युवा कवयित्री| साझा काव्य संग्रह नीलांबरा’| संप्रतिछात्रा|

मैं अभी-अभी दिल्ली आई हूँ
सुबह के आठ बजे हैं
पक्षियों के झुंड के समान
आदमी सरपट भाग रहा है
हाथ में थैला लिए, फोन पर बातें करते हुए
कैब में बैठी एकटक देख रही हूँ
और वह दृश्य मेरे साथ चल रहा है सूरज-सा
मैं घबराकर कहती हूँ
इतने सारे लोग आखिर जा कहां रहे हैं?
मां ने धीरे से कहा अपने काम पर
मैं मन-ही-मन बुदबुदाई
याद आया पैदल चलते मजदूरों का दृश्य
और सन्नाटे से भर गई मैं
मस्तिष्क में सारे रिकॉर्ड
किसी सीरियल की तरह चलने लगे
हृदय धकधक करता हुआ
चलती ट्रेन-सा थम गया
कोई घाव एकाएक हरा हो गया
और बदन दर्द से
अधमरे सांप-सा छटपटाने लगा
जब मैं सन्नाटे से उबरी
सभी पिता छूट गए थे
सूरज भी
मेरे डैड मुझे झकझोरकर बोले
घर आ गया है!

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