युधिष्ठिर का कुत्ता’ (व्यंग्य संग्रह), ‘दर्शन, दृष्टि और पांव (यात्रा संस्मरण) संप्रति: समकालीन अभिव्यक्तिमें सह संपादक।

गंवार

मैं छोड़ना चाहता था
थोड़ा-सा कच्चा आंगन पुरानी मिट्टी के साथ
जिसे बुहारा जा सके देशी कूंचे से
और लीपा जा सके गाय के गोबर से
कम से कम पर्व-त्योहार पर
और जिससे आ सके सोंधी खुशबू
आषाढ़ की पहली फुहार से

मैं छोड़ना चाहता था
ईशान कोण का पुराना पीपल
जो एक दीवार के काफी करीब था
उपेक्षित करना चाहता था
वास्तुशास्त्री की सलाह
पीपल पर चिड़ियां चहकती थीं
और यही मुख्य समस्या थी उन लोगों की!

मैं चाहता था एक-दो आले दीवार में
जिसपर रखा जा सके एक दीया मिट्टी का
और हो सके संझवाती कुछ देर के लिए
बिजली के बल्ब के साथ भी क्योंकि
दीया बल्ब से जलन रखे बिना भी
जलता रहेगा स्नेह की उपस्थिति में
नहीं देगा धोखा

मैं चाहता था एक-दो खूंटियां
जिसपर गरमी में अपना कुर्ता
और तौलिया टांग सकूं बेलौस
मैं चाहता था कि फर्श इतना चिकना न हो
कि खतरा हो पल-पल फिसलने का
और मिट्टी से संपर्क कट जाने का

नए मकान में न चाहते हुए भी
अनचाहा कर गया
अब घर भी जमाने के अनुसार बनते हैं
नकली संगमरमर के फर्श को देखकर
लालच लगता है
हमने तो कच्ची मिट्टी के आंगन-ओसारे में
गिरे हुए मूंगफली के दाने
और हाथ से फिसले फल
उठाकर खाए थे, बीमार भी नहीं हुए

अब इस फर्श की चिकनाहट देखकर
जी होता है कि चावल-दाल का कौर
गिर जाए तो उठाकर खा लूं
लेकिन डर लगता है
मेरे अपने ही बच्चे कहीं
गंदे, जाहिल और गंवार होने की
उपाधि न दे दें, इसलिए चुपचाप
पिए जा रहा हूँ अपना निजी
जाहिलपना और गंवारपन।

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