुटनों का ऑपरेशन कोई मेजर ऑपरेशन नहीं है। वहीं कहीं देख लो।’ पत्नी सकपकाई-सी चुप रह गई। कुछ नहीं बोल पाई। फोन काट लिया था। वे पूछने लगे, ‘क्या कह रहा है? फोन तुमने जल्दी काट लिया, क्यों?’ झटका तो उन्हें जोर का लगा था, पर वे उनके सामने असहज नहीं दिखना चाहती थी। बोलीं, ‘कह रहा था, थोड़ी देर में बताता हूँ। अभी शायद कोई मेहमान आया हुआ है घर पर…।’ वे एकदम से उठीं और बाथरूम की ओर भागीं। तभी पीछे से मोबाइल की घंटी बजी थी। वे जोर से बोले थे, ‘देख, तेरे लाड़ले का फोन आ रहा है।’ उनके भीतर उत्साह की एक हल्की-सी लहर दौड़ी। फोन कान में लगा लिया। बेटा कह रहा था, ‘मैं एकाध दिन में पता करता हूँ। तब बताऊंगा…।’ कदाचित तुरंत फोन काट देना उसे ठीक नहीं लगा था, सो उसने तुरंत भूल सुधारी।
वे इंतजार करने लगीं, पर जब सप्ताह बीत जाने के बाद भी कोई जवाब नहीं मिला, वे निराश होने लगीं। निराशा उनके चेहरे पर साफ दिखने लगी थी। उस दिन शाम की चाय पी रहे थे तो पत्नी का खिन्न स्वर सुनाई पड़ा, ‘आदमी को पूरी जिंदगी अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी पड़ती है, एकदम अकेले।’ उन्होंने सुना तो वे मुस्कराए। बोले, ‘तुम बहुत साहसी हो। अभी तो पता नहीं कितनी लड़ाइयां हैं जो शेष हैं। अभी हम दो हैं, जब हमसे एक अकेला रह जाएगा, तब की सोचता हूँ तो…’ एकदम ही उन्होंने स्वर बदला, भंगिमा बदली, बोले, ‘यहीं करा लेते हैं ऑपरेशन।’ उन्होंने उदास होते उस शाम को और उदास होने से बचाना चाहा था।
‘पर यहां कहां सुविधा है? इस पहाड़ी कस्बे में इलाज की सामान्य सुविधा भी नहीं हुई।’ पत्नी ने प्रश्न खड़ा किया था। उन्हें लगा, पत्नी सच ही कह रही है। यहां कहां सुविधा?
कुछ देर चुप्पी खिंच आई थी। सन्नाटा। फिर पत्नी ही बोली थी, ‘हल्द्वानी चले चलते हैं। वहां तमाम अच्छे अस्पताल हैं। वहां हो ही सकता है।’
पत्नी की बात पर वे हँस दिए थे। बोले, ‘वहां कौन है हमारा? किसके पास जाकर रुकेंगे? यह भी तो सोचो?’ पत्नी को लगा, सवाल वाजिब है। कुछ देर सोच में डूबी रही। फिर बोली, ‘निर्मला है। उसी के पास जाकर रुकेंगे।’ उसने पति की ओर देखा। वे फिर हँस दिए थे। बोले, ‘तुम्हारी मौसेरी बहन है वह, सगी भी नहीं। कोई ऐसा आना-जाना भी नहीं है। फिर एक दिन के लिए जाना हो तो बेशर्म होकर चले भी जाओ। बाकी इस काम के लिए…’ वे कुछ पल के लिए ठहर गए। फिर बोले, ‘होने को वहां हरिशंकर भी है, चचेरा भाई। पर इस जमाने में जब अपना सगा भाई ही अपना नहीं होता तो…’ उन्होंने चुप्पी ओढ़ ली। दोनों उदास हो गए। वह उदासी पूरे कमरे में व्याप गई।
तभी पत्नी के मन में आया कि क्यों न महीने भर के लिए हल्द्वानी में एक कमरा किराए पर ले लें। निर्मला से कहेगी तो शायद कहीं पास में ही ढ़ूंढ़ दे। पर… विचार एकाएक ठिठक कर उन्हें घूरने लगा। सवाल था, वह वहां जाकर कैसे क्या कर पाएगी? कौन है जो उसकी सहायता करेगा? किससे उम्मीद कर सकती है वह? मरीज अस्पताल में भर्ती हो, ऑपरेशन होना हो तो तमाम तरह की दौड़–धूप हो जाती है। साथ में कोई एक भी हो तो हाथ बंट जाता है।
पत्नी ने एक बार फिर बेटे को ही फोन लगाना ठीक समझा। एकदम खामोशी से, कुछ इस तरह कि पति को आभास न हो। फोन मिलाया तो बेटे की तत्काल समझ में नहीं आया कि क्या जवाब दे। हल्की खीज के साथ बोला था, ‘देखो, मैं बहुत व्यस्त रहता हूँ। तनिक भी फुरसत नहीं मिलती। फिर भी आना चाहो तो इतवार को चले आओ, फिर देखता हूँ।’ स्वर में न कोई आत्मीयता थी, और न ही आदर। झल्लाहट जरूर थी, पर उन्होंने उसे दिल से नहीं लगाया। आखिर मतलब अपना था।
दिल्ली पहुंचे तो ऐसा नहीं लगा कि उनका खास स्वागत हुआ हो। अलबत्ता अपार्टमेंट खासा बड़ा था, सो रहने के लिए एक अलग कमरा मिल गया था। बेटा और बहू सुबह नौ बजे ही घर से निकल जाते। दोनों के काम की अलग दिशाएं थीं और अपनी-अपनी अलग गाड़ी भी। कामवाली सुबह जल्दी आती थी सो उन्हें भी सुबह की चाय मिल जाती। पत्नी का साहस नहीं होता था कि बहू की रसोई में प्रवेश कर सके। वह बहुत आलीशान रसोई थी। उसमें प्रवेश करने पर कुछ भी समझ में नहीं आता था। कामवाली जाने से पहले उन दोनों के लिए भी नाश्ता और खाना बना जाया करती। पत्नी के लिए यह बड़ी राहत की बात थी।
‘शाम को आप कितने बजे खाते हो?’ पहले दिन ही खाना परोसते हुए कामवाली ने पत्नी से पूछा था। खाना वह उनके लिए कमरे में ही ले आई थी। पत्नी बोली, ‘वे दोनों कितने बजे खाते हैं?’
‘उनकी मत पूछिए।’ कामवाली हँसी थी। ‘वे दोनों देर से लौटते हैं। ज्यादातर बाहर से ही खाकर आते हैं, कभी जल्दी लौट भी आए तो होटल से मंगा लेते हैं। शाम का खाना घर पर नहीं बनता, बल्कि ब्रेकफास्ट छोड़कर घर पर कुछ नहीं बनता।’ कामवाली दोबारा हँसी थी।
पति-पत्नी दोनों को आश्चर्य हुआ था। उन्होंने एक-दूसरे के चेहरे की ओर देखा। उस देखने में ही बहुत-कुछ कहा-सुना जा चुका था। वे बोले, ‘रात में हम भी कुछ नहीं खाते। बस सोते समय थोड़ा दूध मिल जाए, वही बहुत है।’ पति का थका हुआ स्वर था।
‘रात को मैं नहीं होती।’ कामवाली ने सूचना देने के स्वर में कहा था। ‘आपको मेमसाब को बोलना पड़ेगा। और हां, साग-सब्जी आप लोग जो भी खाना चाहें मुझे बता दीजिएगा। मैं ले आया करूंगी। पैसे बाद में ले लूंगी।’
सप्ताह यूं ही गुजर गया। घुटने के ऑपरेशन के बारे में कोई चर्चा नहीं हो पा रही थी। बेटे-बहू से सामना कम होता था। सुबह बात करने को कोई मतलब नहीं था। दोनों जाने की हड़बड़ाहट में होते। रात लौटने के बाद अपने बेडरूम में बैठकर पता नहीं क्या-क्या बातें करते। कभी किसी बात पर उलझ रहे होते। सोने से पहले बेटा एक बार आकर गुड नाइट कह जाता। वे उस गुड नाइट में उलझकर रह जाते। बहू उस ओर नहीं झांकती।
उस दिन वे बहुत परेशान हो गए थे। झुंझलाहट आसमान पहुंची थी। बोले, ‘कहा था कि नहीं चलना है यहां। मुझे पता था कि कुछ नहीं होगा। उसको कोई मतलब नहीं है। हम क्या यहां एक कमरे में बंद रहने के लिए आए हैं?’ वे बिफर उठे थे। पत्नी ने समझाना शुरू किया था। ‘क्यों झल्लाते हो? होगा, जरूर होगा। उनकी भी तो परेशानी समझो। कहां फुरसत है उनको? दोनों मियां-बीवी बिलकुल व्यस्त रहते हैं। इतवार के दिन भी मीटिंग में जाना पड़ा। कल मैं बात करके देखती हूँ। …चलो, छड़ी पकड़ो। नीचे सोसाइटी का इतना विशाल पार्क है। हरियाली है, बड़े-बड़े पेड़ हैं, फूलों की क्यारियां हैं, बैठने के लिए बैंच लगी हैं। थोड़ी देर चहलकदमी करते हैं। मन बहलेगा।’
उनका मन नहीं हुआ। फिर भी उठे। लिफ्ट से सीधे नीचे चले आए। शाम का समय था, बाहर आकर अच्छा लगा। सचमुच सोसाइटी का पार्क बहुत विशाल था। जगह-जगह पानी के फव्वारे लगे थे। पूल भी बहुत बड़ा था। कुछ देर हरी घास पर चहलकदमी करते रहे। फूलों को निहारते रहे। जल्दी ही घुटना दुखने लगा तो बैंच पर जाकर बैठ गए। पत्नी भी उनके साथ बैठ गई। पता नहीं क्या सोचकर चेहरे पर अनायास ही मुस्कराहट निकल आई।
पत्नी ने स्नेह से पूछा, ‘क्या बात है? बड़ी मुस्कराहट आ रही है?’ प्रश्न ने मुस्कराहट को और खोल दिया। बोले, ‘अल्मोड़ा में इस समय अपने लॉन पर बैठे चाय या कॉफी सुड़क रहे होते।…’ कहते-कहते चेहरे ने रंग बदला। एक तरह की तकलीफ फैल गई। ‘यहां तो शाम की चाय भी छूट गई।’ वाणी में कंपन था।
पत्नी के चेहरे पर उदासी पुत आई थी। अखबार में थे तो पता नहीं कितनी चाय या कॉफी पिया करते थे। सेवानिवृत्ति के बाद हालांकि अपने को बहुत सीमित कर लिया था, फिर भी सुबह की दो तो शाम की एक चाय चलती थी। यहां की रसोई में उन्हें कुछ समझ में नहीं आता था। हाथ लगाते भी डर लगता। कामवाली भी उन्हें खाना देने के बाद चली जाती थी। चाय की तलब तो उन्हें भी होती थी, पर वह मन मार लेतीं। मन पति ने भी मार लिया था। कुछ नहीं बोलते थे। पर इस समय उदगार प्रकट हो ही गया था।
पत्नी कुछ नहीं बोली। सोचती हुई-सी कुछ पल चुप लगाए बैठी रही। अचानक उठ खड़ी हुई थी। बोली, ‘मैं गार्ड से पूछती हूँ। पास में कोई चाय की दुकान हो तो मै लेकर आती हूँ, तुरंत।’ वे रोकते रहे, पर वह नहीं रुकी।
मुख्य गेट पर तीन-चार गार्ड हर समय दिखाई देते थे। वह उनके करीब जाकर रुकीं। कुछ पूछा, कहा और लौट आईं।
चेहरे पर खुशी का भाव था। बोलीं, ‘पास में ही एक अच्छा-सा रेस्टोरेंट है। वहां कुल्हड़वाली चाय मिलती है। वे बोले, आप कहां जाएंगी, हम लाकर दे देते हैं।’ वह मुस्कराई।
चाय मिली तो मन मुदित हुआ। चाय बनी भी अच्छी थी। गर्म, गाढ़ी और अदरक-इलायची वाली। उनके चेहरे पर आनंदभाव उभर आया था। उस आनंद भाव को देर तक अनुभव करते रहे। अचानक बोले, ‘अपना अतीत आजकल कई बार याद आता है। क्या समय होता था वह।
अल्मोड़ा के उसी घर में बड़ा कुनबा था। दादा–दादी, माता–पिता, ताऊ–ताई और चार बच्चे, दो ताऊ की बेटियां और दो हम भाई। घर में हर समय आनंद तैरता था। साल में एकाधिक बार ननिहाल जाते तो नाना–नानी का प्यार, मौसियों का दुलार, बड़े मामा की प्यारी–सी डांट, कितना कुछ होता था। समय की जो धारा है, उसमें वह सब विसर्जित होना ही था, लेकिन अपनापा कभी विसर्जित नहीं हुआ।
पिता कुछ कहें, ताऊ कोई आदेश करें, हम टाल नहीं सकते थे। तुम्हारे सामने की बात है, जब ताऊ बोले थे, ‘सारे तीरथ तो तुमने करवा दिए, बेटे…एक गंगासागर रह गया है। अब हम दोनों भाइयों की और तेरी मां और ताई की यह इच्छा रह गई थी कि किसी तरह, पर तुमसे कहना अच्छा भी नहीं लगता। तुम्हारी अखबार की नौकरी कितनी व्यस्ततावाली है, यह तो हम देख चुके हैं। यद्यपि वे चुप हो गए थे, पर मुझसे उनकी यह इच्छा टालते नहीं टली। तुमने भी नहीं टलने दी।…’
‘हां, सच में कितनी आनंददायक यात्रा थी वह। आज भी याद करती हूँ तो रोमांचित हो उठती हूँ। उनके बहाने हम लोग भी गंगासागर की यात्रा कर आए।’
‘पता नहीं आज क्या हो गया है? कितना कुछ बदल गया है, बल्कि कहना चाहिए पलट गया है। न नाते-रिश्ते रहे, न प्यार-मुहब्बत रही और न…।’ कहते-कहते वे भावुक हो उठे। ‘कभी-कभी सोचता हूँ, अभी हम दो हैं, पर ऊपर का टिकट दोनों का एक साथ नहीं लगेगा, एक को पहले जाना ही पड़ेगा, फिर…’ उनकी भावुकता और गहारई थी।
पत्नी उस भावुकता के बीच भी मुस्कराई। बोली, ‘सबके रक्षक राम!’
उस दिन रात को बेटे से मिलने का अवसर तलाशती रहीं। उसे अचानक ड्राइंग-रूम की ओर आते देखकर तुरंत उस ओर लपकी। बेटे ने औचक ही मां की ओर देखा। पूछा, ‘कुछ कहना है?’ मां ने गर्दन हिलाई। बोली, ‘बेटा, तुमने किसी डॉक्टर से बात की?’ बेटा जैसे झल्लाते-झल्लाते रुका। अपने को किसी तरह संभालते हुए बोला, ‘मां, मैं बहुत व्यस्त रहता हूँ। देखती तो हो तुम। सुबह निकल जाता हूँ और लौटते-लौटते देर हो जाती है। मुझे जैसे ही फुरसत मिलेगी, मैं देखूंगा। वैसे, पापा दिल्ली में चालीस वर्ष रहे हैं। अखबार में उनके कई परिचत होंगे। किसी की मदद क्यों नहीं लेते…’ यह अंतिम वाक्य उसने तनिक जोर से कहा था, ताकि पिता भी सुन सकें।
वह कमरे में लौट आई। बेटे की बात पति के कानों तक भी आई थी। कुछ देर दोनों के बीच चुप्पी छाई रही। वह गहरी चुप्पी थी। ऐसी चुप्पी उनके बीच कम ही रहती थी। अचानक बोले, ‘जब बेटा ही समय नहीं निकाल सकता तो किसी और से क्या उम्मीद की जा सकती है। फिर भी, जरा मेरा मोबाइल देना। इसमें राधेश्याम का नंबर है। उसने मेरे साथ बहुत काम किया है। एक तरह से मुझसे ही काम सीखा है। बस उसका नंबर ही है मेरे पास। बात करके देखता हूँ।’
राधेश्याम उनकी आवाज सुनकर ही प्रसन्न हो उठा था। कुछ देर इधर-उधर की बातें होती रहीं। अंतत: थकी हुई आवाज में उन्होंने अपनी गरज बताई तो एकदम से बोला था, ‘हो जाएगा, सर। एम्स के आर्थो डिपार्टमेंट में मेरा एक परिचित डॉक्टर है। कल ही उससे बात करता हूँ। हो जाएगा सब, आप एकदम निश्चिंत रहें।’ उसने जिस उत्साह से जवाब दिया था, उनके भीतर उम्मीद ने पंख फैलाए।
दूसरे दिन शाम को ही राधेश्याम का फोन आ गया था। बोला, ‘कल मैं दो बजे आ रहा हूँ। एकदम तैयार रहिएगा। कागज-पत्र भी सब निकालकर रखिएगा। आना कहां है?’
भला हो, राधेश्याम का। उसने सारा प्रबंध कर ऑपरेशन की तारीख पक्की करवा दी। अंतत: एम्स जैसे बड़े अस्पताल में उनके घुटने का सफल ऑपरेशन हो गया था। ऑपरेशन हुए अब कई दिन हो गए हैं। अब आजकल ऑपरेशन के बाद की फिजियोथेरेपी चल रही है। कुछ दिन राधेश्याम ही ले जाने और छोड़ने का काम करता रहा। अंतत: वे एक दिन बोले थे, ‘राधेश्याम, तुमने तो मुझे जीवन भर का ॠणी बना दिया। हम दोनों का रोम-रोम तुम्हें धन्यवाद दे रहा है।’ उसका हाथ थामकर उन्होंने आभार भाव से थपथपाया। आंखों से आंसू छलक आए थे। बोले, ‘अब मैं पहले से काफी ठीक हूँ। हम दोनों अब अकेले भी आ-जा सकते हैं।’
‘नहीं, मुझे कोई दिक्कत नहीं है। बाकी जैसा आपको सही लगता हो।’ राधेश्याम ने विनम्र भाव से उत्तर दिया था। ‘जरूरत पड़े तो फिर बुला लीजिएगा, मुझे अच्छा लगेगा। और हां, जाने से पहले मुझे जरूर बताइएगा। मेरी और पत्नी की बहुत इच्छा है कि आप दोनों एक बार लंच में हमारे घर पधारें।’
उन्होंने गदगद भाव से उसकी हथेलियां थपथपा दीं। बोले, ‘जरूर, जरूर राधेश्याम।’
थोड़ा-बहुत जब छड़ी से चलना शुरू हुआ तो दिल्ली से तुरंत निकल भागने का मन हुआ। यहां इस घर में एक-एक क्षण मानों काटने को आता था। बेटा-बहू इतने निर्लिप्त भी हो सकते हैं, वे कल्पना नहीं कर सकते थे। जब ऑपरेशन हुआ था तो महज एक छुट्टी के दिन कुछ देर के लिए दोनों अस्पताल आए थे। राधेश्याम भी पत्नी के साथ वहां बैठा था। राधेश्याम से किस निर्लज्ज भाव से बेटे ने कहा था, ‘आपका बहुत-बहुत धन्यवाद राधेश्याम जी। हम क्या बताएं, हमें बिलकुल भी समय नहीं मिलता। आप न होते तो बड़ी मुश्किल थी। ए लॉट ऑॅफ थैंक्स।’
राधेश्याम खाली मुस्करा दिया था।
अब लौट चलने की जिद थी। पत्नी समझाती, कुछ और दिन ठहर जाते तो अच्छा था। डॉक्टर का भी यही कहना था। पर अब वे क्षणभर के लिए रुकना नहीं चाहते थे। ‘मैं ठीक हूँ अब। छड़ी के सहारे चल ले रहा हूँ। एकाध हफ्ते फिजीयोथैरेपी और करानी होगी तो हरिशंकर के पास रुक जाएंगे हल्द्वानी। हफ्ता भर हमें झेल ही लेगा वह। उसे फोन कर देता हूँ।’
पत्नी स्वयं भी और नहीं रुकना चाहती थीं। यहां एक-एक दिन कैसे व्यतीत किए हैं उन्होंने, वही जानती हैं। पति को उन्होंने कुछ भी नहीं बताया है। सारी पीड़ा हलाहल की तरह खुद ही पी गई हैं। ऐसी संतति से संतति हो ही नहीं तो क्या बुरा है? कितनी बार यह सोचा है। सोचती रही हैं। रात में एकाधिक बार चुपचाप रोई भी हैं। पर ईश्वर का लाख-लाख धन्यवाद है। उन्होंने राधेश्याम जैसा अपना दूत भेज दिया। नमन है उस राधेश्याम को, नमन है उस प्रभु को।
रात को बेटे को सूचना दी कि वे कल वापस जाएंगे। बेटा लेपटॉप में व्यस्त था। बोला, ‘हां ठीक भी है अब। अल्मोड़ा वापस जाओगे तो अपने ढंग से जीना होगा। यहां तो ऐसा ही हुआ सब। बाकी जाओगे कैसे? ट्रेन या बस?’
‘नहीं। डॉक्टर ने कहा है सुविधाजनक कैब से जाएं। लापरवाही न बरतें अभी। राधेश्याम ने व्यवस्था कर दी है। कल सुबह आठ बजे कैब लेकर आएगा वह। बाकी तुम्हारा धन्यवाद बेटे, तुमने अपने यहां ठहरने की जगह दी।’
बेटे ने औचक ही लैपटॉप से आंखें हटाकर उनकी ओर देखा, ‘हनीऽ…’ उसने जोर से पत्नी को आवाज लगाई जो खुद भी उस उस समय अपने टेबल पर झुकी हुई थी। ‘मम्मी-पापा कल जा रहे हैं…।’
बहू की प्रतिक्रिया सुनने के लिए वह रुकी नहीं। बचा हुआ सामान समेटने के लिए कमरे में वापस आ गईं।
एम-827, बी-4,आशियाना निर्मय,निकट थड़ा ग्राम, अलवर बाइपास रोड,भिवाड़ी (राजस्थान)पिन: 263139 मो.7310999261
शत प्रतिशत यथार्थ लिखा है आपने। यह किसी अकेले का दर्द नहीं। कमोबेश सभी वृद्धों का यही हाल है। फिर भी लोग हुलक-हुलक ख़ुद बच्चे पैदा करते हैं, सारी दुर्दशा देखकर कर बच्चों को ही नहीं टोले मोहल्ले के युवा पीढ़ी को बच्चे पैदा करने की सलाह देते हैं। किस लिए पीढ़ी दर पीढ़ी ये माया जाल चल रहा है?
जापान के लोग और कुछ अन्य विकसित देशों की जनता ये सत्य जान गयी है। वहां बच्चे कम से कम पैदा हो रहे हैं। जनसंख्या वृद्धि ऋणात्मक हो गयी है।
मेरे विचार से कोई युग इस समस्या से अलग नहीं था, बस जब बच्चे एक सामूहिक परिवार पर आर्थिक और सामाजिक रूप से निर्भर थे, बुजुर्गों को घास डालते थे।
हैरानी होती है, mother’s/father’s day पर लिखी रचनाओं पर… पूरा समाज आदर्श, राम, श्रवण की तरह बच्चे, पिता जनक और दशरथ सरीखे।
मैंने अभी mother’s day के लिए कुछ पंक्तियाँ लिखीं। शायद पाठकगण उससे सहमत होंगे –
गीदड़ की मौत आती है तो शहर की ओर भागता है
जब बुढ़ापे में गाली सुननी हो तो इन्सान बच्चे पालता है
बच्चे बुढ़ापे की लाठी नहीं, बुढ़ापे में फांसी हैं
आपके बुढ़ापे में, उन्हें जन्मभर के गिले बताने की याद आती है
इसके बाद लम्बी रचना है, फिर उपसंहार –
बूढ़े मां-बाप , अपनी फजीहत मानेंगे नहीं,
बच्चे अपनी असलियत स्वीकारेंगे नहीं।
हमने जो लिख है उसके लिए
मां-बाप :- बच्चे इसकी बे-कदरी करते होंगे। हमारे बच्चे तो हमें बहुत मानते हैं
बच्चे :- बहुत बेशर्म है, अपनी फजीहत सुना कर क्या उखाड़ लोगे
अक्सर आगत पीढ़ी को कोसा जाता है। माँ-बाप की गलतियां कोई देखना नहीं चाहता। मुझे तो कभी नहीं लगा कि मेरा बाप एक पिता था–! अलबत्ता माँ की यादें आंखों को डबडबा जाती हैं। फिर कैरियर के नाम पर अलगाव की शिक्षा तो माँ-बाप ही मुहैय्या करा रहे हैं। शिक्षा एक सामाजिक समस्या बन कर उभरी है इसमें बदलाव जरूरी है।