युवा कवयित्री। काव्य संग्रह ‘तीस पार की नदियाँ’।

जब जा रही थी गौरैया
अंतिम बार मेरे आंगन से
पलट कर देखा था मुझे
अपनी उदास डबडबाई आंखों से
वह ढूंढ रही थी
आंगन के टुकड़ों में
अपना फुदकना
नीम की डालों के बीच
अपनी अठखेलियाँ
छत पर बिखरे ईंट-पत्थरों में
अपना चहचहाना
घर से अपार्टमेंट बनने के बीच
कई बार आती रही गौरैया
खोजती रही तुलसी-चौरे को
चावल के बिखरे टुकड़ों को
पानी के कटोरे को
मजदूरों के पैरों तले
गारे-मिट्टी के नीचे
रौंदे जाते देखती रही
अपने आशियाने को
एक बार फिर आई थी गौरैया देखने
आसमान छूते विशाल अपार्टमेंट को
नहीं दिखा वहां उसे उसका आकाश
नहीं दिखी उसकी पहचान
डर गई गौरैया
फिर कभी नहीं आई
बिना आसमान और आंगन के इस पिंजड़े में
फुदकने वह नन्हीं गौरैया।

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