काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग से कुड़ुख आदिवासी गीत : जीवन राग और जीवन संघर्षविषय पर शोधरत।

बिनको!
उसके नाना ने उसे पुकारा।
जिस रात बिनको का जन्म हुआ था, उस रात आसमान के तारे खूब चमक रहे थे।तारे मानो खुशी से खिलखिला रहे थे।तब नन्ही बच्ची को गोद में लेते हुए, उसके नाना ने उसे कहा- बिनको! बिनको अर्थात तारा।

नाना के पुकारने पर बिनको दौड़ती आई! उसे नाना की कहानियां खूब पसंद थीं।कहानी सुनते हुए आश्चर्य से उसकी आंखें तारों के समान चमकने लगती थीं।हमेशा की तरह बिनको अपने नाना के साथ तिलैया नदी की ओर टहलने जाती थी!

आज नाना ने टहलते हुए एक छोटे पहाड़ टाका-टुकु की चट्टानों की ओर इशारा करते हुए उससे कुछ सवाल पूछे-

बिनको! क्या तुम्हें मालूम है! हमारे आसपास जितने जंगल हैं? वे कैसे बने?
जंगल और पहाड़ की चट्टानें सब.. एक ही दिशा में।
वे पूर्व-पश्चिम की दिशा में ही क्यों अवस्थित हैं?
और..
मनुष्य जंगल में अपनी राह क्यों भूल जाता है?
वह क्यों भटक जाता है?

बिनको के लिए यह आश्चर्य की संदूक खुलने जैसा था।आज बिनको चंचल पक्षी-सी उड़ती हुई सारे खेत-खलिहान घूम आई! रास्ते से गुरजते हुए, उसने सारे खेत-खलिहान की चट्टानों को देखा।फिर पहाड़ों-जंगलों की चट्टानों की दिशा देखी।उसने पाया कि-

सचमुच! सारे चट्टानों की दिशा एक है। पूर्व-पश्चिम!

सारी चट्टान एक ही दिशा में अवस्थित हैं।इस चीज ने उसे बड़ा आश्चर्यचकित किया।मानो किसी ने सारे चट्टानों को एक ही दिशा में सजाकर रख दिया है।

सांझ होते ही फटाफट सारे काम निपटा कर बिनको नाना की बगल में आकार बैठ गई।आज आसमान में तारे खूब चमक रहे थे।जैसे आसमान की आंखें उतनी ही उत्सुकता से देख रही थीं, जितना बिनको उत्सुक थी

ज्यादा देर न करते हुए नाना कहानी सुनाने लगे-

‘लिटी बीरी बीर’ की कहानी।एक अनाथ बच्चा।उसके मां-बाबा नहीं थे।सब उसे ‘बीर’ कहकर पुकारते थे।बीर पूरे गांव में घूम रहा था।घर-घर घूमते हुए लोगों से कह रहा था-

मुझे शरण दे दो,
मुझे रख लो!
मैं आपके घर के सारे काम कर दूंगा।

बीर से सभी डर जा रहे थे।बीर को देख लोग डर से भाग रहे थे।बीर दिखने में बाकियों से थोड़ा अलग था।उसके चेहरे में खूब सारे मुहांसे थे।एकदम रूखड़ा चेहरे वाला- बीर।कोई भी उसे शरण देने को तैयार नहीं हो रहा था।

सांझ हो गई! गांव के सीमान में अंतिम घर बचा हुआ था।वहां ढिबरी जल रही थी।दीये की मद्धिम रोशनी आ रही थी।उस घर में अकेली बुढ़िया रहती थी।बीर उस घर का दरवाजा खटखटाता है।बुढ़िया बीर को रख लेती है।

बीर उसके घर के सारे काम करने लगा।भात पका देता! धान पकाता और उसे सुखाता भी! धान कूट देता! उसे फटक भी देता! और उसके मिट्टी के घर भी लीप देता!

बीर के उस घर में आने के बाद घर की रौनक देख गांव के लोग चकित रहने लगे थे! सबसे ज्यादा आश्चर्यचकित लोग तब हुए, जब बारिश के मौसम थे! बारिश में लोगों के गीले धान सूखते ही नहीं! और बुढ़िया के घर के सारे धान सूख जा रहे थे!

(बीर बारिश के महीनों में भी धूप बुलाकर बुढ़िया के पूरे गीले धान सुखा देता था।)

गांव के बच्चे उसके खेलने की ताकत देख चकित थे।बीर जब खती (गुल्ली डंडा) खेलता! तब उसकी गुल्ली इतनी दूर जा कहीं गिरती या किसी के घर पर टंगे मांदर (वाद्ययंत्र) पर इतनी जोर जा लगती कि मांदर ही फूट जाते!

और तो और वह बीर ही था जिसने सोना गिदनी, राय गिदनी और झाटा गिदनी को मारा था… यह कहते हुए नाना ने बिनको की तरफ देखा! नाना की बिनको और आसमान के बिनको झपकी लेने लगे थे।रात गहरी हो रही थी।नाना ने विराम लिया।

अगली सुबह! इतवार!

आज बिनको नाना के साथ जंगल जा रही थी।सरु पहाड़ के पास से गुजरते हुए नाना गीत गुनगुनाने लगे- 

सरू पहाड़े सारा हरा सेमलीऽऽ
पनाड़ी के डाबियो देलऽऽऽ भला
पनाड़ी के डाबियो देलऽऽऽ

गीत की पहली कड़ी गाते हुए नाना ने कहा-

सरू पहाड़ में ‘सारा हरा’ सेमल का बहुत बड़ा पेड़ था।पेड़ इतना ऊंचा था कि एक फीट मात्र के लिए उसने आसमान को नहीं छुआ था।वह पेड़ इतना घना था कि पास का पनाड़ी गांव उस पेड़ की टहनी, शाखा और छाया से ढंक जाता था।

सेमल के उसी पेड़ पर सोना गिदनी, राय गिदनी और झाटा गिदनी रहती थी।विशालकाय प्रजाति! न चिड़िया न मानव, गिदनी थी।जब गिदनियां चलतीं थीं तो आधे राईज (क्षेत्र) में अंधेरा छा जाता था।सभी उससे डरते थे।गिदनियों ने बड़े सेमल के पेड़ में अपना घोंसला बनाया था और उसमें अपने अंडे दिए।

गीत को पूरा करते हुए, नाना अगली पंक्ति गाने लगे-

हार जुआईठ के खोता रे डिसावेऽऽ
मानवा के चारा बनावेऽऽऽ भला
मानवा के चारा बनावेऽऽऽ

गिदनियों ने अपने घोंसले हल और जुआठ से बनाए थे।उन्होंने गांव से लोगों के हल और जुआठ चुराए थे।उसी घोंसले में उनके अंडे थे।

गिदनियाँ अपने अंडों को छह महीने तक सेती हैं।छह महीने के बाद अंडों से गिदनी के बच्चे निकले।अंडे से निकलते ही उनके बच्चों को भूख लगने लगी और वे आसमान की ओर मुंह करके – ‘आँ-आँ’ करने लगे!

अपने बच्चों को इतना भूखा देख गिदनियां जरा विचलित हुईं।वे तुरंत खाने के इंतजाम में निकल पड़ीं।उनके बच्चों की भूख शांत ही नहीं हो रही थी, तब गिदनियों ने मनुष्यों को चारा बनाया।अपने बच्चों की भूख मिटाने के लिए गिदनियों ने मनुष्य के बच्चों को चारा बनाना शुरू कर दिया।

हर दिन गांव के लोग अपने काम से खेत- जंगलों की ओर जाते।जंगल जाते हुए वे अपने बच्चों को घर पर सुलाकर छोड़ आते।खेत पर काम करते हुए वे अपने बच्चों को खेत के मेढ़ों पर सुलाकर छोड़ देते।गिदनियां इसी ताक में रहतीं! फिर घर-मेढ़ों से सोते बच्चों को उठा ले जातीं.. और उन्हें अपने बच्चों का चारा बनातीं।

गांव के लोग गिदनियों के इस आतंक से बहुत परेशान हो चुके थे।यह सिलसिला चलता रहा…

फिर एक दिन बीर निकल पड़ता है! उसने सोना गिदनी, राय गिदनी और झाटा गिदनी को मारने का फैसला कर लिया था।बीर बाँस की तीर-धनुष लेकर निकल पड़ता है।जाते हुए रास्ते में उसे घुनी पच्चो (बुढ़िया) मिली! बीर को देख उसने पूछा- कहां जा रहे हो नाती?

बीर ने उत्तर दिया- दुश्मनी मोलने जा रहा हूँ।मैं सोना गिदनी, राय गिदनी और झाटा गिदनी को मारने जा रहा हूँ!

यह सुनकर घुनी पच्चो कहती है- अच्छा! ठीक है।पर आओ… जाने से पहले हंड़िया पी लो! आओ, एक पईला चावल से हंड़िया बनाया है मैंने।

बीर धनुष को कोने में रखता है और हंड़िया पीने बैठ जाता है।हंड़िया पीते ही उसे नींद आ गई।वह सो जाता है।मौके पर घुनी पच्चो बीर के धनुष में घुस जाती है और धनुष-तीर को अंदर ही अंदर खाने लगती है- कुटुर कुटुर।

इधर हंड़िया का नशा हटते ही बीर की आंख खुली।उसे अपना गंतव्य याद आया।झट से कोने से अपना तीर-धनुष उठाया और निकल पड़ा।

वह कुकुरमाड़ा पहुंचता है! सरू पहाड़ की पूर्व दिशा में अवस्थित क्षेत्र।वहां आकर बीर सेमल के पेड़ की ओर निशाना साधता है।जैसे ही धनुष को तानता है… धनुष ही टूटकर गिर पड़ता है।

बीर झुंझला जाता है।झुंझलाते हुए वापस लौट आता है।अब बीर मजबूत तीर-धनुष के इंतजाम में लग जाता है।वह नंदनवन की ओर निकल पड़ता है।

नंदनवन।असुरों का क्षेत्र।

असुरों ने सबसे पहले लोहे की खोज की थी।वे लोहे के मजबूत औजार बनाने की कला में पारंगत थे।

बीर नंदनवन पहुंचकर असुर और असुराईन से मिलता है।कहता है- मेरे लिए नौ मन का धनुष बना दो… और छह मन का तीर बना दो!

असुर बीर की बात पर राजी हुए और धनुष बनाने की तैयारी में जुट गए।असुर बाली और चपुआ धुक-धुक कर लोहे का तीर बनाने लगे।

यह उनकी अपनी तकनीक थी।

असुरों ने जल्द ही तीर और धनुष बनाकर तैयार कर दिया।उस तीर-धनुष को लेकर बीर वापस निकल पड़ा।लौटते हुए रास्ते में फिर घुनी पच्चो मिल जाती है।बीर को देखकर कहती है  –

आओ नाती! हंड़िया पी लो, मैंने बनाया है।तीर-धनुष कोने में रख दो।

बीर थका हुआ था! वह हंड़िया पीने बैठ जाता है।हंड़िया पीकर फिर सो जाता है।इधर घुनी पच्चो फिर से कुटुरकुटुरकरनेलगी।वह बीर के तीरधनुष को खाने की कोशिश करने लगी।पर इस बार कुछ उल्टा हुआ! लोहे के तीरधनुष को बुढ़िया भला खा सकती थी? लोहे के धनुष को खाने की कोशिश में उसके दांत ही टूटकर गिर गए।दांत के गिरने पर बुढ़िया एकदम लजा गई।मारे लाज वह छुप गई।धान कूटने वाले ढेकी के गड्ढे में जाकर छुप गई।

इधर बीर की नींद खुली! वह निकल रहा होता है कि…

घुनी बुढ़िया वहीं से झांकते हुए बीर को देखती है।फिर पूछती है- जा रहे हो नाती?

फिर वहीं से विदाई देते हुए कहती है- जा ही रहे हो अब, तो संदेश कुछ लेते जाओ! देखो गठरी में संदेश है।पर इसे अभी मत खोलना, घर जाकर गठरी खोलना।बीर घर पहुंचते ही बड़ी उत्सुकता में गठरी खोलता है और ठहठहा कर हँस पड़ता है।कहता है-

यही चाहती थी न तुम दादी! आज तो मैंने तुम्हें ठग दिया।

बीर के हँसने के साथ बिनको और नाना भी हँस पड़े।बीर ने घुनी बुढ़िया को अच्छा ठगा! नाना ने कहा- गठरी में आजी ने अपने टूटे दांत बांधे थे।कहा जाता है कि उस गठरी के साथ ही उसने मनुष्यों के लिए श्राप बांधे थे।इसलिए मनुष्य के सामने के दांत जल्दी ही झड़कर गिरते हैं।

नाना की इस बात ने फिर से बिनको को आश्चर्य में डाल दिया।पर इस बार बिनको शांत थी।सांझ हो चुकी थी! झींगुर संझा के गीत गा रहे थे और आसमान का अकेला तारा सुकरा शांत बैठा था।बिनको शांत तारे के समान आज रात जल्द ही सो गई! सोने से पहले बस नाना से इतना कहा-कल मुझे सरू पहाड़ ले चलो।

अगली सुबह!

बिनको अपने नाना के साथ सरू पहाड़ पहुंचती है।एकदम सीधा खड़ा और ऊंचा सा पहाड़!  बिनको अपने नाना के साथ पहाड़ चढ़ने लगी! आज सूरज भी उनके साथ पहाड़ चढ़ रहा था।मानो उसे भी नाना की कहानी सुननी थी! पहाड़ चढ़ते हुए केंवरा के फूल दिखे।नाना ने उन फूलों को तोड़ते हुए अपनी बात शुरू की- आज बीर भी अपने घर से सरू पहाड़ के लिए निकल पड़ा है बीर अपना लोहे का तीर-धनुष लेकर सरू पहाड़ के पास पहुंचता है और सेमल के पेड़ पर निशाना साधता है।गिदनी के घोंसले पर निशाना बनाते हुए तीर छोड़ता है।तीर एकदम सांय से सेमल के पेड़ को बेधते हुए आगे निकल पड़ता है।

उस लोहे के तीर ने पूरे सेमल के पेड़ को छीती छान कर दिया।गिदनी और पेड़ सहित सब बिखरकर गिर पड़े।सब अलग-अलग बिखरकर गिरे! सेमल का मोटा तना बिखरकर कई जगह गिरा और बन गया- पत्थर और चट्टान!

सेमल का वह मोटा तना पूरब-पश्चिम ही गिरा।यही कारण है कि हमारे आसपास के सारे चट्टानों की दिशा पूर्व-पश्चिम है।बाकी सेमल पेड़ और उसकी टहनियां भी छीती-छान गिरे.. और बने-

‘जंगल!’
झड़ब – झाड़ी!
गिदनी का शरीर अलग-अलग गिरा! सिर अलग और धड़ अलग! और वह बना ‘खूट’।
गिदनी का धड़ अलग गिरकर बना ‘पाट’।
गिदनी के नष्ट शरीर से ही बने दरहा, डाकिन, मु:आ, मुरखरी, डाँड़ भूला, डहर भूला, खोईर भूला इत्यादि।
ये सभी जंगल के भूत हैं।

सूरज ठीक सिर के ऊपर था।बिनको और नाना सरु पहाड़ की चोटी पर थे! वहां एक सेमल का पेड़ था।पेड़ के पास जाकर नाना ने विनती की-

हे  डहर भूला! फूल स्वीकारो!
मैं तुम्हें फूल और टहनी समर्पित कर रहा हूँ।
मेरा रास्ता मत बेड़वाना।
मेरी राह मत भुलवाना!
मेरी दिशा मत भटकाना!

विनती पूरी करके नाना और बिनको पहाड़ से उतरने लगे! ..और आसमान से सूरज भी उतरने लगा.. सूरज अपनी राह से नहीं भटका।अपने घर पहुंच गया..  नाना और बिनको भी अपनी राह से नहीं भटके!  अंधेरा होते ही गांव पहुंच गए!

नोट : – यह छोटानागपुर के जंगल-अंचल तथा पठारी भूभाग में रहने वाले कुड़ुख आदिवासी समुदाय की पुरखा कथा पर आधारित है।आश्चर्यजनक बात है कि जंगल में मनुष्य आज भी रास्ता भूल जाता है और जंगल-पहाड़ की चट्टान एक दिशा में अवस्थित मिलते हैं।

संपर्क : सोसो मोड़, कार्तिक नगर, गुमला – 835207 (झारखंड) मो. 9262235165

All Images : Ramchandra Pokale