सुपरिचित रचनाकार।दो कहानी संग्रह, एक व्यंग्य संग्रह, दो ग़ज़ल संग्रह, दो हायकु संग्रह प्रकाशित।
पिता की मुक्ति
एक दीया जल रहा था
और पिता चले गए थे अनंत अँधेरे में
जैसे बुझे हुए दीये के पास जल रहा था एक दीया
दीया इत्मिनान से जल रहा था
उसे जल्दी नहीं थी उजाला फैलाने की
बल्कि वह फैला रहा था
मटमैले उजाले के पीछे का अथाह अंधेरा
उस अंधेरे में विलाप कर रहा था
उनका पीछे छूटा हुआ जीवन
उस दिन लोग मना रहे थे रंग पंचमी
और हम गाढ़े काले रंग में डूबे बैठे थे
जाने कहां से चली आई थीं
चींटियों की एक कतार
घुस रही थीं उनके मृत शरीर में
नासाछिद्रों के जरिए
शायद उनके दुख चींटियाँ बनकर आए थे
उन्हें देने अंतिम बिदाई
लेकिन वे तो पहले ही मर चुके थे
दो दिन पहले या
उससे भी महीनों पहले या बरसों पहले
ठीक से कुछ कहा नहीं जा सकता
अभी तो केवल उनकी धड़कनें थमी थीं
धड़कन थमने के पहले ही वे चले गए थे
एक अज्ञात मूर्छा की अज्ञात दुनिया में
अब इन चींटियों का उनके लिए कोई अर्थ नहीं था
मौत ने उन्हें डेढ़-दो बरस की
असहनीय यातनाओं से मुक्त कर दिया था
उनका मुंह थोड़ा खुला था
उस मुंह में था गहरा अंधेरा
उस अंधेरे में भरी थी
भजिये खाने की मामूली सी चाह
हालांकि उनकी यह अंतिम इच्छा
पूरी न हो सकी थी
उनके चेहरे पर थे चेचक के अमिट दाग
उन दागों में भी था सदियों का अंधेरा
उनके पांव पड़े थे निस्पंद
वे पिंडलियां और घुटने भी थे खामोश
जिन्हें पुलिस के डंडों ने पीटा था निर्ममता से
किसी और के शक में
जैसे मारे जाते हैं अनगिन निर्दोष
केवल नाम की समानता के कारण
बिना पुख्ता छानबीन के
पीट गई थी पुलिस फोर्स उन्हें
लगभग असहाय और अपाहिज बना गई थी
उनकी देह पर ही नहीं
आत्मा में बना गई थी कई घाव
जो कभी भर न सके
पुलिस के बूटों तले कुचली देह
हमारे सामने पड़ी थी
उनकी मृत देह को देख
हम अफ़सोस में गड़े जा रहे थे
कि कुछ भी कर नहीं कर पाए हम उनके लिए
निर्दोष आज भी मारे जा रहे हैं उसी मुस्तैदी से
हाथी को नहीं मालूम
कि कितनी निर्दोष चींटियां कुचली जाती हैं
उसके पांवों तले
वह चींटियों की परवाह कब करता है
उन्हें भगवान से शिकायत रही मरते दम तक
कि ईमानदार किसी का एक रुपया भी
न खाने वाले बंदों को क्यों दुख देता है तू!
लेकिन भगवान पर किसी की शिकायत का
कुछ असर हुआ है कभी!
मुक्त हैं पिता अब
लेकिन पता नहीं कहाँ हैं !
नुकीले सवाल बन गए हैं पिता
गड़ रहे हैं स्मृति में आज भी अनवरत।
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