गंगा प्रसाद, कांचरापाड़ा-‘वागर्थ’ के जनवरी २०२३ के अंक में प्रकाशित हेरम्ब चतुर्वेदी का आलेख ‘गांधी की मृत्यु देखना चाहते थे औपनिवेशिक सत्ताधीश’ बहुत ही महत्वपूर्ण लगा।आलेख संग्रहणीय है। ‘आशावाद के जनकवि : ध्रुवदेव मिश्र पाषाण’ को पढ़कर उन दिनों में खो गया, जिन दिनों पाषाण जी ‘कलकत्ता’ में रहते थे।हम लोग उन्हें पाषाण जी कह कर संबोधित करते थे।आपस में होने वाली बातचीत, यों कहें बहस में वे अपने विचार धड़ल्ले से और जोर आवाज में रखते थे।भिड़ जाने की उनकी मुद्रा आंखों के सामने है।अरविंद त्रिपाठी ने सराहनीय कार्य किया है।

जितेन ठाकुर की कहानी ‘ईमान’ में हरिया अहीर मीठी बोली से ठगा जाता है।आज भी गांवों में ऐसा ही होता है। ‘मोमो वाली स्त्री’ (शेखर मल्लिक) में मोमो बेचने वाली पद्मा और दारू बेचने वाली महुआ के बहाने मजदूर महिलाओं की पीड़ा सामने आती है।पूजा भारद्वाज की लघुकथा ‘निर्णय’ और ज्ञानदेव मुकेश की ‘कबाड़’ अच्छी लगी।लघुकथाएं थोड़े में बहुत कुछ कह जाती हैं।भाग-दौड़ की जिंदगी में सहजता और खूब मन से पढ़ी जाती है।और कई लघुकथाएं हो तो अच्छा रहे।
मुसाफिर बैठा और अनिल विभाकर की कविताएं भा गईं।साहित्य उत्सव पर कई दृष्टियों से अच्छी चर्चा है।

विनय कुमार सिंह- ‘वागर्थ’ दिसंबर अंक के मल्टी मीडिया में भावपूर्ण कविताओं की उत्कृष्ट प्रस्तुति! ध्वन्यांकन हेतु दिवाकर त्रिपाठी, ध्वनि संयोजन हेतु अनुपमा ऋतु, संयोजन-संपादन हेतु उपमा ऋचा, आवृत्ति हेतु अनुपम श्रीवास्तव के प्रति आभार! प्रस्तुति हेतु वागर्थ, भारतीय भाषा पारिषद कोलकाता को धन्यवाद!

दशरथ कुमार सोलंकी-‘वागर्थ’ दिसंबर २०२३ अंक में प्रकाशित एस आर हरनोट की कविताओं को पढ़ना अर्थात प्रकृति के प्रति नत हो प्रार्थना में लीन होना है।जो खो दिया हमने, वह कविता में पाया।

अमर प्रसाद-‘वागर्थ’ के दिसंबर अंक में युवा कवयित्री तृषान्विता बनिक की खूबसूरत कविता पढ़ी।भाषा एवं भाव दोनों ही मन को छू लेने वाले हैं।

आशीष गुप्ता- दिसंबर अंक में तृषान्विता बनिक की बहुत ही मार्मिक और अद्भुत अभिव्यंजना।मानव मन को झकझोर देने वाली यथार्थपरक कविता।

जयमाला- ‘वागर्थ’ के नवंबर २०२३ अंक में शशि बायंवाला की लघुकथा ‘गोद’ आज की कामकाजी महिला की अपने काम और अपने अस्तित्व के बीच सामंजस्य की मार्मिक और संवेदनशील कहानी है।आज के दौर की हर स्त्री इस सच को करीब से जानती है, जिसमें सही और गलत की परिभाषा सबके लिए अलग-अलग होती है।इस स्थिति में पुरुष मितुल की भांति एक मूक दर्शक बनकर रह जाता है।लेखिका बधाई की पात्र हैं।

अंकुर हूडा- एक लघु कथा लिखने की विधा जितनी कठिन है उतनी ही प्रभावशाली भी।नवंबर अंक में प्रकाशित शशि बायंवाला की लघुकथा ‘गोद’ कम शब्दों में ऐसी संवेदनशील कहानी है जो न सिर्फ इस दौर का दर्पण बनकर सामने आती है, बल्कि पाठक को विचार करने पर भी विवश करती है।एक तरफ महत्वाकांक्षाओं का पहाड़ और दूसरी ओर गृहस्थी के उत्तरदायित्व।एक मॉडर्न महिला का मार्मिक निरूपण, नारीवाद की झलक! प्रभावी और संक्षिप्त!

राजू मेहता, जोधपुर-‘वागर्थ का वर्षांत अंक अनुपम है।भीतरी कवर पर कविताएं द्वार पर सजी वंदनवार-सी हैं।साथ ही सोशल मीडिया से सामग्री का संचयन उत्कृष्ट है।

प्रणय जमनागरी- ‘वागर्थ’ अक्टूबर २०२२ अंक।सेवाराम त्रिपाठी के आलेख ‘लोक का सामर्थ्य’ पढ़ते हुए लगा कि लोक के बीच अगर एक पल भी बीते तो निर्मल – सात्विक आनंद की अनुभूति होती है, जबकि शहरी-सभ्य लोगों के बीच जाने से उलटी अनुभूति होती है ।
लोकसंस्कृति अपनी अनमोल विरासत है, उसे जिंदा रखने के सभी उपाय होते हैं यह अनिवार्य है।

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