युवा कवयित्री। सहायक प्राध्यापिका।

नई तालीम

मां के जमाने की चीजें खुरदुरी होती गईं
जिस आंगन के पोर पोर में
मां के हाथ गीली मिट्टी में छप जाते थे
वहां चमकदार पत्थर जड़े गए
जिस ओखली में कूटते हुए मां
अपने जीवन का तमाम गुस्सा कूट देती थी
वह अब धूल फांके चित है
जिस चांपाकल को चलाते हुए
मां का जीवन गतिमान रहा
उसे कबाड़ी वाले ले गए
सिल बट्टा अपने ऊपर लगे
हाथ की उंगलियों को भूलता गया
कमरे में बाहर की हवा नहीं आती
कमरा ठंड से कांपता है
धीरे धीरे घर से मां की चीजें गईं
और मां का मन भी उनके साथ।

मेरी मां

मेरी धरती
तूने मेरी देह में सांस का धागा पिरोया
तूने मेरे भीतर प्रेम को अंकुरित किया
तूने मुझे पूरब की दिशा बताई
और मुझे दीप्त कर दिया
मुझ निरीह को
एक जादुई आईना दिया
खुद को देखने का
और अद्भुत शक्ति से भर जाने का
ऐसा जीवन दिया
जिसमें अपनी आंखें निर्निमेष खोल सकूं
जिसमें किसी की चमक न चुभे
और मुझे खिलखिलाहट की वजहें दीं
ताकि मौत की व्यर्थ प्रतीक्षा न करूं
फिर मुझे नींद दी
और नींद में स्वप्नों को बुनने का हौसला
इंसान के शरीर में तूने सब कुछ दिया
शेष कुछ न रहा।

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