‘मैं शाम को दफ्तर से लौटकर आऊं तो यह चिड़िया का घोंसला मुझे दिखना नहीं चाहिए, समझे…!’ रवि बाबू ने बड़े बेटे पर बरसते हुए कहा।
‘पापा चिड़िया के घोंसले में अभी छोटे-छोटे अंडे हैं…। अभी घोंसले को कैसे बाहर फेंक सकते हैं…! कुछ दिन इंतजार कर लेते हैं। बच्चे उड़ने लायक हो जाएं तो घोंसले को हटा देंगे।’ बेटे ने जवाब दिया।
उसी समय सामने वाले पड़ोसी निर्मल जी आ गए- ‘रवि बाबू, क्यों बच्चे पर गरज रहे हो?’ ‘कुछ नहीं निर्मल भाई, आप बताओ कहां जा रहे हो थैला लेकर?’ रवि बाबू ने बात बदलते हुए पूछा। ‘बस अगले चौराहे तक जा रहा हूं… दाना- पानी की व्यवस्था करने।’ निर्मल जी ने जवाब दिया।
रवि बाबू ने पूछा, ‘दाना-पानी..?’
‘हां भाई, दाना-पानी! दरअसल एक चिड़िया ने घर में घोंसला बना लिया। उसमें उसके दो-चार बच्चे भी हैं। बस उनके दाने के लिए एक मिट्टी का बर्तन और पानी के लिए परिंडा लेने जा रहा हूँ। बेचारी नन्ही सी जान इतनी भीषण गर्मी में कहां भटकती फिरेगी!’ निर्मल जी ने कहा।
रवि बाबू ने बेटे की तरफ देखा, फिर कुछ सोचते हुए कहा, ‘तू भी साथ जा, दाना-पानी के बर्तन ले आ…!’
बेटा खुश था।
पितृकृपा 4/254,बी–ब्लॉक, हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी, पंचशील नगर, अजमेर, राजस्थान-305004 मो.9461020491
हमारी आने वाली पीढ़ी में पशु पक्षियों के प्रति संवेदनशीलता होना , बहुत बड़ी बात है, कहानी में इसी भावना को उजागर करते हुए लेखक ने यह बताने का प्रयास किया है कि बच्चे भी बडों को कुछ सिखा जाते हैं। कम शब्दों में एक बड़ा संदेश सरलता से दे देना एक सधी हुई कलम का कमाल हो सकता है। आद. गोविंद जी को बधाई…