सुपरिचित कवि।‘वागर्थ’ का लंबे समय तक संपादन।अद्यतन पुस्तकें ‘पंखुड़ी पंखुड़ी प्रेम’ (उपन्यास), ‘चल हंसा वा देश’ (यात्रा निबंध)।संप्रति दिल्ली में शासकीय सेवा में।
लुवाई के दिन
ये दिन लुवाई के
भरी-भरी बैलगाड़ी
तपे सोने-सा रंग
धान का
धरती हुई फिर अन्नपूर्णा
गोबर लिपे कोठार में
जलता दिया
स्वागत नवान्न का
रंग सुआपंखी हुआ ममतालु धूप का
पके दाड़िम-सा सुर्ख
लाल
फट पड़ा है
मन किसान का।
पारदर्शी जल
मुरुम वाली जमीन
पारदर्शी जल तालाब का
तल में पड़ी
किसी ग्रामीण बाला की
अंगूठी पीतल की
दिखती है
गिरी होगी नहाते समय
झुंड एक मोंगरी मछलियों का
कत्थई झालर हिलाता
गुजर जाता है
हम बटोही घाट तक आए
धोने हाथ- मुंह
सुस्ताने घड़ी-भर
तट पंक्ति बद्ध वृक्ष
हवा चलती है
जाड़ों की दोपहर की
जब-तब चू पड़ते हैं जल में
शिरीष के फूल
मादक।
फूल जोगिया
खेतों में, क्यारी में, बाड़ी में
दृष्टि जाती है जहां तक
दिख पड़ते
फूल
जोगिया
कनकांबरम के
एक फूल से पुण्य एक मासे सोने का
मिलेगा कातिक में
शिवजी को चढ़ाने से
मुंह अंधेरे
या गूंथ लिये जाएंगे ये वेणी में
लड़कियां आती हैं झुंड की झुंड
इन्हें तोड़ने
क्या उनके मन में
राम जाने।
दिया-बाती के बेर
ये दिन कठिन पहाड़ से
लांघे नहीं लंघते
रामफल के झाड़ में
बोलता कौआ
तुम उड़ जाओ
गर कोई आने वाला हो
वह उड़ गया
उम्मीद का कंकड़ गिरा
हुलस उठा जल मन का
क्या पाहुन आएंगे
भोर के निकले
अब दिन ढले
दिया-बाती के बेर!
कातिक की भोर
भोर के कोहरे में
डूबे हुए खेत
कट चुका है धान
ओस में चमकती हैं
धान की
भीगी जड़ें
हरी भीगी घास पर ठिठुरते पांव
सारस के
डैनों-सी खुलती
कातिक की यह भोर
आकाश में।
अनगिन
दसमत फूल बखरी में
खोखला तालाब में
झाईं और फुड़हल पठार में
क्यारी में गेंदे के फूल
एक फूल
दो फूल
तीन फूल
तुम गिन नहीं सकते
जल बहता समय का
फूल झरता सांस का
एक सांस
दो सांस
तीन सांस
तुम गिन नहीं सकते
एक ठोकर भूख की
दूसरी अपमान की
एक मार धोखे की
दूसरी अकाल की
एक चाबुक धूप की
दूसरी बौछार की
एक दुख
दो दुख
तीन दुख
तुम गिन नहीं सकते।
घुटनों तक पानी में
घुटनों तक पानी में
खड़ी हुई
वह बूढ़ी मां गांव की
तोड़ रही चुनचुनिया भाजी
तीन पत्ते नन्हे
कुछ चौकोर-से
तैरते जल में ऊपर
और तंतु उनका
जल के भीतर
माटी में कहीं मूल उसका
कितना श्रम
और कितना धीरज
खड़ी हुई है
जाने कब से
पत्ती-पत्ती चुनकर
डालती जाती
आंचल में
बेच आएगी
गांव के हाट में
दो-चार रुपयों में
खरीद लाएगी
सामान कोई
रसोई का
नमक
तेल या हल्दी।
फूल बुलाता जल के भीतर
फूल बुलाता जल के भीतर
रोक लेता रास्ता
आंख पड़ते ही
ठिठक जाते पांव
और तुम जूते उतारकर
वहीं तट पर
उतर जाते जल में
फूल वह पानी का
सुर्ख
लाल
मायावी
पहुंचते ही उस तक हाथ
वह खिसक जाता
भीतर
और गहरे जल में
पानी घुटनों से
रानों तक
फिर छाती तक
यहीं, जल-समाधि
न हो जाए प्रभु
नहीं कोई साक्ष्य
निर्जन
दोपहरी में
सिवा जूतों के
तट पर पड़े रहेंगे वे
मेरी प्रतीक्षा में
देखते एक-दूसरे को
कि मैं कब लौटूंगा
कितने उदास
और अकेले-से
तट पर वे जूते मेरे, बेचारे।
* एक छत्तीसगढ़ी लोक कथा का हल्का-सा संदर्भ।
अंतिम पंक्तियों में जापानी संत कवि रियोकान का प्रभाव।
धूप गाढ़ी हो गई है
धूप गाढ़ी हो गई है
लाल होकर झड़ रहे
बादाम के पत्ते
पके महुए से
गमकता वन
खेत सूने
बोलता पंडुक
हवा लाई आम्र वन की गंध
बौरों से चुराकर
दिन नशीले हो गए फिर
झप रही है दोपहर की आंख।
पक रहा है शहद
पक रहा है शहद
छत्ते में
वृक्ष की अंतिम शिखा पर
तीखे डंक खोले
घूमती मधुमक्खियां हैं
आक्रामक प्रहरी
लंगोट पहने घूमते हैं
पर्वतों के पुत्र
मधु की खोज में
वृक्ष के नीचे जलाकर सूखी लकड़ियां
और पत्ते
रचेंगे वे धुएं का व्यूह
और भर लेंगे
घड़े में
शहद मीठा
प्राण की बाजी लगाकर।
खेत सूने पड़ गए हैं
खेत सूने पड़ गए हैं
वीतरागी के हृदय ज्यों
नहीं कोई राग बाकी
अन्न ही तो संपदा थी
कट चुका है
धान अब तो
जेठ की खाली दोपहर
चिरई-चुरगुन चुप हुए सब
गर्म हवा
बोलती है
डोलती है
विरहणी-सी
ढोर-डांगर घूमते हैं
तृण हरा कोई ढूंढ़ते हैं
अन्न
ज्यों पाहुन चले गए
अब क्या निकलेंगे निकाले
स्मृति के ढेर कांटे
टूटकर जो गड़ गए हैं
नहीं कोई राग बाकी।
शिखर तक तीखी चढ़ाई
शिखर तक तीखी चढ़ाई
और ऊपर
भील का घर
ताड़ पत्तों से बना जो
एक खटिया
झिलंगी-सी
बाहर पड़ी दिखती है
कंदील टहनी में टंगी है
वहीं पालने में साड़ी के
भील बालक सो रहा है
मुर्गियां कुछ चुग रही हैं
पत्तियां टूंगती हुईं
बकरियां ढलान पर
नीचे नदी से
घड़ा भरकर
वह बहुत काली भीलनी
तर पसीने में
मगर फिर भी रूपसी-सी
हांफती हुई
चढ़ रही है
शिखर तक
तीखी चढ़ाई।
लाल यह बादाम का वन
लाल यह बादाम का वन
और निर्जन तट समुद्री
वसंत चुपके आ गया है
रंगों की कूची लिए फिर
रात भर में
रंग गए हैं
वृक्ष के पत्ते सभी ये
देखो उधर
ऊंची लहर पर
डोंगी मछेरों की चढ़ी वो
देखो इधर
फुनगियों के
तोरण हवा में हिल रहे हैं
सुनो
पंछी बोलता है।
बह रहा है दाहरा
लहस गईं
भूमि पर
आंवले की फल भरी डगालियां
और झर-झर
बीच वन में
बह रहा है
दाहरा यह
पत्थरों की
कोख से
फूटकर बाहर
पथिक झुककर
पी रहा जल।
एकांत श्रीवास्तव की कविता एकांत श्रीवास्तव उन थोड़े से कवियों में हैं जिनके बिना आज की हिंदी कविता का मानचित्र पूरा नहीं होता। पिछली शताब्दी की नवीं दहाईं में जिन कवियों ने हिंदी कविता को नई लोक-ऊर्जा से आविष्ट कर दिया उनमें एकांत अग्रगण्य हैं।एक दो अपवादों को छोड़ दें तो एकांत श्रीवास्तव संभवतः अकेले कवि हैं जिन्हें गांव और लोकजीवन का चितेरा कहा जा सकता है।अगर हम उनके पिछले संग्रहों के नामों पर ध्यान दें तो यह सहज ही सत्यापित हो जाता है अन्न, मिट्टी, बीज, नागकेसर, धरती और अब यह सूरजमुखी के खेतों तक जो स्वभावत: ही कृषक को, भारतीय गांवों को और गांव के घर को समर्पित है।एकांत की कविता किसान, गांव और खेतों की कविता है। त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल की याद दिलाती यह कविता अभी के काव्य परिदृश्य में बिलकुल पृथक प्रति-संसार रचने वाली कविता है, जैसे आयरिश सीमस हीनी या अमरीकी कवयित्री ग्लिक की कविता।यह प्रचलन से भिन्न कोटि की कविता है जो कई बार मोहक, अंतर्विरोध विहीन, सुषम और मासूम प्रतीत होती है।लेकिन ध्यान देने पर लगता है कि यह विकास की अवधारणा, असमानता और अन्याय की भर्त्सना करती हुई कविता है।पुराने गाँव, घर, कुटुंब, प्रेम, सौहार्द और सौंदर्य के निरंतर लुप्त होते जाने के अवसाद और उदासी से भरी हुई कविता है।ये गांव और जीवन वही नहीं है जो बचपन की स्मृतियों में वास करता है।किसी भी समाज को मापने का एक तरीका उसके ग्रामीण जीवन को मापना है।आज हमारे गांव, हमारी प्रकृति, हमारे ग्रामीण और वन और आदिवासी जन महानगरों के उच्छिष्ट हैं।एकांत की कविता इसी अन्याय और असमानता का प्रतिरोधी स्वर है और जो कुछ भी रागमय, ललित या प्राणमय है उसका यशोगान है।आकस्मिक नहीं कि अनेक कविताएं कुछ भूली हुई, पुरातन लयों की याद दिलाती हैं और मां, पिता, बहन, भाई परिजन की स्मृति हमें आर्द्र कर देती है।इस अर्थ में एकांत की कविता विचारशुष्क न होकर भावों के रस से भरी है। एकांत की कविताओं को पढ़ते हुए मैंने पाया कि गरीबों पर इतनी बड़ी संख्या में इतनी मार्मिक कविताएं हाल के दिनों में बहुत कम लिखी गई हैं।एक साड़ी में जीवन बिताने की तकनीक, ढोलक बजाती लड़की, पुराने कपड़ों का बाजार, अनाज गोदाम के मार्ग से दाने चुनती स्त्रियां, गोंद इकट्ठा करने वाली बच्चियां, खंडहर में घर ऐसी ही कुछ मर्मस्पर्शी कविताएं हैं जो दैन्य को प्रकट करते हुए भी मनुष्य की गरिमा का सम्मान करती हैं।यह भी लगा कि एकांत ने प्रकृति के सौंदर्य को बिलकुल नए, अछूते प्रसंगों, दृश्यों और चरित्रों से व्यक्त किया है।सौंदर्य का यह प्रकार आज विरल है।लाल यह बादाम का वन, पक रहा है शहद, ततैया का घर, पैदल पुल, वन में बारिश इसके कुछ प्रमाण हैं।इसी के साथ यह भी जोड़ना जरूरी है कि किसान जीवन के कुछ बिंब शायद पहले कभी ऐसी तन्मयता से नहीं आए, जैसे गुड़ाई करते समय, लुवाई के दिन, खेत सूने पड़ गए हैं वगैरह।लेकिन जिन कविताओं में लोकजीवन का राग, जीवन की प्रगाढ़ता और बृहत्तर आशयों का संधान मिलता है वे एकांत के काव्य का शिखर मानी जा सकती हैं और साथ ही हमारी कविता की उपलब्धि भी।उदाहरण के लिए, फूल बुलाता जल के भीतर, मज़ार, इक़बाल अहमद और उनके पिता, नहीं आने के लिए कह कर, पत्थर की आंख, ओ काली चींटियों, साही, या अधबना घर।ये विलक्षण कविताएं हैं- एकांत श्रीवास्तव की और आज के समय की प्रतिनिधि कविताएं।एकांत की कविताएं यह सिद्ध करती हैं कि एकांत और उनके सहचर कवि आज भी हमारे अत्यंत सशक्त स्वर हैं।नदी तो एक ही होती है, लेकिन उसके रास्ते, धाराएं और शाखाएं बहुत अलग अलग। एकांत श्रीवास्तव की कविता पाठकों को पुन: आश्वस्त करती है कि हिंदी कविता के जलग्रहण क्षेत्र लगातार प्रशस्त हो रहे हैं।ये कविताएं हमें आस्वाद और विश्लेषण की नई प्रविधि आविष्कृत करने को विवश करती हैं।सूरजमुखी के खेतों तक का रास्ता कठोर और बीहड़ है: वे रास्ते महान हैं एकांत की कविता भी सूरजमुखी का फूल है।धूप, जल, रंग और गंध से भरी हुई। |
संपर्क : एकांत श्रीवास्तव, के.के.शर्मा का मकान, ६८, त्रिवेणी अपार्टमेंट्स, विवेक विहार पुलिस स्टेशन के पास, झिलमिल कॉलोनी, दिल्ली–११००९५ मो.९४३३१३५३६५/९६२५२९७१०६