कनाडा की यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरर के पद पर कार्यरत। चार उपन्यास और छह कहानी संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी, बांग्ला, अंग्रेजी, उर्दू एवं पंजाबी में पुस्तकों और रचनाओं का अनुवाद। अद्यतन पुस्तक ‘मेरी पसंदीदा कहानियाँ’।

 

पिछले कई बरसों से हर दो साल के अंतराल पर मेरा मेडिकल चेकअप होता था। हर बार ‘सब ठीक है, वही करो जो करती रही हो’ जैसे शब्दों के साथ डॉक्टर गिरगिस के क्लिनिक में मीटिंग खत्म होती और मेरी दिनचर्या किचन, कक्षा और कलम के साथ यथावत जारी रहती।

उम्र के तमाम मोड़ों को लांघते हुए उस मकाम पर आ पहुंचे थे, जहां पैंसठ का आंकड़ा मुंह बाए सामने खड़ा था। डॉक्टर सचेत हो गए थे। आज मेरे हर अंग की जांच-पड़ताल होनी थी। वजन, ऊंचाई, हार्ट बीट, धड़कनें और ब्लड प्रेशर सबका हिसाब-किताब बारीकी से होना था। मेरी बांह में पट्टा कसा जा रहा था, धड़कनें अनियंत्रित होती जा रही थीं, तेज और तेज। अंकों के गणित को हल करते मशीन के कांटे लगातार ऊपर-नीचे हो रहे थे। उन कांटों के साथ-साथ डॉक्टर की आंखें भी कभी ऊपर, कभी नीचे तो कभी स्थिर हो रही थीं।

कई बार वही प्रक्रिया दोहरा कर डॉक्टर ने कहा- ‘आपका ब्लड प्रेशर बहुत हाई है।’

मैंने कहा- ‘सर, इस परिसर में घुसते ही ब्लड प्रेशर हाई हो जाता है। जैसे ही आप यह बेल्ट लगाते हैं, वैसे ही यह और ज्यादा बढ़ जाता है।’

डॉक्टर मुस्कराने लगे। एक गहरी मुस्कान जो मुझे अच्छी नहीं लगी। अंशु का सिर हिलाना और भी अच्छा नहीं लगा। उनकी आदत है, चाहे कुछ भी हो, ठीकरा मेरे सिर पर फोड़ देते हैं। इस तरह सिर हिलाते हैं जैसे मैंने कोई बड़ा अपराध कर दिया हो। उनकी आंखें मुझसे कहने लगतीं- ‘तुम्हारी गलती है। तुम जरा भी ध्यान नहीं रखती।’ अंशु की ऐसी प्रतिक्रिया से हमेशा मुझे गुस्सा आ जाता, लेकिन आज पैंसठ का अंक मुझे शांत रखे हुए था। डॉक्टर ने एक बार फिर से परिवार के बारे में सारी जानकारियां लीं। पिछला लिखा हुआ रिकॉर्ड पढ़कर दोहराया। जन्म भारत में हुआ था। माता-पिता की मृत्यु के कारणों का ब्यौरा। बड़े भाई-बहन की असामयिक मौत की वजह। नया अपडेट यह था कि छोटे भाई की छह महीने पहले मृत्यु हुई। मुत्यु के कारणों को नोट करते हुए डॉक्टर ने टेक्स्ट को हाइलाइट किया और कहा- ‘मिस रेमि, आपको अलग-अलग जरूरी टेस्ट के लिए पर्चियां दे रहा हूँ। ये सारे टेस्ट आपकी प्राथमिकता होनी चाहिए। सबसे पहले आप इको कॉर्डियो करवाइए, मुझे जल्द से जल्द रिपोर्ट चाहिए।’

इसके पहले डॉक्टर ने कभी इस तरह बात नहीं की थी। मैंने बलि के बकरे की तरह गर्दन झुकाकर हामी भरी और एक के बाद एक पर्चियां पकड़ती चली गई। ब्लड टेस्ट के अलग-अलग प्रकार। इसके अलावा यूरिन टेस्ट, स्टूल टेस्ट, मेमोग्राम, सर्विकल कैंसर और खासतौर से इको कार्डियो।

अपनी मेज पर रखे कागजों पर पेंसिल से बड़े-बड़े गोले लगा दिए मैंने। लिखना चाहती थी बहुत कुछ, अपने जीवन की रेखाओं का अंक गणित। हताशा में पेंसिल पर इस कदर जोर दिया कि उसकी तीखी नोक टूटकर गिर गई। वह टूटा टुकड़ा मुझे चिढ़ा रहा था। इसी तरह मैंने खुद को भी तोड़ दिया था। चलते-चलते, एकाएक रुक गई थी।

हर दिन एक टेस्ट की याद दिलाते अंशु के दिमाग में एक बात पैठ गई थी- ‘इस बार तुम्हारी लापरवाही बोलेगी, देखना तुम।’ रिपोर्ट आने के पहले ही अंशु का इस तरह डांटना, मुझे इस कदर क्रोधित कर रहा था कि समूचे शरीर की पीड़ा आंखों के रास्ते बाहर आने को आतुर थी। रोकर अपना मन हल्का कर लेने के अलावा कोई विकल्प शेष नहीं था। एक के बाद एक टेस्ट के लिए जाना इतना कष्टदायी नहीं था जितना अंशु की तीखी निगाहों का सामना करना। टेस्ट रिपोर्ट की आशंका का भय मेरे साथ घर के हर कोने में पसर गया था। खुद को आश्वस्त करने की कोशिश करती- ‘यह सब एक खानापूर्ति है। मैं बहुत सोती हूँ, खाती-पीती भी हूँ और काम भी करती हूँ। मुझे कुछ नहीं होगा।’

यह सोचते हुए डॉक्टर और अंशु दोनों की निगाहें मुझे छेदने लगतीं। किसी लड़ाई के विजेता की ठसक अंशु के शब्दों में होती- ‘इतनी बेपरवाही अच्छी नहीं। एक उम्र के बाद शरीर की सीमाओं का ध्यान रखना जरूरी है। तुम्हारी समझ में यह बात कब आएगी!’

मैं मौन रह जाती। मन ही मन जवाब देती- ‘मेरे दवाई लेने से तुम्हें शांति हो जाएगी और इन डॉक्टरों को भी।’

बहरहाल, एक के बाद एक रिपोर्ट्स आनी शुरू हुईं। मुझे क्लिनिक में उपस्थिति के लिए तलब किया गया। इसका सीधा अभिप्राय यह था कि कोई बड़ी गड़बड़ है। अंक काफी ऊपर-नीचे हुए हैं। अंशु ने मुझे इस तरह देखा जैसे मेरा जघन्य अपराध सिद्ध हो गया हो। उन नजरों का तीखापन चरम पर था। अंशु को यह कहना भी बेकार था कि वे स्वयं पिछले पंद्रह सालों से हर तरह की दवाइयां ले रहे हैं, तो उन्होंने अपनी सेहत का ध्यान क्यों नहीं रखा! मेरे साथ यह पंद्रह साल बाद होना भी अपराध क्यों है!

क्लिनिक में मेरे सामने डॉ. गिरगिस कागजों को फैलाए बैठे थे और मेरे टेस्ट के परिणामों में अंकों की गणना कर रहे थे। मैं प्रतीक्षा करती रही। एक बार फिर से उन्होंने फैमिली हिस्ट्री को कंफर्म किया। गिनती जारी थी। गणित चल रहा था। मेरे शरीर का गणित। जोड़-घटाव-गुणा-भाग करती मेरी धड़कनें धड़-धड़ बजने लगी थीं। मुझे याद आ रहे थे सारे गणित, अंक गणित, बीजगणित, रेखागणित। त्रिभुज, चतुर्भुज, अष्टभुज सारे वृत्त में थे। गोल घेरे में कैद।

‘यू आर एट हाई रिस्क’ कहते हुए डॉक्टर अंशु की ओर मुखातिब थे- ‘ध्यान से सुनिए मिस्टर अंश। सारे दूसरे टेस्ट की रिपोर्ट्स नॉर्मल हैं, सिवाय एक के। आपकी पत्नी हाई रिस्क पर हैं इस समय। तुरंत हृदयरोग विशेषज्ञ से कंसल्ट करना है। कल आपको क्लिनिक से फोन आ जाएगा।’

मैं अवाक डॉक्टर का मुंह देखती रह गई। क्लिनिक से घर तक के रास्ते में हम दोनों शायद आने वाले समय के खौफ से चुप थे। अगली सुबह एक फोन आया- ‘आपको हृदयरोग विशेषज्ञ से एक सप्ताह बाद मिलना है।’

‘इसका मतलब समझती हो न तुम!’ मैं क्या कहती, इस चुप्पी से वैसे ही दुखी थी। कातर निगाहों से अंशु को देखती रही। एक सप्ताह की कशमकश के बाद हृदयरोग विशेषज्ञ ने मेरे हृदय की जांच-पड़ताल की। ‘यहां दर्द है?’ ‘वहां दर्द है?’ सब में ‘नहीं’ सुनकर डॉक्टर के माथे पर सिलवटें दिखाई दीं। कहा- ‘ईसिम्प्टेमैटिक! कोई सिम्प्टम्स न होना अलार्मिंग है। निश्चित ही आपका केस हाई रिस्क वाला है। मैं आपको जल्द से जल्द न्यूक्लियर स्ट्रेस टेस्ट के लिए भेज रहा हूँ।’

घर लौटते हुए अंशु बमबारी के लिए तैयार थे- ‘जरा-सा ध्यान रख लेती तो ये स्थिति न आती। मालूम था न, तुम्हारे घर में हर किसी के साथ क्या हुआ है!’

मेरा धैर्य अब टूट चुका था- ‘कौन-सा ध्यान नहीं रखा मैंने!’

‘अच्छा! गिनाऊँ सब, दाल-बाटी कौन ठोकता है? एक्स्ट्रा घी डालकर!’

‘मैं…लेकिन…’

मेरी बात काटकर अंशु गुस्से में बोलते गए- ‘और हलवा, बादाम का हलवा, मूंग की दाल का हलवा, किसे सबसे ज्यादा पसंद है? छोले-भटूरे कौन बनाता है बार-बार? घास-फूस कहकर सलाद कौन नहीं खाता? दिन में चार बार चाय कौन पीता है? और तो और बालूशाही और गुलाबजामुन की खेप में सबसे ज्यादा मात्रा किसकी प्लेट में होती है?’ अंशु सचमुच गुस्से में थे।

मैं असहाय-सी रोने लगी थी। मानो वे सारे पल हिसाब मांग रहे थे और गणित की कमजोरी के कारण मैं रो-रोकर अंकों के अत्याचार का भार ढोते अपनी बेबसी जाहिर कर रही थी। सुना था आंसुओं से गुस्सा कम हो जाता है। अंशु का गुस्सा और बढ़ गया था- ‘अब रोने से क्या फायदा? कम से कम मेरे बारे में तो सोचकर अपना खयाल रखती। तुम्हें जैसे पता ही नहीं कि तुम्हारे जाने के बाद मेरा क्या होगा। मैं तो जीते जी मर ही जाऊंगा।’

न जाने यह प्यार था, डांट या गुस्सा, जो भी था, मुझे तोड़ने के लिए पर्याप्त था। टुकड़े-टुकड़े होते हुए भी भीतर का बचाव पक्ष तार्किक होने की कोशिश कर रहा था- ‘पर कहीं से कोई आसार तो नजर आते! कोई दर्द नहीं! कोई सिम्प्टम्स नहीं!’

‘सिम्प्टम्स को मारो गोली। कोविड में भी बगैर सिम्प्टम्स के लोग मर रहे थे न। पता नहीं क्या तुमको?’

मायूसी और हताशा का चरम था यह। भीतर का जमा दर्द पिघल गया था। आंसू झर-झर बह रहे थे। मेरी पसंद की सारी चीजें मेरे सामने नाच रही थीं, ता-थई-थई। मरणासन्न रोशनी से चेहरा पीला पड़ रहा था। मुझे खाने का लालच कभी नहीं रहा, लेकिन इस समय यह बड़ा आरोप मुझे स्वीकार्य भी था। ‘खा सकती हूँ इसलिए कभी-कभी खा लेती हूँ ये चीजें’ जैसे जुमले मेरे हथियार रहते थे।

घर लौटते ही दोनों बच्चों को अंशु ने कुछ इस तरह से बताया कि उन्होंने स्थिति की गंभीरता को देखते हुए मेरे साथ आकर समय बिताने का निर्णय लिया। ऐसा प्रतीत हुआ मानो डॉक्टर पहले ही अंशु को ऐसा कुछ बता चुके हैं जिसके बारे में मुझे पता नहीं। और वह यही है कि अब मैं बचने वाली नहीं। तीनों मिलकर गुपचुप बातें करते मिले। मैंने कुछ सुना, कुछ न सुना।

‘मम्मी के सामने मत बोलना, वो सामने वाले अंकल विलियम का ऐसे हालातों में टेस्ट हुआ था। वो ट्रेड मिल पर गिर कर बेहोश हो गए थे। उठे ही नहीं।’

‘उनकी छोड़ो पापा, इतनी दूर जाने की जरूरत ही नहीं। खुद अपने मामा को भी यही हुआ था। घर के रास्ते में ही अंतिम सांसें गिन ली थीं।’

यानी यह पक्का था कि मैं ट्रेड मिल पर गिरने वाली हूँ। घर को व्यवस्थित छोड़कर जाने के लिए अभी आठ दिन बचे थे मेरे पास। सबसे पहले अपना शैक्षणिक दायित्व निभाया। कुछ इस तरह कि मेरे जाने के बाद बचे हुए सेमिस्टर में मेरे विभाग को, मेरे छात्रों को कोई तकलीफ न हो। दोनों बच्चों को अपनी गहनों की पोटली का विस्तृत विवरण दिया- ‘लॉकर में सारे गहने हैं। घर में हर जगह छोटे-छोटे गहने छुपाए हुए हैं। बिटिया, तुम्हें चीजों को फेंकने की आदत है, कुछ भी फेंकने से पहले एक बार देख जरूर लेना। जितना याद आ रहा है एक जगह रख रही हूँ। मकान-गाड़ी आदि तुम्हारे पापा देख लेंगे।’

इन दिनों घास-फूस (सलाद) खाते हुए, बीच-बीच में अपनी बेबसी पर आंसू ऐसे बह जाते जैसे वहीं छुपकर प्रतीक्षा कर रहे हों कि कब मैं थोड़ी सी उदास होऊं और कब वे छलक पड़ें। मैंने गुस्से में अपनी सबसे प्रिय चाय बंद कर दी थी। यह स्वयं को दी गई सबसे बड़ी सजा थी। उसका असर मेरे मन-मस्तिष्क दोनों पर बुरी तरह हो रहा था। हॉस्पिटल से फोन लगातार आ रहे थे- ‘यह पांच से सात घंटों का टेस्ट है। चौबीस घंटे पहले से कैफिन बंद। बारह घंटे पहले से खाना बंद। उठकर जरा-सा पानी पीकर आएं। अपने साथ कुछ नाश्ता जरूर रख लें। हर सूचना के साथ, स्थिति की गंभीरता बढ़ती जा रही थी। मेरा ठीक न होने का भाव बलवती हो रहा था।’

अब आखिरी काम बचा था, अपनी बेशकीमती संपदा को सौंपने का- ‘अंशु, ये मेरी रचनाओं की फाइलें हैं। ज्यादातर छप चुकी हैं, कुछ शेष हैं। मेरे बाद इन सबका एक कहानी संग्रह छपवा लेना’, कहते हुए मेरी आवाज द्रवित हो गई। ठीक उसी तरह जैसे अपने बच्चों को छोड़कर जाती हुई मां आखिरी स्पर्श के साथ भीतर ही भीतर धार-धार रोती रहे। अंशु ने स्थिति की गंभीरता को देखते हुए आश्वासन दिया- ‘चिंता मत करो, किताब छपवा लूंगा और विमोचन भी करवा लूंगा।’  

इन दिनों अंशु मेरा साथ पल भर के लिए भी नहीं छोड़ते। यह व्यवहार और पक्का कर रहा था कि अब मेरे दिन पूरे हो गए। आधी रात में जरा भी हिलती तो जैसे जगे हुए ही हों, तपाक से पूछते- ‘क्या हुआ?’ रात में नींद खुलने पर टायलेट जाती तो कहते- ‘क्यों जा रही हो टायलेट?’ मैं चिढ़ भी नहीं पाती कि टायलेट भला कोई क्यों जाता होगा। यह नाज़ुक समय बहस करने का मौका भी नहीं देता। टेस्ट के दो दिन पहले से मेरी नींद, मेरा खाना, हर चीज का ध्यान रखा जा रहा था। उस रात सोना दुश्वार था। कई बार उठकर समय देखती कि अलार्म बजा क्यों नहीं अब तक।

आखिरकार नहा-धोकर तैयार थी मैं।

अस्पताल के प्रांगण में सिर्फ एक मरीज के रूप में कुर्सी में धंस गई थी। नर्स ने नाम पुकारा तो अंशु ने मुझे कसकर इस तरह आलिंगनबद्ध किया जैसे यह उनका आखिरी चैतन्य स्पर्श हो। जिसे वे अपने भीतर तक महसूस करना चाहते हों। मुझे गाउन पहनने के लिए दिया गया। कई सारे चिपचिपे पैच, वायरों के साथ मेरे सीने पर थे। मास्क और यूनिफार्म में घूमते डॉक्टर, नर्स, टैकनीशियन, सबके सब मौत का सर्टिफिकेट बनाते यमराज के दूत लग रहे थे।

मुझे एक कीयॉस्क में बैठाकर कहा- ‘सबसे पहले आपको आईवी से रेडियोधर्मी सामग्री इंजेक्ट करेंगे। कुछ समय बाद इमेजिंग मशीन तस्वीरें लेगी कि यह ट्रेसर धमनियों के माध्यम से शरीर में कैसे चलता है। इससे हृदय में खराब रक्त प्रवाह और क्षति के क्षेत्रों का पता लगाने में मदद मिलेगी।’ हैरानी की बात यह थी कि आईवी के लिए दस मिनट तक उसे मेरे हाथ में नस ही नहीं मिली। दो-तीन बार, दोनों हाथों में सुईं को घोंप दिया था। और कोई समय होता तो मैं उसे ऐसा लुक देती कि अगली बार वह किसी मरीज के साथ ऐसा न कर पाती। परंतु आज हालात अलग थे। मरते हुए किसी को कोसना अच्छा नहीं था।

मेरा ब्लड प्रेशर लिया गया, एक सौ साठ के ऊपर। दिल की धड़कनें रात से ही अपने आपे से बाहर थीं। घर को देखते हुए दिल टूटा था, इस खयाल के साथ कि अगर अंशु के जीवन में कोई और आ गई तो! मेरा एकाधिकार! मरती हुई स्त्री को दूसरी औरत का झटका लगे तो ब्लड प्रेशर कैसे न बढ़े! झटके पर झटके थे।

कुछ देर आराम कक्ष में बिठाए रखने के बाद अब एक नया चेहरा था, नया कमरा था। विशालकाय इमेजिंग मशीन के भीतर मुझे लिटा दिया गया था। मशीन चल पड़ी थी, रुक-रुक कर, भीतर की धमनियों का हर एंगल से चित्र ले रही थी। लगभग पंद्रह से बीस मिनट तक मैं उस मशीन की सुरंग में थी। मेरे ऊपर से मशीन चलती रही। दाएं-बाएं, आगे-पीछे, हर जगह से फोटो ही फोटो। हर बार घूमती मशीन को पास आते देख मैं सहम जाती। ऐसा लगता जैसे सारी दाल-बाटी, हलवा, बालूशाही और गुलाबजामुन के फोटो अंकित हो रहे हों। दौड़ता-घूमता खयाल फिर से सामने आ जाता कि कोई लक्षण न होने के बावजूद मैं इतनी बीमार थी। सहमा-सा मन अंशु की अदृश्य आवाज सुनता- ‘अब भुगतो।’

मशीन अब गोल-गोल घूमने लगी थी। मेरे भीतर की हर आंत और हर खून के कतरे का हिसाब करते। उसकी काम करने की शैली की कायल होने लगी थी। न जाने किसने बनाई होगी। लोगों का कितना दिमाग चल जाता है, मेडिकल साइंस के कई अजूबे तो मानव मस्तिष्क से आए। आखिर यह पड़ाव भी पूरा हुआ। कुछ समय के आराम के बाद बहु प्रतीक्षित ट्रेड मिल पर दौड़ाने का टेस्ट था। घर पर मुझे न जाने कितनी बार समझाया गया था, अगर न दौड़ सको तो तुरंत कह देना। यही बात टैक्नीशियन ने दोहराई। कई बार। ब्लड प्रेशर लिया गया। एक सौ सत्तर तक पहुंच गया था। बांह पर कफ लगा हुआ था और सीने पर चिपचिपे पैच।

रनिंग मशीन चालू हुई। ट्रेडमिल पर दौड़ते हुए मैं कभी पढ़ाते-पढ़ाते अपनी कक्षा के चक्कर लगा रही थी तो कभी नाती युवी के साथ वीडियो गेम में अपने कैरेक्टर को बचा रही थी। ऐसे तमाम खुशनुमा क्षण लगातार मुझसे रूबरू हो रहे थे।

‘आप ठीक हैं?’

‘जी’

‘मैं स्पीड बढ़ा रही हूँ।’

‘जी’

‘आप ठीक महसूस न करें तो तुरंत बताएं।’

‘जी’

‘जरा भी चेस्ट पेन हो तो तुरंत बताएं।’

‘जी, मैं ठीक हूँ।’

इस बिंदु पर मैं रिलेक्स होकर अच्छे पलों को याद करने लगी। वे पल, जब मेरी कहानी प्रतिष्ठित पत्रिका में साल की सर्वश्रेष्ठ कहानी घोषित हुई थी। पाठकों के लगातार संदेश आ रहे थे। ज्यादा खुशी के मारे तब भी मेरा ब्लड प्रेशर बढ़ा होगा। उस खुशी को मनाने हम सब रेस्टोरेंट गए थे। पनीर कोफ्ता इतना स्वादिष्ट था कि एकाएक वह स्वाद मेरी जबान पर हावी हो गया। ट्रेड मिल की बढ़ती स्पीड, चेस्ट पेन, जैसे सवाल मेरी बढ़ती सोच में कहीं पीछे रह गए थे।

‘मैं सबसे हाई पॉइंट पर ले जा रही हूँ। प्लीज बताएं, आप ठीक तो हैं?’

‘जी, मैं ठीक हूँ।’ वह भी हैरान थी, क्योंकि मेरे चेहरे पर पूर्ण तुष्टि थी। उस पल रेस्टोरेंट में डेज़र्ट सामने था और मैं रबड़ी में रखे गुलाब जामुन का आनंद ले रही थी।

हाई स्पीड, हाई… उसके चलते मुझे एक और इंजेक्शन दिया गया। मैं बेखबर थी अपनी दुनिया में। उसी स्पीड से दौड़ती जा रही थी। यह सोचते हुए कि अब गिरी, तब गिरी। अंशु आएंगे और मुझे थाम लेंगे। उनके हाथों का स्पर्श महसूस होने से पहले एकाएक मशीन स्लो हो गई, मेरी सोच भी उसके साथ स्लो हुई। दिमाग ने कहा, इतनी स्लो मशीन के चलते मैं कैसे गिरूंगी। धीरे-धीरे करके मशीन रुक गई।

‘नीचे आ जाइए।’

‘क्यों, क्या हुआ?’ मैंने भौंचक्की निगाहों से पूछा।

‘ऑल डन।’

सोचा, शायद थोड़ी देर बैठाकर फिर दौड़ाएंगे। फिर से मेरा ब्लड प्रेशर लिया गया। आश्चर्य! ब्लड प्रेशर एक सौ पचपन था। इतनी तेजी से नीचे कैसे आया। एक बार में नहीं मरी, दूसरी बार दौड़-दौड़ कर मर ही जाऊंगी। सामने टैकनीशियन अपने चार्ट भर रही थी। मैंने हिम्मत करके पूछ लिया- ‘कितनी देर के रेस्ट के बाद फिर से दौड़ना है मुझे?’

‘यू आर डन’

‘मतलब?’

‘मतलब ये कि आपका टेस्ट अच्छी तरह संपन्न हुआ।’

‘जी?’ मैं हतप्रभ थी। एक आवाज आई- ‘रेडियो ट्रेसर से पिक्चर्स का दूसरा सेट देना है आपको।’

मशीन ने सारी प्रक्रिया पुन: दोहराई। बीस मिनट का वही चक्र। इस चक्र में मुझे नींद आने लगी थी। रात भर की बेचैनी के बाद की नींद। ‘यू आर एट हाई रिस्क’ डॉक्टर के ये शब्द नींद के सामने फुसफुसा भी नहीं पा रहे थे।

घर लौटकर भी अंशु को चिंतित ही देखा। रिपोर्ट की बेचैनी थी उनके मन में। तीन दिनों के भीतर फैमिली डॉक्टर ने हमें बुला लिया। हम आधे घंटे पहले ही पहुंच गए। अब हम तीनों प्राणी आमने-सामने थे। मैं, अंशु और डॉक्टर। फैले हुए कागजों को देखते हुए डॉक्टर ने मुस्करा कर कहा- ‘आपको ए प्लस मिला है मिस रेमि।’

‘जी, मैं समझी नहीं!’

‘आपकी सारी रिपोर्ट्स क्लियर हैं।

मैं पल भर के लिए सुन्न हो गई। अगले ही पल हकीकत को पहचाना- ‘लेकिन सर, मुझे हुआ क्या था? आपने इतने सारे टेस्ट करवाए!’

डॉक्टर ने कहा-  ‘फैमिली हिस्ट्री। आपके अपने अंक तो नार्मल हैं पर परिवार के हर सदस्य की हृदय रोग से मौत के साथ आपके अंक बढ़ते चले गए। अब आप पैंसठ साल की हैं, इसीलिए इतनी हाई रिस्क में आ गईं।’

‘तो सिर्फ फैमिली हिस्ट्री?’

‘जी!’

मेरी फैमिली के सदस्य एक-एक करके मेरे सामने उपस्थित होने लगे थे। अपने तई सब कुछ झेल लिया। मुझ तक आंच न आने दी। सामने खड़े अंशु मेरी इस आपबीती से सहम गए थे। क्लिनिक से बाहर निकलते हुए मेरे हाथ को देर तक पकड़े, मेरी आंखों में देखते रहे। इस बार फिर उनका सिर हिला। लेकिन वह एक संतुष्टि का संकेत था। मेरे कंधे थपथपाए- ‘सॉरी, अब बहुत हो गया। चलो, तुम जो चाहो, वही खा सकती हो।’

मैंने मासूमियत से कहा- ‘मैंने पिछले नौ दिनों से चाय नहीं पी! हम दोनों की आंखें गीली थीं, शायद जुदाई के दर्द के सामने हमने घुटने टेक दिए थे।’

घर पहुंचकर सबसे पहले मैंने सामने रखी पेंसिल को शार्प किया और उन कागजों के बंडल पर लिख दिया- ‘फैमिली हिस्ट्री’। इन अक्षरों का सौंदर्य बेमिसाल था, पेंसिल में नई नोक जो बन गई थी।

संपर्क : २२, फेरेल एवेन्यू, नॉर्थ यॉर्क, टोरेंटो, ओएन-एम२आर१सी८, कनाडा ००१ ६४७ २१३ १८१७ ईमेल –  hansadeep8@gmail.com