दिविक रमेश
सुप्रतिष्ठित कवि और लेखक। विविध विधाओं में लगभग 80 पुस्तकें प्रकाशित। साहित्य अकादेमी का बाल साहित्य पुरस्कार।
स्टेंका पेंचेवा
(1929 – 2014)। रेडियो सोफिया में संपादक के रूप में और नरोदना कुलटुरा अखबार में संवाददाता रहीं। निबंधों और लेखों की पुस्तकें भी प्रकाशित। अनेक भाषाओं में कविताएँ अनूदित।
सेब का पेड़
आप सब लिपटे हैं जाड़े के कपड़ों में
पर खड़े हैं हम नग्न हवा की शीत लहरों में
ढके, शुरू-शुरू की बर्फ के
फाहेदार जाल से
खुले मैदान में
हमारी टहनियों में रुक गया है प्रवाह
हमारे रस का
हम डूब रहे हैं निद्रा में
दुख रहे हैं हमारे कंधे अब तक
फलों के भार से
जो थे कभी हम पर
कितने अकेले हैं हम तो भी खुश
चमक रहा है हमारी शाखाओं में
भूला हुआ चांद
जल रहा है ठूंठों भरा एक खेत
बदनसीब है सन्नाटा भरा दृश्य
बढ़ रहा है संवलाया आकाश
धीरे-धीरे क्षितिज पर
बह रही है हलके-हलके
तेज और कटखनी हवाएं
महसूस होता है मुझे
विदा होती गर्मी का अपूर्व दर्द
अपने नथुनों, त्वचा और आत्मा से
खुद मैं ही हूँ वह थका मांदा खेत
ढका झींगुरों के भस्म से
कुछ नहीं है मेरे पास
सिवा रोटी के
तृप्त कर देगी जो हमारी भूख को
जल रहा है ठूंठों से भरा एक खेत
यज्ञ की एक विशाल आहुति सा
मालूम है मुझे
टिके नहीं रहते एहसास बहुत देर तक
और यह भी कि बहुत लंबी होती हैं यादें
बेकार है तुम्हारी कोशिश छुटकारा पाने की
क्योंकि तुममें हूँ मैं
जैसे होती है रोक पत्थर में
याद रहे कि तुम बंदी हो
कहाँ और किसके साथ, क्या फर्क पड़ता है
आकाश से हुए बज्रपात से
करेंगे प्रहार तुम पर
मुझसे भरे-पूरे, बीते क्षण
एक खूबसूरत अदा, एक शब्द, एक फूल
एक उमठन ओठों की – कितनी ही चीजें
हमें बांधे हुए है साथ-साथ
तुम्हें नहीं मालूम
चिरौरी नहीं है यह
और न ही मुझे जल्दी है
मैं तो बस
संलग्न हूँ बुनने में अपना जाला।
अग्नि शामक
(सरजेय कोरोलीवा की याद में)
क्रमलिन की दीवार में
श्यामल पट्टिका के भीतर
भस्म में-
श्यामल पट्टिका के भीतर
क्रमलिन की दीवार में
भस्म को दिया गया सम्मान, सर्वोच्च
दो बिखरी तिथियों के बीच
रक्षित, तुम्हारा जीवन
एक हाइफन ही तो है
भूलों, पराजयों, दलदल और बंजर के बीच
आकाश छू लेने का
वह महज एक लक्ष्य है-
जो तुम्हारी महत्वाकांक्षा है
निश्चित, जैसे होती है मौत
क्रूर, जैसे होती है आग
तुम्हारी पत्नी से भी ज्यादा, तुम्हें प्यारा
कहीं ज्यादा कीमती, तुम्हारी अपनी सांस से भी
न्योछावर कर सकते हो तुम
अपना क्षणिक जीवन इसपर
तुम्हारा एक अंत है
पर अंतहीन है
तुम्हारी इच्छाओं का लक्ष्य
आखिर, कहीं तो है
एक क्रमलिन तुम्हारे लिए
थामे
एक श्यामल पट्टिका
और एक दीवार भी लाल।
छतें
नीची छतों
और धुएं सने बीम वाले
ये तमाम घर :
नीची छतों वाले कमरों के
दमघोंटू धुंधलकों में से
शुरू हुई थीं वहां बगावतें
गूंजी थीं भीष्म प्रतिज्ञाएं
और दनदनाई थीं खुफिया योजनाएं
गुलाम की आजाद आत्मा ने
फैला दिए थे डैने गरुड़ के
अब बहादुर था वह
और तैयार था शहीद होने को
बालकन पहाड़ों-से ऊंचे
लक्ष्य के लिए
नहीं रोक पाईं ये नीची छतें
उन लोगों को
जो लड़े थे पाने को
अपनी आजादी।
निकोला वाप्त्सारोव
(1909-1942) केवल 32 वर्ष की आयु में देश की आजादी के लिए लड़ते हुए फासिस्टों की गोली के शिकार हो गए।
वसंत
समीप कहीं जंगल में
कबूतरों ने छेड़ा है
वसंत राग… गुटर गूं
हल्के हल्के बिखरे हैं उनके
चांदी से पंख चारागाह में
वसंत के झोंकों में
खुद भी तो जी उठा हूँ
पहले से भारमुक्त
लगभग चिदाकाश
उत्फुल्ल
चीड़वन में झिलमिलाता है सूर्य
मूंद भी लूं चुंधियाई आंखें
तो भी होता है एहसास
भीनी हवा का
ले आई है जो बहाकर
वसंत के चुंबन हैं मुझे डसते हुए
दूर-दूर फैले आकाश में
मंडरा रहे हैं बुलंदियों पर स्वच्छ पक्षी
गाते, चक्कर लगाते
निकल जाते हैं फर्राटे से
तो भी पहचानता हूँ उनके गीतों को
उनमें निहित रोमांच भरे उद्गारों को
जिन्हें गाएंगे हम भी
जरूर गाएंगे एक दिन
जब प्रभात उतर आएगा हमारी आंखों पर।
मेरा शहर
तारों जड़ित छत
और असंख्य विद्युत सूर्यों वाले शहर
तुम महान हो
खोल देते हो अपने द्वार
हजारों सपूतों के लिए
तुम्हीं में लेते हैं जन्म
लोगों के लक्ष्य
उनकी आशाएं
और तुम्हीं में होते हैं प्रज्वलित वे
तुम्हारा हर भवन, हर पत्थर
महकता है एक नए जीवन से
अपने हृदय में संजोते हो लोगों के सपने
सेते हो उन्हें
पालते हो नाज से
और भर लेते हो बांहों में
जाओ, और हिलाकर चूलें
तोड़ डालो वे सभी गढ़
जो कुचलते हैं
और नुकसान पहुंचाते हैं मनुष्यता को
यहां आंदोलित हैं
हर दृढ़ हथेली पर प्रतिकामी लौह-इच्छाएं
मेरे महान शहर
कितने मजबूत हो तुम
कितना मजबूत है तुम्हारा
कंक्रीट से बना दिल!
अपनी मजबूत बाहों को बढ़ाए आगे
तुम सदा जवान हो शहर
जिंदगी की तरह।
बोरिस ख्रिस्तोव
(जन्म 1945)। बुल्गेरियाई दर्शन के अध्येता, अध्यापक तथा पत्रकार हैं। अनेक पुरस्कारों से सम्मानित कवि।
घंटी
उतर रही है बारिश : अंतहीन रस्सियां
उछल रही हैं
मसखरे की तरह
घास के गलीचे पर
जमीन से उठ रही है भाप
उबलने लगे हैं जमीन में दबे आलू
मृत आत्माएं अब कर रही हैं रात्रि भोजन
कौन सा विधान और सन्नाटा
करती होगी हुकूमत वहां!
वहां नहीं है मेजों पर खनखनाहट चम्मचों की
एक ओर को मुड़े मेरे पिता
विचारमग्न हैं
खिला रहे हैं अपने कुत्ते को
किसी गिरिजाघर की घंटी के कटोरे से
यही है वह घंटी
रही है जो सदा मेरे साथ राह में
उस जगह तक
छिपा रखा था जहां कुछ बुजुर्गों ने
यही है वह घंटी
जिसमें है आवाज ईश्वर की
कितना भटक चुका हूँ
इसकी जबान की तलाश में
मेरी आशा… तुम
जो है एक तुच्छ फाख्ता
नहीं जाना
टुकड़ों से भरे चौक पर
मत जाना
उस आदमी के पास
जिसके हाथ में है राजसत्ता
न ही उस आम बरतन तक
जिसमें है कुछ खुशकिस्मत कबूतरों का चुग्गा
यदि बचा है कुछ
तो बांट दो इसे चिड़ियों में
और मत मानो हार अपने अंतिम चंगुल से
थामे रखो, जब तक गा नहीं उठतीं
घंटी और जबान
जब तक हम
पड़ नहीं जाते बूढ़ी बिल्ली के मुंह में
फिर आएगी शरत
और फिर उठेगी भाप जमीन से
झुका देगी हमें बारिश की रस्सियां उस मेज तक
जहां बैठे हैं पिता
और तब भर उठेगा हमारा सूप
सच्चे स्वाद से।
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