युवा कवि। विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।
चोकर की लिट्टी
मेरे पुरखे जानवर के चाम छीलते थे
मगर मैं घास छीलता हूँ
मैं दक्खिन टोले का आदमी हूँ
मेरे सिर पर
चूल्हे की जलती हुई कंडी फेंकी गई
मैंने यह सोचकर जलन बरदाश्त कर ली
कि यह मेरे पाप का फल है
(या अग्निदेव का प्रसाद है)
मैं पतली रोटी नहीं
बगैर चोखे का चोकर की लिट्टी खाता हूँ
चपाती नहीं
चिपरी जैसी दिखती है मेरे घर की रोटी
मैं दक्खिन टोले का आदमी हूँ
मुझे हमेशा कोल्हू का बैल समझा गया
मैं जाति की बंजर जमीन जोतने के लिए
जुल्म के जुए में जोता गया हूँ
मेरी जिंदगी देवताओं की दया का नाम है
देवताओं के वंशजों को मेरा सच झूठ लगता है
मैं दक्खिन टोले का आदमी हूँ
मैं कैसे किसी देवता को नेवता दूँ
मेरे घर न दाना है न पानी
न साग है न सब्जी
न गोइठी है न गैस
मुझे कुएं और धुएं के बीच
सिर्फ धूल समझा जाता है
मैं बेहया का फूल हूँ
लोग मुझे हालात का मारा
और वक्त का हारा कहते हैं
मैं दक्खिन टोले का आदमी हूँ
देश के देव!
मैं अब भी चोकर का लिट्टा गढ़ रहा हूँ
चोकर का रोटा ठोंक रहा हूँ
क्या तुम इसे मेरी तरह ठूंस सकते हो?
मैं भाषा में आंखों की अनंत नमी हूँ
मैं दक्खिन टोले का आदमी हूँ।
मेरा दुख मेरा दीपक है
जब मैं अपनी मां के गर्भ में था
वह ढोती रही ईंट
जब मेरा जन्म हुआ वह ढोती रही ईंट
जब मैं दुधमुंहा शिशु था
वह अपनी पीठ पर मुझे
और सर पर ढोती रही ईंट
मेरी मां, माईपन का महाकाव्य है
मेरा सौभाग्य है कि मैं उसका बेटा हूँ
मेरी मां लोहे की बनी है
मेरी मां की देह से श्रम-संस्कृति के दोहे फूटे हैं
उसके पसीने और आंसू के संगम पर
ईंट-गारे, गिट्टी-पत्थर
कोयला-सोयला, लोहा-लक्कड़
लकड़ी-सकड़ी के स्वर सुनाई देते हैं
मेरी मां के पैरों की फटी बिवाइयों से
पीब नहीं, प्रगीत बहता है
मेरी मां की खुरदरी हथेलियों का हुनर
गोइठा-गोहरा की छपासी कला में
देखा जा सकता है
मेरी मां धूल, धुएं और कुएं की पहचान है
मेरी मां धरती, नदी और गाय का गान है
मेरी मां भूख की भाषा है
मेरी मां मनुष्यता की मिट्टी की परिभाषा है
मेरी मां मेरी उम्मीद है
चढ़ते हुए घाम में चाम जल रहा है उसका
वह ईंट ढो रही है
झुलसाती हुई लू ही नहीं
अग्नि की आंधी चल रही है
वह सुबह से शाम अविराम काम कर रही है
उसे अभी खेतों की निराई-गुड़ाई करनी है
वह थक कर चूर है
लेकिन उसे आधी रात तक
चौका-बरतन करना है
मेरे लिए रोटी पोनी है, चिरई बनानी है
वह मजदूर है!
अब मां की जगह मैं ढोता हूँ ईंट
कभी भट्ठे पर
कभी मंडी का मजदूर बनकर शहर में
कभी पहाड़ों में पत्थर तोड़ता हूँ
काटता हूँ बोल्डर बड़ा-बड़ा
मैं गुरु हथौड़ा ही नहीं
घन चलाता हूँ खड़ा-खड़ा
टांकी और चकधारे के बीच
मुझे मेरा समय नज़र आता है
मैं करनी, बसूली, साहुल, सूता, रूसा और
पाटा से संवाद करता हूँ
और अंधेरे में खुद बरतता हूँ दुख
मेरा दुख मेरा दीपक है!
मैं मजदूर का बच्चा हूँ
मजदूर के बच्चे बचपन में ही बड़े हो जाते हैं
वे बूढ़ों की तरह सोचते हैं
उनकी बातें
भयानक कष्ट की कोख से जन्म लेती हैं
क्योंकि उनकी मांएं
मालिक की किताबों के पन्नों पर
उनका मल फेंकती हैं
और कविता
सत्ता का प्रतिपक्ष रचती है
मेरी मां अब वही कविता बन गई है
जो दुनिया की जरूरत है!
संपर्क : ग्राम–खजूरगांव, पोस्ट–साहुपुरी, जिला–चंदौली, उत्तर प्रदेश-221009 मो.8429249326
बहुत बेहतरीन कविताएँ हैं
जीवनानुभव से पकी हुई कविताएँ हैं