कवि, पत्रकार एवं अनुवादक। 11 कविता संग्रह, 2 उपन्यास और अनूदित 70 पुस्कतें प्रकाशित।
उत्पल डेका
असममिया युवा कवि। संप्रति शोध छात्र। तीन कविता संग्रह और एक अनूदित उपन्यास प्रकाशित।
परिक्रमा
बात थामती है
समय की जड़
जिस खिड़की पर सूरज बैठता है
उसकी छुअन से जिंदा होती है
अधपकी बात
कौन किसे मात देता है
समय के विवर्तन में
कौन करता है संग्राम
किसका अधिकार
कौन करता है संधि या छल
सब कुछ है आपेक्षिक
गंवाता है कौन रिश्ता
करता है कौन विनिमय
बोझिल सांस को संभालकर
कौन सजाता है खुद को चित्र की तरह
किसके लिए नग्न रातें
छोड़ देती हैं राह?
किसके लिए यह छाया-रोशनी
कौन किसका रकीब
हमारे उर्वर मन में
किसके लिए है यह तन्हाई
मृत्यु के उस पार दुख नहीं रहता।
रंगहीन शहर
चक्कर काटने वाली बातें थोड़ा सुस्ता रही हैं
घूमती रहती हैं वे
इस कान से उस कान तक
सीमांत के उस पार की चिड़िया
होंठों पर बह आया किस्सा सुनाती है
कोंपल और सूखे पत्ते का
शाम का हाट सांस में कांपता है
शहर की चाहत ने
उसके हाथ-पैर को पंगु बना दिया है
देखने के लिए
शहर की नहीं हैं अपनी आंखें
सुनने के लिए नहीं समय
कहने के लिए नहीं है मुंह
चाहने के लिए नहीं कोई अपना
देखी है जिसने सृजन की प्रसव वेदना
धारण किए हैं जो समय के
कुछ निराश्रित चित्र
लहू-मांस के
जो ठिठका रहता है सब कुछ भूलकर
आलोक की प्रार्थना के लिए
जीवित हैं पंछी, नदी, पेड़
अभी भी है शहर।
संयोग
प्रेम
किसी भी समय
खुद को पाया जा सकता है
पलक झपकते ही
मदिरा संग बातें की जा सकती है
छाया की तरह
घर
पिता का बुझा हुआ चेहरा
बाजार का थैला
मां के सपने
सब लटकते रहते हैं अंधेरे कोने में।
भोजन
क्षुधा की लपटें जलाती हैं
मेरी माटी, मेरे खेत
मेरा देश।
मृत्यु
किसी एक बसंत में
टूटकर गिर जाता है
आखिरी पत्ता।
कारपोरेट गेम
खोपड़ी के अंदर एक पृथ्वी
चश्मों के बगैर नजर आती है
हैरतअंगेज पृथ्वी
हम जो खेल रहे थे वह खत्म नहीं हुआ था
बड़े अक्षरों में लिखे विज्ञापन के पीछे रहते हैं
छल के आंसू
इन्वेस्टमेंट में जीवन
लहू चूसना हमारा धर्म
शोषण और शासक की
हड्डी में उगे नंगे बच्चे
भूख से चीखते हैं
गैरों के मुंह से निवाला छीनकर
सुखी होने का खेल रोचक है
कुछ पा जाने का सुख!
उत्पल डेका, हिंदी विभाग, असम जातीय विद्यालय, नूनमाटी, गुवाहाटी-781020 मो.8011472744
दिनकर कुमार, व्हाइट बिल्डिंग, शांति पथ, कलिताकुची, गुवाहाटी-781171 मो.9435103755