युवा कवि।गोविंद वल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, प्रयागराज में शोधकार्य।

नदी का दुख

देखते हुए लोग
नहीं देख पाते हैं नदी
आए हुए लोग
नही पहुंच पाते हैं नदी तक
नहाते हुए लोग
सूखे रह जाते हैं नदी के किनारे

कोई नहीं जान पाता है
नदी का दुख
जो समेट रखा है उसने अपने सीने में
नहीं सुन पाता है
उसकी दर्द भरी कराह
जो सुनाई देती है कल-कल में
नहीं पढ़ पाता है
उसका मुरझाया चेहरा
जो तैरता है पानी की सतह पर
देख नहीं पाता है
उसका सूखता जा रहा शरीर
जो फैला हुआ है हिमालय से सागर तक

सिंधु नदी बीमार भी नहीं थी
फिर भी उसने समा लिया था सभ्यता को

अपने किसी दुखसागर में
यह बात लोग जानते हैं
जानते हुए भी नहीं देख पाते हैं
नदी का दुख।

बेचारा मनुष्य

नदी के ऊपर
उड़ रहा बगुला
देख रहा है नदी को
टिक गई उसकी आंखें
नदी में नहा रहे मनुष्य पर
धीरे-धीरे-२ उड़ता हुआ
वह आ बैठा
सूख रहे पेड़ पर
जिसके नीचे
मनुष्य फेंक रहा है कूड़ा
घुमाई उसने अपनी गर्दन
देखी काले पानी की धारा
मल और गंदगी से भरा हुआ नाला
बहा जा रहा है नदी में
बिना रोक-टोक

वह लौट आया वापस
उस जगह
जहां नहा रहा है मनुष्य
उसने चोंच को तीर बनाया
साधा निशाना मनुष्य पर
फिर तरस खाकर कहा-

जाने दो
मनुष्य है बेचारा
कोई जानवर-पक्षी नहीं
इसको क्या पता कि
जिसमें नहाते हैं
उसको गंदा नहीं करते।

नदी के ज्ञानी

मल्लाह
जानता है नदी को
नदी के तल- स्थल-सतह को
वह जानता है
नदी का पानी कहां उथला
कहां गहरा है
पानी का रंग देखकर

वह बता देता है
नदी की तबीयत
जानता है नदी की भाषा
बतियाता है नदी से
उसका – अपना सुख-दुख

वह जानता है
नदी में मछली कहां से आती है
कौन सी मछली पाई कहां जाती है
किस मछली को, किस मौसम में पकड़ना है
नदी का बालू
नदी से कितना और कब लेना है

इस ज्ञान का उत्पादन
तब शुरू हुआ
जब सदियों पहले
उतरा मल्लाह सिंधु में
नदियों को पढ़ते- सुनते
जान गया नदी का संपूर्ण रहस्य
जिसे बताया उसकी नदी मां ने
उसके कानों में
इस ज्ञान को कोई नहीं जानता
सिवाय मल्लाह के

विशेषज्ञ लोग दावे करते हैं
पर वह नहीं जानते नदी को
उस तरह
जैसे जानता है कोई मल्लाह
कितना सीमित है उनका ज्ञान
वह नदी को साफ करने का
दावा करते रहे
नदी को गंदा करते हुए
नदी को जानना है
मल्लाह के पास जाओ।

गायब नाव

नाव से देखा-
पुल दिख रहा था
पुल से देखा –
नाव गायब थी।

विडंबना

मुझे पता है
एक दिन मर जाना है
यह जानते हुए भी
मैं सारे जतन करता रहा
मरने से बचने के

मैं सोचता रहा
जिंदा रहते मरना कौन चाहता है
कौन चाहता है मैं मर जाऊं
कोई नहीं
फिर भी
एक दिन मैं मर जाऊंगा
बिना किसी को बताए
उनको भी नही
जो चाहता हैं मैं जिंदा रहूँ

वैसे भी मैं मर रहा हूँ
जीवन के हर एक क्षण
मगर यह मरना किसी को दिखाई नहीं देता
कोई नहीं चाहता मुझे बचाना

नियति तय है
एक दिन मर जाना है
फिर रोज-रोज क्यूं मरता हूँ
यह सवाल मुझे खाए जा रहा है
क्या एक ही बार नहीं मरा जा सकता?

संपर्क : ११३ बसंत विहार, योजना संख्या, झूंसी, प्रयागराज२११०१९ मो.९१४०७३०९१६