गौरहरि दास |
दीप्ति प्रकाश |
जब शशांक जानबूझ कर राजश्री से नजर चुराकर हवाई जहाज के सामने के द्वार से उतरने जा रहा था, तब तेज आवाज में और सब को सुनाती हुई, राजश्री ने पुकारा,‘शशांक, जरा इंतजार करना।’
शशांक अपने दफ्तर के काम से भुवनेश्वर से दिल्ली आया था।हवाई जहाज के सामने के द्वार से निकलने वाले यात्री एरोब्रिज में जाते थे और पीछे के द्वार से निकलने वाले यात्री नीचे उतरने के बाद एयरलाइन की बस से जाते थे।शशांक का कुछ भारी सामान न होने के कारण वह सीधे टैक्सी स्टैंड को चला जाता।मगर अब राजश्री के लिए उसे इंतजार करना होगा, जिसे वह नहीं चाहता था।
राजश्री के साथ उसकी आखिरी मुलाकात लगभग आठ साल पहले हुई थी।वह भी बस एक छोटी सी मुलाकात थी।तब तक राजश्री भारतीय प्रशासनिक सेवा में शामिल हो चुकी थी और हैदराबाद में उसकी नियुक्ति हो चुकी थी।उसके पति भी आईएएस थे और दोनों ने आंध्र प्रदेश कैडर चुना था।वाणीकिहार में शशांक राजश्री से अच्छा छात्र होने के बावजूद कैरियर की दौड़ में राजश्री से पीछे रह गया था।पहले भारतीय प्रशासनिक सेवा का ख्वाब त्यागकर और दूसरी भारतीय सेवा से हट कर अंत में शशांक ओड़िशा प्रशासनिक सेवा में शामिल हुआ था।उस वक्त उसे लगने लगा था कि उसका अपना जीवन असफलताओं का एक लंबा दस्तावेज है।हालांकि राजश्री का जीवन पूरी तरह से अलग था।उसके पास सबकुछ था और सबकुछ है- धनी बाप की बेटी, सुंदर चेहरा, आकर्षक व्यक्तित्व, मन के मुताबिक पति और देश की सबसे अच्छी नौकरी।यही सारी बातें सोच कर उसने खुद ही मानसिक तौर पर राजश्री से दूर हो जाने का निर्णय ले लिया था, जबकि राजश्री और वह दोनों अच्छे मित्र थे।साफ-साफ कहें तो राजश्री के आगे वह खुद को छोटा महसूस करने लगा था और ऐसा लगता था कि वह एक आदर्शवादी असफल इनसान है।इसलिए वह पिछली मुलाकात के दौरान झूठमूठ के काम का बहाना बनाकर जल्दी चला गया था और आज भी उससे बच कर चला जाना चाहता था।साथ ही राजश्री के संबंध में सुना हुआ एक ‘स्कैंडल’ भी एक बड़ा कारण था।
शशांक लगेज लाने वाले कॅनकेयर बेल्ट के पास खड़ा होकर राजश्री का इंतजार कर रहा था।उसे ताज्जुब हो रहा था कि लगभग चालीस साल की उम्र में भी राजश्री उतनी ही सुंदर लग रही है, जितनी वाणीविहार में एम.ए. के दौरान सुंदर थी।उसके लंबे बाल कमर तक फैले हुए थे और चेहरा चिकना और ताजा था।शरीर के किसी भी अंग में अधिक चरबी नहीं! अपने स्वास्थ्य पर अधिक यत्नशील रहती होगी राजश्री।
हां, क्यों नहीं रहेगी? दूसरों को आकर्षित करने में राजश्री हमेशा सफल थी, अब भी सफल रहती होगी।जो अपने पति के होते हुए दूसरे पुरुष मित्रों के साथ रहने को पाप या अनुचित नहीं समझती है।उसे तो अपने चेहरे को हमेशा सजाकर रखना होगा।उसकी जैसी ऊंचे घराने की महिलाएं हमेशा तितलियों की तरह सुंदर दिखने के लिए प्रयासरत रहती हैं।यह सब सोचने पर कुछ हद तक घृणा और कुछ हद तक ईर्ष्या से शशांक का चेहरा संकुचित हो जाता था।
ऐसा भी एक दिन था, जब राजश्री के लिए शशांक के मन में खूब श्रद्धा थी।वह श्रद्धा सही मायने में प्यार नहीं, तब उसे बासंती से प्रेम था; लेकिन राजश्री का सान्निध्य उसे काफी उत्साहित करता था।एक विचित्र किस्म की सम्मोहन शक्ति राजश्री में होती थी।
एक दिन शशांक लाइब्रेरी से किताब लेकर लौट रहा था।एक गुलमोहर के पेड़ की छांव तले बासंती का इंतजार करते समय राजश्री उसे देखकर मुस्कराने लगी थी।राजश्री ने उसे सीधे तौर पर बासंती के बारे में पूछा।पहले ऐसा सवाल सुन कर शशांक को आश्चर्य हुआ।उसके प्रेम के बारे में राजश्री को पता कैसे चला? उसने तो इसकी चर्चा डिपार्टमेंट में किसी के साथ नहीं की थी।राजश्री ने कहा था, ‘तुमको छोड़ कर, हमारे डिपार्टमेंट में सबको इसकी खबर है।तुम्हारी महिला मित्र के भाई ने क्या तुम्हारी हत्या करने की घोषणा की है।तुम्हारा भद्रकवाला मित्र नीलाद्री बोल रहा था।’
कॉलेज के दिनों की अपनी प्रेम कहानी याद हो आने पर शशांक को हँसी आई।किसे पता, बासंती आज कहां होगी? जहां पर भी हो, खुशहाल हो।हां, उस दिन राजश्री ने उसे चौंकाने के लहजे से पूछा था, ‘तुम्हारी प्रेम कहानी कहां तक बढ़ी?’
शशांक ने मुंह लटका कर जवाब दिया, ‘मेरा जीवन तो कुछ इसी तरह का है।जिसमें हाथ लगाता हूँ, उसमें असफल होता हूँ।नीलाद्री को यह सब बखानने में शर्म नहीं आई!’
‘उफ! कितनी करुण हैं तुम्हारी बातें।भरोसा रखो, अगर वह लड़की वाकई तुम्हें चाहती है, तो निश्चित रूप से तुम्हारा प्रेम सफल होगा।उसका भाई कुछ नहीं कर पाएगा।अच्छा, नीलाद्री से तुम कुछ मत पूछना।वरना वह अधिक उत्साहित हो जाएगा और तुम्हारी प्रेम कहानी का अधिक प्रचार करेगा।’
आज रह रह कर बासंती की यादें बहुत सताने लगी थीं शशांक को।बेचारी उसे खूब चाहती थी।शादी से पहले व्याकुल होकर उसने चिट्ठी लिखी थी, ‘तुम न आ पाए न सही, मुझे अपना पता दो, मैं तुम्हारे पास पहुंच जाऊंगी।वरना हमारे घरवाले मेरा ब्याह करा देंगे।कृपा करके इस नाचीज की बात मानना।चिट्ठी का जवाब देना।’
शशांक ऐसा नहीं कर पाया।न ही उस वक्त वह नौकरी का इंतजाम कर पाया, न ही भय को अतिक्रम कर पाया।उसकी विधवा मां के दुखों ने उसके हाथ-पैर को बांध लिया था।बासंती ने लंबी इंतजार के बाद किसी दूसरे से शादी कर ली।शशांक डरपोक की तरह मुंह छुपा कर रोने लगा और तकिया को गीला करता रहा।
‘आओ शशांक। ‘ओड़िशा भवन’ नहीं जाओगे?’ राजश्री पूछ रही थी।
‘आपको कैसे पता?’ शशांक ने जवाब दिया।
‘आप?’ आंखें बड़ी कर के राजश्री ने पूछा।शशांक जरा शरमा गया।राजश्री बात को आगे बढ़ाती हुई बोली, ‘ओड़िशा के ऑफिसर आते हैं तो उसी ‘भवन’ या ‘निवास’ में रहते हैं।हां, एक आध कोई यहां पर रूम बुक कराके भी अच्छे होटलों मेें चले जाते हैं।तुम्हारी इस प्रकार की कोई योजना तो नहीं है?’
उफ, कितना भयंकर खुले मिजाज की लड़की है! जरा भी बदली नहीं।शशांक राजश्री की बातों का इशारा समझ रहा था।
‘चलो, मैं तुम्हें चाणक्यपुरी में उतार कर चली जाऊंगी।रास्ते में बातें करते हुए जाएंगे।कई दिनों से मैं तुमको ढूंढ रही थी।’ राजश्री टैक्सी की तरफ बढ़ते हुए बोल रही थी।
शशांक ने फिर एक बार टोका, ‘नहीं, मैं चला जाऊंगा।’ अब शशांक की आंखों में सीधे आंखें डाल कर राजश्री कहने लगी, ‘साफ-साफ मुझे क्यों नहीं कहते कि तुम मुझसे बचना चाहते हो।’
शशांक चौंक गया।मन की बात को राजश्री कैसे भांप गई? बोला, ‘न, न, ऐसी कोई बात नहीं है।चलो, साथ चलते हैं।’
गाड़ी में अपना बैग रखने के लिए ड्राइवर की तरफ बढ़ाते हुए राजश्री बोली, ‘कुछ याद है, आखिरी बार तुम से कब मुलाकात हुई थी?’
‘हां, बड़े दिन हो गए हैं।’
‘दिन नहीं, साल।छह मई दो हजार सात शाम को।’
‘ताज्जुब है।आप, नहीं तुम्हें तारीख भी याद है।क्या जबरदस्त याददाश्त है!’
‘उस दिन मेरी दूसरी सालगिरह थी।’ राजश्री ठंडे स्वर में कहने लगी।
वे कार के अंदर बैठे थे।राजश्री ड्राइवर से पूछ रही थी, ‘समय क्या हुआ है? हम जरा ‘एम्स’ होकर जा सकते हैं क्या?’
‘हां, मैडम।’ ड्राइवर ने जवाब दिया।
अब राजश्री ने शशांक से पूछा, ‘वाणीविहार में आखरी साल के ड्रामे की बातें याद है तुम्हें? तुम तो उस वक्त पूर्ण रूप से विषादयोग में थे।अच्छा, उसका क्या नाम है बोलो तो, वह अभी कहां है?’
अनजान बन कर शशांक ने पूछा, ‘कौन? किसकी बात कर रही हो?’
‘तुम्हारी महिला मित्र।जिसके लिए गुलाबों की हजारों पंखुड़ियों में अभिनंदन पत्र बनाया था तुमने तमाम रात जाग कर।’
बासंती।बासंती की बात पूछ रही थी राजश्री – शशांक समझ गया।वह हँसने का अभिनय करके किसी ओड़िया गीत की एक पंक्ति गाने लगा, ‘क्या भी हुआ, इस जीवन में प्यार भी न हुआ।’
‘उफ, कितने दुख की बात है।लेकिन गलती तुम्हारी तरफ से हुई होगी।माफ करना, मैं अनुमान लगा रही हूँ।असली बात मुझे नहीं पता।’
बीते दिनों की किसी भी बात को फिर से दोहराना नहीं चाहता था शशांक।पुराने घाव को खरोंचने से खून ही निकलता है, लेकिन कोई लाभ नहीं होता।उसने कहा, ‘रहने दो, फिर कभी।तुम अपनी बताओ।कैसे चल रहा है जीवन?’
‘अच्छा।’ शशांक के सवाल को टालती हुई राजश्री ने छोटा सा जवाब दिया।
शशांक रास्ते के दोनों तरफ की दिल्ली को देख रहा था।कुछ समय पहले सावन की बारिश बरस कर गई है।अपराह्न का रास्ता, पेड़॒-पौधे और मकान सबकुछ साफ, सुंदर लग रहे थे।गाड़ी के अंदर एयरकंडीशनर चलने के कारण शीशे बंद थे।राजश्री के बदन पर लगाई हुई मीठी परफ्यूम की खुशबू पूरी गाड़ी को महका रही थी।उसके पहनावे और व्यक्तित्व के सामने शशांक खुद को बहुत ही छोटा महसूस कर रहा था।
‘तुम हमारे ड्रामा में रावण बने थे।याद है?’
शशांक हँसने लगा।उसे याद है, उसके पृथुल शरीर के कारण ड्रामे के निर्देशक ने उसे रावण के किरदार के लिए चुना था, जबकि उसकी इच्छा राम का चरित्र निभाने की थी।
उसने कहा, ‘याद है, और तुम सीता बनी थी।’
‘हां, सीता।’
‘मैडम, एम्स।’
‘उफ, हम पहुंच गए? सुनो शशांक, मेरा यहां पंद्रह मिनट का काम है।तुम्हें कोई एतराज तो नहीं है?’
शशांक राजश्री से मुक्ति पाने के लिए ऐसे मौके की तलाश में था।उसने कहा, ‘मुझे देर हो जाएगी।’
‘तो, फिर चलो।मैं फिर किसी वक्त आऊंगी।’ गाड़ी से उतरती हुई राजश्री फिर गाड़ी के अंदर आ गई।
सौजन्य की दृष्टि से शशांक ने पूछा, ‘अब तुम्हारी पोस्टिंग कहां पर है? हैदराबाद या दिल्ली में?’
राजश्री बोली, ‘शायद तुम्हें इसका पता नहीं है, मैंने सिविल सर्विस से इस्तीफा दे दिया है।अब मैं अध्यापन कर रही हूँ।यहीं, दिल्ली यूनिवर्सिटी में।’
शशांक को लगा, जैसे नजदीक में कोई विस्फोट हुआ।वह खिड़की के शीशे से बाहर की तरफ देखने लगा।टैक्सी ड्राइवर दूसरी तरफ देख कर बोला, ‘एक्सीडेंट’।
‘बच गया, हम इस तरफ हैं।चलो, जल्दी चलते हैं।’ राजश्री ने टैक्सी के ड्राइवर से कहा।
‘ओड़िशा निवास’ पहुंचने तक शशांक राजश्री से कुछ और नहीं पूछ सका था।राजश्री भी कुछ नहीं बोली थी।बीच में उसने अपने बालों को समेट जुड़ा बांध कर उसमें तितली की आकृति वाला एक क्लीप लगाई थी।उसके बाद उसने अपने मोबाइल पर आए एसएमएस को पढ़ा था और उसका जवाब दिया था।
‘आड़िशा निवास’ के पोर्टिको में गाड़ी पहुंच गई थी।शशांक अपना बैग लेकर उतर गया।सीढ़ी चढ़ कर जाते वक्त पीछे से राजश्री ने आवाज दी, ‘रुको, मैं अपना विजिटिंग कार्ड तुम्हें दे रही हूँ।मन करे तो फोन करना।कुछ बातें हैं तुम्हारे साथ।न हुआ तो मैं कुछ सोचूंगी नहीं।समझूंगी, दूसरों की तरह तुम भी मेरे साथ रिश्ता रखना नहीं चाहते हो।’
शशांक ने राजश्री के हाथ से कार्ड ले लिया।टैक्सी ड्राइवर ने गाड़ी को जरा आगे लेकर घुमाया।टैक्सी आंखों से ओझल होने तक शशांक अपना बैग पकड़े वहीं खड़ा रहा।उसे यकीन नहीं हो रहा था कि राजश्री ने सिविल सर्विस से इस्तीफा दे दिया है।कम से कम उसकी और बीस साल की नौकरी थी।इस्तीफा क्यों दिया उसने? वजह जानने के लिए उसके अंदर उत्सुकता बढ़ रही थी।रात का खाना खाकर बिस्तर पर लेटने तक बार-बार वही बातें लौट फिर कर आ रही थीं।उसके साथ पिछले दिनों की कई यादें ताजा होने लगी थीं।
तब शशांक बहुत ही बेचैन रहता था।घर की आर्थिक समस्या उसकी बेचैनी को बढ़ा रही थी।अभाव नाम की चीज हमेशा उसके साथ थी।बासंती मदद न करती तो वाणीविहार में वह अपना ऐडमिशन भी नहीं करा पाता।जिस दिन शाम को बासंती नाश्ते का पैकेट बोल कर खुद के जमा किए बारह सौ रुपये शशांक के हाथों में थमा कर चली गई, उस दिन शशांक को अपनी मां की कही बातें फिर से याद हो आईं।माँ ने कहा था, ‘तेरा जन्म दुर्गाष्टमी के दिन हुआ है, देखना तेरी मुश्किल के समय कोई नारी आकर तेरी मदद करेगी।’
सिर्फ उसी वक्त ही नहीं, जीवन में कई बार इसकी सत्यता का अनुभव किया है शशांक ने।आर्थिक, मानसिक और आवेग के क्षणों में किसी न किसी नारी से किसी भी प्रकार की सहायता उसे मिली है।नौकरी के क्षेत्र में भी यह बात सच साबित हुई है।राजश्री ने भी दो तीन बार उसके मेस के खर्चे का भुगतान किया होगा।
वाणीविहार में पढ़ते वक्त राजश्री सबके आकर्षण की केंद्रबिंदु थी।पहली बात यह थी कि वह बहुत ही सुंदर थी, दूसरी बात यह थी कि उनके डिपार्टमेंट में वही अकेली छात्रा थी जो कार में आती-जाती थी।तीसरी बात यह कि राजश्री के पिता राज्य के जानेमाने व्यवसायी थे।
राजश्री का एक अवगुण था॒ स्पष्टवादिता।किसी भी बात को वह सहजता से ग्रहण नहीं कर पाती।अध्यापक, अध्यापिका हों या फिर सहपाठी, किसी के कुछ बोलने पर वह तुरंत उसका जवाब देती।इसलिए उसे कोई कुछ नहीं बोलता था।फिर राजश्री नेत्री स्वभाव की लड़की थी।डिपार्टमेंट में कोई किसी को आक्षेप करता या किसी को चोट पहुंचने वाली बातें करता तो राजश्री नेत्री की तरह उस घटना में हस्तक्षेप करती थी।उसका रंग-ढंग देख कर लड़के भी सहम जाते थे।
इतने गुणों के बावजूद राजश्री को किसी से न तो प्यार हुआ न ही उसका कोई खास मित्र था।यही बात बीच-बीच में शशांक और उसके दोस्तों में चर्चा का विषय बनती थी।नीलाद्री बोलता था, ‘राजश्री का व्यक्तित्व इतना मजबूत है कि किसी लड़के के लिए उस पर प्रभाव डाल पाना मुश्किल है।फिर प्रेमिका बनने के लिए जरा फूलों की तरह नर्म॒नाजुक होना जरूरी है।शाल के पेड़ सा बने रहोगे तो प्रेम कैसे होगा?’ दूसरे भी नीलाद्री की बातों पर सहमत हुए थे।वे यह महसूस करते थे कि राजश्री जरूरत से ज्यादा तार्किक और दृढ़ है।ऐसी लड़की से कोई प्यार करने की हिम्मत नहीं करेगा।
दोस्तों के साथ जो चर्चाएं होती थीं उनकी खबर जाने कैसे राजश्री के पास पहुंच जाती थी।लेकिन वह परेशान नहीं होती।अधिक उत्साहित होकर अपनी भावमूर्ति को कुछ ज्यादा ही उग्र बना लेती थी।उस साल विनोद छात्र संसद के सभापति पद का दावेदार था।वह भी था शशांक के मित्रों की टोली का नियमित सदस्य।ओड़िशा में जात पांत का विभेद नहीं है, यह जानने के बावजूद विनोद खुद को यदुपति श्रीकृष्ण का वंशधर बताकर सहपाठियों का समर्थन मांगता था।तब कटक के एक क्रीड़ा संगठक खुद को यादव संप्रदाय का और एक आइएएस आफिसर ओड़िशा खंडायत सम्मिलनी तथा एक बड़े प्रशासक कायस्थ कुल का मुखपात्र बनकर ओड़िशा के आम जनजीवन को प्रभावित करने का उद्यम करते थे।यह बात राजश्री और शशांक जैसे हेतुवादी छात्र-छात्राओं को परेशान करती थी।इनसान तो इनसान है; यादव, क्षत्रिय, कायस्थ, ब्राह्मण यह क्या है? मनुष्य समाज बनने के वर्षों बाद आई जातिप्रथा को लेकर शिक्षित लोग क्यों इतने जज्बाती हैं? यही गुस्सा जब मन में था तब विनोद आकर डिपार्टमेंट में भाषण देने पहुंचा था।उसने कहा, जैसे श्रीकृष्ण ने यादव कुल का विकास किया था वैसे ही वह अपने विश्वविद्यालय का विकास करेगा।
राजश्री तब लाइब्रेरी में थी।डिपार्टमेंट में विनोद के भाषण देने की बात सुन कर तूफान सी पहुंच गई थी।विनोद का भाषण खत्म होने के बाद बच्चों ने ताली पीटी थी।विद्याथियों की तालियां थमने के बाद, पीछे खड़ी राजश्री खुद तालियां बजाकर आगे आई और भाषण देने लगी।हमेशा स्रोत के विपरीत जाना राजश्री का स्वभाव था।यह बात डिपार्टमेंट में सब को पता होने के कारण सभीउसका भाषण सुनने लगे।
शशांक को अब भी राजश्री के भाषण का सारांश याद है।राजश्री बोली थी, ‘विनोद श्रीकृष्ण के बदले खुद को यादव कुल का नेता एलान करते तो मुझे अधिक खुशी होती।उसके बदले वह एक कूटनीतिज्ञ और स्वार्थी को क्यों अपने कुल के नेता के रूप में स्वीकार करते हैं?’
कूटनीतिज्ञ? स्वार्थी? कौन? श्रीकृष्ण! भारतीय संस्कृति में सबसे उज्ज्वल पुरुष के रूप में परिचित भगवान श्रीकृष्ण को स्वार्थी आख्या देने में राजश्री को कोई संकोच नहीं हुआ।एक अविश्वास का भाव सब के चेहरे पर दृश्यमान होने लगा था।शशांक भी आश्चर्यचकित हुआ था।
उनलोगों को ज्यादा देर तक इंतजार करना नहीं पड़ा था।राजश्री ने पल भर रुक कर फिर से अपना भाषण शुरू किया था।उसने कहा था, ‘समग्र भारतवर्ष यादव कुल के प्रतिनिधि के रूप में जिस श्रीकृष्ण को स्वीकार कर रहा था, वह श्रीकृष्ण स्वयं क्या यादव थे? नहीं, वस्तुतः वह क्षत्रिय थे।क्योंकि उनके पिता थे राजा वसुदेव।यादवों को बिना युद्ध के श्रीकृष्ण ने जीत लिया था, अपने छल और प्रेम से।अगर वह श्रीराधा को इतना प्रेम करते थे, तो राजा बनने के बाद उनसे विवाह क्यों नहीं किया? वह क्या विप्लवी और समाज संस्कारक थे।क्यों फिर वह अपने प्यारे गोकुल नहीं लौटे।जिस गोकुल की गोपियां उन्हें प्राण से अधिक चाहती थीं, आंखों का तारा समझती थीं, उन्हें वह पूरी तरह से भूल कैसे गए?’
‘श्रीकृष्ण का पूरा जीवन अनेक पर एक की प्रतिष्ठा के लिए निरंतर उद्यम ही है।जिस गंधमार्दन को गोकुल निवासी हटा नहीं पाए, उसे कनिष्ठा उंगली से उठाकर क्या प्रमाणित करना चाहा था उन्होंने? वह सुपरमैन, वह महापुरुष हैं।वह खुद प्रसिद्ध होंगे- यही है श्रीकृष्ण की जीवन गाथा।क्या विनोद भी छल-कपट से यही करना चाहते हैं।’
डिपार्टमेंट में अधिकतर विद्यार्थी राजश्री के तर्कों से सहमत नहीं थे।श्रीकृष्ण और भारतीय पुराण की कहानियों को लेकर उनके मन में वर्षों से जो विश्वास घर कर गया था, राजश्री का तर्क उसका विरोधाचरण करता था।लेकिन खुले तौर पर किसी ने भी प्रतिवाद नहीं किया था।शशांक समेत कुछ औरों ने राजश्री के तर्कों से उत्साहित होकर तालियां मारी थी।सबसे बड़ी बात, खुद विनोद भी राजश्री के तर्कों से प्रभावित हो गया था।फिर वह बिना कुछ बोले अपने समर्थकों को लेकर उस श्रेणीकक्ष से बाहर चला गया था।
परंतु उस घटना के बाद प्रोफेसर परिड़ा ने राजश्री की खूब निंदा की थी।उन्होंने ऊंचे स्वर में कहा था, ‘भारतीय संस्कृति को ऐसे लांक्षित करना शिक्षा का उद्देश्य नहीं है।लेकिन राजश्री ने नम्र मगर अविनय अंदाज में कहा था, ‘विश्वासों और धारणाओं पर सवाल उठाना ही तो शिक्षा का असली उद्देश्य है।ऐसा न हुआ तो इनसान जहां है, वहीं रह जाएगा।मैंने एक ही प्रसंग में पुराण को ‘चैलेंज’ किया है, उससे मजबूत तर्क अगर कोई करे तो मैं अपना मत वापस ले लूंगी।मैंने अपना तर्क रखा है, किसी प्रकार की असंगत बातें नहीं कही हैं।’
वही राजश्री, धनी बाप की मेधावी कन्या, खूबसूरत और गुणवती।उसने अचानक सिविल सर्विस से क्यों इस्तीफा दे दिया? उसके जैसे दृढ़ चरित्र की लड़की क्या प्रचलित व्यवस्था का मुकाबला नहीं कर पाई?
नहीं, राजश्री ने कभी हार नहीं माना होगा।हारना उसके स्वभाव में नहीं था।
शशांक ने दीवार घड़ी की ओर देखा।रात के बारह बजने वाले थे।कल सुबह वकील के पास जाना है, रेसिडेंट कमिश्नर से चिट्ठी लिखवानी है, फिर सेक्रेटरी के भतीजे के लिए दरियागंज से डॉक्टरी प्रवेशिका के लिए किताबें खरीदनी हैं।कई काम हैं।उसने बत्ती बुझा कर सोने का प्रयास किया।
बिस्तर से उठ कर बाथरूम जाने के रास्ते में शशांक खिड़की से बाहर की तरफ झांक कर मन ही मन कहने लगा।रात खूब बारिश हुई।बिस्तर के पास टीपॉय पर रखे गए राजश्री के विजिटिंग कार्ड पर उसकी नजर पड़ी।फिर से राजश्री की बातें याद हो आईं।इस बार वाणीविहार में नाटक अभिनीत होने वाली शाम की बात।
लड़कें और लड़कियों के लिए अलग-अलग ग्रीनरूम बने थे।सबसे अधिक मेकअॅप की आवश्यकता शशांक को थी।दो दृश्यों में उसके कंधों पर कार्डबोर्ड के बने नौ सिर लगाए गए थे।वे सब उसे पहाड़ों सा भारी लगते थे।बीच-बीच में जब उसके दृश्य नहीं होते, तब नकली सिरों को उतार कर बाद वाले दृश्य का संवाद याद करता था।वैसे संवाद याद करते-करते वह कब दूसरे ग्रीनरूम तक चला गया था, उसे मालूम न पड़ा।खिड़की में टंगे परदे की आड़ से भीतर का दृश्य दिखाई देता था।राजश्री तब निरा ब्रा पहन कर उस पर गेरुए रंग की साड़ी पहनने की कोशिश कर रही थी।उसकी एक बांधवी मदद कर रही थी।मार्वल से बनी देवीमूर्ति-सी सुंदर लग रही थी राजश्री।उसे देख कर उत्तेजना से सिहर गया था शशांक।इससे पहले कि दूसरा कोई उसे देख ले वहां से वह चला आया था।नाटक के खत्म होने तक वह फिर स्वाभाविक नहीं हो पाया था।
अगले दिन सुबह राजश्री उसे बधाई देने आई थी।उस वक्त शशांक ने सिर्फ इतना कहा था, ‘नम्रता भी कितना निर्मम हो सकती है, यह तुम से सीखना है।नाटक तो रामचंद्र और सीता का था, रावण तो बस खलनायक था।बधाई तो मुझे तुमको देना था।’
तब राजश्री ने उसे बता दिया था, वह सेमिस्टर के बाद सिविल एग्जाम की तैयारी के लिए दिल्ली चली जाएगी।
इम्तिहान के बाद शशांक भद्रक चला गया था और राजश्री दिल्ली।बीच में शशांक ने राजश्री को दो अभिनंदन पत्र भेजे थे।पहली बार जब राजश्री की आईएएस बनने की खबर मिली और दूसरी बार राजश्री के विवाह के समय।
न, राजश्री से और एक बार मिलना होगा- शशांक मन ही मन कहने लगा।बिना मिले चला जाएगा तो वह जरूर सोचेगी, शशांक उसे टालना चाहता है।यह उचित न होगा।राजश्री महज उसकी सहपाठिनी थी, ऐसा नहीं।उसके अच्छे बुरे वक्त में उसका साथ देती थी।इतना कृतघ्न होना उसके लिए उचित नहीं होगा।
पूरा दिन शशांक का व्यस्तता में बीता, जैसे उसने सोचा था।वकील और रेसिडेंट कमिश्नर का काम निबटाने के बाद वह किताब लाने के लिए दरियागंज चला गया।किताबें खरीदकर ‘ओड़िशा निवास’ लौटते–लौटते शाम सात बज चुके थे।
शशांक ने सोचा, राजश्री के यहां जाने से पहले उसे एक बार फोन करना जरूरी है।मोबाइल फोन निकालकर उसने देखा कि वह ‘साइलेंट मोड’ पर था।सात मिस कॉल थे, उनमें से दो राजश्री के।
उसने फिर फोन किए बिना एक टैक्सी बुलाई और कहा, ‘चलो, सरोजिनी नगर।’
राजश्री का घर खोजने में शशांक को कोई परेशानी नहीं हुई।टैक्सी को विदा करने से पहले शशांक ने फिर एक बार राजश्री के दिए कार्ड में लिखा मकान का नंबर मिलाकर देखा।ठीक है।
डोर बेल बजते ही राजश्री ने आकर दरवाजा खोला।राजश्री उसे ड्रॉइंग रूम में लाकर बिठाई।राजश्री पूछ रही थी, ‘मकान खोजने में कोई मुश्किल तो नहीं हुई?’
‘अरे नहीं, दिल्ली के टैक्सी ड्राइकर तो मुसाफिर को लेकर मंगल ग्रह पर भी पहुंचा देंगे।तुम्हारा मकान तो मेन रोड पर है, ढूंढने में कैसी मुश्किल होती?’
‘तुम बैठो।मैं तुम्हारे लिए पानी लाती हूँ।’ अंजली भर हल्की खुशबू फैलाकर राजश्री पानी लाने अंदर चली गई।
शशांक इधर-उधर होकर राजश्री के अपार्टमेंट के ड्रॉइंगरूम को देख रहा था।उसे ताज्जुब हो रहा था कि राजश्री जैसी एक धनी औरत का ड्रॉइंगरूम इतना सामान्य और बिना सजधज के कैसे है? फिर उसके पति कहां हैं? कोई नौकर चाकर भी नहीं दिखते थे।ड्रॉइंगरूम में चार लोगों के बैठने के लिए बेंत का सोफा सेट, बीच में एक टीपॉय।थोड़ी दूरी पर डाइनिंग टेबल और टेबल के चारों तरफ चार चेयर।दीवार के बीचो-बीच एक बड़ी पेंटिंग।उस पेंटिंग को देख कर शशांक हैरान रह गया।वह था रावण का बड़ा-सा चित्र।चित्र आधुनिक होने के कारण एकदम से वह पेड़-सा दिखता है, पर जरा गौर से देखें तो पेड़ की शाखाओं की तरह दिखनेवाली डालें रावण के दस सिर हैं यह समझ में आ जाता है।राजश्री की रुचि शशांक को रहस्यमय लगने लगी।क्या कोई ड्रॉइंगरूम में रावण की तस्वीर इस तरह रखता है भला? उस ओर से आंखें फिरा कर दाहिनी ओर देखने लगा।दीवार से सटकर एक लंबा टेबल और टेबल पर पहाड़ों की तरह किताबों का ढेर।
राजश्री ने पानी का ग्लास लाकर टीपॉय पर रखा।शशांक और एक बार रावण की तस्वीर की ओर देखने लगा।
राजश्री ने पूछा, ‘अच्छी लग रही है? तुम तो रावण हो?’
‘हां नहीं, हां।’
राजश्री बोली, ‘चाय या कॉफी पिओगे? वाणीविहार के दिनों जैसा बोलना नहीं कि ‘जो भी हो’ चलेगा।मैं चाय या कॉफी दे सकती हूँ, ‘जो भी हो’ नहीं दे सकती।’
शशांक हँसने लगा।राजश्री बदली नहीं।
‘चाय।’ शशांक बोला।
राजश्री फिर से रसोई घर में चली गई।शशांक उठ कर किताबों के ढेर के पास गया।सबसे ऊपर दर्शन की एक मोटी किताब रखी हुई थी।उसे खोल कर पन्ने पलटने लगा।
राजश्री लौट आई।शशांक को एक कप पकड़ा कर उसने खुद चाय का एक कप ले लिया और कहा, ‘शशांक, जो पूछंगी, सच सच बताओगे?’
‘अरे हां।झूठ क्यों बोलूंगा? पूछो।इतना अविश्वास क्यों?’
‘मेरे बारे में भुवनेश्वर में क्या चर्चाएं चलती हैं?’
शशांक ऐसे सीधे सवाल के लिए प्रस्तुत नहीं था।राजश्री को लेकर भुवनेश्वर में जो चर्चाएं होती हैं, वह राजश्री को बता नहीं सकता।वह सवाल को टाल जाने के लिए बोला, ‘तुम तो आंध्र कैडर की हो।तुमको लेकर ओड़िशा में क्यों चर्चा होगी?’
‘लेकिन दोस्तों में तो बातें होती होंगी।’
‘सच बोलूं तो मेरे साथ ऐसे विषयों पर कोई बात नहीं करता।फिर तुम्हारे साथ तो कई दिनों से मिलना-जुलना भी नहीं हुआ है।’
फिर से राजश्री ने संशोधन किया, ‘कई साल’।
‘हां, कई साल।’
राजश्री अब सीधे शशांक के चेहरे पर नजर डालने लगी।कितनी पैनी आंखें हैं राजश्री की।एक पल भी उन आंखों का सामना करना मुश्किल है।
राजश्री कह रही थी, ‘मैंने तुमसे कई बार संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन तुमने नहीं चाहा।’
शशांक राजश्री की नजरों से बचने के लिए किताबों के ढेर की ओर देखने लगा था।राजश्री की शिकायत सुन कर उसने जवाब दिया, ‘कब? मुझे तो पता नहीं चला।’
खिड़कियों के उस पार दिल्ली की सड़कों की बत्तियां आसमान के तारों-सा चमकने लगी थीं।बारिश से भीगी आबोहवा बड़ी अच्छी लग रही थी शशांक को।उसमें बस समस्याएं खड़ी करते थे राजश्री के सवाल।
राजश्री फिर से पूछने लगी, ‘तुम्हारे काम हो गए? कब लौटना है?’
‘कल।’ शशांक ने छोटा सा जवाब दिया।
राजश्री ने लंबी सांस ली।
चाय का कप टीपॉय पर रख कर शशांक ने पूछा, ‘तुम्हारे पतिदेव को नहीं देख रहा हूँ? क्या बाहर गए हैं? और कामधंधे के लिए किसी को नहीं रखा है।हर काम खुद ही करती हो क्या? या, पति हाथ बटाते हैं?’
राजश्री हँसने लगी।बोली, ‘तीन साल हो गए हैं, हम अलग रह रहे हैं।तलाक ही समझ लो।’
एक बार फिर शशांक चौंक पड़ा।कॉलेज में पढ़ने के दिनों में खुद को सबसे सफल और सौभाग्यवती समझनेवाली राजश्री यह क्या कह रही है? एक के बाद एक असफलताओं की खबर उसे क्यों दे रही है!
राजश्री बोली, ‘कई दिनों से सोच रही थी कि मैं अपना सबकुछ किसी को बताऊं।मैं अगर लिखने विखने का काम करती तो जीवन के बारे में लिख कर एक किताब छपवा देती।उसे कोई पढ़े या न पढ़े मेरा मन हल्का हो जाता।मेरे दोस्तों में तुम ही एक हो, जिसको मैं सबकुछ निःसंकोच कह पाती हूँ।लेकिन तुम भी दूसरों की तरह टालने लगे हो।’
शशांक ने पूछा, ‘सच बोलो, हैदराबाद के उस खान व्यवसायी से तुम्हारे रिश्तों को लेकर जो सुनने को मिलता है क्या वह सच है?’
अब राजश्री कमर सीधा करके बैठ गई।फिर एकबार उसी चमत्कारी अंदाज में उसने लंबे बालों को ऊपर उठा कर जूड़ा बांध लिया।दोनों बाजुएं जब ऊपर की ओर उठी हुई थीं तब उसका ऊंचा सीना और भी उभरा हुआ नजर आ रहा था।उसकी आंखों से शशांक की आंखें टकरा जाने पर शशांक ने झट से अपनी आंखों को दूसरी ओर घुमा लिया।
राजश्री बोली, ‘तुम सब पुरुष यही सोचते हो, एक नारी की बस दो ही आवश्यकताएं हैं।एक घर, दूसरा वर।मेरे पिता जी भी यही सोचते थे।इसलिए भुवनेश्वर और कटक में पांच-पांच मकान बनवाए थे उन्होंने।बस उन्हीं मकानों की खबर रखते रखते उनका समय नहीं बचता था।मेरी मां के लिए पिता जी के पास दिन में एक घंटे का समय भी नहीं था।इसलिए पढ़ाई के दिनों से मैंने यह तय किया था कि मैं किसी धनी ठेकेदार या व्यवसायी से शादी नहीं करूँगी, नौकरी पेशा आदमी से शादी करूंगी।जो भी तनख्वाह मिलेगी, उसी से ही दोनों गुजारा करेंगे।लेकिन हुआ नहीं।’
‘मसूरी में ट्रेनिंग के दौरान शरतचंद्रन से परिचय हुआ।वे बहुत ही आम परिवार से आए थे, अच्छी पढ़ाई की थी।सोचने लगी, मुझे अपना जीवनसाथी मिल गया।मगर…।’ राजश्री रुक गई।
शशांक ने पूछा, ‘मगर?’
‘मेरे पिता जी की बेशुमार संपत्ति होने के बावजूद वह और भी बटोरना चाहते थे।शरतचंद्रन भी गरीबी से आने के वजह से खूब धनी होना चाहते थे।आसान शब्दों में कहें तो वह थे एक कैलकुलेटर मशीन।शेयर मार्किट, ब्याज, हानि-लाभ का हिसाब ही उनके प्रिय काम थे।’
शशांक कुछ नहीं बोला।अधिकतर धनी परिवारों की यही कहानी है।रुपये-पैसे और धन-संपत्ति का मोह आधुनिक लोगों के लिए छोड़ पाना आसान नहीं, बल्कि एक तरह से नामुमकिन होता है।
राजश्री कह रही थी, ‘उस दौरान मेरा इस खान व्यवसायी से साक्षात हुआ।कर्नाटक और हैदराबाद में उनका खान का व्यापार है।ओड़िशा के केंदुझर में भी उनका खान का व्यवसाय है।बहुत बड़े व्यवसायी हैं, हालांकि उनका शौक पेंटिंग्स बनाना और कविता लिखना था।व्यवसाय अपने रास्ते पर चलता है और वह अपने रास्ते।’
‘तुम उनके ही हवाई जहाज में हमेशा घूमती हो?’ शशांक के मुह से यह सवाल निकल आया, जबकि वह यह सवाल पूछना नहीं चाहता था।
राजश्री हँसने लगी।बोली, ‘तुम तो सबकुछ जानते हो, मगर थोड़ी देर पहले यह कह रहे थे कि मेरे बारे में तुम्हें कुछ पता नहीं है, सुने भी नहीं हो।’
शशांक चुप रहा।
‘हां, मैंने उनके ऐरोप्लेन और हैलिकॉप्टर में खूब घूमा है।भारत का कोना-कोना उन्होंने मुझे सैर कराया है।मगर, तुम यकीन नहीं करोगे, उन्होंने कभी मेरे साथ शारीरिक संबंध रखना नहीं चाहा।हम दोनों के बीच अगर कोई रिश्ता है, तो सिर्फ दो मित्रों के बीच में होने वाला रिश्ता।’
‘माफ करना।पति के होते हुए, किसी दूसरे पुरुष मित्र के साथ इस तरह घूमना-फिरना निश्चित रूप से समाज के द्वारा ग्रहणीय नहीं है।भारत एक रूढ़िवादी देश है।’ शशांक जरा ऊंचे स्वर में बोला।
‘क्यों नहीं? क्योंकि मैं एक औरत हूँ, यही न? मेरे पति तो महीनों बाहर घूमते हैं।कहां, मैं तो कभी कोई शिकायत नहीं करती हूँ।एक जगह पर एक पुरुष और नारी के बैठने का अर्थ क्या एक साथ सोना है?’
शशांक को यह समझ में नहीं आ रहा था कि क्या जवाब दे।एक पुरुष अफसर और एक महिला अफसर के बीच कुछ फर्क है, इस बात को वह राजश्री को कैसे समझाएगा, समझ नहीं पा रहा था।लेकिन वह राजश्री से बहस करना भी नहीं चाहता था।
राजश्री बोली, ‘हमारा समाज औरतों के साथ एक जीरो॒-काटा का खेल खेलता है।खेल के शुरू से लेकिन दो फायदेमंद जगह पर घर और वर, दोनों जगहों पर काटे का निशान समाज लगा चुका होता है।और औरत उन्हीं काटे के निशान के पास फंस जाती है।घर और वर के इर्द-गिर्द ही वह घूमती रहती है।वही उसका जीवन है।उसके आगे कहीं दूर न जाने के लिए उसके सामने लक्ष्मण रेखाएं खींची गई होती हैं।वह रेखाएं अयोध्या में खींची जा सकती हैं, दंडकारण्य में भी।’
‘मैं वहां कलक्टर रहते समय एक बार उनका माइनिंग एरिया देखने गई थी।वह मुझे अपने हैलिकॉप्टर से लेकर गए थे।वहां से लौटी तो मेरे पति मजाक में बोले, ‘तुम्हें रावण का पुष्पक विमान अच्छा लगने लगा है।’ मैं उस दिन उनकी बात सुन कर हैरान रह गई।एक पुरुष कैसे इतना संकीर्ण हो सकता है? लेकिन मैंने जवाब दिया था, ‘और एक बार रामायण पढ़ लो।सीता को सम्मान देने में रावण ने कोई कमी नहीं की, रामचंद्र जो स्वतंत्रता और सुरक्षा नहीं दे पाए थे, वे सब रावण ने दिया था।रावण चाहता तो सीता का बलात्कार कर सकता था।लेकिन उसने ऐसा नहीं किया।’
‘तो?’ मेरे पति ने कहा।
उन्होंने ऐसी बहुत सी कहानियां और उपन्यास पढ़े हैं।मुझसे यह सब जानने की उनमें कोई इच्छा नहीं है।मैंने उसी दिन यह तय कर लिया, मुझे घर और वर दोनों बंधनों से मुक्त होना पड़ेगा।उन सबकी मांग को पूरा करते-करते मैं थक चुकी थी।मुझे पता था, हर इनसान की दो बड़ी जरूरतें हैं- आजादी और स्वाभिमान।’
‘फिर भी तुम्हें उनको एक मौका और देना चाहिए था।’ – शशांक ने अपना मत रखा।
‘और कितने दिन? पांच साल तक मैंने बहुत कोशिश की।लेकिन न हो पाया।किसी के लिए तमाम उम्र इस तरह घिसेपिटे जीवन को स्वीकार न कर पाती।’
‘लेकिन सिविल सर्विस से इस्तीफा देना क्या जरूरी था?’ शशांक ने पूछा।
‘था।एक समय मेरे पति ने बेनाम पिटीशन दाखिल किया- मैं खान के पट्टा लेन-देन में अहेतुक अनुकंपा दिखा रही हूँ।सरकार को सौ करोड़ का राजस्व घाटा हुआ है।मैं समझ गई, वह दोबारा मुझे जाल में फंसाना चाहते हैं।मैं रामायण की सीता नहीं हूँ जो अग्निपरीक्षा देती।उससे पहले मैं नौकरी से इस्तीफा देकर चली आई।’
‘तुम्हारे पिता जी को जरूर दुख हुआ होगा?’ शशांक ने पूछा।
टीपॉय से खाली कप ले जाते वक्त राजश्री बोली, ‘हाँ, क्योंकि बेटी के आईएएस होने पर वह गर्व महसूस कर रहे थे।बेटी का दुख॒दर्द उनके लिए कोई समस्या नहीं थी।हालांकि पिता जी से ज्यादा दुख तो मां को हुआ।मैंने प्रेम विवाह किया तो उसने दोष मुझे दिया था।मैंने किसी से कुछ नहीं कहा था।सोचा, मेरी ही तकदीर।’
राजश्री ने रसोई से लौट कर शशांक से पूछा, ‘क्या खाओगे? फोन करने पर यहां एक दुकान है, वहां से आ जाएगा।चाउमिन खाओगे?’
‘नहीं, नहीं।मैं लौट कर ‘ओड़िशा निवास’ में खाऊंगा।तुम मेरे लिए परेशान मत हो।राजश्री, एक बात पूछूं?’
‘पूछो।’ राजश्री ने कहा।
‘अपने भविष्य के लिए तुमने क्या योजना बनाई है? आगे एक लंबा जीवन पड़ा है।’
‘राजश्री हँसने लगी।हँसने पर उसके दाहिने गाल पर एक गड्ढा बन जाता है।आज भी बना।उस हँसी के भीतर शशांक का प्रश्न डूबने लगा था।
हँसी रोक कर राजश्री बोली, ‘हमारे इस बातचीत के दौरान भविष्य का कुछ हिस्सा अतीत हो चुका है।मुझे अब चलीस साल हुए।अध्यापन कर रही हूँ।जब मन करेगा, तब कहीं घूमने चली जाऊंगी।घर और वर ये दोनों नारी के पैरों की जंजीर बन जाते हैं।दुनिया के हजारों घरों में एक बिंदु है उसका घर, करोड़ों लोगों के भीतर एक आदमी है उसका वर, यही सोच उसे एक जगह रोके रखती है।लेकिन घर और वर को छोड़ दें तो बाकी की दुनिया भी है, जिसमें हजारों लोग हैं।देखो न, आज अप्रत्याशित रूप से तुम्हारे साथ मुलाकात हुई, तुम्हारे साथ बातें कर रही हूँ।कल अगर किसी अच्छे इनसान से भेंट होगी तो उनके साथ बातें करूंगी।अब मैं हैदराबाद से लौटी, अगले महीने में गंगटोक जाऊंगी, अगर मौसम ठीक रहा तो।अब हर इनसान मेरे परिवार का हिस्सा है, पूरी दुनिया मेरी अपनी है।’
‘ऐसे होता है क्या? तुम्हारे बाद तुम्हारे बच्चे आते।उनके बहाने तुम जिंदा रहती।बेटी से मां और मां से दादी, नानी बनती!’
राजश्री हँसने लगी।बोली, ‘तुम मेरी मां की तरह बोल रहे हो।मेरी शादी के बाद मेरा गोत्र बदल चुका है।अब कोई आता तो वह शरतचंद्रन की वंशरक्षा करता।उनके नाम पर पिंडदान करता।मेरी कौन सी वंशरक्षा? नानी, दादी बनना जीवन का एक बड़ा लक्ष्य है क्या?’
शशांक खुद को निरस्त्र महसूस कर रहा था।इस तर्कनिपुणा लड़की को बातों में जीतना मुश्किल है।जिस दिन वह खुद महसूस करेगी, उस दिन समझेगी।आज उम्र है, रुपये-पैसे हैं इसलिए समझ नहीं पा रही है।
राजश्री उसे चौंकाती हुई बोली, ‘मैं बहुत जल्दी दिल्ली छोड़ रही हूँ।शिलांग के एक कॉलेज में नियुक्ति मिली है।शिलांग ठंडी और खूबसूरत जगह है।तीन चार साल वहीं बिताने के लिए सोचा है मैंने।’
शशांक बोला, ‘माना कि आज तुम इतनी जगह घूम रही हो।शारीरिक अस्वस्थता आने पर कौन तुम्हारी देखभाल करेगा?’
राजश्री बोली, ‘औलादें होतीं तो क्या दौड़ आतीं? मैंने बीस लाख रुपये का हेल्थ इंश्योरेंस किया है।कोई भी अस्पताल इलाज करेगा।’
‘फिर भी?’
राजश्री हँसने लगी।मैं समझ रही हूँ जो तुम कहना चाहते हो।इनसान को आवेगी सुरक्षा चाहिए।सुबह से रात तक मोबाइल फोन, कंप्यूटर, एसएमएस, इंटरनेट, टीवी, अखबार, सामान ही सामान, वस्तुएं।इनसान इन सबके भीतर ऊब जाएगा।उस वक्त उसे चाहिए होगा किसी दूसरे इनसान के हाथों का स्पर्श।संभवतः तब किसी पहाड़, झरना, नदी या जंगल उसके मन को बहला नहीं पाएंगे।यही न?’
शशांक ने सिर हिलाया।
राजश्री ने कहा, ‘ऐसा एक इनसान मुझे मिला है।लेकिन दुख की बात है कि वह इनसान मुझे सिर्फ एक दोस्त की तरह देखना चाहता है।उससे अधिक नहीं।’
‘कौन है वह भाग्यवान पुरुष?’ शशांक ने पूछा।
‘रावण।’
शशांक फिर एक बार चौंक उठा।रावण कौन? राजश्री उसकी तरफ इसारा तो नहीं कर रही है? वह मन ही मन जरा गर्व अनुभव करने लगा।सोच कर आश्चर्यचकित हुआ कि उसका अविवाहित रहने की खबर शायद राजश्री को पता चल गया है।
राजश्री बोली, ‘मेरे पति उन्हें रावण कहते हैं न, इसलिए मैंने कहा।मिस्टर रामचंद्रन हैं रावण।जिन्हें तुम कुछ देर पहले खान व्यापारी कह रहे थे।यह जीवन कितना विचित्र है न! यहां सीता रावण को प्रेम निवेदन कर रही है, और रावण खुद को बचाते हुए भाग रहा है।’ बोलते बोलते राजश्री हँसने लगी।
शशांक को हल्की सी चोट लगी।पल भर के लिए उसे लगा, जैसे किसी ने उसे किसी ऊंची जगह से नीचे की ओर धकेला है।
राजश्री बोल रही थी, ‘अशोकवन में सीता अगर दुखी थीं तो भी उनका स्वाभिमान सुरक्षित था।वह निश्चिंत थीं।लेकिन अयोध्या की सीता अपमानित होकर राज्य छोड़ कर चली गई थीं।धरती का दो हिस्सों में बंट जाना और उनका पाताल में चले जाना, कहीं दूसरी जगह चले जाने का उदाहरण है।मैं भी लंदन या अमेरिका जा सकती थी।’
शशांक ने हाथ की घड़ी की ओर देखा।
राजश्री ने कहा, ‘जल्दी में हो।ठीक है जाओ।तो तुम यह सोच कर हैरान हो रहे होगे कि मैंने ये सब तुम्हें क्यों कहा? असल में ये बातें नीलाद्री जानता है।बीच-बीच में वह मुझे फोन करता है।उससे सुना था, तुमने शादी नहीं की है।वजह जानना नहीं चाहती हूँ, वह मैं जानती हूँ।लेकिन उसी दिन से मन ही मन तुम्हें ढूंढ रही थी।क्या सिर्फ शादी के बाद ही मन के मीत को पाया जाता है? अलग रह कर, दूर रह कर या शादी किए बिना भी किसी को करीब में पाया जा सकता है।संयोग से कल तुम्हारे साथ मुलाकात हो गई, अच्छा हुआ।नीलाद्री भी कह रहा था, मेरे नाम से तुम खूब चिढ़ते थे।क्या मैं इतनी बुरी हूँ?’
शशांक मुंह छुपाना चाहता था।उसे आश्चय हो रहा था कि उससे बहुत दूर रह कर भी राजश्री को उसकी खबर है।
वह जाने के लिए उठ खड़ा हुआ।राजश्री उसे घर की दहलीज तक छोड़ने गई।फोन से शशांक के लिए उसने एक टैक्सी मंगा ली थी।दहलीज तक पहुँचे शशांक को राजश्री ने पीछे से बुलाया।
शशांक रुक गया।
राजश्री ने कहा, ‘तुम्हें याद है, एक दिन तुमने मुझे ऑस्ट्रेलिया की एक लोक कथा सुनाई थी।किसी जमाने में धरती और आकाश एक दूसरे के बहुत करीब, मानो सटे हुए थे।जिस कारण से पशु॒पक्षी तो रेंगते हुए चलते थे, इनसान भी रेंगते हुए चलता था।मगर वह इसका कोई इलाज नहीं करता था।यह देख कर एक दिन सभी पक्षी लकड़ी, तिनका, जो कुछ भी उन्हें मिला, उससे आकाश को ऊपर उठाने लगे।और आकश, मानो इस प्रकार के एक सामूहिक प्रयास के इंतजार में था, देखते-देखते ऊपर उठ गया।इसके बाद सूरज दिखने लगा, चाँद भी दिखाई दिया, तारे भी दिखने लगे।पशु॒पक्षियों ने स्वतंत्र होने का अनुभव किया।सबसे अधिक लाभ मनुष्य को हुआ।उन्होंने पक्षियों का आभार व्यक्त किया।लेकिन पक्षि बोले, तुम जैसे हालातों से समझौता करनेवाले प्राणियों से दूर रहना ही अच्छा है।हम चलें।फिर पक्षि आसमान में उड़ गए।जाते वक्त इनसानों से कह गए, ‘दूसरों का इंतजार किए बिना खुद अपना-अपना आसमान बनाना सीखो।’
शशांक चुपचाप खड़े-खड़े सुनता रहा।उसने किसी दिन यह कहानी सुनाई थी, राजश्री याद नहीं दिलाती तो वह याद न कर पाता।
राजश्री बोली, ‘किसी को चाह कर ताउम्र बिना शादी किए रह जाना भी कोई मामूली बात नहीं।माना कि वाणीविहार में तुमने रावण का किरदार निभाया था, लेकिन वास्तव जीवन में तुम राम बन गए।मगर देखो, मैं सीता नहीं बन पाई।’
बातें करते-करते राजश्री शशांक के करीब आ गई थी।उसने हाथ मिलाने के लिए हाथ आगे किया था।शशांक ने राजश्री के हाथ से हाथ मिलाया।
‘पता नहीं फिर कब मुलाकात होगी।जहां भी रहो, खुश रहो।’ राजश्री ने कहा।
शशांक ने उत्तर दिया, ‘मुझे माफ कर देना।तुम को समझने में मुझसे गलती हुई थी।’
आंखें बड़ी करके राजश्री बोली, ‘दोस्ती में गलती या माफी की कोई जगह नहीं होती।शुभरात्रि।’
शशांक को यह महसूस हो रहा था कि उसकी आंखें नम हो रही थीं।
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