युवा कवयित्री।विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।
अकेलापन
पता नहीं इस घर को छोड़ना
तुम्हारे लिए कितना जरूरी था
तुम्हारे घर से जाने के बाद भी
मैं इस घर की छत को संभाले हूँ
यह मकान खाली कर देना पड़ेगा
आज नहीं तो कल हमेशा के लिए
यह सोचकर घबराती हूँ
पर सपने में छूट रहा है सब धीरे-धीरे
मैं बांहे फैलाए समेट लेना चाहती हूँ
छत पर पांव पसारे बैठे आसमान को
चाहती हूँ खुद के लिए थोड़ी-सी जगह
जहां बैठना चाहती उसकी गरम धूप में
दीवार की गंध मुझे रोकती है घर से जाने को
खिड़की के पर्दे अंधेरे-उजाले का खेल
खेलते रहते हैं दिन दिनभर
रोशनदान तांकता है तो कभी त्योरियां चढ़ा
मुझे आंखें दिखाता डांटता रहता है
रत्तीभर भी तब्दीली नहीं आई है इस घर में
हरेक कमरे के चप्पे-चप्पे में
तुम्हारी उपस्थिति दर्ज है
गूंज महक सब कुछ तो
समाई हुई है एक एक चीज में
हां! यह जरूर हुआ है
कहां सबकी मुलायम आवाजों की गूंज
खनकती रहती थी
टकराती थी छत की दीवार से
आज अब वह मुझसे टकराती है
और भेद जाती है मुझे अंदर तक
एक कमरे से दूसरे कमरे में
जाना ही बस रह गया है मेरा संसार
घर की चुप्पी, मेरी चुप्पी को
बाहर का कोलाहल तोड़ता है
घर का खालीपन
मन के अंदर का खालीपन बन
कब समा गया अंदर तक
नहीं पता
घर का खालीपन कई दफा
मुझसे पूछता है सवाल
कैसे रहोगी
अकेले जिंदगी कैसे बीतेगी
देती हूं दिलासा खुद को
घर, छत, आसमान में से
घर, छत न भी रहें पास
आसमान शायद अपना है।
संपर्क : द्वारा – दिवाकर सिंह एस के पुरम, लेन न. ८, आर्य समाज मंदिर रोड, आर पी एस मोड़, बेली रोड पटना–८०१५०३ मो.६२०२६८५०४७