गजल लेखन में सक्रिय। गजल, उपन्यास, कहानी, आलोचना आदि की तीस पुस्तकें प्रकाशित। अद्यतन गजल संग्रह घाट हजारों इस दरिया के

बर्फ गिर चुकी है। तीन दिन तक बर्फबारी। रुक-रुककर तो कभी निरंतर। बर्फ इतनी गिरी है कि हर शय का चेहरा, बर्फ का चेहरा बन गया है। हर तरफ सफेद रंग। दरख्तों पर, शाखाओं पर, पत्तों पर, टीन की छतों पर, खंभों पर, चिमनियों पर, गमलों पर, सड़क के पास यहां तक कि खाली पड़े बेंचों पर बर्फ है… सिर्फ बर्फ।

पहली दफा बर्फ का गिरना अच्छा लगता है, जैसे आसमान से चांदी बरस रही हो। सफेद ऊन के गोले। नर्म और छोटे-छोटे। कपास जैसे। फाहे जैसे। शुरुआत में बर्फ का स्वागत… एहतराम! लेकिन बाद में यही बर्फ तंग करती है। जिंदगी में दखल और दिल में अजीब तरह की बेचैनी। अवसाद इसी को कहते हों, शायद।

धूप और छांव के खेल इतना खलल पैदा नहीं करते, जितना बर्फ। बर्फ अकेली नहीं आती, वह अपने साथ एक मातमी किस्म की चुप और अकेलापन भी लेकर आती है।

बेशक! बेशक! लेकिन पहाड़ों पर बर्फ का होना उतना ही लाजमी है जितनी बारिश।

कभी-कभी खिड़की का पर्दा हटाकर घनशाम, शीशे के उस पार, बाहर का दृश्य देख लेते हैं- दूर, ता-हद्दे नजर बर्फ ही बर्फ! बर्फ का दश्त! दरख्त जैसे बर्फ के दरख्त हों। पहाड़ जैसे बर्फ के पहाड़! आवाजें गुम। एक अनजान और अजनबी-सी चुप! यह चुप जैसे बर्फ की भाषा हो। बर्फबारी के बाद अकसर ऐसी चुप, दबेपांव चलती हुई महसूस होती है। इस चुप में भय का भी शुमार होता है। बर्फ जैसे सफेद भय!

शुरुआत में जब बर्फ गिरती है तो सैलानियों का हुजूम होता है। एक-दूसरे पर बर्फ के गोले फेंकता हुआ और बच्चे बर्फ के घर बनाते हुए। बर्फ जब ज्यादा गिरती है तो सैलानी वापस कूच कर जाते हैं। रह जाते हैं वे लोग जो यहां के बाशिंदे होते हैं-पहाड़ों की मुसीबतों को झेलते हुए। दुश्वारियों में जीने की तौफीक पैदा करते हुए। बर्फ से उनका रिश्ता पुराना है- रकीब और हबीब जैसा रिश्ता।

बर्फ जब गिरना बंद हो जाती है तो बहुत ठंड हो जाती है। हवाएं आरियों जैसी, देह को चीरती हुईं। जिंदगी पैरोल पर छूटे कैदियों जैसी। ऐसे माहौल में बाहर का तापमान गिर जाता है और जिस्म का तापमान जद्दोजहद में मसरूफ!

आज बहुत ठंड है। चलो तो सांस फूलने लगे, बैठे तो हवा चीरती हुई।

घनशाम रेडवाइन का एक गिलास पी चुके हैं। यह दूसरा गिलास है, जिसके दो घूंट भर चुके हैं। चिल्ली की रेडवाइन-‘कैसीलैरो दी डैबलो’- गजब का टेस्ट! बाकी रेडवाइन का स्वाद कसैला। लेकिन ये वाइन स्मूथ और शानदार! दिन के साढ़े बारह का वक्त है। लंच डेढ़ या दो बजे। कोई जल्दी नहीं। एक गिलास वाइन रात को या फिर ग्लेनमोरांजी सिंगल माल्ट स्कॉच का एक लार्ज। उनकी पत्नी सुधा रात को वाइट वाइन का एक गिलास लेती है या फिर बकार्डी ब्रीजर!

कुछ भी हो, इतनी ठंड में शराब न सिर्फ जिस्म में गर्मी पैदा करती है, बल्कि जीने का मकसद भी पैदा करती है। ऐसा लगता है पीते हुए, जैसे जिंदगी एक सेलीब्रेशन है।

बड़ा-सा ड्राइंगरूम है। बुडन फ्लोर। फ्लोर पर कालीन। रूम हीटर ने कमरे के ठंड वातावरण को गर्म कर रखा है। म्यूजिक सिस्टम पर सेक्सोफोन इंस्ट्रूमेंट की आवाज मद्धम सुर में गूंजती हुई।

सुधा काम के सिलसिले में ड्राइंगरूम में आती है। फिर वापस अपने कमरे में चली जाती है। सात साल की बेटी जिसका नाम बिट्टी है, अपने कमरे में होमवर्क कर रही है या फिर कोई गेम खेल रही है।

खानसामा चिकन बनाकर जा चुका है। अब वह तब आएगा जब साहब खाना खाएंगे।

पति-पत्नी दोनों सरकार के ऊंचे ओहदे पर हैं। बंगला मिला हुआ है और नौकर भी।

घनशाम रेडवाइन का हल्का घूंट भरते हैं। किसी किसी वक्त खिड़की का पर्दा हटाते हैं। बर्फ को देखते हैं। बर्फ गिर चुकी है और वह दृश्य में बदल चुकी है। बर्फ का बिंबजैसे कोई बूढ़ा, अकेला चल रहा हो। उनका मन करता हैहुंटर शू पहने और ओवरकोट भी। निकल पड़ें कुछ दूर। इंडिया किंग की लार्ज सिगरेट का धुआं छोड़ते हुए। कुछ दूर तक चले जाएं। लेकिन हवा तेज है और तीखी।

रेडवाइन का घूंट भरकर गिलास रखा है। रोस्टेड काजू का एक पीस मुंह में डालकर खिड़की के बाहर का दृश्य देख लेते हैं। सेक्सोफोन की गूंजती हुई मद्धम आवाज उन्हें सुकून देती है।

वह घर में हमेशा पैंट कमीज स्वेटर डालकर रखते हैं। कोट भी पहनकर बैठ जाते हैं। पैंट की जेब कुछ भारी-सी महसूस हुई है। कार की चाबी और नोटों का बंडल उन्होंने मेज पर रखा है। पता नहीं क्या सोचकर उन्होंने नोट गिने हैं। पांच-पांच सौ के तीस नोट। पंद्रह हजार! रात को अगर डिनर किसी रेस्तरां में किया तो फिर जेब में इतने नोट तो होने ही चाहिए, कम-से-कम।

आज इतवार है। छुट्टी का दिन! छुट्टी का दिन यानी फन एंड फूड! ज्यॉय एंड थ्रिल! हैपीनेस एवरीवेयर! उन्होंने किसी अंग्रेजी गाने का टुकड़ा गाया है, जिसका भाव है कि ऐसी रोमांचक जिंदगी सौ बार मिले।

उन्होंने रेडवाइन का घूंट भर कर, मोबाइल पर किसी से बात की है। लफ्जों पर जैसे अहंकार की पर्त चढ़ी हो। संक्षिप्त बात। बात खत्म।

अचानक छोटा भाई दीपू… जिसका पूरा नाम दीपक है, कमरे के दरवाजे के पास आ खड़ा हुआ है। घनशाम उसे देखकर हतप्रभ रह गए हैं। छोटे भाई को चौकीदार, माली सब जानते हैं। वह दो-तीन बार पहले भी आ चुका है। उसे किसी ने नहीं रोका। वह सीधा चला आया है लॉन, बरामदा पार करता हुआ कमरे के दरवाजे के पास। परदा हटाकर खड़ा है वह। बहुत पुराने जूते हैं उसके, जिन्हें वह दरवाजे के पास उतार चुका है। जुराबें नहीं हैं। या तो भीग गई थीं या फिर जराबें दीपू के पास थीं ही नहीं। बिना जुराब के सर्दी के मौसम में बस का सफर। अगर जुराबें भीग गई थीं तो उन्हें उतारना बेहद जरूरी था। भीगी हुई जुराबें इतनी ठंड में पहने रखना, पैरों के साथ अत्याचार जैसा।

छोटा भाई दीपू कमरे में आ चुका है। घनशाम को उसने नमस्ते की है। दूर कुर्सी पर बैठी सुधा को उसने अचानक देखा और ‘भाभी जी नमस्ते’ हाथ जोड़ते हुए कहा। उसने दोनों बार मुस्कराने की कोशिश की है। लेकिन न भाई मुस्कराया है न सुधा भाभी।

दीपू बैठ गया है। हर बार दरवाजे के पास बिछी इसी कुर्सी पर बैठता है, जिस पर वह अभी-अभी बैठा है। दीपू जानबूझकर सोफे पर नहीं बैठा। बड़ा भाई नाराज हो जाएगा। कितना बड़ा अफसर है वह! कोई भी हिम्मत नहीं करता उसके सामने बैठने की। दीपू कैसे बैठे? भाई के सामने सोफे पर बैठ भी जाए तो उसे लगेगा जैसे कोई अपराध कर रहा हो।

दरवाजे के पास रखी कुसी पर वह ऐसे बैठा है जैसे भाई न हो, गैर हो। दीपू अपने मामूलीपन के यथार्थ के साथ बैठा है। भय, संशय। संकोच। गरीबी। संघर्ष। दुख और जाड़ा।

‘बाहर तो बोत ठंडी है ‘पा’ जी।’ दीपू ने कहा है। बात हमेशा उसे ही करनी होती है। बड़ा भाई कभी पहल नहीं करता। कभी नहीं पूछता-माँ कैसी है? तू कैसा है? मकान की जो दीवार गिर गई थी, उसका क्या हुआ? खेत से कुछ उपजा या नहीं?

भाई जिस कमरे में बैठा है उस कमरे का तापमान गर्म है। दो रूम हीटर चल रहे हैं। इसके बावजूद, दीपू लगभग कांप रहा है। वह कोशिश कर रहा है कि न कांपे, लेकिन कोशिश से देह के भीतर उतर चुकी ठंड का असर कम नहीं होता। कमरे का वातावरण सुखद है, लेकिन छोटा भाई ढाई घंटे बस में बैठकर आया है। सर्द और बर्फीली हवाओं ने उसकी हड्डियों को जमा-सा दिया है।

दीपू ने पूरी बाजू का स्वेटर डाल रखा है, लेकिन वह बहुत पुराना है। एक वक्त ऐसा आता है जब पुराने गर्म कपड़े, सर्द मौसम से हार जाते हैं। उन्हें पहनो या ओढ़ो, सर्दी उतरती ही नहीं। और अगर मौसम का बर्फीला मिजाज हो तो फिर ऐसे पुराने गर्म स्वेटरों की औकात का पता चल जाता है।

दीपू ने कमीज के नीचे भी बिना बाजूवाला स्वेटर डाल रखा है जो चिथड़ेनुमा है। दोनों स्वेटरों ने इस नामुराद शीत लहर से जंग लड़ी जरूर, मगर वे हार गए।

घनशाम सर्दियों के मौसम में दो जुराबें पैरों में डालते हैं और सुधा भी। दीपू के पांव नंगे हैं। बेशक उसके पांव कालीन पर हैं। उसके गले में मफलर भी है। वह मफलर को ऐसे खोलता और फिर गले में लपेटता है जैसे कि वह लोई हो या शाल! इस कल्पना से वह अपने आपको ठगता है।

वह अपने आपको कई बार ठग चुका है। बड़े भाई के घर आना, खुशफहमी के सिवा कुछ नहीं होता, लेकिन वह इसी खुशफहमी पर कल्पना के चांदीवर्क चढ़ाकर चला आता है। आज वह फिर आया है जेब में जगमगाता हुआ उम्मीद का चराग रखकर।

वह भाई के ऐन सामने, कुछ फासले पर बैठा है। भाई के घर का भव्य और सुखकारी वातावरण… और उसके बरअक्स वह, जैसे इस घर के पायदान जैसा।

वह जानता है आज भी वह खाली हाथ वापस जाएगा। फिर भी वह गांव से चला आया है। यात्रा की बदहाली और मौसम की तल्खी के बावजूद!

घनशाम ने भाई को देखा है। कुछ देर देखते रहे हैं। पता नहीं क्या सोचते रहे हैं। खिड़की के बाहर यहां वहां जमी बर्फ को देख चुकने के बाद उन्होंने रेडवाइन का घूंट भरा है। दीपू ने बड़े भाई को देखा है। उसने वह शीशे की छोटी आलमारी भी देखी है जिसमें शराब की बोतलें सजी हैं। घनशाम रेडवाइन के घूंट भर रहे हैं। दीपू बोतलों को देख रहा है।

सर्वेंट चाय का कप और दो बिस्कुट प्लेट में रखकर दीपू के लिए लाया है। चाय देखकर उसका मन प्रसन्न हुआ है। उसे बहुत ठंड लगी हुई थी। वह एक मिनट में पूरा कप चाय पी गया है। उसका मन करता है कम से कम दो कप चाय और मिल जाए। भूख भी लगी है उसे। पेट खाली हो तो जाड़ा और ज्यादा लगने लगता है।

सर्वेंट कप उठाने आया है तो दीपू ने सर्वेंट से कहा है, ‘एक कप चाय और दे दो मुझे।’ इस एक वाक्य पर नौकर के साथ-साथ घनश्याम चौंक गए हैं और सुधा भी।

सर्वेंट चाय लेकर आया है, लेकिन इस बार बिस्कुट नहीं है। अब दीपू धीरे-धीरे चाय पी रहा है कि जल्दी खत्म न हो।

म्यूजिक सिस्टम पर सीडी बदल दी है। अब सितार बजने लगा है। बहुत महीन-सी आवाज।

बिट्टी अपने कमरे से निकली है। दीपू को देखकर, बहुत खुश होकर बोल उठी, ‘चाचूऽऽऽ!’

वह आकर दीपू से लिपट गई है। कह रही है वह, ‘मेरा अच्छा चाचू।’

दीपू बिट्टी से क्या मिला कि सारी थकान दूर हो गई है।     

‘चाचू मेरे लिए क्या लाए हो?’ अधिकार है बिट्टी की आवाज में।

‘ये चॉकलेट लाया हूँ।’

‘फाइव स्टार चॉकलेट… माई फेवरेट चॉकलेट।’ बिट्टी चहक रही है।

‘बिट्टी, क्या कूड़ा-कबाड़ा ले रही हो, वापस करो।’ आवाज में तल्खी और रूखापन है। सुधा की आवाज है।

‘कूड़ा कबाड़ा नहीं भाभी जी, फाइव स्टार चॉकलेट है।’ दीपू ने दृढ़ता से कहा है।

‘जानती हूँ।’

‘फिर लेने दो बिट्टी को।’

‘नहीं।… नेवर!’

बिट्टी चॉकलेट वापस करके अपने कमरे में चली गई है। दीपू का यह सरासर अपमान है। बड़े भाई के सामने! बड़े भाई के घर में।

‘कैसे आना हुआ तेरा?’ जैसे मशीन से आवाज निकली हो, ऐसे बोले हैं घनशाम।

चाय का कप तिपाई पर रख दिया है उसने। उसमें अभी चाय है। चाय है तो तपिश का एहसास है। वह चाय को खत्म नहीं करना चाहता। चाय बची रहे। चाय शायद उम्मीद भी है।

‘माँ बीमार रहती है। बिस्तर से उठती है तो हांफ जाती है। खेतों में कुछ बोया ही नईं। बीज खरीदने के पैसे नईं थे। पा जी आपसे कहा था मेरे लिए कोई छोटी-सी नौकरी को देखते।’ दीपू चुप हो गया है। कहने को और भी कई बातें थीं। कही नहीं।

‘देखता हूँ तेरी नौकरी का।’

‘पा जी, आपको तो पता है बी. ए. पास हूँ।’

‘बी. ए. पास को कौन पूछता है आजकल।’

‘पा जी चपरासी या दफ्तरी की नौकरी मिल जाए।’

घनशाम चुप हो गए हैं। वे खुद जी एम हैं। उड़ाएंगे लोगमन ही मन वे सोच रहे हैं। इस बीच उन्होंने रेडवाइन के दो घूंट भरे हैं। काजू के दो पीस खाए हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया को उठाकर पढ़ने लगे हैं।

पा जी… (बड़े भाई को दीपू पा जी कहता है) अखबार में कोई खास खबर छपी है?’

घनशाम को जैसे एहसास हुआ हो। उन्होंने अखबार रख दिया है। बेशक रख दिया है, लेकिन छोटे भाई की बात उन्हें अच्छी नहीं लगी। अच्छा तो छोटे भाई का आना भी नहीं लगा उन्हें। सारा मूड बरबाद कर दिया है इस दीपू ने।

‘घर में कुछ भी नहीं है। थोड़े पैसों की मदद कर दीजिए।’ दीपू ने ऐसे कहा है जैसे सरकारी महकमें में कोई गरीब आदमी प्रार्थना पत्र लिखकर दे रहा हो।

‘मदद!… कोशिश करता हूँ। यहां अपना भी हाथ तंग है। क्या बताऊं, पैसे बचते ही नहीं।’

यह बड़े भाई का ऐसा झूठ है जिसमें मसखरी-सी लगती है। पंद्रह हजार के नोट मेज पर रखे हैं, जिन्हें दीपू देख रहा है। और घनशाम पछता रहे हैं कि नोट उन्होंने मेज पर क्यों रख दिए थे।

‘पा जी आपका हाथ तंग है?’ कितना मारक है ये प्रश्न! जैसे अमीर भाई की खिल्ली उड़ा रहा हो दीपू।

‘हां!’ घनशाम ने उकता कर कहा है।

‘फिर कोई बात नहीं।’

सुधा दूर बैठी थी। वह उठकर घनशाम तक आई है। घनशाम को उसने कोई इशारा किया है और जाती दफा हिकारत नजर डाली है दीपू पर। फिर वापस अपने कमरे में चली गई है। घनशाम पीछे-पीछे आए हैं।

कमरे का दरवाजा बंद करके सुधा ने बड़ी तल्खी से कहा, ‘ये लड़का जब भी आता है गरीबी, बीमारी, दुख, उदासी का कूड़ा उठा लाता है। आई हेट। घर की वाइब्रेशन डिस्ट्रॉय हो जाती है यार।’

‘वह लड़का नहीं है, मेरा भाई है।’ घनशाम की आवाज मिमियाती-सी है। दोनों अपने-अपने आफिस में बड़े अधिकारी हैं, लेकिन रौब सुधा का ज्यादा है, घर में भी और आफिस में भी। सुधा खूबसूरत है और उसमें खास तरह की ठसक है। घनशाम सुधा का सामना नहीं कर पाते।

सुधा ने अपने कमरे का दरवाजा बंद कर रखा है और वह एक तरह से घनशाम की ‘क्लास’ ले रही है।

बिट्टी अपने कमरे से निकलकर दौड़ती हुई दीपू के पास आई है। फुसफुसाती आवाज में कहा है उसने, ‘चाचू फाइव स्टार चॉकलेट दे दो।’

दीपू उसे देखकर मुस्कराया है। चॉकलेट देकर उसने बिट्टी से कहा है कि वह एक बार गले लगे। गले लगते हुए बिट्टी ने कहा है, ‘चाचू आप बहुत अच्छे हो।’ बिट्टी भागकर अपने कमरे में चली गई है।

घनशाम सुधा के कमरे से निकले हैं। रेडवाइन का हल्का-सा सरूर है उनकी चाल में। वह फिर सोफे पर आकर बैठ गए हैं। रेडवाइन, गिलास में अभी है। घूंट भरकर दीपू की तरफ देखा है। कहना चाहते हैं- यहां क्यों आ जाता है तू। लेकिन आत्मा नाम की चीज ने उनके शब्द छीन लिए हैं। वह कुछ भी नहीं कह सके।

वॉशरूम के लिए उठे हैं। अब सिर्फ दीपू रह गया है। शीशेवाली अलमारी में रखी शराब की बोतलें देख चुका है एक बार फिर। मेज पर पड़े पंद्रह हजार, कार की चाबी, रोलेक्स घड़ी, काजू रोस्टेड, वाइन की बोतल। बहुत बड़ा कमरा है। आलीशान चीजों से सुसज्जित।

दीपू ने इस बीच अपने झोले में झांक कर देखा है। पानी की बोतल पड़ी है। गीली जुराब और टोपी, जिसे वह बाहर जाए तो लगा लेता है।

घनशाम वॉशरूम से आ रहे हैं। पेशाब की एक दो बूंदें उनकी पैंट पर भी गिरी हैं शायद। पैंट कुछ गीली-सी लग रही है।

सोफे पर बैठ चुके हैं घनशाम। अचानक उनकी नजर मेज पर नोटों के बंडल पर चली गई है। उन्हें पछतावा हुआ है कि वे नोट छोड़कर वॉशरूम चले गए। उन्होंने नोट उठाए हैं। दीपू उन्हें एकटक देख रहा है। बड़े भाई घनशाम, नोट गिन चुके हैं।

दीपू दरवाजे के पास रखी कुर्सी पर बैठा है। उसने वहीं बैठे-बैठे कहा है, ‘पा जी, पैसे पूरे हैं न?’

दीपू का ये प्रश्न घनशाम को चुभ-सा गया है। उन्होंने इतना कहा है, ‘पूरे हैं।’

घनशाम चाहते हैं दीपू चला जाए। लेकिन दीपू की बस तीन बजे की है। बाहर बर्फीली हवा है। अभी पोने एक का वक्त है। क्या करे वह?

सुधा अपने कमरे से निकली है। दीपू को उसने दो पुराने स्वेटर और तीन पुरानी जुराबें देते हुए कहा कि वह इन्हें ले जाए। सर्दी में काम आएंगे।

दीपू के पैरों के ऐन सामने स्वेटर और जुराबें रखी हैं। उसे जुराबों की सख्त जरूरत है और जो पुराना-सा स्वेटर उसने डाल रखा है वह बिलकुल सर्दी नहीं रोकता। दोनों स्वेटर उसके जाड़े को भगा देंगे।

सुधा चली गई है। वह घनशाम को इशारा कर गई है कि इस लड़के को चलता करे। दीपू ने सुधा का इशारा देख लिया है। चुपचाप बैठा है। सोच रहा है।

उठ खड़ा हुआ है दीपू। एक वाक्य ने हलचल-सी पैदा की है, ‘जा रहा हूँ पा जी!’

दरवाजे के बाहर रखे उसने अपने बहुत पुराने जूते पैरों में डाले हैं। एक बार उसने भाई को देखा है। आलीशान गर्म कमरे को देखा है। रेडवाइन की बोतल और मेज पर पड़े पूरे पंद्रह हजार। बड़े भाई को शक हुआ था कि उसकी अनुपस्थिति में छोटे भाई ने कुछ पैसे न निकाल लिए हों।

‘जा रहा हूँ भाई सॉब!’ एक बार फिर उसने कहा है। भाई को देखा है। भाई ने भी उसे देखा है। गहरी सांस ली है दीपू ने। कंधे पर झोला टांग कर वह वापस चल पड़ा है। न उसने स्वेटर उठाए हैं न जुराबें।

बाहर सड़क पर आकर उसे एकबार फिर सर्दी का एहसास हुआ है। वही बर्फानी हवाएं। वही पुराना स्वेटर। वही बिना जुराबों का जूता।

बस अड्डा ढाई किलोमीटर दूर है। धूप होती तो पैदल चलना कितना अच्छा लगता।

उसे सर्दी तंग कर रही है और भूख भी। तंग तो उसे बड़े भाई का व्यवहार भी कर रहा है। उम्मीदों की टूटी हुई किरचें उसे चुभ रही हैं। क्या-क्या नहीं चुभ रहा उसे। भूख, शीत लहर, उम्मीदों की टूटी किरचें, भाई का तिरस्कार सब चुभ रहे हैं। चुभ तो वह जूता भी रहा है जो पुराना है। जो भीग भी गया है। बिना जुराबों के भीगा हुआ जूता, पैरों का दुश्मन हो जाता है।

वह चल रहा है जैसे अपने आपको ढो रहा हो। चौबीस-पचीस साल का नौजवान, दुबला-पतला-सा, इस बर्फीले माहौल से लड़ते हुए हार-सा रहा है। जैसे कोई निहत्था सेनापति, सामने खड़ी दुश्मन की फौज से लड़ने के लिए निकल पड़ा हो।

इधर-उधर दूर तक नजर उठाकर देखता है दीपू, कहीं कोई आग जल रही हो, पैर सेक ले अपने। जी तो उसका ये भी करता है कि आग की दो-तीन लपटें अपनी जेब में डाल ले।

चलतेचलते सोच रहा हैसारे संगी साथी काम की तलाश में नीचे मैदानी इलाकों में चले गए। सब काम धंधों में जुट गए। कभी आते हैं तो मिलते जरूर हैं, लेकिन पहले जैसी बात नहीं रही। वह अपनी बूढ़ी, बीमार मां को कैसे छोड़कर जा सकता है। कैसे निरीह भाव से, एकटक देखती रहती है उसे। जैसे पूछ रही होतू मुझे छोड़कर तो नहीं चल जाएगा? मां को वह कैसे समझाए कि उसके भरोसे को कभी नहीं तोड़ेगा।

वह सब तो ठीक है, लेकिन घर खर्च कैसे चले? गरीबी भी एक बीमारी है, लग जाए तो छूटती नहीं। जीत राम के सेब के बाग हैं। भला आदमी है। कह भी तो गया था। कल चला जाऊंगा। दो-चार दिन मजूरी उसके बागान में फिर सड़क निर्माण महकमे में किसी बेलदार के साथ जुड़ जाएगा।

सड़क वीरान है। हर तरफ बर्फ। कभी-कभार कोई कार कोई ट्रक गुजर जाता है। इतना सन्नाटा है कि ट्रक और कार की आवाजें भी उसे अच्छी लगती है।

वह पहाड़ी लोकगीत बहुत अच्छा गाता है। डूब कर। कई बार तो उसकी आंखों में पानी तैरने लगता है। जब वह पहाड़ी स्त्रियों के दुखों को अपने लोकगीतों में व्यक्त करता है। उसने शीत लहर से ध्यान हटाने के लिए गाने की कोशिश की है। आवाज तो क्या निकली, दांत किटकिटाए। गला दुखने लगा।

वह सोचता चला जा रहा है-कहीं काम मिल जाए। दो-तीन हजार आ जाएं। तिब्बती मार्केट से दो स्वेटर लेगा, एक अपना, एक मां का।

बस अड्डा दिखाई देने लगा है। कंधे पर झोला लटका हुआ है और दोनों हाथ पैंट की जेब में हैं। उसे पता है जेबों में कुछ नहीं सिर्फ तेरह रुपये हैं। फिर भी। हाथ जिद्दी हैं। हाथों का क्या करें जो जेबों में कुछ ढूंढ़ते रहते हैं। उसने दायां हाथ जेब से बाहर निकाला है। झोला कंधे से लुढ़क रहा था, इसलिए। वापस जेब में हाथ डालते हुए उसका हाथ चोर जेब से जा लगा है। कोई कागज होगा शायद। लेकिन चोर जेब में कागज? वह ठिठक गया है। चोर जेब की पतली गली में उसके हाथ की तीन उंगलियां और अंगूठा अंदर तक गए हैं। उंगलियों और अंगूठा वापस आए हैं। साथ में एक कागज है मुड़ातुड़ा-सा।

दीपू ने कागज को खोला है। हैरान रह गया है। सौ का नोट है। नोट को उसने सीधा किया है। दोनों हाथों में पकड़कर खड़ा है सौ का नोट! उसने नोट को चूमा है। आंखों से लगाया है। मुस्कराया है वह। पता नहीं कब रखा होगा, उसे ध्यान ही नहीं। पैंट दो-तीन बार धोई भी। नोट चोर जेब में पड़ा रहा।

कोई अप्रत्याशित-सी खुशी। सौ का नोट जैसे बहुत बड़ा सुख। मन हुआ है उसका खूब हँसे। झूम जाए। पता नहीं ऐसा क्या हुआ है कि सर्दी कम लगने लगी है।

सौ का नोट बहुत बड़ी रकम नहीं, लेकिन उसके लिए है। वह जो सुबह से भूखा है उसकी जेब से अचानक निकल आया है सौ का नोट। जैसे अंधेरे में कोई जुगनू टिमटिमाया हो।

बस अड्डे पर जाकर कुछ खाएगा-उसने विचार किया है। अपने विचार को फटकार दिया है उसने। मां भी तो सुबह की भूखी होगी। गांव के शुरू में जो ढाबा है वहां से दाल और छह रोटियां ले लेगा। मां के लिए बेनेड्रिल कफ सीरप भी। सारी रात खांसते गुजरती है उसकी। आज रात वह आराम से सोएगी। अदरक, तुलसी, इलायची, बनफशा और दालचीनी की चाय पीने से भी उसे थोड़ी राहत मिल जाती है, लेकिन बेनेड्रिल एक्सपेक्ट्रोरेट से ज्यादा आराम मिलता है। कफ भी निकल जाता है। तीस या चालीस की छोटी शीशी आ जाएगी।

बस अड्डे से बाहर चाय पांच की है, बस अड्डे के अंदर दस की। उसने बाहर बैठे चाय वाले से एक चाय और पारले का दो रुपये का बिस्कुट पैकेट लिया है।

गरीबी और जाड़े से लड़ने के उसके पास बहुत कमजोर शस्त्र हैं। पांच रुपये वाली चाय, पुराना स्वेटर, भीगा हुआ जूता, छिद्रवाला मफलर… और… और अपने प्रति आत्मविश्वास! वह कितना भी टूट फूट जाए परिस्थितियों से हार उसने कभी नहीं मानी। जैसे कि अब।

उसके चेहरे की दृढ़ता देखकर लगता है जैसे कोई किला फतह कर आया है। वास्तविकता ये है कि जिंदगी अगर किला है, तो उसकी टूटी दीवार के सहारे खड़ा है वह।

मां भाई के बारे में पूछेगी। क्या कहेगा वह? कि उसने रोटी तक का नहीं पूछा। पंद्रह हजार मेज पर रखे थे और वह कह रहा था कि हाथ तंग है।

नहीं, वह ये सब बातें नहीं बताएगा। मां पहले बहुत दुखी रहती है। इतना सच वह पचा नहीं पाएगी। वह तो सीधी-सी बात कहेगा कि भाई बाहर गया हुआ था। बड़ा अफसर है। उसको बाहर जाना पड़ता है। सुधा भाभी और बिट्टी भी साथ गए हैं। बस एक माली मिला था।

इस झूठ से मां को तसल्ली हो जाएगी। कुछ झूठ कितने पवित्र होते हैं। उन्हें बोलो तो आत्मा प्रसन्न हो जाती है। जैसे कि यह झूठ।

संपर्क सूत्र : 1875 सेक्टर-6, बहादुर गढ़-124507 (हरियाणा), मो.9813491654