गांधी जयंती माह में उन्हें याद करते हुए प्रस्तुत है ईजिप्ट की एक दुर्लभ कविता। साथ ही गुजराती और कन्नड़ की कविताओं के साथ ही पढ़ें नागार्जुन और रघुवीर सहाय की बापू को समर्पित हिंदी कविताएं. 

ईजिप्ट और गुजराती कविताओं का अनुवाद : अवधेश प्रसाद सिंह लेखक, भाषाविद और अनुवादक।

(1868-1932) मिस्र के महान कवियों में थे, जो अमीर अल शूरा (प्रिंस ऑफ पोएट्स) के नाम से प्रख्यात थे। कवि के साथ-साथ वे एक नाटककार, भाषाविद, अनुवादक और सामाज वैज्ञानिक भी थे।

मिस्रवासियो! इस भारतीय वीर को
पहनाओ अपना उम्दा ताज
उसे सलाम करो
इस रौशन रूह को अपनी बंदगी पेश करो
मुसीबत में वह तुम्हारा भाई है
तुम्हारी ही तरह लड़ रहा अन्याय के खिलाफ
आले दरजे की अपनी शहादत के साथ

सत्य की खोज करते हुए वह
लगातार कर रहा है यात्राएं
उठो, उसके गुजरते हुए जहाज को
करो नजदीक और दूर से भी सलाम
पाट दो जमीं को फूलों से
ढक दो सागर को गुलाबों से
‘राजियोटा’ जहाज के रेलिंग पर
वह खड़ा है भव्यता की प्रतिमूर्ति बन
कनफ्यूसियस की तरह बनकर पैगंबर

अपनी कथनी और करनी में वह महदी है
जिसका करते रहे हैं हम सदा इंतजार
सत्य पर अडिग, विनम्रता में वह नबी है
सचाई और सब्र के साथ सही राह दिखाते हुए
वह सदा करता है हमारा मार्गदर्शन

बीमार आत्माएं जब भी आईं उसके पास
उसने दिया उन्हें विद्वेष से मुक्ति का संदेश

इस्लाम और हिंदुत्व के बीच
मेल-मिलाप के लिए उसने लगाई है गुहार
उसकी मजबूत रूहानी ताकत से
दोनों तलवारें म्यानों में हुई हैं जब्त
अपने अहं पर करके इख्तियार
उसने पाई है शेर को भी साधने की ताकत
खुदा की रहमत से मिला है उसे सब्र का नेमत
जो किस्मत से मिलता है किसी इनसान को
जिसे कोई छीन नहीं सकता उससे बलात
लड़कर या सैनिकों के बल पर
वह मिलता नहीं है जन्म से न नसीब से
न कोशिश से न मशक्कत से
यह है अल्लाहताला से उसके बंदे को मिला सौगात

हे गांधी! नील नदी करती है आपका वंदन
पेश हैं हमारी ओर से भी ये फूल और चंदन
ये पिरामिड ये कमक और ये पपीरस
सब करते हैं आपकी महानता को नमन
हमारी घाटी के सभी शेख और
बिना अयाल वाले छोटे-छोटे शावक
सब करते हैं आपका हार्दिक अभिनंदन

आदाब है उस इनसान को जो खुद दुहता है बकरी
खुद बुनता है कपड़ा ढकने के लिए अपनी ठठरी
नमक के लिए करता है दांडी मार्च
नंगे बदन करता है इबादत नमदे पर बैठकर
जेल के कोने में जंजीरों से बंध कर
सब करते हैं उसकी सादगी की बंदगी

हे गांधी! उनके टेबल-गेम से रहना सावधान
जिसे वे खेलते हैं सम्मेलन के दौरान
जब आप कर रहे होंगे आजादी की बात
बैठक में सामने बैठे विरोधी पिशाचों के साथ

उसने कहा है– ‘ले आओ अपना काला नाग
आया है भारत का संपेरा’
पर चाहे वे करें आपको बदनाम
उसका बुरा न मान लेना
और उनकी तारीफ से भी खुद को
व्यर्थ न होने देना
आप एक सितारा हैं जिसे
छू नहीं सकती आलोचना
आपको एक सिरे से दूसरे सिरे तक
भारत को है जोड़ना।

(1896 – 1947) प्रख्यात गुजराती कवि तथा पत्रकार। गुजराती लोकसाहित्य में मेघाणी का प्रमुख स्थान है। गांधी ने उन्हें राष्ट्रीय कवि कहकर सम्मान दिया था।

जहर का अंतिम प्याला पी लो, बापू!
पिया है अपमान का सागर
अंजलि भर गरल मत छलकने दो, बापू!
जन-जन के प्रति अटूट विश्वास से जीवन भरा है
धूर्तों-दगाबाजों को भी तूने खूब पहचाना है
शत्रुओं की गोद में भी तुम सो चुके हो
इस आखिरी तकिए को अपना सिर सौंप दो, बापू!
भले काट दें गला वे, पर…
… अपने शत्रु के मन को माप लो, बापू!
नवयुग के सुर-असुर करते हैं सागर-मंथन
रत्नलोभी नहीं जानते उसका परिणाम भयंकर
प्राणलेवा घोर हलाहल निकलेगा पहले जब
दोने में भर तुम बिन कौन पिएगा, हे शंभु!
अपने गले में गरल भरने झट जाओ वहां, हे बापू!
ओ सौम्य-रौद्र! कराल-कोमल! शुभाकांक्षी बापू!
जग मारेगा ताना, क्या योगी की योगशक्ति चली गई?
क्या सागर सूख गया, घने बादलों में नहीं बचा पानी
क्या स्वर्ग से सूर्य-चंद्रमा की आभा मिट गई!
तुम देख कर दुख हमारा मत रुको, हे बापू!
बहुत सहा है, और सहेंगे, तुम मत ठिठको, हे बापू!
चाबुक पड़ेंगे जप्ती होगी दंड लगेंगे डंडे खाएंगे
कारागार जीवित कब्रिस्तान बनेंगे
गोलियां बरसेंगी भय से हमारे हृदय दहलेंगे
हमने ये सब सहा है, हो गए हैं इनके आदी, बापू!
गढ़ दिया है कोमल हृदय को लोहे सा तुमने, बापू!
नहीं परवाह लत्ते की गुड़िया लाते हो या नहीं लाते हो
हम चूमेंगे हाथ तुम्हारा भले तुम खाली हाथ आते हो
प्यार भरी लाखों भुजाएं तुम्हारे गले से लिपट जाएंगी
इंतजार कर रही है दुनिया
अपनी मुस्कान बिखेरो, बापू!
हमदर्दी और आकांक्षाएं हमारी
उन तक तुम पहुँचाओ, बापू!

(अगर तुम नहीं जाते हो!)
फब्ती कसेगी दुनिया – “नहीं आया वह आत्मज्ञानी!
बिछे दांव से भाग गया वह डरकर हमसे अभिमानी!
कहलाता जनता का प्रेमी! पर व्यथा न उनकी जानी”
आकुल मानवता पुकार रही है
बिलख रहा व्यथा से प्राणी
जाओ अपने स्नेहिल हाथों से
उनका दर्द सहलाओ, बापू!
जाओ उन उन्मत्त वृषभों से अपना सींग लड़ाओ बापू!
जाओ विश्व-हत्यारे की लगाई आग पर
तुम करुणा का जल छिड़काओ, बापू!
जाओ सात समुद्र पार शांति-सेतु बंधवाओ, बापू!
घनघोर तिमिर जंगल में
उम्मीदों की राह दिखाओ, बापू!
खूंखार शेरों के अयालों पर
तुम निर्भय हाथ फिराओ, बापू!
रुको मत, जाओ ईश्वर तुम्हारे साथ है, बापू!
जाकर जहर का अंतिम प्याला पी लो बापू!

(26 जनवरी 1915-27 दिसंबर 2003) प्रसिद्ध कन्नड़ कवि। लोकप्रिय कविता संग्रह ‘मैसूरु मलिगे’। (अनुवाद : ना. नागप्प, चित्र अनुपलब्ध है)

घर आते ही दिया ढूंढा
आंखें मूंदीं और डूबा अपने में ही
तिरता-तिरता उड़ता आया उजला पंछी
उसकी चोंच में फंसकर मछली छटपटाने लगी
जल पर का फलक हँसकर स्वप्न में बुदबुदाया
अवतरित हुई तभी ‘गांधी’ की छाया

नारियल का पत्ता तार की चिनगारी :
उसे आप देखें या न देखें
धुआं उठे तो शोला है, शोला बढ़े तो आग है
आलोक है आग की जीभ
चल निकले हैं एक पंक्ति में- तीन पहाड़ :
सारा विष अमृत है एक के लिए
और एक है क्रूसों की चांदनी
आखिरी पहाड़ पर है तीसरी छाया
अजगर की यष्टिका-सहारे, बड़े-से बाघ के
पद-चिह्नों पर चल रही है- जिधर राह ले जाए

वहां लोहा गलकर नदी बन बहा था
ताप-रहित सूर्य का द्वार उन्मुक्त था
‘कौन है हितू तेरा इन तीनों में?’
तीनों हैं हितू मेरे
हाथ जोड़ चली थी आखिरी छाया
उसके चलते-चलते पहाड़ गलकर रोड़े बने
रोड़े गलकर कंकड़ बने, कंकड़ रज-कण बने
अणु होकर समाप्त हुए बिजली में
पृथ्वी के अंचल में-
काल के उस पार उन्मुक्त अंतिम द्वार ठेलकर
आगे बढ़ रही है लोक-जीवन की छाया।

(30जून 1911- 5 नवम्बर 1998)  हिंदी और मैथिली के अप्रतिम लेखक और कवि। 

जिस बर्बर ने
कल किया तुम्हारा खून पिता
वह नहीं मराठा हिंदू है
वह नहीं मूर्ख या पागल है
वह प्रहरी है स्थिर-स्वार्थों का
वह जागरूक वह सावधान
वह मानवता का महाशत्रु
वह हिरणकशिपु
वह अहिरावण
वह दशकंधर
वह सहसबाहु
वह मनुष्यत्व के पूर्ण चंद्र का सर्वग्रासी महाराहु
हम समझ गए
चट से निकाल पिस्तौल
तुम्हारे ऊपर कल
वह दाग गया गोलियां कौन?
हे परमपिता हे महामौन!
हे महाप्राण, किसने तेरी अंतिम साँसें
बरबस छीनीं भारत-माँ से
हम समझ गए!
जो कहते हैं उसको पागल
वह झोंक रहे हैं धूल हमारी आंखों में
वह नहीं चाहते
परम क्षुब्ध जनता घर से बाहर निकले
हो जाए ध्वस्त
इन संंप्रदायवादी दैत्यों के विकट खोह
वह नहीं चाहते; पिता, तुम्हारा श्राद्ध ओह!
भूखे रह कर
गंगा में घुटने भर धंसकर
हे वृद्ध पितामह
तिल-जल-से
तर्पण करके
हम तुम्हें नहीं ठग सकते हैं
यह अपने को ठगना होगा
शैतान आएगा रह-रह हमको भरमाने
अब खाल ओढ़कर तेरी सत्य अहिंसा का
एकता और मानवता के
इन महाशत्रुओं की न दाल गलने देंगे
हम नहीं एक चलने देंगे
यह शक्ति और समता की तेरी दीपशिखा
बुझने न पाएगी छन भर भी
परिणत होगी आलोक स्तंभ में कल-परसों
मैदानों के कांटे चुन-चुन
पथ के रोड़ों को हटा-हटा
तेरे उन अगणित स्वप्नों को
हम रूप और आकृति देंगे
हम कोटि-कोटि
तेरी औरस संतान, पिता!

(9 दिसंबर 1929 – 30 दिसंबर 1990) हिंदी के प्रमुख कवि और पत्रकार। ‘दूसरा सप्तक’ में शामिल।  ‘सीढ़ियों पर धूप में’, ‘आत्महत्या के विरुद्ध’, ‘हँसो हँसो जल्दी हँसो’ जैसे चर्चित कविता संग्रह।

 

धर्माधिराज हल्के-हल्के मुस्काते थे
वह सोच रहे थे होकर मेरे वशीभूत
ये सभी जगह से ठुकराए भारत सपूत
मेरी निश्चलता से हो जाएंगे परास्त

वह बैठे चरखा कात रहे थे कान दिए
कब कहां कौन-सा शब्द सुन पड़े अकस्मात
जिससे मैं फौरन पैदा कर लूं एक बात
उस नौजवान की व्याकुलता को तोड़-मोड़

वह सुनकर आलोचना नहीं दिखते कठोर
जो उनके भीतर कौंध रहा है बार-बार
वह ज्ञान नहीं है हिंसा का है वह विचार
पर बोलेंगे मानो वह जीवन को निचोड़

देखो वह बोल रहे हैं कितनी बड़ी बात
कहते हैं बदल रहा है भारत का समाज
वह बदलेगा चाहे कोई कुछ करे आज
चाहे न करे इसलिए आप निश्चिंत रहें

वह तुले हुए हैं व्याकुलता की हत्या पर
हर प्रश्न बन गया है व्याकुल उलझा-पुलझा
निरपेक्ष दृष्टि से देखो तो सब है सुलझा
सुनकर हताश नवयुवक उठ गए दिशाहीन

यह वृद्ध-युवक संवाद हो चुका बार-बार
व्याकुलता युवजन की न मरी वह दुर्निवार
पर गांधी के शिष्यों ने फिर-फिर कर प्रहार
हिंसा का निश्चित किया देश-भर में प्रचार।