युवा कवि, अनुवादक। प्रकाशित कविता संग्रहतुम्हारे लिए

इस जीवन में

इस जीवन में
बहुत सारी यात्राएं स्थगित रहीं
बहुत सारा प्रेम अधूरा रहा
बहुत सारे आंसुओं को
आंखों के कोर ने सोख लिया
बहुत सारे नाम कंठ तक रुके रहे
जिसे पुकारा न जा सका
और इस तरह इस बीतते जीवन में
बहुत सारी हिचकियां
कभी मुलाकात न बन सकीं।

मैं कवि था

मैं गड्ढे में धकेल दिया गया
पर मैंने कहा विश्वास करो

मैं छला गया
पर मैंने कहा प्रेम करो

जब कोई जा रहा था
मैंने उसके लौटने का इंतजार किया

बहुत अंधेरे दिनों में
मैंने रोशनी की तलाश की

पीड़ा के क्षणों में मैंने
कविताएं लिखीं
जब सुख के क्षण थे
मैंने उसे फोन लगाया
पर कोई उत्तर नहीं पाया
उसके बंद दरवाजे से हर बार
चुपचाप लौट आया

सबने पूछा-
पूरी जिंदगी तुमने क्या किया

मैं कवि था
सिवाए इन सब के
आखिर मैं कर भी क्या सकता था?

एक ही शहर में

बहुत बड़ी नहीं थी दिल्ली
यहां एक छोर से दूसरी छोर को
लांघ सकने के लिए पर्याप्त सवारियां भी थीं
एक दूसरे से टकरा जाने की पर्याप्त संभावनाएं भी

मेरी आंखें ढूंढ़ती रहती थीं उसे
जैसे ढूंढता है कोई बच्चा
खोया हुआ सिक्का
तड़पता हुआ, बेचैन सा
डबडबाई आंखों से

कई बार बेवजह भटका हूँ मैं ताकि
मिल जाए कहीं वो
डीटीसी बस की आखिरी सीट पर बैठी
या मेट्रो की लेडीज कंपार्टमेंट में चढ़ते हुए
या किसी शांत दुपहर में अकेली
इंडियन कॉफी हाउस की छत पर
या दिल्ली की सड़कों पर गुलमोहर चुनते हुए

और, एक रोज मिलना हुआ
दो विपरीत दिशाओं में आती जाती मेट्रो के गेट पर

खड़े थे हम दोनों
नहीं, वह उदास नहीं थी
शाम ऑफिस से लौट रही थी शायद
मेट्रो की भीड़ में खड़ी अपनी जगह बनाते हुए
किसी लेडीज कंपार्टमेंट में नहीं
पुरुषों की भीड़ के बीच
हाथ में काला बैग
पानी की बोतल से गला तर कर रही थी
उसने मुझे देखा

उसकी पुतलियों में हलचल हुई
पर उसके होंठ चुप रहे
उसके बाल खुले और आजाद थे
गर्दन पर पसीने से चिपके हुए
उसकी आंखें थकी हुई थीं
और पहले से ज्यादा सुंदर

दरवाजा बंद होते ही
मेट्रो ने रफ्तार पकड़ लिया था…
एक दूसरे को एकटक देखते हुए
हमलोग एक दूसरे से दूर जा रहे थे

उस रोज
दिल्ली की सड़कों पर चलते हुए महसूस हुआ
दिल्ली में खो जाने के लिए पर्याप्त जगहें भी हैं
किसी भीड़ में उसका मेरे पास से
बेखबर गुजर जाने के लिए पर्याप्त भीड़
पल भर में किसी की आंखों के सामने से
ओझल हो जाने लिए पर्याप्त रफ्तार
उसका नाम पुकारूँ
और उसके न सुन सकने के लिए पर्याप्त शोर

एक ही शहर में रहते हुए
हम दो अलग अलग शहर के लोग थे।

मैं चाहता हूँ

मैं चाहता हूँ
तुम जाओ तो उतना भर दूर जाओ कि
एक अंतिम पुकार सुन सको मेरी
मेरे आखिरी समय की

अगर यह भी न हुआ तो इतना भर जरूर हो कि
किसी आसान सा पता चुन
वहां रहने लगो तुम
कोई डाक पहुंच जाए तुम तक भटकते हुए
मेरी खबर लिए

अपने फोन का नंबर कुछ ऐसा चुनो
कि लग जाए रांग नंबर हर बार
तुम्हारे ही पते पर
खबर हो जाए तुम्हें मेरी मृत्यु की
जिसे कोई न कोई तुम तक पहुंचा रहा होगा

नहीं, मैं यह नहीं चाहता कि
तुम आंसू बहाओ
या कहो ‘उफ्फ’ भर
या छिपा लो आंचल के कोर में अपनी आंखें
या भाग कर सबसे, छिप जाओ गुसलखाने में

नहीं, मैं यह नहीं चाहता कि
तुम्हारे आसपास मौजूद एक शख्स भी देखें तुम्हें
शक भरी निगाह से
पूछे तुमसे तुम्हारा अतीत
जिसे तुम जमाने पहले छोड़ चुकी हो

मैं बस चाहता हूँ
तुम एक गहरी सांस लो और
आश्वस्त हो कर जियो कि
अब कहीं कोई
तुम्हारा इंतजार नहीं करता।

संपर्क :रानीगंज मुहल्ला, चकिया, पूर्वी चंपारण, बिहार845412 मो.8826763532