दो गजल संग्रह दर्द के गांव में’, ‘आईने के सामने

(1)
तवारीख़ में निहां कोई फसाना ढूंढ लेता है
वो नाकामी का अच्छा सा बहाना ढूंढ लेता है
नए किरदार में नाटक जो उसका चल नहीं पाता
कोई किरदार वह फिर से पुराना ढूंढ लेता है
हमारे दर्द से उसकी यही निस्बत रही अब तक
हमारी सिसकियों में भी तराना ढूंढ लेता है
नजर जाती नहीं उसकी कुबेरों के खजाने तक
मगर बुढ़िया की झोली में खजाना ढूंढ लेता है
शजर को काटने वाले तुझे ये भी नहीं मालूम
परिंदा दूर जाकर आशियाना ढूंढ लेता है।

(2)
जमीं वो कहाँ आसमां वो कहाँ है
अमन हो जहाँ अब जहां वो कहाँ है
खिले हर कली फूल बन मुस्कराए
चमन वो कहाँ बागबां वो कहाँ है
यहीं पर कहीं था हमारा नशेमन
वफ़ा के शहर में मकां वो कहाँ है
कभी कारवां साथ लेकर जो गुज़रे
अभी उनके बाकी निशां वो कहाँ है
किताबों में ढूंढा रिसालों में ढूंढा
मोहब्बत की अब दास्तां वो कहाँ है
कहे सच हमेशा जो बेख़ौफ़ होकर
बता अंशुमन अब जुबां वो कहाँ है।

(3)
ये महलों से कह दो मीनारों से कह दो
सहर हो चुकी है दीवारों से कह दो
चलेगी न अब ज़ुल्म की ये हुकूमत
सियासत के इन ठेकेदारों से कह दो
लगाने चले हैं जो नफरत के पौधे
संभल जाएं वो अब इशारों से कह दो
उफनने लगा है मोहब्बत का दरिया
ये मज़हब के दोनों किनारों से कह दो
जरूरत है मज़लूम बस्ती में उनकी
फ़लक पर चमकते सितारों से कह दो।

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