गजल लेखन में सक्रिय। गजल, उपन्यास, कहानी, आलोचना आदि की तीस पुस्तकें प्रकाशित। अद्यतन गजल संग्रह ‘घाट हजारों इस दरिया के’।
यह पुराना मकान है। तीन बड़े कमरे, एक छोटा कमरा। कमरों के साथ बरामदा। दो-तीन सीढ़ियां उतरो तो आंगन शुरू होता है। आंगन में सूखी घास है और भरे हुए फूलों के गमले।
ऐसा लगता है यहां कोई नहीं रहता। मकान मुद्दतों से बंद है। न जीवन में धड़कन न सांस लेती आवाज़ें।
ऐसा लगता जरूर है, यहां कोई नहीं रहता। लेकिन सच यह नहीं। सच यह है कि यहां तीन जन रहते हैं। मां और दो पुत्र।
उतना विशाल मकान जो मुद्दतों से बंद है। कोई उदास-सी आत्मकथा प्रतीत होता है। मकान को दूर से देखो तो लगता है जैसे कोई अश्वत्थामा खड़ा हो, शिकस्ता दीवारों का जिस्म पहनकर।
यह बात चकित करती है कि इस बंद और पुराने मकान में तीन इंसान रहते हैं, जीते जागते तीन इंसान! मां और उसके दो पुत्र ।
जहां तीन जन रहते हों और जीवन का कोई निशान नजर न आता हो।
इस पुराने मकान में मुद्दतों से यही हो रहा है। न कभी कोई दस्तक देने आया, न कभी कोई डाकिया आया। तितलियों ने मुंह मोड़ लिया और परिंदे भी वीरान आंगन में बैठकर, उड़कर चले गए।
इस मकान का, चारदीवारी के साथ जो गेट है, वह कभी जरूर खुलता होगा। लोग आते-जाते होंगे। कॉल बेल बजती होगी। दस्तकों की नर्म आवाजें गूंजती होंगी।
अब बरामदे में सन्नाटा है। सूखी घासवाला आंगन, जैसे किसी के आने-जाने की उम्मीद छोड़ चुका हो।
इस पुराने, बड़े-से घर में इतना सन्नाटा है कि हवा चले तो उसके पैरों की आवाज सुनाई दे। घर बंद रहे तो वह किसी निशानी में बदलने लगता है। जैसे कि यह घर। चारदीवारी के बाहर जो जंग खाया लेटरबॉक्स है, पहले बड़ी शिद्दत से, साइकिल पर जाते डाकिये को देखता था। अब उसने देखना छोड़ दिया है। कोई बहुत पुरानी चिट्ठी अब भी उसके अंदर रखी है। वह लेटरबाक्स का सरमाया है, वो उसे गंवाना नहीं चाहता।
सूखी घास, बंद गेट, बरामदे पर जमी गर्द, इस बात की गवाह है कि यहां कोई नहीं रहता।
लेकिन यहां रहनेवाले कहां चले गए, यह तड़पता हुआ सवाल है। मकान बंद है। मुद्दत से बंद है। लोगों से पूछो तो कहते हैं, बताकर नहीं गए। बताकर जाते तो मालूम होता।
पहले यहां कतार में घर थे। छोटे-बड़े मकान। सारे मकान शो रूम में बदल गए हैं। बस, एक मकान है, जस का तस । यही मकान है, जो बंद है। जो मुद्दत से बंद है। जो बूढ़ा लगता है। जो शो रूमों के बीच किसी मटमैले धब्बे जैसा प्रतीत होता है।
पहले यह मुहल्ला था, अब मार्केट। पहले यहां परिवार थे, अब कस्टमर। पहले आपसदारी थी, अब एक्सचेंज ऑफर।
एक अरसा पहले यह मकान कोठी जैसा लगता था। फिर मकान जैसा। और अब, पुराने वक्त का कोई पुराना किस्सा।
मकान के भीतर घना अंधेरा है। तीन नहीं, साढ़े तीन कमरे। लॉबी। किचन। दो वॉश रूम। स्टोर। सब हैं। सब जगह चुप है। सब जगह अंधेरा! दिन के वक्त किसी रोज़न से रोशनी का कोई टुकड़ा चला आए तो वे उसे देर तक देखते रहते हैं, मिचमिचाती आंखों से। उस रोशनी के आ जाने से वे एक दूसरे को देखते हैं, कम, कम! ऐसे देखते हैं जैसे एक दूसरे को पहचान रहे हों। ऐसा भी लगता है जैसे वो जरा जरा-सा मुस्कराए हों। या शायद वे मुस्कराए हों। देखते रहे हों, बस। कम-कम। या कुछ अधिक!
आसपास के सब लोग मान चुके हैं कि अब यहां कोई नहीं रहता। मकान खाली है और बंद है। एक समय से बंद है।
सबने मान लिया है और लगभग, भू-माफिया नगर के डॉन ने भी मान लिया है कि यहां कोई नहीं रहता।
इस बंद मकान को दूर से देखो तो यह उस सराय की तरह लगता है जहां न कभी कोई आया हो, न गया हो।
खूबसूरत इमारतों के बीच एक चुपजदा मकान जैसे गुजरनेवालों से कुछ कहना चाहता हो।
तेजा डॉन ने बहुत पहले स्त्री को डराने और धमकाने वाले लहजे में कहा था, ‘सुन औरत! लोगों की जिद मुझे अच्छी नहीं लगती। जिद की मक्खी को पकड़ता हूँ। मसल देता हूँ। मकान छोड़ के कहीं चली जा। अपनी जान बचा और अपने लड़कों की। वरना तू खुद अपनी नंगी आंखों से उनको तड़पता देखेगी।’
बेबसी क्या होती है, वह उस स्त्री के चेहरे पर थी। निहत्थी स्त्री, कितनी अकेली हो जाती है एक क्रूर और आदमखोर के सामने, वे क्षण उस स्त्री की लाचारगी के गवाह थे।
अपने घर से बेदखल हो जाना, जैसे उम्र भर का वनवास हो।
वे, नगर के डॉन के सामने खड़ी रही थी खामोश। तिलमिलाती। तड़पती। आगबबूला। क्रोधित। दुखी। हताश।
पता नहीं, इतनी दृढ़ता कहाँ से बटोर ली थी उस स्त्री ने, ‘तू लाख धमकियां दे, अपना घर मैं कभी नहीं छोड़ूंगी।’ उसने कह तो दिया था। वह जानती थी सारा सिस्टम उस डॉन का है और वह अकेली।
अपने सामने बैठे साथी से डॉन ने कुटिलतापूर्ण ठहाका लगाते हुए कहा था, ‘ये औरत मुझसे खेल खेलेगी। बेवकूफ। जाहिल औरत!.. या तो ये मकान छोड़ जाएगी या फिर, इसी मकान में दफ्न हो जाएगी।’
घर न छोड़ने की ताकत उसके अंदर, पुख्ता होती चली गई थी। दोनों बेटों के साथ वह इस मकान में समा गई थी। वह जानती थी कि मकान में रहकर भी मौत है और बाहर तो उसके हाथों मरना लिखा है।
तीनों मकान में रहने लगे थे। मकान को भीतर से बंद करके भी वे कभी आश्वस्त नहीं हुए थे।
भूमाफिया का भय उनके मन में बैठ-सा गया था।
मां और दोनों बेटे तीनों बंद मकान के निवासी हैं। घर के भीतर, बेघर। तीनों निहत्थे, विचित्र-सा युद्ध लड़ रहे हैं। ताकतवर और निर्मम और बेखतर भूमाफिया के खिलाफ। बेशक, पराजय की गंध, अंधेरे मकान में है। इसके बावजूद, वे अंधेरे फर्श पर अपनी-अपनी उंगली से, घर का नक्शा तामीर करते रहते हैं।
तीनों की एक जैसी दुनिया है, अंधेरे रंग में पुती। मां अधेड़ है। बेटे जवान हैं। लेकिन अंधेरे के कीचड़ में लिपटा सन्नाटा, सबके लिए एक जैसा है।
अंधेरे की छाया के अतिरिक्त, एक और भी छाया है, डर की छाया। उन्हें लगता है, वे पकड़ लिए जाएंगे। उन्हें लगता है, वे मार दिए जाएंगे। ताकतवर का असर रसूख कहाँ नहीं होता। हर जगह होता है। कोई बोलता नहीं। बोलनेवाले के पास आवाज़ नहीं बचती। जिस्म शायद बच भी जाए। वह जब, कभी कभार खुली जीप में निकलता है, वह अकेला नहीं होता। अंग-संग बाउंसर होते हैं, शार्प शूटर। वह जब सड़क पर निकलता है, सारी आवाजें डूब जाती हैं। आवाज सिर्फ जीप की होती है। बाजार का बाजार नतमस्तक मुद्रा में होता है। हाथ जोड़ने की मुद्रा में। जैसे कोई सचमुच का ईश्वर, जीप से गुजर रहा हो।
घुप्प अंधेरे मकान में वे तीनों, कभी-कभी बिलकुल भीतर वाले कमरे में जाकर मोमबत्ती जला लेते हैं। मोमबत्ती की लौ काँप रही होती है और कांप रही होती हैं, जलानेवाले की उंगलियाँ । मोमबत्ती की रोशनी में एक-दूसरे के चेहरे नजर आते हैं। वे एक दूसरे को देखते हैं, गूंगी नजरों से। अजनबीयत के भाव से। बोलता कोई नहीं। लेकिन बोलने की कोशिश सब करते हैं। छोटा भाई सबसे ज़्यादा।
वे तीनों, सहमी हुई नज़रों से एक दूसरे को ऐसे देखते हैं जैसे वकफे के बाद मिले हों और पहचान रहे हों एक-दूसरे को। चेहरे बेशक न पहचान पा रहे हो, व्याकुलता तो जरूर पहचानते हैं एक-दूसरे की।
दुर्बल-सी मोमबत्ती की लौ में वे एक-दूसरे को ऐसे देख रहे होते हैं, जैसे एक दूसरे के चेहरों को याद कर रहे हों। या गुम हुए पुराने, ख्वाबीदा चेहरों को ढूंढ़ रहे हों। वे एक-दूसरे को न देखते हुए देखते हैं या देखते हुए देखते हैं। कभी गौर से, तो कभी सरसरी तौर से, कभी हैरान नजरों से, तो कभी उदास इबारतों वाले चेहरों को, आत्मीय भाव से।
तीनों कभी नहीं हँसे। शायद कभी हँसे हों। किसी को याद नहीं। वे तीनों, अपने अनाथ दुख और उदासी की आकृति के बीच, एक छीन ली गई दुनिया का शोकपर्व मनाते हुए।… हँसने के लिए किसी चुटकुले की जरूरत नहीं होती। वह होती है तो आ जाती है। वह होती है तो बद्दुआओं के जंगल में, किसी जंगली फूल की तरह खिल उठती है। वह न हो तो हँसना संभव नहीं होता। जैसे होठों का सबसे कीमती सामान कहीं खो गया हो।
पहले बहुत पहले मोमबत्तियां पूरी थीं। अब मोमबत्तियों के टोटे बचे हैं।
कई बार टोटे भी कितने कीमती हो जाते हैं, वह मोमबत्तियों के हों, धागों के हों, कपड़े के हों, स्मृति के हों या कहानी के टोटे। वे तीनों भी मोमबत्तियों के टोटों जैसे।
बिजली का कनेक्शन पहले कटा, फिर पानी का। कनेक्शन काटने वालों ने टीप लिखी- ‘एबॉन्डंड’ कोई नहीं रहता।’
उन्हें पता नहीं था अपने ही घर में तीन जन, असुरक्षित । अपने ही घर में बंजारों जैसे। अपने घर को अपना कहते हुए वे सिहर उठते हैं। यह विडंबना है या विडंबना का छल!
‘घर में कोई नहीं रहता।’ लिखनेवाले, बिजली पानी के महकमेवालों को क्या पता था कि, डरे हुए तीन लोगों की जिंदगी को वे कितना अधिक कष्टमय बनाकर जा रहे हैं।
बंद मकान में न बिजली है न पानी। पानी! यह कोई चमत्कार-सा है कि पानी का कनेक्शन कट जाने के बाद भी, गुसलखाने और रसोई की टूटियों से, बूंद-बूंद पानी टपकता रहता है। सुबह जो खाली बाल्टियां होती हैं। अगली सुबह तक भर जाती हैं।
वे पानी की टपकती बूंदों को महसूस करते हैं। बूंदें दिखाई नहीं देतीं। उनकी आवाज सुनाई देती है। उनको लगता है, यह पानी की बूंद नहीं, जिंदगी की आंखों से टपका पानी है।
छोटा भाई पानी का लोटा भरकर ले आता है। तीनों पानी पीते हैं। शुक्र करते हैं पानी की बूंदों का। ये न टपकतीं तो उनका क्या होता? जिंदगी भी क्या खूब है! संभावना की लकीरें खींचने की कला उसके पास है। तभी तो, तमाम अंधेरों के बावजूद, दोपहर के वक़्त, खिड़की की झिरी से रोशनी चली आती है। ताजा हवा की कतरन भी उड़कर भीतर आती है। कमरों में यूं दबे पांव चलती है, जैसे इस मकान में कैद तीनों जन चलते हैं। डर पैरों में ही नहीं, पदचाप में भी है।
यह कैद भी कैसी है? कोई निरपराधी अपने आप को ़कैदखाने में बंद कर ले जैसे।
अपने मकान को भी कोई कारावास बनाता है भला! बाहर कोई हत्यारा, मौत का फरमान लिए, अपनी बीएमडब्ल्यू में घूम रहा हो, डैश बोर्ड पर, आधुनिक गन रखकर, तो निर्बल लोग, बेशक अपने घरों में कैद हो जाते हैं। दरिंदे आजाद। परिंदे पिंजरे में।
एक दिन ऐसा हुआ था कि मां का गला भर आया था। वह सिसकने लगी थी। बहुत हताश हो गई हो जैसे। बहुत थक गई हो जैसे। बहुत टूट गई हो जैसे। दोनों भाई भी भावुक हो गए थे, मां को रोता देखकर। उनकी आँखों में भी पानी चला आया था। लेकिन वे रोये नहीं थे। बड़े वाले ने मां के पास बैठकर पीठ सहलाई थी। छोटे भाई ने मां के कंधे पर सर रख दिया था। बड़े भाई ने बहुत आहिस्ता से कहा था, ‘मां, तू हमारी शक्ति है।’ मां ने अपने दोनों बच्चों के माथे चूमे थे। बहुत धीरे से लेकिन दृढ़ता से कहा था, ‘तुम दोनों बच्चे मेरा भरोसा हो।’
निहत्थी मां की ज़िद है। मां की ज़िद का अपना सौंदर्य है। दोनों भाई जानते हैं। मां का आत्मसम्मान मां का वैभव है, जो इस अंधेरे में, जीवन जीने के हज़ार सूरज पैदा करता है।
कभी-कभी मां को लगता है, वह हार जाएगी। लेकिन इस बोध को वह अपने भीतर छुपाकर रखती है। बच्चों को जाहिर नहीं करती। बेशक, बच्चे बड़े हैं। जवान हैं। फ़रमाबरदार हैं, जो मां की जिद को अपनी प्रबल भावना समझ रहे हैं।
तीनों जन इस बंद मकान से बाहर होते तो कितना खुश रहते। वे हँसते तो सौ-सौ फूल खिलते। दोनों भाई पढ़ रहे होते या कोई नौकरी कर रहे होते। बेशक, ये बड़ा-सा मकान उनसे छिन चुका होता। यह पराजय का भाव लेकर तो जीवन न जीते।
कितनी बड़ी विडंबना है। अपने ही मकान में तीनों कैदी हैं। अपराध इतना कि तेजा नामक भू-माफिया को अपना मकान देने से इंकार कर दिया। भू-माफिया, इंकार सुनने का बिलकुल आदी न था। उसे लगा जैसे कि उसपर गोली चला दी गई हो।
वो तीनों, दीवारों से पीठ टिकाकर बैठे रहते हैं।
एक-एक क्षण का गुजरना वे महसूस करते हैं। वे तीनों, मार्मिक कथाओं के ऐसे पात्र प्रतीत होते हैं, जिन्हें जिंदगी का किस्सागो उन्हें रोता हुआ छोड़ गया हो ।
दोनों भाई सरककर दूसरे कमरे में चले गए हैं, मां को कमरे में छोड़कर। वे दूसरे कमरे में फर्श पर बैठे हैं। बहुत क्षीण-सा उजाला है। इतना कम कि उन्होंने, एक दूसरे के चेहरे बहुत-कम-कम देखा है।
उन्होंने मुस्कराने की कोशिश की है। गहरी सांस ली है।
– कैसा है भाई?
– जैसा तू है भाई।
– मैं!
– हां
– ठीक हूँ।
– सच?
– नहीं, झूठ!
– कुछ खाने का मन है।
– हाँ
– और चाय पीने का?
– हाँ
– और बहुत सारा नहाने का ?
– हाँ।
– और मैले कपड़े उतारकर साफ़ कपड़े…
– हाँ, ब्रो! एग्ज़ैक्टली!
दोनों चुप हो गए हैं। कहीं उनकी आवाज़ मां तक न चली जाए। मां को बुरा लगेगा।
यहां हर बात दबे पाँव है। चलना दबे पांव। बोलना दबे पांव!
बड़े भाई ने धीरे से कहा है, ब्रो ! मैं जेआरएफ की तैयारी कर रहा था। सब स्पॉयल हो गया।
‘मेरी बीए!’ छोटे भाई ने गहरी सांस ली।
‘मां का सोच ब्रो! वह मकान बचाने की कोशिश कर रही है।’ बड़े भाई ने कहा है।
‘असफल कोशिश।’ छोटे भाई ने गहरी सांस ली।
‘जो लड़ाई हमें लड़नी चाहिए, वह मां लड़ रही है।’ बड़े भाई ने धीरे से कहा।
‘क्या यह लड़ाई है ब्रो?’
‘हां, ये लड़ाई है।’
‘लड़ाई दिखाई नहीं देती।’
‘सारी लड़ाइयां आमने-सामने की नहीं होतीं, जो दिखाई दें।’
‘नतीजा क्या निकलेगा?’
‘लड़ाई नतीजे के लिए नहीं लड़ी जाती।’
‘तो?’
‘आत्मसम्मान के लिए लड़ी जाती है।’ बड़े भाई ने कहा है।
दोनों भाई कई दिनों बाद, इस तरह मिले हैं। वे हमेशा चुपचाप रहते। अंधेरे में। आमने-सामने। तीनों। जैसे वे तीन, मूर्तियों की बस्ती हों।
आज, एक दूसरे अंधेरे कमरे में दोनों भाई मिले हैं। वे इतना धीरे बोल रहे हैं कि उनकी आवाज न बाहर जा पाए, न मां तक पहुंचे।
बड़े भाई ने, छोटे भाई के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा है, ‘ब्रो! रोशनी की क्षीण-सी लकीर जो अंधेरे मकान में प्रविष्ट हुई है, अपना उजाला लेकर। बहुत बड़े अंधेरे कक्ष में, दुर्बल-सी रोशनी। हमारी लड़ाई भी दुर्बल रौशनी जैसी है।’
मां उठी है। उसे महसूस हुआ है, दोनों भाई यहां नहीं हैं। वह व्याकुल हो उठी है। पहले उसने मोमबत्ती जलाने की सोची। फिर विचार त्याग दिया।
वह दीवारों पर हाथ रखती, टटोलती, धीरे-धीरे चल पड़ी है। सोच कर हलकान हो रही है कि वे दोनों कहां होंगे? कहीं बाहर तो नहीं निकल गए। उसे बुरे ख्याल आने लगे हैं। बाहर तो उस डॉन का फैला हुआ जाल है। वे मारे जाएंगे।
दूसरे कमरे के बाहर वह खड़ी हुई है। उसे महसूस हुआ है। दोनों भाई इसी कमरे में हैं।
वह बिलकुल उनके पास जाकर, फर्श पर बैठ गई है।
बड़े भाई ने धीरे से कहा है, ‘मां!’
‘हां, मैं!’ मां ने जवाब दिया है।
तीनों चुप हो गए हैं। चुप खाली चुप नहीं है। उस चुप में रेंगती हुई तड़प है। इस बंद मकान में तीनों की अपनी बेचैनी है। यह बंद मकान, दरहकीकत, सामूहिक बेचैनियों का पिरामिड है।
‘कितने अकेले हो गए हैं हम।’ छोटे भाई की मार्मिक आवाज है।
‘तेरे साथ मैं हूँ तेरी मां! तेरा बड़ा भाई है।’ मां ने बेटे को आश्वस्त किया हो जैसे।
अगर आवाज की रंगत होती तो इस आवाज का रंग चमकीला होता।
‘हम तीनों एक-दूसरे का अकेलापन बांट नहीं रहे, ब्रो!’
‘तो?’ भाई ने पूछा है।
‘एक दूसरे को दे रहे हैं अकेलापन!’
सब धीमी आवाजों में बोलते हैं। जैसे आवाजों के कागज सरक रहे हों फर्श पर। इनकी आवाजों में भय का एक अनदेखा चेहरा होता है।
‘तू चाहता क्या है?’ बेबस मां की यह आवाज है।
‘चाहता हूँ, दोस्तों से मिल आऊं।’ छोटे बेटे ने कहा है।
‘सुन, तू जाएगा तो सही। पर लौटकर नहीं आएगा। तेजा के गुंडे तुझे मार देंगे। उनमें न रहम है न जज्बा। वे बेहद क्रूर और लालची हैं।’
‘जिंदा रहना है तो इसी घर में रहो।’ मां ने कहा है।
‘घर?’ बड़े बेटे ने मां के शब्द को पकड़ लिया है।
‘मकान! मेरे पति का मकान। मेरे पति के पिता का मकान।” मां को पुराना समय याद आ रहा है जब पति-पत्नी दोनों इस घर में रहते थे। मकान उनके पिता ने सस्ते दिनों में, सस्ते दामों में बनवाया था। स्त्री अपने पति को याद कर रही है। एक बहुत अच्छा इंसान बहुत जल्दी चला गया। वे टीजीटी अध्यापक थे। स्त्री को उनकी पेंशन मिलती है। सब ठीक चल रहा था, लेकिन एक दिन तेजा ने धमकी दे दी। उसकी धमकी खोखली नहीं होती थी, वह डर पैदा करती थी। वह सौदा नहीं करता था, छीनता था। उसकी नजर इस मकान पर थी।
बहुत देर बाद मां की बुझी हुई-सी आवाज़ उभरी, ‘तुम दोनों भाई इसे मकान कहते हो, मैं घर कहती हूँ।’
‘मां, तुम ये लड़ाई अकेले लड़ रही हो।’
‘नहीं, तुम दोनों मेरे साथ हो।’
‘मेरे बच्चो, इस लड़ाई का मक्सद सिर्फ मकान नहीं है। मसला अपने होने का, अपने स्वाभिमान का भी है।’
हमेशा चुपचाप रहने वाले तीनों, मां और बेटे आज इतना सारा बोलकर चुप हो गए थे। बातें और भी थीं। हजारों दुख। हजारों चिंताएं। हजारों प्रश्न। वे चुप हो गए थे। वे और ज्यादा बोलते तो थक जाते। चुप रहने की आदत-सी पड़ गई थी। वे जब बोल रहे थे तो लगता था, डरे हुए तीन जन बोल रहे हैं। उनका डर, न दिखाई देने वाली आकृतियों में था।
तीनों चुप थे। अंधेरे बंद मकान में। शहर को, और शहर के लोगों को पता नहीं था कि इस नगर के तीन उपस्थित लोग कितने अधिक अनुपस्थित हैं। होने के बावजूद।
घड़ी बंद थी। कलैंडर पुराना था। बिजली नहीं थी। पानी का कनेक्शन लगभग कट चुका था, भले बूंद-बूंद पानी टूटी से टपकता रहता था। तीन कमरों वाले अंधेरे अकेले घर में, एक यही आवाज थी, जो सुनाई देती थी। आवाज शायद खामोशी की भी थी, जिसे सुना जा सकता था। तीनों शायद अपनी सांसों की आवाज सुनते हों और क्या पता अपनी सांसों को गिनने भी लग जाते हों।
वे पास-पास बैठे रहते हैं। कुछ न करते हुए। बहुत कुछ सोचते हुए वे पास-पास इसलिए भी बैठे रहते हैं कि यह नजदीकी शक्ति देती हो जैसे।
मन ही मन एक प्रश्न वे अपने आप से हजारों बार पूछते होंगे- इस कैद में कब तक? कब तक का जवाब किसी के पास नहीं।
छोटे भाई ने ठान रखी है कि आज वह इस मकान से बाहर निकलेगा। दरवाजे बंद हैं। अंदर से ताले इन लोगों ने लगा रखे हैं। बाहर से ताले भू-माफिया के गुर्गे लगा गए थे।
लेकिन छोटे भाई ने चोर रास्ता बना रखा है। वह खिड़की के जरिए बाहर निकलता है। दस बजे या बाद में। उसने दो-तीन दुकानदार ढूंढ़ रखे हैं। वह पैंट की जेब में बहुत सारे पैसे लेकर जाता है। बहुत जल्दी सामान खरीदता है। जो-जो सामान उसे जरूरी लगता है, वह सब। एक मिनट भी बरबाद नहीं करता। आखिर में एक ढाबे से रोटियां, दाल, भटूरे, अचार और पानी की बोतलें लेता है।
वापिसी के लिए वह दूसरा रास्ता चुनता है। पथरीला, ऊबड़-खाबड़ रास्ता। स्ट्रीट लाइट चली जाए तो वो खुश होता है। बहुत पहले, उसने अपने मकान के साथवाली दो ट्यूब लाइटें, पत्थर उछालकर तोड़ दी थीं।
मकान जितना नजदीक आता है, वह और ज्यादा चौकन्ना हो जाता है। पहले, बिना आवाज किए, खिड़की का पट उठाता है। सामान अंदर फेंकता है। फिर खुद, खिड़की के संकरे रास्ते से अंदर आता है। खाने का सामान कई दिन तक चलता है। आखिर में बिस्कुट। सूखी हुई ब्रेड और अचार। पूरी मोमबत्तियां कुछ दिनों बाद टोटों में बदल जाती हैं।
तीनों में से किसी को याद नहीं कि इस बंद मकान में वे कब से हैं? यह पता है कि इस बंद मकान में रहते एक मुद्दत गुजर चुकी है।
उनके चेहरे मुरझा चुके हैं। वे ऊब चुके हैं। पता नहीं यह लड़ाई वे भू-माफिया से लड़ रहे हैं या अपने-आप से।
वे खुद को सजा दे रहे हों जैसे। वे ऐसा न भी करते। लेकिन भू-माफिया की धमकियां, उसके गुर्गों की मारपीट। वे जो भू-माफिया के बंदे थे, शक्ल से शरीफ थे, आचरण में पाशविक! दोनों भाइयों को वे कई बार पीट चुके थे। और विडंबना यह थी कि पीटने वालों ने थाने में दोनों भाइयों के खिलाफ़ रपट लिखाई। जो हत्यारे थे, वे विक्टिम भी थे। अजब किस्म का सर्कस था।
कितना आसान था आत्मसमर्पण। कितनी मुश्किल है यह लड़ाई।
हद उस दिन हुई जब दिन हुई, जब बेटों के सामने गुंडों ने मां को मारा। घसीटा। गालियां दीं। कपड़े तक फाड़ दिए। डर पैदा करने के नायाब नुस्खे थे उनके पास। मां और तीनों बेटे डर भी गए थे। लेकिन बेटों की मां ने अपने अपमान को शक्ति में बदल दिया। जिद को हथियार बनाया और गुस्से को न बुझने वाला अलाव।
शुरू-शुरू में उन्होंने घर में बहुत सारा सामान इकठ्ठा कर लिया। वे एक नई तरह की तैयारी में थे, नजरबंद होने की तैयारी। उन्होंने तय किया कि मकान को भीतर से बंद कर देंगे। हर चीज बंद यूं महसूस हो सबको, जैसे कि यहां कोई रहता ही नहीं। न बत्ती जलाएंगे न पानी का इस्तेमाल करेंगे। खाना नहीं बनाएंगे। कम खाएंगे। बिस्कुट। ब्रेड। रस।
घर से बाहर नहीं निकलेंगे। सब लोग जान जाएंगे कि यहां रहने वाले कहीं चले गए।
ऐसा लगता है जैसे वे सचमुच कहीं चले गए हैं। अपने-अपने जिस्म रखकर कहीं चले गए हैं। अपनी हसरतें अपना भविष्य रखकर कहीं चले गए हैं।
ऐसा महसूस होता है। लेकिन जो है वह यह है कि वे इस बंद मकान में हैं बहुत अरसे से।
पानी की टूटी से जब टप-टप करता पानी गिरता है। दोनों भाइयों को वह आवाज अच्छी लगती है। अंधेरे मकान में, सुबह या दोपहर झीनी-सी रोशनी की लकीर फर्श पर आकर ऐसे बैठती है जैसे उनका हालचाल जानने आई हो। वे रोशनी की पतली-सी लकीर को बताते हैं कि नए समय में किसी नृशंस ताकतवर से लड़ाई ऐसे भी लड़ी जाती है। खुद को अनुपस्थित करके, अपने होने के बावजूद।
वर्तमान से त्रस्त। यथास्थिति से व्याकुल।
उद्देश्यहीन! दोनों भाई। कुछ-कुछ दिन बाद मां को एक कमरे में छोड़कर, दूसरे कमरे में जा बैठते हैं। ऐसा लगता है, वे एक अंधेरे से दूसरे अंधेरे में चले आए हैं।
मोबाइल से लोकेशन ट्रेस की जा सकती थी। मां ने तीनों मोबाइल पानी में डाल दिए थे। तीनों भाइयों को बेशक खराब लगा था, लेकिन खुद को बचाए रखने के लिए यह जरूरी भी था।
दोनों भाई दूसरे कमरे में चले आए हैं। उन्होंने एक दूसरे से हाथ मिलाया है। गले मिले हैं। दोनों की आंखें भी नम हुई हैं शायद!
दोनों बेआवाज़।
फर्श पर बैठ गए हैं दोनों ।
‘आवाज धीमी रखना ब्रो।’ बड़े भाई ने समझाया है।
‘ओ.के.।’
‘ब्रो!’ दोनों भाई एक दूसरे को ‘ब्रो’ कहते हैं।
‘हां।’ बड़े ने पूछने वाले अंदाज में हां की है।
‘पता है कल मैं चुपचाप तीसरे कमरे में चला गया था।’
‘स्टडीरूम में?’
‘हां। जिसे हम कभी अध्ययन कक्ष कहते थे।’
‘तो?’
‘ब्रो, कमरे में अंधेरा था। मैं कमरे का नक्शा जानता था। धीरे–धीरे मैं बुक शेल्फ तक चला आया था। मेरे हाथ किताबों को छू रहे थे। मुझे अच्छा लग रहा था। मैंने बहुत दिनों बाद किताबों को छुआ था। मुझे लगा जैसे किताबें आंखें फाड़कर मुझे देख रही हैं।
‘गुड!’ बड़े भाई ने कहा है।
‘ब्रो! ऐसे मुश्किल हालात में भी तूने गुड कहा है। मेरा दिल खुश हो गया है।’
‘मेरा भी।’ बड़े भाई ने कहा है।
‘एक बात बताऊं। कल की बात?’ बड़े भाई ने कहा है।
‘हां, बता न?’
‘कल फर्श पर मां लेटी हुई थी। अंधेरा था और मैं उसे देखने की कोशिश कर रहा था। मुझे लगा मां बहुत थकी हुई है। उसके शरीर में दर्द है…।’
‘चुप क्यों हो गया है, ब्रो, बता न।’
‘मैं धीरे-धीरे उसके पैरों की उंगलियों को, तलुवों को, ऐड़ी, टखनों को, अपनी उंगलियों से दबाता रहा। मां के सिर को हल्के-हल्के दबाते हुए मैं सोचता रहा काश, सरसों का तेल यहीं पास रखा होता। ब्रो! व्याकुल-सी मां जो पता नहीं कब से जाग रही थी, सो गई थीं।’
‘गुड! वैरी गुड ब्रो!’
‘हां भाई। मैं मां को देख रहा था। अंधेरे में, मां को देख रहा था। मां सो गई थी और मैं उसे देख रहा था। ब्रो! मां सचमुच की योद्धा लग रही थी।’
‘मां के बारे में तूने बिलकुल ठीक कहा है भाई।’
‘एक बात बताऊं छोटे ब्रो।’
‘हां।’
‘हर स्त्री के अंदर एक झांसी की रानी भी होती है और वह हमारी मां में तो पूरी तरह से मौजूद है।… ब्रो, मैं मां को देख रहा था और मुझे महसूस हो रहा जैसे सोई हुई मां, जागरण की प्रार्थनाएं बुन रही हो।
रात हो चुकी है। इस बंद मकान में, रात या दिन का ज़्यादा पता नहीं चलता। पता चलता भी है जब सुबह, किसी झिरी से, किसी खिड़की, दरवाजे या रोशनदान से, रोशनी की पतली-सी लकीर भीतर चली आती है। हवा भी तो बंद मकान के अंदर रेंगती हुई आती है, जैसे खोज-खबर लेने आई हो।
फिलहाल रात है। गाढ़ा अंधेरा और सन्नाटा है। तीनों कमरे के फर्श पर चुपचाप बैठे हैं। अस्ताए हुए। थके हुए। उदास और चुप। बातें उनके पास रही नहीं या फिर वे कोई बात करना नहीं चाहते।
तीनों भूखे हैं। ढोलची में जो पानी था, वह भी खत्म होने को है। गिलास भरा है। तीनों अंधेरे में गिलास थामते हैं। घूंट भरते हैं। दूसरे को गिलास थमा देते हैं। तीसरे के हाथ में गिलास है। तीसरा कौन? मां! मां के हाथ में पानी का आधा गिलास है। उसने एक घूंट पानी पीया है। वह सोच रही है, पानी सुबह तक चल पाएगा।
उसने किसी पन्नी में बिस्कुट रखे थे। उन्हें वे अंधेरे में ढूंढ़ रही है। शुक्र है, पन्नी मिल गई है। पांच बिस्कुट हैं। मां ने दो-दो बिस्कुट दोनों को दिए हैं। अपने लिए उसने एक बिस्कुट रखा है। पानी ज्यादा होता तो वह बहुत सारा पानी पीती। फिर एक बिस्कुट को टुकड़ा-टुकड़ा करके देर तक खाती।
मां को छोड़कर दोनों भाई दूसरे कमरे में आ गए हैं। दबे पाँव चलने और फुसफुसा कर बोलने की उन्हें आदत हो गई है।
वे दोनों बिलकुल पास-पास फर्श पर बैठे हैं।
– थोड़ी देर में मैं बाहर जाऊंगा
– बहुत रिस्क है।
– रिस्क यहां नहीं है क्या?
– यहां हम सेफ हैं।
– सेफ?
– मेरा मतलब है कि…। बड़े भाई ने बात अधूरी छोड़ दी है।
– मैं चलूं तेरे साथ? बड़े भाई ने फुसफुसाते हुए कहा।
– ब्रो, तूं मां का ध्यान रख।
– हम उसका ध्यान नहीं रखते। वह हमारा ध्यान रखती है।
– यही बात है। छोटे ने कहा है।
– पैसे हैं ब्रो? बड़े ने पूछा है।
– हां। उसने जो निक्कर पहन रखी है। उसकी जेब में उसने हाथ रखा है।
– आज मैं चला जाता हूँ।
– तुझे पता नहीं, जहां से मैं सामान खरीदता हूँ।
– खास है। बड़े भाई में पूछा है।
– हां, खास। छोटे ने जवाब दिया है।
– कितने बजे होंगे?
– बेकार का सवाल है। छोटे भाई ने उठते हुए कहा है।
– जा रहा हूँ।
– दुकानें खुली होंगी? बड़े भाई ने पूछा है।
– हां, नहीं। हां, एक दूकान खुली होगी।
– एक दुकान?
– हां।
– ब्रो! तू जान का रिस्क उठाकर जाता है। बड़े भाई ने कहा है।
छोटे भाई ने बड़े भाई को गले से लगा लिया है। वे देर तक यूं ही खड़े रहे हैं। दोनों के शरीर से अजीब-सी गंध आ रही है। एक जैसी गंध!
छोटा भाई दीवार टटोलते हुए खिड़की तक आया है। बहुत सावधानी से खिड़की के पल्ले खोले हैं। फिर खिड़की की सलाखें। वे खिड़की से घिसट कर बाहर चला गया है। भाई ने झोला फेंका है।
छोटा भाई ज्यादा चुस्त है। वह पहले भी कई बार जा चुका है। उसे पता है कहां रुकना है। कैसे जाना है।
अंधेरा है और सारा बाजार बंद है। वह सड़क पार करते हुए सोच रहा है, अंधेरा है यह तो अच्छी बात है। लेकिन वह छोटी-सी दुकान बंद हुई तो?
वह सधे कदमों से तेज-तेज चल रहा है। दुकानें बंद हैं। दुकानों के शटर गिर चुके हैं। दूर से रोशनी-सी दिखाई दी है। शायद यह रोशनी उसी दुकान की हो, छोटे भाई ने मन ही मन सोचा है।
शुक्र है। वही दुकान है जो खुली है। छोटे भाई ने दुकान में एंटर किया है। ‘नमस्ते जी’- हमेशा की तरह कहा है।
दुकानदार ने नमस्ते का जवाब दिया है। खुद-ब-खुद बिस्कुट के पैकेट, डबल रोटी, मोमबत्तियां, पानी की बोतलें, अमूल बटर।
दुकानदार ने सारा सामान झोले में डाल दिया है। सामान के साथ उसने पेंसिल टार्च भी डाल दी है। सामान के पैसे के साथ चुकाने के बाद छोटा भाई चलने ही वाला था कि दुकानदार ने अखबार दिया है, रबड़ बैंड से लिपटा हुआ।
‘इसका क्या करूंगा?’
‘पढ़ लेना।”
‘अखबार?’
‘हां, अखबार।’
उसने हैरान होकर दुकानदार को देखा है। कुछ विचित्र-सा व्यवहार लगा है दुकानदार का।
छोटा भाई लौट आया है। बड़े भाई ने उसकी पीठ थपथपाई है।
एक मोमबत्ती जलाई गई है।
– क्या बात है? बड़े भाई ने पूछा है।
छोटे भाई ने अखबार की मोटी सुर्खी पढ़ी है- ‘ब्रो, तेजा मारा गया। नौ गोलियां मारी शार्पशूटरों ने। शहर का डॉन वहीं पर ढेर।’
इस खबर को बड़े भाई ने पढ़ा है, फिर मां ने पढ़ा है, फिर छोटे भाई ने। अखबार एक बार फिर बड़े भाई ने ले लिया है और वह पूरी खबर पढ़कर मुस्कराया है। बिजली नहीं है, न सही। मोमबत्तियां तो हैं। सारी मोमबत्तियां जला दी गई हैं। घर रोशन हो उठा है।
मां का चेहरा जो कई दिन से थका–थका और उदास नजर आता था, उस चेहरे का रंग बदल गया है। वह भी मन ही मन मुस्करा रही है।
दुकानदार अंकल ने अखबार दिया था और कहा था- घर जाकर पढ़ लेना। उसने अपनी तरफ से पेंसिल टॉर्च भी थैली में डाल दी थी कि खबर पढ़ने में आसानी रहे।
तो इसका मतलब है कि वह जानता था। छोटा भाई सोच रहा है। वह बिलकुल जानता था। तभी तो, जब सारा बाजार बंद हो जाता वह अपनी दुकान खोलकर रखता। उसे सिर्फ एक ग्राहक का इंतजार होता, इस लड़के का। वह जानता था, लड़का जान जोखिम में डालकर पता नहीं कब आ जाए। लेकिन दुकानदार दुकान खोले रखता। सब यही समझते थे कि यहां कोई नहीं रहता। लेकिन वह जानता था।
रात गुजर चुकी है। सुबह का वक्त है। मकान की सारी खिड़कियां दरवाजे खोल दिए गए हैं। बिना रोशनी वाला घर डराता था और अब जैसे बाहें पसार कर बुला रहा हो।
तीनों, मां और दोनों बेटे इतने प्रफुल्लित हैं, जैसे किसी कारावास से मुक्त हुए हों।
दोनों भाइयों ने किताबों वाला शेल्फ देखा है। किताबों को छूकर खड़े रहे हैं दोनों।
मां रसोई में है और सोच रही है कि कहां से शुरू करे।
मैल घर में थी, मैल अंधेरे में थी, मैल कपड़ों में थी। वे सारी मैल उतार चुके हैं।
खाना बाहर से मंगवा लिया है।
दोनों भाई गेट के बाहर खड़े होकर अपने पुराने मकान को देख रहे हैं।
‘इतने शो-रूमों के बीच यह मकान कैसा लगता है।’ एक भाई ने पूछा है।
‘एथनिक।’ मां ने पास आकर कहा है।
दोनों बेटों ने मां को प्रशंसाभरी नजर से देखा है।
‘चलो तैयार हो जाओ। मार्केट चलते हैं।’ मां ने थोड़ा जोश के साथ कहा है।
‘किसलिए मां?’ छोटे बेटे ने पूछा है।
‘नए मोबाइल भी तो लेने हैं। पुराने तो पानी में डाल दिए थे। और उस दुकानदार का आभार व्यक्त भी करना है जो तेरे लिए देर रात तक दुकान खोलकर रखता था।’
‘बक अप!’ छोटे बेटे ने बड़े भाई से हाथ मिलाया है।
बड़े बेटे ने थोड़ी संजीदगी से कहा है, ‘अब पता चला है मां कि आज़ादी कितनी जरूरी होती है।’
‘हां बेटा, बहुत जरूरी। पर उस समय स्थिति ऐसी थी कि छुपना भी जरूरी था।’
दोनों बेटे मां के पास आ गए हैं।
मां ने कहा है, ‘पांच विद्वान शहर में बस जाएं तो शहर का कद ऊंचा हो जाता है। लेकिन कोई डॉन चला आए तो हवा में सिर्फ डर होता है।’
संपर्क सूत्र : 1875 सेक्टर-6, बहादुर गढ़-124507 (हरियाणा), मो.9813491654
अनूठी, सुंदर और संवेदनशील कहानी, साधुवाद, दिव्या माथुर
कुछ छोटे-मोटे विरोधाभासों के बा-वजूद, कहानी अपनी जज़्बाती सघनता के साथ एक फ़ज़ा क़ाएम करती चलती है। देर तक ये फ़ज़ा क़ारी के ज़ेहन पर असरअंदाज़ रहती है। कोई शक नहीं कि विवेक साहिब अच्छे शाइर होने के साथ-साथ एक अच्छे कहानीकार भी हैं।