वरिष्ठ लेखक। युधिष्ठिर का कुत्ता’ (व्यंग्य संग्रह), ‘दर्शन, दृष्टि और पांव’ (यात्रा संस्मरण)।  संप्रति : अध्यापन एवं साहित्यिक त्रैमासिकी समकालीन अभिव्यक्तिके सह संपादक।

पहला साल पूरा होने में बस एक ही महीना रह गया है। रितिका के हिसाब से देखें तो अभी भी एक महीना है। ग्यारह महीने निकले हैं, जैसे-तैसे। पच्चीस अप्रैल आता तो एक साल पूरा होता। शायद किसी और के लिए शादी की यह पहली वर्षगांठ- एक उत्सव, एक आयोजन! थोड़ा पीछे देखता, बाकी आगे। लेकिन रितिका के लिए न पीछे देखना सुखकर है, न ही आगे। कल की रात से वह अपने वन बीएचके वाले किराए के फ्लैट में रहने लगेगी। कुछ अजीब-सा संयोग है न कि फ्लैट भी एक बीएचके का और वह भी एक अकेली!

रात खिसक रही है, लेकिन बहुत धीरे-धीरे। रितिका को ऐसा ही लग रहा है। आधी रात से ऊपर का समय हो गया है, लेकिन आंखों में नींद नहीं है। बहुत सोच-समझकर फैसला लिया है उसने इस बार। अब इस घर में भी नहीं रहेगी। यह घर तो पहले ही छूट चुका है। वह छोड़ना ही कहां चाहती थी? लेकिन, तब उसने नहीं सोचा था कि यह घर उसका नहीं, उसके मां-बाप का है। वह बेटी है, बेटा थोड़े ही। वैसे चाहे भी तो कब तक रह सकती है? जब तक मम्मी-पापा हैं, बस तभी तक न? और वे ही लोग उसे अपने घर में देख-देखकर कौन-सा खुश होंगे? दो-चार दिन बाद फिर उनका वही पुराना सामाजिक राग शुरू हो जाएगा- बेटियां अपनी ससुराल में ही अच्छी लगती हैं; हमारे जमाने में तो ससुराल से बेटी की अर्थी ही निकलती थी, पांव नहीं! अरे अपना घर है, कुछ उत्तम-मद्धिम तो चलता ही रहता है। पति-पत्नी एक गाड़ी के दो पहिए होते हैं। दोनों साथ चलते हैं तो ही जिंदगी सही चलती है। छोटी-छोटी बातों पर ऐसे कदम नहीं उठाते। जिस जगह दो बरतन होते हैं, खड़कते ही हैं। वगैरह-वगैरह। 

एक हफ्ता रहेगी यहां, इतना ही सोचा था ससुराल छोड़ते समय। किराए का मकान वहां से भी तलाश सकती थी वह, लेकिन उसे न जाने क्यों लगा कि मम्मी-पापा के पास रहते हुए ही वह इस फैसले पर अमल करेगी। एक बार वहां जाएगी, दो-चार दिन मां-बाप के साथ रहकर उनकी सहमति से शिफ्ट करेगी तो अच्छा रहेगा। वे इस बार उसे उसके ‘घर’ तक छोड़कर जाएंगे। नए घर की व्यवस्था में मम्मी का हाथ जरूर होगा, भले ही वह मुश्किल से उठ रहा हो। और उसका नया ‘घर’ घर तो क्या होगा, एक साधना स्थल होगा। स्वयं की तलाश होगी और एक प्रयोग होगा औरत होकर अकेले जीने का।

ऐसा नहीं था कि रितिका ने कोशिश नहीं की थी रिश्ते निभाने की। खूब की थी, लेकिन उसकी हर कोशिश को उसकी ससुरालवालों ने उसकी कमजोरी ही नहीं समझा, उसे यह भी जतलाया गया कि वह गलत है, इसलिए उसकी हार हुई। उसने सोचा था कि उसकी विनम्रता उनकी समझ में आ जाएगी। शुरू में गलतफहमियां हो जाती हैं, धीरे-धीरे सब ठीक हो जाता है। उसकी बड़ी बहन का घर पहले से लगभग टूटा पड़ा था। वह नहीं चाहती थी कि यह पुनरावृत्ति उसके साथ हो, जिससे मां-बाप का तनाव बढ़े। बरदाश्त भी करती, लेकिन तब वह निचुड़ जाती, जब उसकी सास बोलती कि तेरे बाप ने क्या दिया और तेरी मां ने कौन-से संस्कार दिए? मेरे हीरे जैसे बेटे की किस्मत ही फूट गई।

उसने सोचा भी नहीं था कि इक्कीसवीं सदी के इक्कीस वर्ष बीत जाने पर भी ‘तेरे बाप ने क्या दिया?’ का नारा नहीं जाएगा। वह भी उस जैसी लड़की के साथ जो स्वयं एक चलती-फिरती दहेज थी। उसकी बड़ी बहन की बात होती तो मान लेती, क्योंकि न उसकी कोई ढंग की नौकरी थी और न तनख्वाह ही। यदि पौने एक लाख वेतन पाने वाली सरकारी शिक्षिका भी दहेज के ताने सुनती है तो बाकियों की क्या सोचें? और वेतन ही क्यों, उसके व्यवहार की प्रशंसा तमाम लोग करते रहे हैं। उसकी प्रिसिंपल, साथी, स्टाफ और उसके सभी जानने वाले। कितना कम बोलती है, कितनी साधारण-सी रहती है, कितना अच्छा हारमोनियम बजाती है, और कितने सुर में गाती है!

रितिका शादी करना बिलकुल नहीं चाहती थी। शायद उसका अचेतन उसे सचेत करता रहा हो कि उसका वैवाहिक जीवन एकाकी ही बीतेगा। कम से कम वह अपना स्वभाव जानती है। बेहद संकोची, ईमानदार और अपने काम से काम रखने वाली है वह। महत्वाकांक्षी रही होती तो प्रशासनिक सेवा में चली गई होती। बहुत उच्च नहीं तो मध्यम श्रेणी की अधिकारी बन सकती थी। लेकिन उसे वह पद रुचा नहीं जिसमें रुतबा हो। चाहती थी कि संगीत पढ़े या साहित्य, लेकिन पापा को मंजूर नहीं था। बेटी साइंस पढ़ेगी। पढ़ी भी और प्रतियोगी परीक्षा उत्तीर्ण कर आज शहर के सरकारी विद्यालय में पीजीटी है। संगीत भी नहीं छूटने दिया था। माना कि संगीत उसका कैरियर नहीं बन पाया, लेकिन रहा सदैव उसके साथ। साल भर पहले तक रहा ही है उसके साथ। इधर छूटता गया है। जब जीवन के सुर-ताल ही बिगड़ गए हों तो गले का सुर-ताल कहां तक चलेगा!

तैंतीस की होने वाली है। अजीब संयोग है न कि उसके विवाह का दिन और जन्मदिन एक ही साथ है। पच्चीस अप्रैल। पिछले साल जब शादी हुई थी तो केक भी वरमाला के समय स्टेज पर कटा थादोनों के हाथों। हैप्पी बर्थडे का गीत बजा था, लोगों ने गाया भी था और फूलों की वर्षा कराई गई थी। अब सोचकर उसे एक विद्रूपात्मक हँसी आ जाती है। जब दोनों एक नहीं हुए थे तो दुनिया के सामने हाथ में हाथ पकड़कर केक काटा था। जब एक हुए और एक साल होने को आया तो अकेले में काटने की नौबत आ गई। पता नहीं कटेगा भी या नहीं।

शादी को लेकर डर उसके मन में था, लेकिन अमित की उम्र, व्यवहार और रुतबे को देखते हुए वह कुछ आश्वस्त भी थी। दुनिया का हर आदमी एक जैसा थोड़े ही होता है! उसने अपने स्टाफ में भी कुछ नई सहकर्मियों से अपने-अपने पतियों की प्रशंसा सुनी थी। ठीक है कि उसकी बहन का वैवाहिक जीवन दुखद है, लेकिन सबका तो नहीं। और फिर मां-बाप की इच्छा और चिंता के आगे करे तो क्या करे? क्या पता उसका जीवन सुखी देखकर वे कुछ हद तक सुखी हो जाएं। लेकिन दो-दो बेटियों के मां-बाप को यह सुख देखना किस्मत में नहीं था। वह बिस्तर में पड़े-पड़े रुआंसी हो गई। उसकी विचार शृंखला कुछ देर के लिए रुक गई। नहीं रहा गया तो धीरे से उठी और जाकर मम्मी-पापा को उनके कमरे में सोते हुए देखती रही। क्या पता उन्हें भी नींद न आ रही हो, बहाना किए पड़े हों!

अमित चालीस के आसपास के होंगे। उससे लगभग सात साल बड़े। चालीस की उम्र का व्यक्ति शादी करने लायक नहीं होता, खासकर किसी अविवाहिता के लिए। लेकिन डील-डौल अच्छा था। सेना से शार्ट टर्म में सेवानिवृत्ति ले ली थी। अब कोई सिक्योरिटी और डिटेक्टिव एजेंसी चलाते थे। अंगरेजी का कोई साप्ताहिक अखबार शुरू कर लिया था। ऑफिस भी कनाट प्लेस के पास ही खोल लिया था, जिसकी भौगोलिक स्थिति का दिल्ली में अपना महत्व है। देखते-देखते काम चल निकला था। अभी भी चल रहा है। कोविद काल में कुछ नुकसान जरूर हुआ था। संभवतः उसी नुकसान से उनके मन में सरकारी नौकरी कर रही लड़की से शादी का करने का विचार पैदा हुआ होगा।

प्रश्न कई उठे थे रितिका के मन में। अब तक शादी क्यों नहीं की इन्होंने? कहीं ऐसा तो नहीं कि तलाक हो गया हो और अविवाहित बनकर फिर एक कुंवारी लड़की चाहते हों? खुद को मूलतः इसी शहर का बाशिंदा बताते हैं, कोई पैतृक गांव या कस्बा भी नहीं, जहां से कुछ पता किया जा सके। कुछ संदेह उसने मां से जाहिर भी किया तो मां ने उसकी सोच को फालतू और नकारात्मक बताकर खारिज कर दिया था। अमित का कहना था कि वह जल्दी ही सेना में चला गया। तब विवाह हुआ नहीं था और बाद में सेना में रहते हुए विवाह करने का उसका मन नहीं हुआ। ऐसी खतरनाक नौकरी में विवाह करके दूसरे का जीवन वह खतरे में क्यों डाले!

बात कुछ तार्किक थी। अमित ने यह भी कहा था कि वह दहेज की मानसिकता के विरुद्ध है। उसके मां-बाप ने कहा था कि वे लड़के की खुशी में ही खुश हैं। यह कि उसे कोई लड़की जल्दी पसंद नहीं आती, अब पसंद आ रही है तो वे दहेज को लेकर आती हुई खुशियां नहीं रोकेंगे। यह भी कि हर कोई अपनी लड़की को अपनी औकात भर देता ही है। वे लोग भी देंगे। फिर मांग कर क्या होगा? आज रितिका को लगता है कि ये बातें कितनी बनावटी थीं। आदमी महान दिखने के लिए कितने चोंचले करता है, कितने झूठ बोलता है! जिस मुंह से अमित की मां ऐसी ऊंची बातें कर रही थी, उसी मुंह से बात-बात पर बोलती रहती कि तेरे बाप ने दिया क्या? तेरे ‘पापा’ से उतरकर ‘बाप’ पर चढ़ी रहती है। उस जैसी संवेदनशील लड़की के लिए ‘तेरे बाप’ जैसा संबोधन गाली से कम नहीं लगता है। वेतन के रूप में जो पचहत्तर-अस्सी हजार हर माह उसके खाते में आते हैं, क्या वह दहेज नहीं है? क्या वह उसके ‘बाप’ मांगने आते हैं? आखिर उन्होंने उनके बेटे अमित से ज्यादा पढ़ाया-लिखाया, उसमें खर्चा नहीं आया था?

विवाह से पहले वे लोग प्रायः भोपाल में रहते थे। वहीं से रिटायर हुए थे अमित के पिता जी। अमित ने ग्रेजुएशन भी वहीं से किया था सेना में भरती होने से पहले। लेकिन रिटायरमेंट के बाद दिल्ली में रहने लग गया था। दिल्ली सत्ता का केंद्र था और उसे सत्ता से बहुत लगाव था। हां, उसके संबंध उच्चाधिकारियों से ज्यादा थे, नेताओं से कम। सिक्यूरिटी और डिटेक्टिव एजेंसी के लिए राजधानी से मुफीद कोई दूसरी जगह नहीं थी। प्रभाव जमाने के लिए ही उसने साप्ताहिक पत्र शुरू किया था, वरना उसे कौन-सा पत्रकार और साहित्यकार बनना था। यह पत्र उसके बौद्धिक होने और दबाव बनाने का हथियार था। लेकिन सत्ता और बौद्धिकता में कितना पाखंड होता है, यह सब रितिका अमित से विवाह होने के बाद ही जान सकी। जानकर अब हो ही क्या सकता था? जो हो सकता था, वही करने वह जा रही है, भले  यह विकल्प बहुत अच्छा न हो। लेकिन रोज-रोज की प्रताड़ना से अच्छा ही है।

कुछ खुशी, कुछ भय के साथ उसने विवाह के लिए ‘हां’ कर दिया था। जल्दी ही सगाई हो गई थी। न ज्यादा शोर-शराबा और न दिखावा। रितिका की तरफ से कुछ गिने-चुने लोग थे। अमित के यहां से उसके मां-बाप, मुंबई वाले मौसा-मौसी और दो-तीन अधिकारीनुमा मित्र। पहली बार उसने मेक-अप आर्टिस्ट से मेक-अप करवाया था। मां की पसंद का महंगा-सा लहंगा पहना था। उसे इन चीजों का कभी शौक ही नहीं रहा। अच्छा पहनने का मतलब साफ-सुथरा और साधारण था उसके लिए। पढ़ना-लिखना, हारमोनियम पर रियाज करना और मन हो तो पूजाघर में कुछ देर तक बैठे राधाकृष्ण को देखते रहना। स्टाफ के पुरुष सदस्य उसकी सादगी से प्रभावित थे। कुछ महिलाएं उसकी सादगी को पहेली मानती थीं, ऐसा भी कह सकते हैं कि उनकी नजर में वह या तो कंजूस थी या असामान्य। उसे बहुत सुंदर तो नहीं कहा जा सकता था, किंतु अच्छी लगती थी। चेहरे पर आत्मविश्वास झलकता था।

तीन महीने में विवाह भी हो गया था। इससे पहले कभी-कभी अमित से उसकी बात हो जाती थी। उन्होंने दो-तीन बार उसे मिलने और साथ घूमने का प्रस्ताव दिया था, जिसमें एक-दो रात के लिए किसी हिल स्टेशन का भ्रमण भी था। परंतु रितिका ने साफ मना कर दिया था। उसने कहा था कि कभी एक-दो घंटे के लिए किसी पार्क, कैफे या मॉल में मिलना चाहें तो आ जाएगी, लेकिन अभी हाथों में हाथ डाले घूमना और ऐश करना पसंद नहीं करेगी। जो भी होगा, विवाह के बाद ही होगा। निश्चित रूप से अमित को ये बातें अच्छी नहीं लगी थीं। कैसी लड़की है, अपने मंगेतर के साथ भी एंज्वाय नहीं कर सकती, वह भी इस जमाने में!

कभी-कभी उसे लगता है कि उसने मना करके गलत किया था। दिन में ही सही, कुछ दिन घूम लेती तो हो सकता था कि उनका स्वभाव समझ लेती। लेकिन वह इस विचार को तुरंत खारिज भी कर देती है। उसे कृष्णा सर की बातें सही लगती हैं। उनकी बातों से उसे बहुत बल मिलता है। कृष्णा सर उसके जीवन के एकमात्र पुरुष मित्र, सखा थे। इससे अधिक कुछ नहीं। एक ही स्टाफ में रहते हुए कभी हफ्तों बात नहीं होती तो कभी घंटों तक हो जाया करती। वे रितिका के लिए वह खिड़की थे, जिनसे होकर वह पुरुषों की दुनिया में झांक सकती थी। सच यह था कि रितिका खुद अपनी मर्जी से शापित लेडी ऑफ शैलॉट बनी हुई थी। कृष्णा सर को थोड़ी-बहुत जानकारी संगीत की थी, अध्यात्म की भी थी और वे चिंतक भी थे। बोलते तभी, जब बोलने को कहा जाता। लेकिन रितिका की नजर में वे स्त्री विमर्श के मौन झंडाबरदार थे। मजे की बात यह थी कि उसकी जानकारी के अनुसार कृष्णा सर गृहविज्ञान के इकलौते पुरुष शिक्षक थे, वरना यह विषय तो महिलाओं से ही ब्याह दिया गया था।

विवाह और वैवाहिक समस्याओं को लेकर उसने कृष्णा सर से कई बार बात की थी। उनका मत था, विवाह करो मत, करो तो निभाओ। हां, न निभ सके तो सम्मानित तरीके से अलग हो जाओ। हर आदमी विवाह के लिए नहीं बना होता और जो नहीं बना होता उससे किसी की नहीं निभ सकती। जो विवाह के लिए नहीं बने हैं, वे बहुत अच्छे भी हो सकते हैं और बहुत बुरे भी।

रितिका आह सी भर उठी। कितना सही कहा था कृष्णा सर ने! न वह विवाह के लिए बनी थी और न अमित ही। फिर भी हो गया। लेकिन उसे कभी-कभी अमित पर दया आती। थोड़ा पुरुषोचित गर्व था उनमें, अपनी पहुंच की हनक भी थी। दरअसल, वे मां को महान मानने के सिद्धांत के शिकार हो गए। जब तक उनकी मां भोपाल में होती, उनका व्यवहार उतना बुरा नहीं रहता था।

संबंधों में टूट का सिलसिला विवाह के तीसरे महीने ही शुरू हो गया था। सुबह उसे पीरियड्स आ गए थे। ये दिन उसके लिए बड़े दुख भरे होते थे। उसे किशोरावस्था से ही डिस्मेनोरिया की बीमारी थी। स्त्री विशेषज्ञ का इलाज बहुत दिनों तक चला था। हार्मोंस की समस्या थी, जो अब तक ठीक नहीं हुई। कुछ बड़ी उम्र की महिलाओं ने कहा था कि शादी के बाद ठीक हो जाएगा। यही बात उसे कृष्णा सर ने भी बताई थी। हालांकि उन्होंने इसे प्रामाणिक मानने से इनकार कर दिया था। बस, ऐसा सुना जाता है। हो सकता है कि विवाह के बाद समागम एवं प्रसव के चलते हार्मोंस ठीक हो जाते हों। एक उसे सुबह से भयंकर दर्द था, कुछ कर नहीं सकती थी, ऊपर से सास उन दिनों उसका बनाया खाना भी नहीं खाती थी। पता नहीं कौन से जमाने की परंपरा लिए चली आई थी! न उसके वश में इंतज़ार था। रितिका समझती ही नहीं थी कि यह कौन-सी सोच है? यदि एक स्त्री भी इस समस्या को नहीं समझ पा रही है तो दूसरा कोई क्या समझेगा?

काम के सिलसिले में अमित किसी दूसरे शहर गए थे, बस एक दिन के लिए। सास को लगा कि उस दिन रितिका कोई ‘सेवा’ नहीं कर पाएगी और भड़क गई थी। रितिका भी गुस्सा हो गई थी। बोल दिया कि वह क्या करे? औरत है, इस जन्म में अब मर्द तो नहीं बन जाएगी! मर्जी हो तो बना खा लें, नहीं तो मत खाएं। सास यह कैसे बरदाश्त कर लेती? उसने उसे हराम की पैदाइश ही नहीं बोल दिया था, अमित से भी फोन पर पता नहीं क्या-क्या जोड़ा था। लगभग पौन घंटा तक बात करती रही थी बेटे से। गुस्से में तैयार होकर रितिका स्कूल चली गई थी। उसको उस दिन लगा था कि इस मोबाइल फोन ने भी कम सत्यानाश नहीं किया है।

अमित आए तो भड़क गए थे। उन्हें मां पर बहुत विश्वास था। कुछ देर तक वह सहती रही, फिर वह भी बिफर गई थी। शब्दों के वार-प्रतिवार हुए थे। अमित उस दिन मारने तक को उठ गए थे। सास के चेहरे पर रौनक आ गई थी। उस रात अमित ड्राइंग रूम में सो गए और रितिका मुंह में दुपट्टा ठूंसे बेड के एक कोने पर। उसे आभास हो गया था कि संबंध बहुत दिन तक चलने वाला नहीं है।

वैसे अमित और रितिका एक बिस्तर पर सोए हुए भी प्रायः अलग ही रहते थे। उनके बीच ढंग का वैसा कुछ खास नहीं हुआ था, जो नवविवाहित जोड़ों में होता रहता है। इन तीन महीनों में कुल जमा पांच-सात बार ही अंतरंगता के संबंध बने थे और वह भी पूरी ऊर्जा से नहीं। रितिका अपनी इस कमजोरी को जानती है। लेकिन क्या करे, उसका मन ही ज्यादा नहीं होता। उसे कृष्णा सर की बातें याद थीं, लेकिन अमल नहीं कर पाई। शादी होने से पहले कृष्णा सर से कई निजी मुद्दों पर एक हद तक स्वस्थ चर्चा होती थी।

जब शादी कहीं तय नहीं थी तो वह उनसे बताती कि किस तरह उसके पिता उसकी शादी को लेकर तनाव में रहते हैं। उसकी शादी हो जाए तो वे निश्चिंत हों। शादी कर भी ले, लेकिन सुयोग्य वर मिले तब तो! उसका कोई ब्वॉय-फ्रेंड नहीं था, जिससे वह शादी कर ले। आजकल यह बहुत ही चलन में है। उसने ब्वॉय-फ्रेंड होने ही नहीं दिया। जब वह बारहवीं में पढ़ती थी, तब उसे एक लड़के पर झुकाव हुआ था। वह गाता बहुत अच्छा था। कुछ दिन वह उसके खयालों में खोई रही तो मां ने नोटिस कर लिया। कक्षा में भी कुछ हवा बनने लगी थी। कुछ मां ने समझाया और कुछ उसकी अध्यापिका ने। एकांत में ले जाकर समझाने का उस पर बड़ा असर पड़ा था जिससे उसने उसी दिन से उस आकर्षण को दरकिनार कर दिया। तबसे जीवन में कोई नहीं आया।

कृष्णा सर को सहज ही विश्वास नहीं हुआ था कि बत्तीस की उम्र पार करती हुई लड़की का कोई ब्वॉय-फ्रेंड नहीं है। यहां नौवीं-दसवीं कक्षा से ही कहानी शुरू हो जाती है, हालांकि सबके साथ ऐसा नहीं होता। क्या उसके जीवन में कोई एक बार के लिए भी नहीं आया? रितिका हल्का-सा मुस्काराई थी और बोली थी- सर, मैं अभी वर्जिन हूँ। उसकी इस बात में न कहीं से कोई दंभ था, न आत्मप्रशंसा थी और न कोई न्योता था। एक निर्विकार सी संक्षिप्त सूचना, जिसके आगे बहुत से प्रश्नों पर विराम लग जाता है। उसे याद है, कृष्णा सर ने हाथ जोड़ लिए थे और बोले थे- देवी, तुम महान हो। इसलिए नहीं कि तुम इस युग में इस उम्र तक वर्जिन हो, बल्कि तुम्हारे विश्वास, बोल्डनेस एवं सरलता के लिए मैं प्रणाम करता हूँ।

आगे की बातचीत में उसने कृष्णा सर को बताया था कि उसमें बहुत-सी इच्छाएं नहीं हैं। शायद वह चीज भी नहीं है, जिसे लिबिडो कहा जाता है। शायद उसके अंदर भूख कम है, इसलिए ही वह ऐसी है। उसमें महानता जैसी कोई चीज नहीं है। वह स्वयं को तथा अपने काम को समर्पित है। कुछ समय बचता है तो संगीत के रियाज़, मंदिर में मौन साधना और जीवन की गंभीरता को समझने में लग जाता है। कृष्णा सर ने पूछा था कि जब उसके अंदर कोई खास इच्छा नहीं है, विशेष आकर्षण नहीं है और आत्मनिर्भर भी है तो विवाह करने का सोच ही क्यों रही है? विवाह के पीछे संभवतः मान्यताप्राप्त सेक्स और सुरक्षा ही प्रमुख कारण हैं।

सगाई के बाद कृष्णा सर से उसकी केवल एक बार एक घंटे बात हुई थी। उन्होंने रितिका को बहुत कुछ समझाया था। दांपत्य जीवन में अपनी इच्छाओं को मारकर एकदूसरे की इच्छाओं का खयाल रखा जाए तो समस्या शुरू ही नहीं होगी। माना कि उसमें कामेच्छा कम है, लेकिन पुरुष लालची होता है इस मामले में। वह अपनी कमी मानती है, लेकिन करे तो क्या करे?

उनके बीच खटास के कारणों में यह कारण कोई महत्वपूर्ण नहीं है। कारण तो दो ही हैं, सास की किचकिच, सास-ससुर दोनों के दहेज वाले ताने। बात-बात में नुक्स निकालना। अमित का मां की तरफ से भिड़ना। जब भी दोनों आ जाते हैं, स्थिति बरदाश्त से बाहर हो जाती है।

उसे कई बार लगा कि वह तलाके-बिद्दत के काफी नजदीक है, हालांकि उसके धर्म में यह व्यवस्था नहीं है। लेकिन धर्म से क्या होता है, मानव का मूल स्वभाव एक-सा होता है। जब चौथे महीने छोटी-सी बात पर अमित ने उसका गला पकड़ लिया था तो वह सीधे मायके आ गई थी। तब सास-ससुर इलाज के लिए भोपाल से आए हुए थे। एक दिन सास की सांस कुछ फूलने लगी थी तो उसने दवा दी थी। अमित आए तो सास ने कोई बड़ा-सा टैबलेट दिखाते हुए जोड़ा था कि रितिका ने यही दवा दी थी, जिससे उसकी हालत और खराब हो गई।

लगभग एक महीने तक ठीक चला था सब। ठीक क्या, उसके छोटे से वैवाहिक जीवन का सबसे अच्छा समय वही था। उसे लगा था कि वे एक-दूसरे को प्यार करते हैं। तीन दिन के लिए वे मनाली भी घूम आए थे। कुछ हद तक वह शारीरिक रिश्तों में भी साथ देने लगी थी। लेकिन यह सब महीने भर ही चला होगा। इस बीच अमित की अनुपस्थिति में कृष्णा सर से उसकी दो-तीन बार फोन पर लंबी बातें हो गई थीं। बातचीत वही समाज, अध्यात्म और मानवीय स्वभाव को लेकर। कुछ पुराने स्टाफ की बातें, क्योंकि विवाह के तीन माह बाद उसने तबादला करवा लिया था अपने नए घर के नजदीक। उसके फोन में कोई पासवर्ड नहीं था, खुला ही रखती थी। छिपाने के लिए उसके पास था ही क्या? लेकिन अमित ठहरे सिक्यूरिटी एजेंसी के मुखिया और जासूसी विचार के। इतनी लंबी कॉल किससे और क्यों?

जाहिर है, रितिका जैसी औरत को यह सब बहुत चुभना था। जब वह उम्र के उस दौर में अनछुई रह गई, जब बहकना स्वाभाविक होता है, तो अब ऐसे आरोप लगाने का क्या मतलब? एकांतिक क्षणों में अमित उसके ईमान और पवित्रता को मान चुके हैं। फिर किसी पुरुष से कुछ लंबी बातों के आधार पर पूछताछ क्यों? एकाध हफ्ता खिंचे-खिंचे से चलते रहे दोनों, फिर सास-ससुर पधार गए थे। फिर वही ‘क्या दिया इसके बाप ने, क्या लेकर आई है, किस्मत अच्छी थी वरना क्या है इसमें?’ जैसे कसैले व्यंग्यबाण शुरू हो गए थे।

प्रायः इस तरह के हमले सास तब करती, जब अमित नहीं होते। यह सब सामने होता तो अमित को मां की भी गलती दिखाई देती। बात का बतंगड़ इसीलिए बनता है क्योंकि यह सब पीठ पीछे होता है। रितिका को बार-बार यही लगता कि अमित उसे गलत न मानते हुए भी मां को सही ठहराने के लिए उससे उलझ जाते। आवाज इतनी ऊंची करके चिल्लाते कि रितिका का सिर फटने-सा लगता। अड़ोस-पड़ोस का खयाल रखकर रितिका चुप ही रहती।

अमित ने अबकी हाथ छोड़ दिया था उस पर। सास ललकारती रही। यह ऐसे ही सुधरेगी। दो टके की मास्टरनी क्या हो गई, अपने को फन्ने खां समझने लगी है। इस बार वह रोई नहीं थी, बिफर गई थी। चलो इस बार छोड़ रही है, आइंदा हाथ लगाया तो सीधा पुलिस में जाएगी और जेल की चक्की पिसवाकर रहेगी। खासकर इस बुढ़िया की अक्ल ठिकाने लगानी पड़ेगी। वह मां-बाप के पास वापस आ गई थी। यहां से उसका विद्यालय भी दूर पड़ता। जैसे-तैसे मेट्रो पकड़कर पच्चीस किलोमीटर की दूरी तय करती। अब वह मम्मी-पापा को ताने भी मारने लगी थी कि क्या मिला उन्हें उसकी शादी करके? वह तो मना ही कर रही थी। और उतार लो बोझ अपने सिर का। मां अपराधबोध से ग्रस्त होने पर भी उसे हिम्मत बंधाती। सब ठीक हो जाएगा। अमित का दिमाग उसके मां-बाप ने खराब कर दिया है। कितने दिन तक वे रहेंगे उसके साथ?

अब तीसरी बार लगभग आखिरी फैसला लेकर आई है। दूसरी बार भी जैसे-तैसे मानकर चली गई थी। कहीं न कहीं रिश्तों को निभाने की लाज थी। मां-बाप की चिंता बढ़ गई थी। रोज एक-दो बार फोन कर हाल-चाल लेने लगे थे दोनों। उसके ठीक बोलने पर भी उन्हें विश्वास नहीं होता था। उसे एक बार फिर लगा था कि शायद अमित सुधर गए हैं। सास पूरे दो महीने तक न तो आई थी और न फोन पर ही बात हुई थी। अमित का जन्मदिन भी मन गया था। लेकिन शांति का कोई स्थायी खाता उसके जीवन में शायद नहीं था। दो महीने होते-होते अमित के पिता जी का रक्तचाप और शुगर हाई हुआ था। इलाज यहीं होना था। हो भी रहा था और रितिका से जो बन पा रहा था, कर भी रही थी। कई दिन तक छुट्टी भी ली थी। खाना-पीना, दवा इत्यादि दे जाती थी, चुपचाप।

लेकिन सबकुछ व्यर्थ गया था। यह कि वह बहुत अहंकारी है। बोलती नहीं है, सुनती नहीं है। मरती भी नहीं कि जान छूटे। उसे बहुत कुछ अजीब-सा लगने लगा था। न जाने उसे इस बात से क्यों डर लगने लगा था कि सास चाहती है कि वह मर जाए। जहां जाती, उसे लगता कोई पीछा कर रहा है। कुछ आवारा टाइप के लोग फब्तियां कसते उस पर।

एक रात जब उसने अमित से इसका जिक्र किया तो वे भड़क उठे- तुम्हें क्या लगता है कि मैं करवा रहा हूँ ये सब? मेरे मां-बाप यह सब करवा रहे हैं? अंततः यह कि अब और नहीं झेल सकते वे इस रिश्ते को। यदि इस घर में रहना है तो मम्मी-पापा के अनुसार ही रहना पड़ेगा। न रहना चाहे तो चली जाए। हाथ तो नहीं उठाया था उस रात, लेकिन उसे लगा था कि मार तो रहे ही हैं। बात बढ़ने लगी थी तो सास-ससुर भी शामिल हो गए थे। ससुर ज्यादा बोलते नहीं थे, लेकिन रितिका को लगता कि वे पत्नी से डरते हैं या मौन समर्थन करते हैं।

सोचते-सोचते उसे प्यास लग गई थी। घबराहट सी होने लगी थी। मोबाइल में देखा तो रात के तीन बजने वाले थे। शाम की तुलना में तापमान गिर गया था, लेकिन उसका तापमान कहां गिरा था। आधा बोतल पानी गटागट पी गई। थोड़ा-सा पानी सीने पर गिर गया, कुछ ठंडक लगी। उसका जीवन ऐसे ही ठीक था। सुबह होते ही टैक्सी बुक की थी और वापस आ गई थी। दो मौके दे चुकी है, अब नहीं देगी। अपनी तरफ से तलाक भी नहीं देगी।

हां, कहकर आई थी कि इतनी आसानी से नहीं छोड़ देगी। वह विवाहिता है इस घर की। क्या हुआ जो उनका कुछ रुतबा है, औरत भी इतनी कमजोर नहीं होती। यदि सावित्री पति के प्राण के लिए यमराज से लड़ सकती है तो अपनी रक्षा क्यों नहीं कर सकती? तलाक होगा भी तो अदालत में होगा। भारतीय कानून के तहत होगा। जरूरत पड़ी तो वह महिला आयोग तक जाएगी।

उसके माथे पर पसीने की बूंदे चुहचुहा आई थीं। दो घूंट पानी और पिया। कितना अच्छा है कि वह आत्मनिर्भर है। खुद क्या, दूसरों का खर्च भी चला सकती है। स्त्री विमर्श की बात करनी है तो स्त्री को आत्मनिर्भर बनाना ही पड़ेगा। हिम्मत कुछ बढ़ी हुई सी लगी। कल से वह अपने फ्लैट में निहायत अकेली रहेगी। खैर, अकेली पहले भी थी और आज भी है। फिर भी उसका आत्मसम्मान, आत्मनिर्भरता और हिम्मत उसके साथ हैं ही। अगले हफ्ते उसका जन्मदिन आएगा तो क्या अकेले नाचेगी, गाएगी और खुद ही बोले लेगी- हैप्पी बर्थडे टू मी?

संभवतः यही करेगी। जो व्यक्ति खुद को जन्मदिन की बधाई नहीं दे सकता, उसे दूसरे क्या देंगे? माना रास्ता अनदेखा है, लेकिन चलना तो पड़ेगा। क्या हुआ जो आगे अंधा मोड़ है, सड़क मोड़ के आगे भी होगी ही।

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