संस्कृत गीत संग्रह शाश्वतीऔर काव्य संग्रह मुक्ताशतीचर्चित।

अपने बाहर अंदर देख,
पागल हुआ समंदर देख।

इनसानों के पते पूछते,
खुले हाथ में खंजर देख।

इस मिट्टी में लोट रहे क्यों
लिखा यहां पर बंजर देख।

सिंहों की खातिर हैं पिंजड़े,
कूद रहे हैं बंदर देख।

शापित यक्ष हुआ फिर कोई,
रौंदा मानसरोवर देख।

टूट-टूटकर बिखर गए वो,
कहलाने को अक्षर देख।

पत्थर हुए शर्म से पानी,
‘विनय’ कांच का यह घर देख।

अनुवाद -स्वयं कवि द्वारा

संपर्क :सारस्वतम्, , मन्दाकिनी विहार, ब्लाक, सहस्रधारा रोड, देहरादूनउत्तराखण्ड, मो. ८९७९१७०१७४