अफगानिस्तान की स्त्रियां तालीबानी दबाव से बाहर निकल रही हैं
अफगानिस्तान नेशनल असेंबली की प्रथम महिला उपराष्ट्रपति, राजनीतिज्ञ, स्त्री अधिकारों के लिए आंदोलन करने वाली। दोहा शांति बैठक में तालिबानियों के साथ बात-चीत करने वाले दल की प्रमुख सदस्य हैं फौजिया कूफी। इनका साक्षात्कार लिया है आनंदबाजार पत्रिका की संवाददाता अग्नि राय ने और बांग्ला से अनुवाद किया है मधु सिंह ने.
फौजिया कूफी – सिर्फ भारत ही नहीं, बल्कि लिंग भेद एवं महिलाओं के दैहिक उत्पीड़न की समस्या अंतरराष्ट्रीय है। भारत और अन्य जगहों पर एक नई तरह की संस्कृति बनती जा रही है, जहाँ ऐसी घटनाओं को अंजाम देने के बाद अपराधी बरी हो जा रहे हैं। ऐसी संस्कृति को अपराधियों को बचाने वाली रक्षा-कवच संस्कृति के रूप में भी देखा जा सकता है। ऐसी स्थिति से मुकाबला करने के लिए कानून व्यवस्था और बुनियादी शिक्षा में बदलाव की जरूरत है। साथ ही न्याय व्यवस्था को और शक्तिशाली बनाने की भी जरूरत है ताकि अपराधी किसी भी सूरत में बचने न पाएं। ध्यान देने वाली बात यह है कि जिन देशों में आंतरिक संघर्ष एवं युद्ध चल रहे हैं, वहां ऐसी घटनाएं दोगुनी हो गई हैं, जैसा कि हमारे अफगानिस्तान में। ऐसे हालात में हमने स्त्री और शिशु –उत्पीड़न विरोधी कानून पास कराया। इतना ही नहीं, स्त्री अत्याचार के खिलाफ कानून का प्रारूप भी तैयार किया गया है और उसे पास कराने के लिए हम लड़ रहे हैं। ऐसे में मैं यह कहना चाहती हूं कि अगर अफगानिस्तान जैसा देश जो युद्ध से त्रस्त है, अगर कड़े फैसले ले रहा है, तो भारत क्यों नहीं ले सकता?
प्रश्न– अफगानिस्तान में शांति बहाली में भारत की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण है ?
फौजिया कूफी – भारत और अफगानिस्तान का संबंध सिर्फ वर्तमान मैत्री का नहीं है, बल्कि भारत और अफगानिस्तान का संबंध सदियों पुराना है। काबुलीवाला भारतवासियों के लिए एक परिचित नाम है। भले ही दोनों देशों के सरकारों का संबंध जैसा भी क्यों न हो, लेकिन हमलोग भारत के मित्र हैं। यह सच है कि अफगानिस्तान की युवा पीढ़ी को अपने पैरों पर खड़ा होने तथा शिक्षा से नया जीवन देने जैसा महत्वपूर्ण कार्य भारत की ओर से किया गया। भारत के कॉलेजों से पढ़कर हमारे देश के छात्र-छात्राएं दुनिया भर में अच्छी जगहों पर कार्य कर रहे हैं। उम्मीद है कि आगे भी हमारी शिक्षा व्यवस्था को उन्नत बनाने में भारत का यह सहयोग मिलता रहेगा। अफगानिस्तान में शांति की बहाली के लिए सिर्फ भारत का ही नहीं, बल्कि वैश्विक पूंजी, सुरक्षा एवं परस्पर सहयोगिता की भी जरूरत है।
प्रश्न– अब तक आपने जो हासिल किया है उसके बारे में आप क्या कहना चाहेंगी ?
फौजिया कूफी – मैंने युद्ध में पिता, पति और भाई को खो दिया है। इतना ही नहीं, मुझ पर भी बार-बार हमले हुए। एक बार सीने के तीन सेंटीमीटर की दूरी से गोली लगी। जिसके इलाज के लिए आज भी अस्पताल जाना पड़ता है। मेरा दाहिना हाथ भी ठीक से काम नहीं करता है। अनेक तकलीफों को सहते हुए मैं यहाँ तक पहुंची हूँ और मेरा यह मानना है कि कोई बंदूक की नोक पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता है।
प्रश्न– नोबेल शांति पुरस्कार में आपका नाम नामांकित किया गया था। आपको कैसा लगा था?
फौजिया कूफी – मैं नोबेल शांति पुरस्कार को व्यक्तिगत उपलब्धि के तौर पर नहीं देखना चाहती। भले मुझे नोबेल पुरस्कार न मिले, लेकिन मेरा यहाँ तक पहुंचना ही मेरे देश की महिला सशक्तिकरण के लिए बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि तालिबानी समाज में महिलाओं को घरों में बंद करके रखा जाता था। भविष्य में भी महिलाओं को समान अधिकार दिलाने को लेकर जारी यह आंदोलन मील का पत्थर बनेगा। इसके बाद विश्व जगत अफगानिस्तान की महिलाओं की अनदेखी नहीं कर पाएगा।
प्रश्न– आप तालिबान के साथ एक टेबल पर बैठकर बैठक कर रही हैं। जबकि ये लोग ही आपकी हत्या की कोशिश भी करते रहे हैं। इतना ही नहीं, उनलोगों ने किसी भी महिला की भागीदारी को स्वीकार नहीं करना चाहा। ऐसे में आपने अपने लिए यह अवसर कैसे बनाया? इसके बारे में बताएँ।
फौजिया कूफी – यह सच है कि यहाँ तक एक दिन में नहीं पहुंचा गया। 2010 में मेरे काफिले पर तालिबानी हमला हुआ। मैं मरते-मरते बची। उस समय मुझे देशवासियों का भरपूर साथ और बल मिला। इसके अलावा हम लंबे समय से तालिबान से जुड़े कई संगठनों के साथ संपर्क करने की कोशिश में लगे हुए थे। दरअसल तालिबानी संगठनों में कई संगठन ऐसे थे जो नरमपंथी और स्त्री अधिकारों के प्रति उदार थे। हमलोगों ने उनके साथ मिलकर और उनके जरिए इस दिशा में काम किया। आज भी वे महिलाओं के प्रति कुछ हद तक सहृदय हैं। बस जरूरत इस बात की है कि समान स्त्री अधिकार के लिए ठोस कदम उठाया जाए।
प्रश्न– आपको क्या ऐसा नहीं लगता कि अगर तालिबानी अफगानिस्तान की मुख्यधारा में आ गए तो फिर से लोकतंत्र, स्त्री अधिकार, अल्पसंख्यक अधिकार पर हमला होगा ?
फौजिया कूफी – अफगानिस्तान की महिलाएँ इस विषय को लेकर बहुत उद्विग्न हैं। अल्पसंख्यक भी सशंकित हैं। दरअसल गृह युद्ध के समय सबसे ज्यादा प्रताड़ना इन लोगों को ही सहनी पड़ी है। यह सच है कि वर्तमान तालिबानी युग कभी भी अफगानिस्तान का इतिहास नहीं रहा है। एक समय था, जब अफगानी स्त्रियाँ स्थानीय समस्याओं के समाधान की जिम्मेदारी खुद लेती थीं। यहाँ की स्त्री कवयित्रियों के साहित्य सृजन का इतिहास भी काफी समृद्ध रहा है।
बांग्ला से अनुवाद - मधु सिंह
कोलकाता, मो.8420627693