मलका–ए–तरन्नुम,शान-ए-कलकत्ता,निहायत मशहूर-ओ-मा’रूफ़ गायिका गौहर जान का जन्म 26 जून 1873 ई. में वर्तमान उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले में हुआ। गौहर का जन्म एक क्रिश्चियन परिवार में हुआ था। उनके दादा अंग्रेज और दादी हिंदू थी।
अकबर की एक अर्मेनियाई रानी मरियम जमानी बेगम थीं। श्रीमती एलिजाह हेमिंग्स अपनी बड़ी बेटी अड़ेलाईन विक्टोरिया का विवाह राबर्ट विलियम योवर्ड के साथ सुनिश्चित करती हैं। सन 1872 में इनकी शादी होती है। उस समयराबर्ट विलियम योवर्ड की उम्र बीस साल और विक्टोरिया पंद्रह साल की थी। 26 जून 1873 को इस दंपत्ति के घर एक बेटी पैदा होती है जिसका नाम ऐलीन एंजेलिना योवर्ड रखा जाता है।
परिवार में सबकुछ ठीक चल रहा था। विक्टोरिया हमेशा से संगीत, नृत्य और लेखन में रुचि रखती थी, लेकिन आर्थिक तंगी की वजह से वह बेहतर प्रशिक्षण नहीं प्राप्त कर पाई थी। अब उसे थोड़ा मौका मिला तो उसने अपनी रुचियों को पंख दिए। वह सुरीली आवाज की भी धनी थी । नृत्य, गायन और लेखनी तीनों की धनी थी विक्टोरिया। शादी के कुछ सालों बाद पति-पत्नी के रिश्ते में दरार आने लगी थी। आपसी समझ और विश्वास की डोर कमजोर पड़ गई । इसका दुखद परिणाम यह हुआ कि सन 1879 में दोनों का तलाक हो गया। इस तलाक के पीछे की एक बड़ी वजह राबर्ट विलियम का यह शक था कि विक्टोरिया दूसरे पुरुषों से संबंध रखती थी।
राबर्ट विलियम को अपने पड़ोसी जोगेश्वर भारती पर शक था, जिनके पास विक्टोरिया संगीत से जुड़ी बारीकियां सीखने जाती थी। तलाक के बाद विक्टोरिया पर अपनी मां और बेटी की जिम्मेदारी थी। वह बिलकुल असहाय हो गई थी, ऐसे में आजमगढ़ के ही खुर्शीद नामक एक व्यक्ति ने उन्हें आसरा दिया। कुछ दिन आजमगढ़ रहने के बाद ये सभी पास के शहर बनारस आकर रहने लगते हैं।
बनारस आने के बाद विक्टोरिया ने इस्लाम कबूल किया और उसे नया नाम बड़ी मलका जान मिला। बेटी ऐलीन एंजेलिना योवर्ड का भी नया नाम गौहर हुआ। दुनिया की नज़र में खुर्शीद बड़ी मलका जान के शौहर थे और इन दोनों की बेटी गौहर थी। यहां खुर्शीद ने बनारसी साड़ी का छोटा-सा कारोबार शुरू किया जिससे आर्थिक स्थितियां पटरी पर आ गईं। बनारस में आने का फायदा बड़ी मलका जान और उनकी बेटी गौहर को इस रूप में मिला कि यहां संगीत के बड़े से बड़े उस्ताद थे जिनसे वे नृत्य और संगीत की शिक्षा ले सकती थीं। मां बेटी दोनों ने अपने हुनर को यहां धार दी । खुर्शीद ने भी उनका पूरा साथ दिया।
ठुमरी की बारीकियां सीखने के लिए बनारस से बेहतर कोई जगह नहीं थी। सामगान, ध्रुवागान, जातिगान, प्रबंध, ध्रुवपद, धमार, ख़्याल, ठुमरी, टप्पा, गजल, क़व्वाली, होरी, कजरी, चैती इत्यादि सांगीतिक रूपों से भारतीय संगीत हमेशा ही प्रस्तुति पाता रहा है। इन्हीं में बनारस की एक महत्वपूर्ण गायकी परंपरा ‘ठुमरी’ की रही है जो गेय विधा के रूप में प्रसिद्ध मूल रूप में एक ‘नृत्य गीत भेद’ है । बनारस की इन ठुमरी गायिकाओं ने अपने संघर्ष को समयानुकूल रूपांतरित करने एवं उसे धार देने में कोई कमी नहीं छोड़ी। ऐसा इसलिए ताकि जीवन जीना थोड़ा सरल हो सके और कला का सफर अधिक खूबसूरत।
ये गायिकाएं अपने जीवन की ही नहीं, अपितु अपनी कला की भी शिल्पी रहीं। इन डेरेवालियों, कोठेवालियों के निजी जीवन के न जाने कितने ही तहख़ाने अनखुले रह गए। कितनी ही सुरीली आवाज़ोंवाली बाईजी के नाम गुमनामी में ही दफ़न हो गए। लेकिन समय की धौंकीनी में इनके ख़्वाब हमेशा पकते रहे। इन गायिकाओं ने अपने दर्द को ही अपनी गायकी से एक खास तेवर दिया।
इन गायिकाओं के जीवन से बहुत से रंगों और मौसमों को सामाजिक व्यवस्था ने बेदखल कर दिए थे। बावजूद इसके इनके जीवन में स्वाद लायक नमक की कोई कमी नहीं थी। ये हमेशा नएपन का उत्सव मनाते हुए आगे बढ़ीं। इनके जीवन में संघर्ष और संगीत की निरंतरता असाधारण रही। इन्हीं गायिकाओं में अब बड़ी मलका जान का नाम शामिल हो चुका था। वे बनारस के रईसों में मशहूर हो चुकी थीं। उन्होंने शहर की नामचीन तवायफ़ों में अपनी जगह बनाने के साथ-साथ बेटी गौहर को अच्छी शिक्षा दिलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। गौहर जान ने पटियाला के काले खाँ ऊर्फ कालू उस्ताद, रामपुर के उस्ताद वज़ीर खाँ और उस्ताद अली बख़्श जरनैल से हिंदुस्तानी गायकी के गुर सीखे। सृजनबाई से उन्होंने ध्रुपद की शिक्षा ली थी। माँ-बेटी की जुगल बंदी भी होने लगी। छोटी गौहर दस साल की हो चुकी थी। बनारस के रईस उसे गौहर जान के रूप में पहचानने लगे थे ।
चार साल बनारस रहने के बाद बड़ी मलका जान अपने कुनबे के साथ सन 1883 में कलकत्ता आकर रहने लगी। वे उत्तरी कलकत्ता के चितपुर इलाके में रहीं। यहीं रहते हुए उन्हें नवाब वाजिद अली शाह के दरबार में संगीतकार के रूप में नियुक्ति मिली। गौहर को बिंदादिन महाराज जैसे नए गुरु मिले। आप कृष्ण के अनन्य उपासक भी थे।बिंदादिन महाराज बिरजू महराज के दादा जी लगते थे। बामाचरण भट्टाचार्य से गौहर ने बंगाली गीत तो रमेश चंद्रदास बाबा से बंगाली कीर्तन सीखा। श्रीमती डिसिल्वा से गौहर ने अंग्रेजी और कुछ धुने सीखीं। फ़ारसी और उर्दू खुद बड़ी मलका जान ने गौहर को सिखाया।
1886 में बड़ी मलका जान ने उत्तरी कलकत्ता के चितपुर इलाके में ही तीन मंजिला मकान उस समय चालीस हजार रुपये में खरीदा, जो यह बताता है कि उनकी माली हालत अब बहुत बेहतर थी। लेकिन इसी साल दो अप्रत्याशित घटनाएं उनके जीवन में घटती हैं। अज्ञात लोगों द्वारा खुर्शीद की हत्या और 13 साल की गौहर के साथ बलात्कार। विक्रम संपथ ने अपनी किताब के माध्यम से इस बलात्कार के लिए खैरागढ़ के किसी राजा की तरफ इशारा किया है। जीवन की तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद गौहर जान ने अपनी कला साधना में कोई कमी नहीं रखी । 14 साल की उम्र में वे राजा दरभंगा के यहां अपनी पहली प्रस्तुति देती हैं, जिससे प्रभावित होकर राजा साहब उन्हें अपने दरबार में संगीतकार के रूप में नियुक्त कर लेते हैं। गौहर जान ‘हमदम’ और ‘गौहर पिया’ नाम से अपनी नज़्में खुद लिखतीं एवं उनकी धुन बनातीं। यहीं से गायिका और नृत्यांगना के रूप में गौहर जान का एक नामचीन सुनहरा दौर शुरू हो जाता है ।
गौहर जान मशहूर हुईं तो उनके चाहने वाले भी बढ़े। जिन पुरुषों के साथ गौहर के इश्क़ का दौर चला उनमें बनारस के प्रसिद्ध राय परिवार से संबंधित राय छग्गन, बेहरामपुर के धनी जमींदार निमाई सेन, गुजराती-हिंदुस्तानी स्टेज के प्रसिद्ध अभिनेता एवं लेखक अमृत केशव नायक और सय्यद ग़ुलाम अब्बास सब्ज़्वारी का नाम अलग-अलग संदर्भों में प्राप्त होता है। 1906 में गौहर की मां बड़ी मलका जान का देहांत हो गया। 1907 में अमृत केशव नायक का भी अचानक देहांत हो गया।
ये दो साल गौहर के लिए बड़े दुखद रहे। सय्यद ग़ुलाम अब्बास सब्ज़्वारी को गौहर ने अपने मैनेजर के रूप में नियुक्त कर रखा था। बाद में गौहर ने इनसे शादी भी की थी। यह एक पेशावरी पठान था जो गौहर से उम्र में करीब दस साल छोटा था। दोनों के संबंधों में बाद में खटास आ गई थी और कोर्ट कचहरी तक मामला पहुंच गया था। इसने गौहर को आर्थिक रूप से बड़ी चोट दी। अपने प्रेम प्रसंगों में गौहर नाकामयाब ही रहीं। मशहूर शायर ख़ान बहादुर सय्यदअकबर इलाहाबादी गौहर जान के विषय में सन 1910 के आस-पास लिखते हैं –
खुशनसीब आज भला कौन है गौहर के सिवा
सब कुछ अल्लाह ने दे रखा है शौहर के सिवा।
कलकत्ता की निहायत मशहूर-ओ-मा’रूफ़ गायिका गौहर जान 10 से 20 भाषाओं में गाती थीं। उन्होंने तकनीकी बदलाव के अनुरूप अपने आपको तैयार किया। भारत में 78 आरपीएम पर संगीत रिकार्ड करनेवाली गौहर पहली कलाकार थी। इंग्लैंड की कंपनी ग्रामोफोन एंड टाईप राईटर लिमिटेड का पहला सेल्स ऑफिसजुलाई 1901 में कलकत्ता में खुला। कंपनी का रिकार्डिंग अधिकारी गैस्बेर्ग 1902 में कलकत्ता आया। 11 नवंबर 1902 को गौहर कंपनी के अस्थायी स्टूडियो आती हैं। उन दिनों ग्रामोफोन की रिकार्डिंग 02 से 03 मिनट की ही होती थी। ठुमरी को दो से तीन मिनट में गाना बहुत बड़ी चुनौती थी, लेकिन गौहर ने अपनी खास शैली में यह चुनौती स्वीकार की ।
गौहर ने जो बदलाव गायकी के लिए किए उसे उसी रूप में बाद के रिकार्डिंग कलाकारों ने स्वीकार करते हुए अपनाया।हर गायन के बाद वो ‘माय नेम इज़ गौहर जान’ कहना नहीं भूलती थी । गौहर की ठनक, ठसक और खनकती आवाज़ की दुनिया दीवानी थी । गौहर जान और जानकी बाई ने ग्रामोफोन की रिकार्डिंग में अपना परचम लहराया। गौहर जान ने बीस से अधिक भाषाओं में 600 से अधिक रिकार्डिंग किए। इसी रिकार्डिंग की बदौलत गौहर देश ही नहीं, विदेश में भी मशहूर हुई।गौहर जान भारत की पहली रिकार्डिंग सुपरस्टार थीं।
गौहर की बदौलत ग्रामोफोन भारत में लोकप्रिय हुआ। बंगाली, गुजराती, तमिल, मराठी, अरबी, फ़ारसी, पश्तो, फ्रेंच और अंग्रेजी भाषा में गौहर ने अपनी गायकी का लोहा मनवाया। गौहर अपनी हर रिकार्डिंग के लिए उस समय तीन हजार रुपये लेती थीं, जो कि किसी अन्य कलाकार को नहीं मिलता था। अपनी हर रिकार्डिंग के लिए वे नए गहने और कपड़ों में जातीं। गौहर जान की लोकप्रियता का आलम यह था कि आस्ट्रेलिया में बनी माचिस की डिब्बी पर गौहर की फ़ोटो छपने लगी। इसी तरह सिगरेट और ताश की गड्डियों पर भी गौहर की तस्वीर नज़र आती थी । राजस्थान, पंजाब के कठपुतलियों के खेल में गौहर का नाम लिया जाने लगा।
गौहर कलकता में जल्द ही आलीशान कोठियों, महंगी गाड़ियों, शाही गहनों और कपड़ों की मालकिन बन गईं। घोड़ों की रेस में पैसे लगाने का शौक भी गौहर ने पाल लिया था। इसके लिए वे महालक्ष्मी रेस कोर्स, बंबई बराबर आती थीं। कलकत्ता की सड़कों पर सफ़ेद अरबी घोड़ों वाली बग्गी में घूमतीं। उस समय के नियमों के अनुसार ऐसी बग्गी सिर्फ शाही परिवार और अंग्रेज साहब बहादुर रख सकते थे। लेकिन नियमों के खिलाफ गौहर ऐसी बग्गी रखती थीं। इसके लिए उन्हें एक हजार जुर्माना भी भरना पडा था। बावजूद इसके गौहर ने अपने आगे कभी किसी को कुछ नहीं समझा ।
1920 के आस-पास गांधी जी कलकत्ता कांग्रेस के लिए ‘स्वराज फंड’ के बैनर तले चंदा जमा कर रहे थे। गांधी जी ने गौहर की लोकप्रियता को देखते हुए एक गायन प्रस्तुति देने और उससे जो पैसा जमा हो उसे ‘स्वराज फंड’ को दान करने की बात कही। गौहर इस शर्त पर यह कार्यक्रम करने के लिए तैयार हुई कि गांधी जी स्वयं इस आयोजन में उपस्थित रहेंगे।
लेकिन किसी कारणवश गांधी जी नहीं पहुंचे। बाद में जब उन्होंने मौलाना शौकत अली को गौहर के पास पैसे लेने के लिए भेजा तो गौहर ने कुल जमा राशि 24000 रुपये की आधी राशि 12000 रुपये ही मौलाना को दिए। गौहर ने साफ कहा कि गांधी जी ने अपना आधा वादा निभाया, अतः चंदे की राशि भी आधी ही मिलेगी। मौलाना साहब से शिकायती और तंज़ भरे लहजे में गौहर जानने यह भी कहा कि आपके बापू ईमान और एहतराम की बातें तो करते हैं पर एक अदना तवायफ़़ को किया वादा भी नहीं निभा सके। मौलाना साहब मुस्करा के रह गए। ऐसी थी गौहर के व्यक्तित्व की ठसक।
एक बार दतिया नरेश का निमंत्रण गौहर को महफ़िल के लिए मिला। दतिया को कोई छोटी रियासत मानकर गौहर ने आमंत्रण अस्वीकार कर दिया। बाद में दबाव पड़ने पर उन्होने जाना तो स्वीकार किया, लेकिन अपने लिए शाही ट्रेन की मांग की। दतिया नरेश ने 11 कोच की शाही ट्रेन गौहर के लिए भेजी। अपने सहायकों, नौकरों, धोबी इत्यादि तामझाम के साथ गौहर दतिया पहुंची। दतिया नरेश ने गौहर के लिए दो हजार रुपये प्रतिदिन के हिसाब से सम्मान राशि भी सुनिश्चित की। इतना सबकुछ करने के बाद भी गौहर को गाने का अवसर नहीं दिया। गौहर को जल्द ही अपनी गलती समझ में आ गई। उन्होंने दतिया नरेश से माफ़ी मांगी, उसके बाद ही उनको कार्यक्रम की अनुमति मिली। गौहर करीब छह महीने वहां रहीं। यहीं रहते हुए उसने उस्ताद मौला बख़्श से संगीत सीखा।
कलकत्ता में जो संरक्षक गौहर जान को मिलें उनमें सेठ धुलीचंद और सेठ श्यामलाल खत्री प्रमुख थे। राजा दरभंगा, राजा रामपुर, राजा इंदौर, राजा मैसूर, राजा हैदराबाद और राजा कश्मीर के दरबारों में गौहर जान की आवाज गूंजती थी। लाहौर, कराची, लखनऊ, पटना, मुजफ्फरपुर, छपरा, कलकत्ता, हैदराबाद, ढाका, भोपाल, कर्नाटक,पूना और बाम्बे जैसे शहरोंसे जमींदार, उमरा, उलमा बड़े अदब और एहतराम के साथ गौहर जान को अपनी महफिल सजाने के लिएबुलाना शान समझते थे। गौहर जान के बारे में कहा जाता है कि वे सोने की सौ गिन्नियां लेने के बाद ही किसी महफ़िल के लिए हामी भरती थीं। दिसंबर 1911 में इलाहाबाद की जानकी बाई के साथ दिल्ली दरबार में किंग जार्ज़ पंचम के सम्मान में गौहर ने गायन प्रस्तुत किया था।
मैसूर के महाराज कृष्णराज वाडियार चतुर्थ की कृपा से उन्हें 500 रुपये की निर्धारित राशि पर दरबार में संगीतकार के रूप में नियुक्त किया गया। ये गौहर जान के मुफ़लिसी भरे दिन थे। अपनी पालतू बिल्ली के बच्चों की शादी पर कभी बीस हजार दावत पर खर्च करनेवाली गौहर जान आज 500 रुपये की नियुक्ति पत्र पर भी खुश थीं।
गौहर को आवास के रूप में ‘दिलखुश काटेज’ उपलब्ध कराया गया था। यहां वे 01 अगस्त 1928 से रह रही थीं। यहां करीब 18 महीने का समय बिताने के बाद शुक्रवार 17 जनवरी 1930 को मैसूर के कृष्णराजेंद्र अस्पताल में गौहर जान ने आख़री सांस ली। अंतिम दिनों में भी वे बंबई के सेठ माधोदास गोकुलदास पास्ता द्वारा दायर मुकदमें से जूझ रही थीं। उनकी मृत्यु के आठ साल बाद 1938 तक उनका लालची शौहर सय्यद ग़ुलाम अब्बास सब्ज़्वारी उनकी जायदाद एवं गहनों इत्यादि के संदर्भ में पत्र व्यवहार राजा मैसूर के दरबार में करता रहा। हालांकि उसके हाथ कुछ न लगा।
गौहर जान की सारी जिंदगी तूफानों में घिरी हुई उस कश्ती की तरह रहीं जिसने बार-बार रूठी हुई हवा का रुख़ मोड़ दिया। जिंदगी की बुझी हुई शामों को अपने हौसले, अपनी मेहनत से न केवल जलाए रखा, बल्कि उन्हें यादगारी के झिलमिलाते हुए सिलसिले भी दिए। ये गौहर जान की ज़िंदादिली ही थी जिसने सारी तकलीफ़ों, मुसीबतों को अपने आगे बौना साबित किया। अपने समय और समाज की तमाम बर्बरताओं को अपनी देह, अपने मन पर झेलते हुए गौहर ने दुनियादारी की सारी हदों के लिए अपने आपको एक पहेली, एक अपवाद बना लिया। वह भी एक जमाना था कि गौहर जान के बिना महफ़िलों से कई मौसम, कई रंग उदास हो जाते थे।
अपने अंतिम दिनों में गौहर ने वह वक्त भी देखा जो संक्षेप में उदासी, मुफ़लिसी और बेबसी का घुला हुआ रंग था । यह मौसम गौहर के अंदर का मौसम भी था। सचमुच गौहर अब वहां थी जहां से कोईऔर रास्ता नहीं जाता। एक गाने वाली, कोठे वाली इस तवायफ़ ने दुनिया को यह सिखाया कि जीवन खोखले विज्ञापित मूल्यों के लिए नहीं, अपितु अपनी पाली हुई लालसाओं को अपनी जिद्द, अपने श्रम से हासिल करते हुए उन्हें अपनी बाहों की परिधि में लेकर झूमने का नाम है। गौहर सक्रिय हस्तक्षेप करते हुए नएपन का उत्सव मनाना जानती थीं।
गौहर उन लोगों के भी आंख का तारा थी जिन्हें अंधेरा बहुत पसंद था। ऐसे न जाने कितने खूनी पंजों से जूझती हुई वह लहूलुहान हुई होगीं। सभ्य होने के दबाव के नीचे झुका हुआ हमारा समाज एक औरत, एक शानदार फनकार के रूप में गौहर जान से क्या कुछ सीखना चाहेगा ? कम से कम ऐसे सवाल तो दर्ज़ कर लिए जाएं, उसी का यह एक विनम्र प्रयास है।
संपर्क सूत्र : मनीष कुमार मिश्रा , सहायक प्राध्यापक – हिन्दी विभाग के.एम.अग्रवालमहाविद्यालय कल्याण, महाराष्ट्र मो. 9082556682
संपर्क सूत्र : उषा आलोक दुबे, सहायक प्राध्यापक – हिन्दी विभाग एम. डी. महाविद्यालय परेल, महाराष्ट्र मो. 8655837077