युवा लेखक। संप्रति छात्र। यह पहली कहानी।
बंदर को कहा जा रहा है कि बिना उछले-कूदे एक दिन बैठा रहे तो आने वाले दिनों में उसे उछलने-कूदने के लिए पूरी आजादी प्रदान की जाएगी। अन्यथा वह पूरी जिंदगी ऐसे पिंजरे में बंद कर दिया जाएगा जहां वह सिर्फ चल फिर सकता है, उछल-कूद करने की जगह वहां नहीं मिलेगी। मजबूर बंदर ने भारी मन से प्रस्ताव तो स्वीकार कर लिया (न स्वीकार करने का उसके पास विकल्प नहीं था), मगर उसका वह एक दिन जैसे निकला वह अपने आपमें बड़ी रोचक कथा है।
पहले 6 घंटे
एक कमरा। उसमें एक बंदर, जिसके चेहरे की आकृति इस क्षण काफी शांत है, अपने आपको संभाले हुए है। मन में दोहराए जा रहा है कि यह एक दिन का बलिदान ही आगे चलकर उसकी आजाद जिंदगी की नींव बनेगा। यह एक दिन इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाएगा। यह एक दिन तय करेगा उसके आने वाले जीवन की गति क्या होगी। बड़ा महत्वपूर्ण और आदरणीय है यह दिन। वह कृतज्ञता और समर्पण के भावों में आंखें बंद कर लेता है और नतमस्तक हो जाता है इस विराट दिन के प्रति।
जब व्यक्ति की अपनी जेब धन से भर जाती है, फिर उसका ध्यान दुनिया की गरीबी की ओर जाता है। अन्यथा उसके पहले सारा श्रम रुपये कमाने का रहता है न कि उन्हें बांटने का। ठीक इसी प्रकार इस बंदर ने अब अपने साथी बंदरों के बारे में सोचा। उसका मन उनके प्रति दया से भर उठा, और अपने आपको वह उनसे कुछ अधिक उच्च समझने लगा। क्यों? क्योंकि आजादी कितनी अनमोल होती है, उसके लिए क्या कीमत चुकानी पड़ती है, यह बात सिर्फ वह समझ पाएगा। इसी वजह से उसे यह विश्वास था कि वह आजादी का सर्वोत्तम उपयोग कर सकेगा, जो दूसरों के लिए असंभव होगा। हां, इस आजादी की कीमत समझने के लिए उसे यह करना होगा। वह पीछे नहीं हटेगा।
अगले 6 घंटे
वह पीछे नहीं हटेगा… यह ध्वनि अब भी कमरे में गूंज रही है, लेकिन अब शब्दों में दृढ़ता का अभाव है, वाक्य की आत्मा निकल चुकी है। अब केवल एक शव है, जिसकी पुनरावृत्ति हो रही है। उछल-कूद, चंचलता, उमंग, ऊर्जा यह सब उसका स्वभाव है, उसकी आत्मा है। लेकिन अब यही सब न करने के लिए वह बाध्य है। इस बंधन की डोर पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा है, अगर तू एक आज़ाद कल देखना चाहता है तो आज बंधना होगा, बंधना होगा तुझे! अब शांति उसके चेहरे से लुप्त हो चुकी है। अशांत और आक्रांत भाव ने उसके चेहरे पर जगह बना ली है। अब उसे यह एक दिन का बंधन अस्वीकार्य जान पड़ता है। अन्याय लगता है यह उसे। बंधन… बंधन। कितना कटु है यह बंधन। मानव का सबसे बड़ा अभिशाप! मानसपटल पर सबसे गहरा आघात।
उसका एक मन कहता है, क्यों तू इतना बेचैन, अशांत और आक्रांत होता है, इसे एक कड़वी दवाई समझकर ग्रहण कर। आगे चलकर यह कड़वाहट ही तेरी मुक्ति का, तेरी स्वतंत्रता का द्वार बनेगी। तभी दूसरी आवाज आती है, कैसे ग्रहण करूं यह कड़वी दवाई। तुम मुझे कल की मुक्ति का हवाला देकर इसे पिलाए जाते हो, पर मुझे इसकी कड़वाहट आज ही मारे डाल रही है। उस मुक्ति को, उस आजादी को जीने की आशा में ही मैं क्षण-क्षण मर रहा हूँ। मैं आजादी चाहता हूँ इसी क्षण से, आजादी इस बंधन से। आजादी की उस आशा से जो कल मिलेगी। मैं इस क्षण आज़ाद जीना चाहता हूँ। उछलना चाहता हूँ… कूदना चाहता हूँ… चाहता हूँ… मैं यह सब चाहता हूँ।
पर परीक्षा अभी चलती है। बाती को अभी और जलना होगा, तेल के चुकने तक। फिर विश्राम मिलेगा। अभी जलना होगा… अभी और जलना होगा।
अगले 6 घंटे
अभी और जलना होगा, इसके अलावा कोई विकल्प नहीं… जानता है वह। वह दोहराता भी है इसे, पर इससे उसे शांति नहीं मिलती, वह और अशांत हो उठता है। कैसी परिस्थिति है यह, वह इससे भाग क्यों नहीं सकता। एक क्षण में उसे आराम मिल जाएगा। पर नहीं, अगर अभी वह भागा तो पूरी जिंदगी वह उस संपूर्ण आजादी को जी नहीं पाएगा। वह एक दूसरा बंधन होगा जो इससे थोड़ा ढीला या नाजुक होगा। नहीं, उसने निर्णय कर लिया है, वह इसे सहेगा, उसे सहना ही होगा। एक ही दिन की तो पीड़ा है… पर कैसे कटे यह एक दिन, जो वर्षों से भी बड़ा प्रतीत होता है। यह उदासी या अवसाद के एक गहरे गड्ढे में हर क्षण उसे खींच रहा है। ऐसे में अगर उसे कल आजादी मिल भी गई तो क्या वह उसका मुस्कराकर स्वागत भी कर सकेगा? क्या वह तब वह रह सकेगा, जो वह था। एक दिन का बंधन उसे पूरी तरह से तोड़ देगा। कल जब वह आज़ाद घूम रहा होगा, तो उसके चेहरे पर ख़ुशी के भाव लुप्त होंगे। अमावस की अंधेरी रात, उसकी काली स्मृतियां इतनी गहरी होंगी कि फिर कोई पूनम की रात उसे नहीं मिटा सकेगी। क्या होगा… क्या होगा… वह सोचता है, बहुत सोचता है, पर कोई उत्तर नहीं मिलता।
आखिरी 6 घंटे
जब कहीं कोई उत्तर न मिले, तो प्रतीक्षा का दामन ही थामना पड़ता है। उसने भी वही किया। इस बंधन से वह भाग भी नहीं सकता था, क्योंकि उसके भावी जीवन की आजादी का प्रश्न था। और इस बंधन में वह रह भी नहीं रह सकता था, क्योंकि यह दीमक की तरह उसे खोखला कर रहा था। प्रतीक्षा… इस दिन के ढल जाने की, प्रतीक्षा कल के सूर्योदय की, प्रतीक्षा न्याय की, प्रतीक्षा उत्तर की कि क्यों- उसी के जीवन में यह दिन आया! नियति ने किस कठोर हृदय से उसके जीवन का यह पन्ना लिख डाला। क्यों एक बार भी उसके हाथ नहीं कांपे? इनके उत्तर भविष्य के गर्भ में छुपे हुए हैं। भविष्य, जिसे वह आज चाहकर भी नहीं देख सकता, लेकिन उसका आज मारा जा रहा है। वह पीड़ा सहता है। वह नहीं जानता क्या होगा कल, वह नहीं जानता, अगले क्षण क्या हो जाएगा। कल की आजादी के लिए वह जीवित रहेगा भी या नहीं, वह नहीं जानता। फिर भी आजादी में जीने की आशा में ही वह जीता है, यही उसका एकमात्र प्रोत्साहन है, उसके आज में ऐसा कुछ नहीं जिसके लिए वह अपनी सांसें खर्च करे, एक आजाद कल की आशा में ही वह जीता है, रोता है, और मरता है। अपनी साधना की अग्नि को वह अपने आंसुओं की आहुति से प्रज्वलित रखता है। और दोहराता है, कल होगा, कल जरूर होगा और कल सब ठीक होगा…!
राह चलते लोगों ने बताया कि कल उन्होंने उस बंदर को मृत पाया। उसका अंतिम संस्कार गांव के कुछ लोगों द्वारा कर दिया गया।
संपर्क :30, नवजीवन सोसायटी, हिरण मगरी, सेक्टर-4, उदयपुर-313002 राजस्थान मो. 9521356121