वरिष्ठ लेखक।देशविदेश में कुल ३८वर्षों तक शिक्षण के बाद नौकरीनिवृत्त होकर स्वतंत्र सृजन।चार कवितासंग्रह तथा तीन कहानीसंग्रह के अलावा अनेक संपादित पुस्तकें।जापान में हिंदी नाट्य मंचन की परंपरा की शुरुआत।

 

घर पहुंचते-पहुंचते आधी रात हो गई थी।ट्रेन की छत पर बैठे, झुके रहने से पीठ में दर्द होने लगा था।ठंड से देह अकड़ गई थी।भूख से अंतड़ियां ऐंठ रही थीं।फिर भी उसे इस बात का संतोष था कि किसी अनजान कस्बे के स्टेशन पर रात गुजारने या होटल के उस सड़ियल-से कमरे के एक हजार रुपए देने से तो बेहतर ही रहा कि देर-सबेर अपने घर पहुंच गया।

उत्तर भारत के धुंध-भरे मौसम के दौर में कई दिनों बाद उजला दिन अवतरित हुआ था।धूप निकली थी।यह रविवार सचमुच सूर्य का वार था।नौकरी की उम्मीद जगाने वाला शुभ दिन।पहला पेपर सुबह साढ़े नौ बजे शुरू होना था और दूसरा पेपर शाम पांच बजे खत्म हुआ था।जमा कराए गए मोबाइल लेने के लिए लंबी लाइन लग गई थी।परीक्षा-केंद्र से बाहर निकलते-निकलते ही पौने छह बज गए थे।हल्का अंधेरा उतर आया था।लगभग साढ़े चार सौ परीक्षार्थी धक्का-मुक्की करते परीक्षा-केंद्र से बाहर निकल रहे थे।सबको जल्दी थी।लोगों, मोबाइलों और वाहनों की चिल्ल-पों मची हुई थी।फलाइन ही नहीं, नलाइन भी जाम लग गया था।निजी कारों के ड्राइवरों और अभिजात परीक्षार्थियों के मोबाइल कनेक्ट होने में परेशानी आ रही थी।हवा भारी-भारी हो गई थी।वातावरण में वाहनों के धुएं और घोड़ों की लीद की गंध घुली हुई थी।गेट के सामने और आजू-बाजू सड़क पर चार-पांच तांगे और पचीस-तीस रिक्शे खड़े थे।किसी को स्टेशन की सवारी लेनी थी तो किसी को बस अड्डे की।देखते-देखते उनकी संख्या घटती जा रही थी।एक-एक रिक्शे पर कई-कई सवारियां लद रही थीं।वह एक रिक्शे की ओर लपककर उस पर चढ़ गया, ‘फटाफट स्टेशन चलो भैया।’

‘सौ रुपया सवारी।’ रिक्शावाले ने तपाक से कहा।

‘सौ रुपया?’ उसने लगभग बुदबुदाते हुए सवाल किया।अचरज-भरे स्वर में जैसी उठान होती है, वैसी कतई नहीं थी।गरीब आदमी भी दूसरों की मजबूरी का फायदा उठाने की कोशिश में रहता है।कल दोपहर परीक्षा-केंद्र देखने के लिए स्टेशन उतरकर, रिक्शा लेकर सीधा यहीं आया था।पचीस रुपये लगे थे।परीक्षा-केंद्र के समीप स्थित घरेलू-से होटल के मालिक-मैनेजर ने जरूर उस सड़ियल-से कमरे में एक रात रुकने और नाश्ते में दो परांठे और एक चाय देने के पूरे एक हजार रुपए ऐंठ लिए थे।देर शाम पहुंचने वाले परीक्षार्थियों से तो और ज्यादा पैसे वसूले थे।हालांकि उसने किसी भी ‘गेस्ट’ को बिल नहीं दिया, पर कह रहा था कि किराए में सरकारों का हिस्सा यानी जी.एस.टी. भी शामिल है।

‘रिक्शा का किराया आज चार गुना क्यों?’ रिक्शावाला उसके सवाल का उत्तर देने के बजाय बुलंद स्वर में ‘रेल्वे टेसन, रेल्वे टेसन’ की हांक लगाता रहा।भीड़ में से दो लड़कियां लपकती हुई आईं और रिक्शा पर चढ़कर उसके बराबर बैठ गईं।हिचकोले खाता रिक्शा आगे बढ़ने लगा तो एक हड़बड़ाया हुआ नौजवान पीछे लटक गया।उसकी पीठ पर भारी पिट्ठू था।उसने अपने पैरों को नीचे धुरी पर टिका लिया था।ऐतराज करने वाले हालात नहीं थे।सवारियों को जैसे-तैसे स्टेशन पहुंचना था और रिक्शावाला कमाई के चक्कर में अपनी पीठ और टांगों की मांसपेशियों के साथ क्रूरता बरतने के लिए पहले से ही तैयार था।

कुछ दूरी तय करने पर रिक्शे के पीछे लटके नौजवान ने रिक्शावाले से मजाक के लहजे में कहा, ‘पीछे-पीछे चल रहे तांगे के घोड़े की फुंफकार मेरी पीठ और पिट्ठू को छूने जा रही है।कई वर्षों से बेरोजगारी मुझे थोड़ा-थोड़ा चरती आ रही है,  ऐसा न हो कि मुझ बचे-खुचे को घोड़ा चर जाए।रिक्शा जल्दी-जल्दी बढ़ाओ भैया जी! भगवान तुम्हारा भला करे।’ दोनों लड़कियों की हँसी सुनाई पड़ी।उसने मुड़कर पीछे देखा तो पाया कि घोड़े को रोके रखने के लिए तांगेवाला रास को अपनी ओर खींचे हुए था।घोड़े की आंखों पर चमड़े की ढीली पट्टी थी।वह आगे बढ़ने और रास को तोड़ फेंकने को बेताब दिखा।रास्ते में बार-बार आने वाली रुकावटों और दीर्घ थकान के कारण बेचैन था।फुंफकारता हुआ मुंह से झाग फेंक रहा था।बेगार-बेकार के बोझ से शायद गुस्से में था।

अपने बैग में रखे पर्स से मोबाइल निकालती-रखती लड़की की बाईं बांह से महीन-सी गरमाहट झरने लगी।उसे अच्छा लगा।अपनी पत्नी का ध्यान आया।दो महीने की बिटिया का भी।उसके बाएं ठंडा खालीपन था और दाएं सुहानी उष्मा।मन नहीं टिका, उखड़ा-उखड़ा ही रहा।आजकल पूरी तरह कभी नहीं टिकता।बेरोजगारी चौबीसों घंटे दिल-दिमाग में किसी विषैले कीड़े की तरह कुलबुलाती रहती है।

‘मौसी जी, रिक्शा ले लिया है।शायद साढ़े सात वाली ट्रेन मिल जाएगी।अगर नहीं मिली तो अगली ट्रेन नौ बजे है।देर हो जाएगी।मैं बबीता के साथ ही उतर लूंगी।आपके यहां रुक जाऊंगी।बबीता के फोन की बैट्री खत्म हो गई है।मेरे में भी जरा-सी बची है।आप प्लीज मम्मी को बता दो।’

रिक्शा बीच बजाररुका खड़ा था।भीड़ जितनी बढ़ती है, आगे निकलने की होड़ उतनी ही ज्यादा हो जाती है।छोटे कस्बों में भी जाम लगने लगा है।साढ़े छह बज गए हैं।स्टेशन पहुंचकर टिकट भी लेनी है।शायद साढ़े सात वाली ट्रेन नहीं मिल पाएगी।केवल ट्रेन का मिलना न मिलना ही नहीं, जिंदगी का समूचा सफर ही राम जी के भरोसे है।ठीक है।मेरे दोनों पेपर अच्छे गए हैं।हम भी देरसबेर मनचाही मंजिल पर पहुंच ही जाएंगे।

‘बबीता, यह सनातन धर्म कौन-सा धर्म है?’

‘हिंदू धर्म को ही तो सनातन धर्म कहते हैं।’

‘यह कितने हजार साल पुराना है?’

‘पता नहीं।अलग-अलग किताबों में अलग-अलग बातें लिखी हैं।गूगल पर तो इसे कुछ हजार साल से लेकर लाखों साल पुराना होना भी बताया गया है।जब तक किसी बात का पक्का पता न हो, तब तक पक्के दावे करने से परहेज रखना ही ठीक है।मैंने तो इस सवाल के किसी भी आंसर पर ‘टिक’ नहीं किया।नेगेटिव मार्किंग से बचना समझदारी है।’

‘और भारत की गुलामी का पीरियड दो सौ साल है या एक हजार साल या इनमें से कोई नहीं?’

‘एक हजार साल।’ बबीता ने बताया।

‘पर मेरी किताब में तो दो सौ साल लिखा है।’

तेरे पास पुराना एडिशन होगा पगली! मेरी किताब में एक हजार साल दिया हुआ है।सरकारी नौकरी के कंपीटिशन के लिए हमेशा लेटेस्ट और चालू एडिशन के हिसाब से उत्तर देना चाहिए।’

लड़कियों की बातचीत सुनते हुए उसकी दृष्टि के आगे धुंधलका-सा छाने लगा था।धुंध और अंधेरे में फर्क करना मुश्किल होता जा रहा था।नए अनजान कस्बे की हवा में अनपहचानी गंध बसी थी।आजू-बाजू खरीदारों की भीड़ थी।बाजार था।चमचमाती दुकानें थीं।दूसरे वाहन भी थे पर सवारियों से लदे रिक्शों की तो पूरी लाइन लगी हुई थी।उनका रिक्शा बीच में था।दाएं बाजू को मिल रही गरमाहट बाएं तक नहीं पहुंच पा रही थी।ठंड से बायां कंधा सुन्न होने लगा।दिल-दिमाग भी।

वह उधेड़बुन में पड़ा रहा… मैंने बारह साल पहले बी ए नर्स (हिस्ट्री) की पढ़ाई में गुड सैकेंड डिविजन प्राप्त किया था।दो बार आइ. ए. एस. की प्रीलिमनरी और एक बार मुख्य परीक्षा भी पास कर चुका हूँ।दुर्भाग्य से अगली सीढ़ी पर नहीं चढ़ पाया।मुझे पक्का याद है कि भारत की गुलामी की अवधि दो सौ साल है।अगर पलासी की लड़ाई को दासता की नींव मानें तो हम, टु बी मोर इक्जेक्ट, एक सौ नब्बे साल और पौने दो महीने अंग्रेजों के गुलाम रहे।पुस्तकों के नए एडिशन छपने से पुराना इतिहास बदल जाएगा क्या? अगर बदल जाएगा तो हम कौन-से आंसर पर ‘टिक’ करें? किसे ठीक मानें? कौन-सा उत्तर देने पर अंक मिलेंगे? पता ही नहीं चलता कि क्या सही है और क्या गलत।शिक्षित बेरोजगारों की भीड़ भ्रमित होती रहती हैं।गूगल और सोशल मीडिया हवाओं से ही नई हिस्ट्री पैदा कर लेता है।नए-नए संस्करण लिखने-लिखवाने और छापने-छपवाने वालों के तो मजे ही मजे है।वे अपना काम निपटाकर एक तरफ हो जाते हैं।दर्द तो हमें होता है न!

दुख-सुख भोगते उसने भी पैंसठ-सत्तर किलोमीटर की दूरी कुछ युवा परीक्षार्थियों के साथ ट्रेन की छत पर बैठकर बेटिकट तय की थी।अगर टिकट लेने के लिए लाइन में खड़ा रहता तो पहली दो ट्रेनों की तरह यह ट्रेन भी छूट जाती।सर्दी की रात स्टेशन पर गुजारनी पड़ सकती थी।पैर-काटू, धक्के-मारू बेचैन भीड़ के कारण प्लेटफर्म से ट्रेन में चढ़ना असंभव जैसा पाकर कुछ समझदार युवक उस पार से डिब्बों में चढ़ने की कोशिश में ट्रेन के आगे की ओर से भागते-फलांगते पटरियां पार करते दिखाई दिए थे।ट्रेन में चढ़ने के लिए (मुहावरे में नहीं, असल में ही) जान की बाजी लगाई जा रही थी।इस कस्बे में कई परीक्षा-केंद्र थे।हजारों परीक्षार्थियों के एकत्र होने से पूरे स्टेशन पर भीड़ की भिनभिनाहट थी।यात्रियों के चिपकने-लटकने से पैसेंजर-ट्रेन के दरवाजे मधुमक्खी के छत्तों जैसे लग रहे थे।कुछ दुस्साहसी युवाओं के साथ उसे भी छत पर जगह मिल गई थी।किसी हादसे से बचने के प्रयास में सब नीची गर्दन किए झुके-झुके बैठे थे।दो-तीन नौजवान उसके कस्बे के भी थे।ट्रेन की गति बहुत तेज नहीं थी तो भी उसके चलते ही हवा खूंखार होने लगी थी।ठंड उसके सिर-माथे और छाती पर वार कर रही थी।पसलियों और कंधों की हड्डियों में भी चुभने लगी थी।

तीन-तीन घंटे के दो पेपरों के बीच के उजले अंतराल के दौरान दोपहर को छोले-कुलचे खाए थे।उसके बाद खाने का समय ही नहीं मिला था।अब भूख ने ठंड की चुभन-कंपन को दुगना कर दिया था।स्टेशन पर कुछ खा लेने की बात दिमाग में थी तो सही, पर वहां पहले ही लूट-खसोट मचने से अराजकता फैल गई थी।

युवाओं ने प्लेटफार्मों के स्टालों से फोकट में चीजें उठानी शुरू कर दी थी।बिस्कुट, ब्रैड, केक, चॉकलेट, जूस, कोक, जिसके जो भी हाथ आया वही झपटकर इधरउधर दौड़ गया।हालात बदतर होते देख घबराए हुए स्टालमालिकों ने शटर गिरा दिए थे।यहां तक कि इस हड़कंप के कारण बुकस्टाल भी बंद कर दिया गया था।

ठंड और भूख के बावजूद ट्रेन की छत पर बैठकर किया गया सफर तकलीफदेह के साथ-साथ मजेदार भी था।युवा, अल्हड़ परीक्षार्थियों के दुखड़े हँसी-मजाक और ठहाके बनकर प्रकट हो रहे थे।हताशा से व्यंग्य फूट रहा था।एक नौजवान स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक के अनेक राजनेताओं की भाषा और लहजे की नकल कर-करके सबको हँसाता रहा था।कुछ ने शाकाहारी तो कुछ ने ‘नन-वेज’ चुटकुले सुनाए थे।रास्ते में जब विपरीत दिशा से आती एक लोकल ट्रेन साइड की पटरी से गुजरी तो उसकी छत पर बैठे युवाओं को देखकर सबने ‘हो-हो, हो-हो’ की आवाजें निकाली थीं।उस तरफ  से परीक्षा देकर लौटते युवाओं की ओर से भी ऐसी ही मस्ती गूंजी थी।

उसके बाद चर्चा शुरू हो गई थी कि स्थानीय के बजाय दूर-दूर के कस्बों-शहरों में परीक्षा-केंद्र अलॉट करके नकल रोकने का आइडिया बेकार है।इस डिजिटल जमाने में पास-दूर की अवधारणा तो खत्म हो गई है।अब नकल कराने के लिए समीप जाकर फुसफुसाने या कागज की पर्ची फेंकने की जरूरत नहीं है।पैसे खर्च करके कोई भी कहीं दूर-दराज से नकल करने-कराने का जुगाड़ कर सकता है।इन डिजिटल हालात में स्थानीय परीक्षा-केंद्रों के बजाय परीक्षार्थियों को दूर-दराज के परीक्षा-केंद्रों में भेजकर नकल रोकने का यह फ्लॉप आइडिया आखिर था किसका? किसी मंत्री का या हमारे राज्य के अधिकारियों का? इनको इतना भी याद नहीं रहा कि पी.सी.एस. का पेपर लीक होने की कई साल पुरानी घटना में दिल्ली और चेन्नई के कोचिंग सेंटरों के मालिक शामिल पाए गए थे।डाक्टरी और इंजीनियरिंग के कोर्स में एडमिशन के लिए होने वाला एंट्रेंस एग्जाम हो या नौकरी की प्रतियोगिता-परीक्षा, सबके रिटन पेपर क्लीअर कराने की गारंटी लेने वाले कोचिंग सेंटरों की संख्या साल-दर-साल बढ़ती जा रही है।परीक्षा में नकल कराने या परीक्षा से पहले ही पेपर लीक कराने के इस धंधे में करोड़ों के वारे-न्यारे हो रहे हैं। ‘मेरिट’ की ऐसी-तैसी हो जाती है। …इधर हम जैसे बेहूदे किताबों में डूबे रह जाते हैं और उधर जेबों में नकदी भरकर निकले चालाक लोग उत्तर-कुंजी यानी ‘आंसर-की’ के सहारे वैतरणी पार कर जाते हैं।

कभी-कभी की जाने वाली जेनुइन सख्ती के कारण नकल का जुगाड़ न हो तो धनी मां-बाप के नौनिहाल लेन-देन के बल पर इंटरव्यू में अच्छे नंबर झाड़ लेते हैं।हमारी और उनकी जीवन-यात्रा में उतना ही फर्क है, जितना ट्रेन की छत पर सिकुड़े-झुके तथा लग्ज़री कार की सीट पर पसरकर किए गए सफर में।हमें मुश्किल से ट्रेन की छत पर जगह नसीब हुई है और वे अपने वातानुकूलित वाहनों में बैठकर कब के घर पहुंच चुके होंगे।… हां, सही बात है।यहां मेरे खाली पेट में गैस ही गैस भरी है, और वे साले खाना खाकर डकारने-पादने की प्रक्रिया भी संपन्न कर चुके होंगे…. हा-हा, हा-हा,हा-हा, हा-हा…. गंभीर बातें भी भरपूर भदेसपन,  हँसी-मजाक और व्यंग्य की टोन में होती रही थीं।वक्त बीतने का पता ही नहीं चला।धीमी गति वाली पैसेंजर ट्रेन उनके कस्बे के स्टेशन पर रुकी तब रात के बारह बज चुके थे।

घंटी बजाते ही कुछ पलों के भीतर दरवाजा खुल गया।पिता जी शायद उसके इंतजार में दरवाजे के पास ही टहल रहे थे।उनके चरणों पर झुककर वह मुस्कराया।सीधा खड़ा हुआ तो पिता जी के हाथों पर नजर गई।वहां चीकट के निशान थे।मतलब आज रोड-किनारे की अपनी ओपन वर्कशप में काफी काम आया होगा।अपने ‘बिजनेस-पार्टनर्स’ के साथ-साथ पिता जी भी टू-व्हीलरों, थ्री-व्हीलरों की मरम्मत और ‘सर्विस’ के काम में लगे होंगे।आज संडे था।हफ्ते के पांच दिन मिले या न मिले, शनिवार-इतवार को तो काम मिल ही जाता है।किराए की दुकान में वर्कशॉप चलती थी, तब ज्यादा काम आता था।कोरोना विश्वमारी ने सब ठप्प कर दिया तो पापा ने किराए की दुकान खाली कर दी।अब वर्कशॉप खुले में चल रही है।लोकल पुलिस रोड-किनारे ओपन वर्कशॉप चलाने के जितने पैसे ले जाती है, उसके मुकाबले दुकान का किराया काफी ज्यादा था।जिंदगी और कमाई में कुछ भी नया नहीं जुड़ा।न ही घटा।कुल बचत अब भी इतनी ही होती है, जितनी तब होती थी।तिराहे के सामने खड़े बिजली के खंभे पर टंगा ‘जयभारत वर्कशॉप’ का बोर्ड दूर से ही लोगों का ध्यान खींचता है।अपेक्षाकृत कम पैसे में अपने वाहन की मरम्मत कराने वाले अनेक ड्राइवर और मालिक इस ओपन वर्कशॉप के पक्के ग्राहक बन गए हैं।

मां लपककर उसकी ओर आई, ‘कैसी रही परीक्षा?’

उत्तर पिता जी ने दिया, ‘इसका चेहरा ही बता रहा है कि परीक्षा बहुत अच्छी गई है।इसे भूख लगी होगी।इसका खाना लगाओ।’

मां के चरणों की ओर झुकते हुए उसने कहा, ‘पेपर तो बहुत अच्छे हो गए मम्मी।मेरिट के आधार पर चुनाव होगा तो मेरा नंबर जरूर आ जाएगा।कई सालों बाद इतनी वेकेंसीज निकली हैं।तुम्हारी कृपा और तुम्हारी पोती के सौभाग्य से इस बार नौकरी मिल जानी चाहिए।मां और पिता के चेहरे खिल उठे।सरकारी नौकरी होगी तो नियमित रूप से हर महीने पगार मिलेगी।हमारे कस्बे में स्कूली विद्यार्थियों के लिए इतने सारे कोचिंग सेंटर खुलने से बेटे को प्राइवेट ट्यूशन का काम कभी मिलता है, कभी नहीं।सरकारी नौकरी मिलने पर इस कच्चे-पक्के काम से पीछा छूट जाएगा।राम जी भली करें!

 नन्ही बिटिया को दूध पिलाकर सुलाने के बाद पत्नी उसकी प्रतीक्षा में जाग रही थी।वह किचन में जाकर खाना गरम करने लगी।मां ने शिकायत के लहजे में कहा, ‘तू क्यों उठ गई बहू? खाना तो मैं गरम कर देती।ध्यान रख कि मुन्नी जग न जाए।’

पत्नी का स्वर महीन और मंद था, ‘मैं कर रही हूँ माता जी! आप आराम करें।मैंने भी खाना नहीं खाया है।’

पत्नी की आवाज सुनकर उसकी बुझी हुई भूख फिर से भड़क उठी थी।वाशरूम जाने, कपड़े बदलने, और हाथमुंह धोने के बाद उसने बेडरूम में जाकर अपनी सोई हुई बच्ची को हौले से चूमा।वह पलभर के लिए कुनमुनाई।कंधे पर नाजुकसी थपकियां दिए जाने के बाद पुनः शांत हो गई।बेडरूम में लगी कुरसी पर बैठकर उसने स्टूल को अपनी ओर खींच लिया।उसकी थाली लगाकर पत्नी अपनी थाली वहीं ले आई।

सुबह देर तक सोया रहा।रात को सपने के दबाव से नींद चटख गई थी।समय देखने के लिए मोबाइल उठाया था।उसकी बैट्री खलास थी।लाइट जलाकर दीवार-घड़ी देखी।तीन बजे थे।वही सपना आया था।परीक्षा-केंद्र में देर से पहुंचने का सपना।मुश्किल से प्रवेश मिला तो पेपर पर स्याही बिखर गई।थोड़े-बहुत दृश्य-परिवर्तन के साथ यह सपना पिछले आठ-दस वर्षों के दौरान बीसियों बार आ चुका होगा।सपने में कभी ऑब्जेक्टिव टाइप, कभी सब्जेक्टिव टाइप और कभी इन दोनों के मिश्रित रूप वाला पेपर दिखाई देता है।कभी देर होने के कारण परीक्षा-केंद्र में प्रवेश नहीं मिलता तो कभी आंसर शीट पर स्याही बिखर जाती है।कभी शार्पनर से छीलते-छीलते पेंसिल की नोक टूटती जाती है और कभी फाउंटेन पेन की इंक ख़त्म हो जाती है।कभी दिमाग में झाड़ू लग जाता है और अच्छी तरह याद किए हुए पॉइंट्स भी डर और उलझन की खोह में रेंग जाते हैं।कभी हड़बड़ी में गलत आंसर ‘टिक’ हो जाते हैं तो कभी लिखना शुरू करते ही ‘स्टॉप राइटिंग, टाइम इज ओवर’  की घोषणा हो जाती है।

जाग आई तो ज़रा-सा सुकून मिला।पर उसका दिमाग देर तक अपनी उम्र के पिछले एक दशक के दायरे में किसी हड़काए कुत्ते की तरह अपने ही आगे-पीछे भागता रहा… पता नहीं मैंने भी कैसी किस्मत पाई है।दो बार आइ.ए.एस. की प्रारंभिक और एक बार मुख्य परीक्षा पास की थी।पर उससे आगे का रास्ता बंद मिला।पी.सी.एस. (राज्य सिविल सेवा) परीक्षा को अपेक्षाकृत आसान मानकर उसे अपना लक्ष्य बनाया।उसका पेपर ‘लीक’ होने के कारण परीक्षा को रद्द कर दिया गया।तब बड़ा झटका लगा था।पेपर ‘लीक’ होने से जिंदगी ही जैसे अपनी स्वाभाविक लीक से भटककर अलीक हो गई हो।आत्महत्या करने का खयाल भी आया था।ऊंचा अधिकारी बनकर देश-सेवा करने की चुनौतीपूर्ण महत्वाकांक्षा धीरे-धीरे पटरी से उतरने लगी थी।

बढ़ती उम्र साल-दर-साल बेरोजगारी से फूटते मानसिक दबाव को बढ़ाती जा रही थी।सिर्फ नौकरी के मामले में ही नहीं, शादी के संदर्भ में भी ‘ओवरएज’ होने का भय सताने लगा था।सरकारें अपने खर्चे कम करने के नाम पर स्थायी नियुक्तियों पर अंकुश लगाने लगीं तथा नौकरियों को ठेकेदारी का चोला पहनाया जाने लगा था।भारत को ‘डिज़िटल इंडिया’ बनाने की जोशीली योजनाओं के तहत लोगों की जगह पर कंप्यूटरों और नोटों को हटाकर प्लास्टिक मनी और तरह-तरह के ‘एप’ को स्थापित किया जाने लगा।मैंने हर तरह की नौकरी और हर स्तर की प्रतियोगिता के फर्म भरे।पिछली बार स्कूल मास्टर की नौकरी के लिए जो परीक्षा दी थी, उसको लेकर मैं बहुत ‘कंफ़िडेंट’ था।दुर्भाग्य से उस बार भी पेपर लीक हो गया था और उस परीक्षा को रद्द कर दिया गया था।कोरोना का दौर आया तो सब कुछ वैसे ही ठप्प पड़ गया था।जिंदगी की तालेबंदी हो गई थी।सब कुछ स्थगित हो गया था।

बेरोजगारी को ठेलने और मानवीय संसाधनों के उपयोग-दुरुपयोग की नई-नई युक्तियां सामने आती रही हैं।युवाओं को कहीं ठेके पर लिया-दिया जा रहा है तो कहीं उन्हें अग्निवीर नाम देकर अग्निपथ पर धकेला जा रहा है।हमसे यह भी कहा जा रहा है कि अपना ‘स्टार्ट अप’ शुरू करो।गरीब परिवारों के पढ़े-लिखे लड़के कैसे अपना ‘स्टार्ट अप’ शुरू करें? उन बेचारों को तो कोई पर्याप्त लोन देना भी पसंद नहीं करेगा।मैं अपने पिता जी की वर्कशॉप के लिए दुकान खरीदने की बाबत बैंकों के चक्कर काटकर देख चुका हूँ।चुनावी घोषणापत्रों और सरकारी योजनाओं की हकीकत मालूम हो चुकी है।अब दिल बहलाने को बहुत कम चीजें बची हैं।एकाध नौकरी के लिए मैं शायद पहले ही ‘ओवरएज’ हो चुका हूंगा।देश में मुझ जैसे बेरोजगारों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है।प्रतियोगिताएं कठिनतर होती जा रही हैं।आगे क्या होगा, पता नहीं…

बदहाली और दुःस्वप्न की किरिच देर तक उसके अवचेतन में चुभती रही थीं।चिंता की भभकती आंच से तड़ककर बिखरी हुई नींद काफी उधेड़बुन के बाद जुड़ पाई थी।सुबह बाथरूम से निकलकर जब वाशबेसिन पर झुककर टूथब्रश कर रहा था, पिता जी ने टीवी ऑन कर लिया।उसने गर्दन घुमाकर देखा।स्क्रीन पर ट्रेनों और बसों के दरवाजों पर चिपके-लटके परीक्षार्थियों का दृश्य दिखाई दिया।फिर विज्ञापनों की भीड़ के बीच अचानक पिता जी ने टीवी का गला दबा दिया।उनके मुंह से कराह-सी निकली, ‘हे भगवान!’

तौलिये से हाथ पोंछता हुआ वह पिता जी की ओर लपका, ‘पापा, क्या हुआ?’ उसकी बात का जवाब देने के बजाय उन्होंने टीवी की ओर संकेत करके उसका वोल्यूम फिर से बढ़ाया और अपना दाएं-बाएं हिलता हुआ माथा पकड़कर सोफे पर ढीले पड़ गए।

यह तीसरी बार था।जैसे किसी दुःस्वप्न की पुनरावृत्ति हो रही हो।दिल तोड़ने वाली ब्रेकिंग न्यूज का आगाज हुआ, मानो शत्रु-सेना का टैंक पूरी बेरहमी से दिल-दिमाग को रौंदता आ रहा हो।टीवी से फूटती एक जोशीली आवाज पूरे घर को अपने कब्जे में लेती चली गई।वाक्यों के बीच-बीच में भोंड़े संगीत की धमाधम बजबजा रही थी -कल की परीक्षा के दोनों प्रश्नपत्र लीक होने की खबर को सबसे पहले हमने प्रसारित किया।हमारे चैनल के पास थी विश्वसनीय सूचना।… पुलिस को भी मिले ठोस प्रमाण।इस मामले में दो कंप्यूटर इंजीनियरों तथा एक कोचिंग सेंटर के मालिक समेत पांच लोगों को किया गया गिरफ्तार।देश भर से अनेक गिरफ्तारियां होने की संभावना।मास्टरमाइंड का भी पता लगाने में जुटी पुलिस।सरकार कर सकती है कल हुई परीक्षा को रद्द करने की घोषणा।पेपर ‘लीक’ होने से हजारों-लाखों युवाओं की जिंदगी होने जा रही अलीक।अब लेते हैं एक छोटा-सा ब्रेक….

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