कहानीकार |
अनुवादक |
सन 2000 में वडोदरा जाने के बाद पानमुनी झी आंटी ने अकसर रेस्तराओं में खाना शुरू कर दिया।पहले जब वे भुवनेश्वर में अपने पति बिराम और अपने बेटों होपोन और रवि के साथ रहती थीं, संक्रमण और पेट खराब होने के डर से बाहर खाने से बचती थीं।उनका परिवार जब घाटशिला के बाहर के अपने गांव से भुवनेश्वर अपनी मारुति ओम्नी में हर जगह आता था, पानमुनि झी थकान की वजह से खाना नहीं बना पाती थीं।वे तब सड़क किनारे के होटलों से खाना पैक करा लेते थे।लेकिन पानमुनि झी इतना डरती थीं रेस्तरां के इस खाने से कि अपने मुंह में हाजमे की एक गोली रखकर पहले से ही सबको चेतावनी दे देती थीं।
बिराम कुमांग उनको समझाते कि तुम्हें हमेशा तुम्हारे हिसाब से पकाया गया भोजन नहीं मिलेगा।वे गावों को बिजली की आपूर्ति के लिए केंद्र सरकार के एक उपक्रम ग्रामीण विद्युत निगम के निदेशक थे।इस कंपनी में बीस साल से अधिक समय से काम कर रहे थे।काम के सिलसिले में उन्हें बराबर यात्राएं करनी पड़ती थीं।खाने के बारे में वे लापरवाह किस्म के थे।
पानमुनि झी बहुत तीखेपन से कहतीं- अगर भोजन मेरे हिसाब से नहीं तैयार किया गया होगा, तो मैं नहीं खाऊंगी।
बिराम कुमांग अपनी पत्नी से तर्क नहीं कर पाते थे।एक तो यह कि उन्हें फालतू तर्कों से चिढ़ थी।दूसरे, वे जानते थे कि पानमुनि झी भोजन पकाने को लेकर कितनी सावधानी बरतती थीं।रोजमर्रा के दाल-भात और रोटी-तरकारी के अलावा वे बहुत सी डिशेज बनाने में भरपूर प्रयोग करती थीं।कुकरी शो के साथ ही ‘वनिता’ और ‘मेरी सहेली’ पत्रिकाओं से आइडिया लेकर वे अंडे, दूध, सूजी और कुम्हड़ा को बनाने में भरपूर प्रयोग करती थीं।यहां तक कि टमाटर और आलू के छिलकों से भी।उन्होंने सिर्फ सूजी से इडली बनाई, अंडारहित प्रेशर कुकर में केक, खट्टे-तीखे स्वाद वाला टमाटर का अचार और चावल के आटे से बहुत सारे आइटम!
रवि अकसर मजाक में कहता, ‘मेरी मां को अगर गोबर भी दे दिया जाए तो वे उससे भी स्वादिष्ट पीठा बना देंगी।
पानमुनि झी को रेस्तरां में और सड़क किनारे बिकने वाले तमाम फैंसी आइटम, जैसे फुचका, मसाला डोसा, चाऊमीन, चिली चिकेन आदि बनाने में कमाल हासिल था।अगर उन्हें पता चलता कि उनके बेटों ने कहीं बाहर चिली चिकेन खाया है तो वे घर पर बनाकर पूछती थीं- कौन-सा ज्यादा बढ़िया था।
यह ताज्जुब की बात थी कि जब 1999 के अंत में बिराम कुमांग को अपने वडोदरा स्थानांतरण का पता चला तो पानमुनि झी की सबसे बड़ी चिंताओं में एक थी भोजन की चिंता।
‘हम वहां क्या खाएंगे?’ उन्होंने यह चिंता ऊंचे स्वर में जोर देकर व्यक्त की, ‘गुजरात के लोग तो जिल-हाकू नहीं खाते न, कि खाते हैं वे लोग भी?’
घाटशिला के परिजन और मित्र भी इसे लेकर चिंतित थे। ‘कहां रहोगे? क्या खाओगे? इतनी दूर सबकुछ कैसे संभालोगे?’
ऐसे सवालों से बिराम कुमांग और पानमुनि झी और परेशान होते थे।बिराम कुमांग ने इस उम्र में ट्रांसफर किए जाने की उम्मीद नहीं की थी।सेवानिवृत्त होने में मात्र दस साल बचे थे।इस घटना से उनके जीवन में उथल-पुथल मच जाएगी।असल में उन्हें देश के एक छोर से दूसरे छोर पर जाना पड़ेगा।
पानमुनि झी, जो हमेशा बहुत प्रैटिकल थीं, ने गुजरात के अपने परिचितों को फोन करना शुरू किया।हमारे रिश्ते की एक बहन झापन दी वडोदरा में ही रहती थीं।उनके पति सेंट्रल इंडस्ट्रियल सियोरिटी फोर्स में काम करते थे।
‘हेलो झापन।हां, मैं।तुम्हारे कुमांग का गुजरात में ट्रांसफर हो गया है।’
‘ओह, क्या तुम वडोदरा आ रही हो झी?’
‘हां।कैसी जगह है यह?’
‘जगह अच्छी है झी।साफ-सुथरी और सुव्यवस्थित।यहां रहने पर तुम्हें यह जगह अच्छी लगेगी।’
‘लगना ही पड़ेगा झापन।मुझे ज्यादा चिंता इस बात की सता रही है कि कहां रहेंगे, क्या खाएंगे।समझ रही हो झापन?’
‘मैं समझती हूँ झी।यह एक समस्या हो सकती है।’
‘समस्या?’
‘हां झी।तुम जानती हो कि यहां के लोगों का खानपान अलग है।तुम्हें कुछ चीजों को खाना बंद करना पड़ सकता है, जो हमारे लिए जिंदगी का हिस्सा रही हैं।’
‘जैसे क्या झापन?’
‘अ..अ.. जैसे यहां लोग मांस नहीं खाते।न मछली, न चिकेन, न मटन।अंडे भी नहीं।’
‘ओह!’
‘परेशान न हो झी।यहां ऐसे लोग भी हैं जो मीट खाते हैं।कुछ जगहों पर लोग यहां मांस और अंडे बेचते हैं।पर ये चीजें यहां आसानी से नहीं मिलतीं।यहां के लोग मीट और अंडे खाने वालों से घुलते-मिलते नहीं।ऐसा ही है।’
‘ओह तो फिर क्या करें झापन?’
‘चिंता न करो झी।जब तुम्हारा मन चिकेन या अंडे खाने का हो तो मेरे यहां चली आना।सीआईएसएफ कैंपस में हर चीज आसानी से उपलब्ध है।इसको लेकर कोई समस्या नहीं है।’
…
2000 के अंत तक सोरेन परिवार वडोदरा में था।जबकि रवि कटक मेडिकल कालेज में था।होपोन नौवीं कक्षा में था, वह अपने माता-पिता के साथ आ गया और ओएनजीसी केंद्रीय विद्यालय में उसका दाखिला करा दिया गया।
शुभनपुरा कालोनी में ग्राउंड फ्लोर के उनके घर से यह एक घंटा ड्राइव पर था।उनका घर अच्छे खासे आकार वाला दोमंजिला मकान था।इसके मकान मालिक राव थे, एक वयोवृद्ध युगल।हाल के साथ ही भोजन कक्ष था।दो शयन कक्ष, दो शौचालय सह स्नानागार तथा एक रसोई।सामने की तरफ एक बरामदा और पीछे की ओर भी एक छोटा-सा बरामदा था।साइड में एक सीढ़ी थी जो फर्स्ट फ्लोर और टेरेस पर जाने के लिए थी।उसमें एक ही गैरेज था, जिसमें राव परिवार की पुरानी मारुति 800 रहती थी।लेकिन सामने फाटक की बगल में ही एक शेड बनाया गया था जिसमें एक और गाड़ी रखी जा सकती थी।अंदर प्रवेश का मार्ग कामन था, मुख्य द्वार से होकर।
राव आंध्रप्रदेश के तेलुगु युगल थे।मिस्टर राव बिराम कुमांग की ही भांति केंद्र सरकार की एक यूनिट में मुलाजिम हुआ करते थे।वडोदरा से पहले उनकी नियुक्ति अखिल भारतीय स्तर पर होती रही थी।यहां सेवानिवृत्त होने के पहले शुभनपुरा कालोनी में उन्होंने दो मंजिला मकान बनवा लिया था।राव दंपति के दो पुत्र थे।बड़ा जर्मनी में ही रहता और काम करता था और छोटा किसी अन्य राज्य में इंजीनियरिंग का छात्र था।
बिराम कुमांग मि. राव के साथ अपनी पहली मुलाकात कभी नहीं भूल पाएंगे।चाय-बिस्किट के साथ संक्षिप्त बातचीत के बाद मि. राव ने कहा था, ‘मि. सोरेन, मैं उम्मीद करता हूँ कि आप मेरे सवालों का बुरा नहीं मानेंगे। क्या आप मुझे अपने बारे में थोड़ा और विस्तार से बताएंगे? आप कहां के रहने वाले हैं?’
‘हां, जरूर।जैसा कि मैंने पहले ही बताया था, हम झारखंड के रहनेवाले हैं।’ बिराम कुमांग ने कहा।
बिराम कुमांग को थोड़ा आश्चर्य में डालते हुए संकोच से राव ने कहना शुरू किया, ‘आप जानते हैं, मैं झारखंड गया हूँ, साथ ही रांची और पलामू भी।यह काफी पहले की बात है।तब यह सब बिहार में था।झारखंड एक अलग राज्य तो कुछ दिन पहले बना है।’
‘जी हां नवंबर में।’ बिराम कुमांग बोले।
‘अ…अ…मि. सोरेन, मैं समझता हूँ कि आप मेरे इस प्रकार पूछने का बुरा नहीं मानेंगे… या आपको यह बुरा लग रहा है?’
‘नहीं, नहीं।बिलकुल नहीं।’ बिराम कुमांग थोड़ा परेशान होकर बोले। ‘आप पूछिए।’
‘अ…सोरेन आदिवासी कुलनाम है न।देखिए मैं सिर्फ जानना चाहता हूँ।जानकारी के लिहाज से।’
बिराम कुमांग हतप्रभ रह गए इस सीधे सवाल पर, विशेष कर इतने सभ्य-सुसंस्कृत दिख रहे राव साहब से।लेकिन वह शांत बने रहे।
‘हां, राव साहब हम आदिवासी हैं, संथाल।’
‘प्लीज़ मि. सोरेन बुरा न मानें।मेरे मन में आदिवासियों के खिलाफ ऐसा कुछ भी नहीं है।पूरे देश में अपनी विभिन्न नियुक्तियों के दौरान मैंने आदिवासियों के साथ काम किया है।यहां तक कि मैं रांची में रहा भी हूँ।मैं सभी समुदायों का सम्मान करता हूँ।और इस शहर में आप देख रहे हैं कि हम भी बाहरी व्यक्ति ही हैं।’
‘जी हां, मैं समझ रहा हूँ।’ बिराम कुमांग बोले, जो इस दुविधा में थे कि आखिर राव साहब कहना या चाहते हैं।
‘मि. सोरेन आप समझ रहे हैं न कि मैंने आपसे यह इसलिए पूछा योंकि यहां का हर कोई वही सोच नहीं भी रख सकता जो मेरी है।’
बिराम कुमांग बहुत ध्यान से सुन रहे थे।
‘वडोदरा एक पका हिंदू शहर है।’ राव साहब ने कहना जारी रखा, यहां के लोग शुद्धतावादी हैं।मैं ठीक-ठीक नहीं जानता कि यह शुद्धता है क्या, लेकिन मैं यह जानता हूँ कि यहां पर लोग शुद्ध शाकाहारी हैं।वे मांसाहारी भोजन नहीं करते।आप जानते हैं? मांस, मछली, चिकेन, अंडे।और न वे मांसाहारी लोगों को पसंद करते हैं।’
‘जी सर’, बिराम कुमांग ने सहमति में सिर हिलाया।
‘आदिवासियों को, यहां तक कि निचली हिंदू जातियों को भी अशुद्ध माना जाता है।मुझे आशा है कि आप यह समझ रहे हैं।’ यह कहते हुए राव साहब के चेहरे पर लज्जित होने का भाव साफ दिखाई दे रहा था।
‘जी हां, मुझे इसका थोड़ा-थोड़ा अंदाजा है।’ बिराम कुमांग ने कहा।
‘मुसलमान और ईसाई लोगों के लिए यहां कोई गुंजाइश नहीं है।उनकी अपनी अलग जगहें हैं, जहां वे रहते हैं।एक नगर के अंदर कई नगर हैं।मुसलमानों के लिए अलग, ईसाइयों के लिए अलग बेस्टिस…।’
बिराम कुमांग सिर हिलाते रहे।
‘मि. सोरेन आप एक अच्छे इनसान हैं, पारिवारिक व्यक्ति हैं।हमें आप पर भरोसा है।लेकिन क्या मैं आपसे एक बात का अनुरोध कर सकता हूँ?’
बिराम कुमांग उलझन में थे, वे बोले, ‘वह क्या, सर?’
‘ऐसा है मि. सोरेन… लोग आपके बारे में जानना चाहेंगे।उन्हें हमेशा उत्सुकता रहती है।अगर वे आपसे यह पूछें कि आप कहां के रहने वाले हैं, तो आप कृपया उन्हें इतना ही बताएं कि आप झारखंड से हैं।बस इतना ही और कुछ भी नहीं।इससे भी अच्छा यह रहेगा कि आप उनसे कहें कि आप भुवनेश्वर से स्थानांतरण पर यहां आए हैं।एक जाने-पहचाने शहर का नाम लेने से शंका के बादल यूं ही छंट जाएंगे।आप मेरी बात समझ रहे हैं न।’
‘जी हां, जी हां, मैं समझ रहा हूँ।’ बिराम कुमांग ने थोड़ी राहत की सांस ली।उन्हें पहले ही बता दिया गया था कि यह सब हो सकता है।
‘जहां तक मेरी बात है, कोई मुझसे पूछेगा तो मैं उनसे कह दूंगा कि मैं आपको अपने सहकर्मियों और मित्रों के माध्यम से जानता हूँ और आप भरोसेमंद व्यक्ति हैं।मैं कहूंगा कि आप एक सज्जन पुरुष हैं।’
बिराम कुमांग के होठों पर एक फीकी मुस्कान तैर गई, ‘आपकी मेहरबानी होगी।’
मि.राव ने राहत की सांस ली। ‘धन्यवाद मि. सोरेन।आप जानते हैं, हम भी मटन-चिकेन-अंडे खाया करते थे।अंडा तो हम करीब-करीब रोज ही सुबह नाश्ते में लिया करते थे।मेरे बेटे सामिष भोजन करते हैं।लेकिन जब यहां रहते हैं तब नहीं।जब हमने यहाँ रहने का फैसला लिया, इस शहर की साफ सफाई की वजह से, तो हमें इसकी एक छोटी-सी कीमत भी चुकानी पड़ी।आप समझ रहे हैं न।’
‘जी हां, मैं समझ रहा हूँ।’ बिराम कुमांग इतना ही बोल सके।
‘फिर भी हमें पका नहीं पता कि कौन किससे खार खाए बैठा है।सारी शालीनता की भीतरी सतह पर कौन से तनाव हैं।मुझे नहीं मालूम कि इस कालोनी में जहां हम दस से भी ज्यादा सालों से रह रहे हैं कितने लोग ऐसे हैं जो हमारे गुजरात के न होने के कारण हमसे नफरत करते हैं।कोई नहीं बता सकता।उस घर में रहने वाले मुहम्मद परिवार की उपस्थिति को इस कालोनी का हर व्यक्ति पसंद नहीं करता।’
मि. राव ने संकरी गली के ठीक उस पार वाले मकान की ओर इशारा करते हुए कहा। ‘तो आप देख रहे हैं कि यहां हर समय सावधान रहने की जरूरत है।’
‘सही कह रहे हैं।’ बिराम कुमांग ने सहमति में सिर हिलाया।
‘अ… मि. सोरेन’, राव साहब ने फिर हिचकिचाते हुए कहा। ‘सावधानी की दृष्टि से एक और अनुरोध क्या मैं आपसे कर सकता हूँ?’
बिराम कुमांग ने एक दो पल के लिए सोचा कि अब कौन-सी बात हो सकती है।फिर कहा, ‘जी, वह क्या है?’
क्या आप मुझसे यह वादा कर सकते हैं कि आप मेरी रसोई में सामिष भोजन नहीं पकाएंगे? कोई भी मीट, मटन, चिकेन, अंडा, मछली कुछ भी नहीं।’
बिराम कुमांग ने नीचे आकर पानमुनि झी को पूरी बातचीत का एक-एक बिंदु बताया।वे सिर पकड़कर बैठ गईं।और लंबे समय तक उसी जगह पर वैसे ही बैठी रह गईं।
…
‘झापन, कहां आकर फंस गए हम?’ पानमुनि झी अपनी भतीजी से मिलने गईं तो उनका दर्द बह निकला।
झापन दी बोली, ‘परेशान न हो झी।धीरे-धीरे तुम्हें इस जगह की आदत पड़ जाएगी।’
पानमुनि झी ने गुस्से से बिफर कर पूछा, ‘मांसाहारी व्यतियों को लोग कैसे नापसंद कर सकते हैं? हमें हर रविवार को हाकू या सिम-जिल चाहिए और अंडा करीब-करीब हर दिन।’
‘क्या किया जा सकता है झी?’ झापन दी ने उदास होकर कहा। ‘जैमोन देस तैमोन भेस, यहां कैंपस मार्केट में जिस तरह हम मटन, चिकेन, अंडे, अलकोहल जैसी हर चीज खरीद सकते हैं, उस तरह बाहर नहीं कर सकते।फिलहाल बाहर कुछ भी नहीं मिलता, पूरे वडोदरा बाजार में।’
पानमुनि झी ने अविश्वास से सिर हिलाया।
‘चिंता न करो, झी’, झापन दी ने हँसते हुए पानमुनि झी के घुटनों को थपथपाया।जब भी तुम्हें जिल हाकू खाने का मन हो, हमारे यहां चली आना।तुम्हें फोन का कनेशन मिल गया?’
‘नहीं, अभी नहीं मिला।’ पानमुनि झी बोलीं। ‘अगले हफ्ते मिल जाएगा या फिर एक दो दिन और लग सकते हैं।’
‘ठीक है, झी।फोनलाइन मिलते ही मुझे फोन करिएगा।तब हम लंच या डिनर की तारीख तय कर लेंगे।अपना पारंपरिक संथाली भोजन डाका और सिम जिल।ठीक है?’
लैंड लाइन लगने के बाद सबसे पहले पानमुनि झी ने कटक में रवि के होस्टल में फोन किया, ‘बेटा, हमने दो हफ्तों से चिकेन नहीं खाया।अंडा तक नहीं।’
‘अच्छी बात है, बो।’ रवि हँसा।
‘अच्छी?’
‘हां, कम से कम तुम्हारा पेट तो नहीं खराब होगा।हर बार चिकेन खाने से तुम्हारा हाजमा बिगड़ जाता है।’
‘बेटा, जब मैं बनाती हूँ, तब नहीं।’
‘परेशान न हो बो, अपनी भोजन-शैली बदलो।तुम्हारी उम्र हो रही है।इस उम्र में अंडा, मांस नहीं खाना चाहिए।यह सब खाने से हार्ट समस्याएं, कोलेस्ट्रॉल, फैट और अपच हो जाता है।और गठिया भी।’
पानमुनि झी इससे और भी अधिक परेशान हो गईं।
अपने खानपान पर लगे इन प्रतिबंधों के बावजूद पानमुनि झी वडोदरा के प्रेम में पड़ ही गईं।बाजार, सड़कें हर चीज काफी साफ सफाई से व्यवस्थित थी।
…
यह पुराना शहर था पर इसमें बहुत ज्यादा खुली जगहें थीं और थी भरपूर हरियाली।यह उड़ीसा और झारखंड से बहुत भिन्न था।पसंद परिवर्तन ने इसपर मुहर लगा दी, जब शहर के एक रेस्तरां में वह खाने गईं।
‘चलो आज बाहर खाने चलें।’ बिराम कुमांग एक शाम बाजार में खरीदारी करते हुए बोले।
‘बाहर?’ पानमुनि झी सकते में थीं।
‘अरे! बाहर खाकर ही समझ सकोगी कि यहां के रेस्तरां कैसे हैं? यहां के होटल भुवनेश्वर के होटलों जैसे नहीं हैं।वे भिन्न हैं।वे ज्यादा साफ सुथरे हैं।’
उत्सुकतावश वे बिराम कुमांग के साथ एक भोजनालय में गईं।
यह एक साधारण सी जगह थी।लेकिन काफी बड़ी, हवादार और – पानमुनि झी ने खासतौर से गौर किया कि वहां खूब सफाई थी।ग्राहकों और स्टाफ के चलने के लिए मेजों के बीच काफी जगह थी।मेजों पर सफेद मेजपोश बिछे हुए थे, लेकिन वे इतनी अच्छी तरह साफ किए गए थे कि उनपर हल्दी या ग्लास या कोल्ड ड्रिंक की बोतलें रखने के दाग या निशान नजर नहीं आ रहे थे।न कहीं पानी जमा था, न कोने-अंतरों में धूल या जूतों के निशान या कीचड़ ऐसा कुछ भी नहीं नजर आया वहां।यह पानमुनि झी के अपने घर की ही तरह था।
बिराम कुमांग और पानमुनि झी ने अपने लिए एक-एक गुजराती थाली लाने को कहा।पानमुनि झी को इस सादगीपूर्ण भोजन का स्वाद अच्छा लगा।फिर भी जिस चीज ने सबसे ज्यादा उनका मन जीता, वह थी यहां की सफाई।
………
बिराम कुमांग का परिवार नियमित रूप से झापन दी के यहां जाता रहता था।पर बाद के दिनों में बिराम कुमांग के दफ्तर और होपोन के स्कूल की व्यस्तताएं बढ़ते जाने से और पानमुनि झी के भी वडोदरा को पसंद करना शुरू कर देने की वजह से वहां जाने की बारंबारता घट गई।फिर भी वे इस बात का ध्यान रखते थे कि महीने में कम से कम एक मुलाकात तो हो ही जाए।
इसी तरह झापन दी के घर के मेनू में भी परिवर्तन आया।झापन दी की हरचंद कोशिश होती थी कि अपनी आंटी के परिवार को झारखंड का भांति भांति का पारंपरिक भोजन कराएं।वह ढेर सारा चिकेन और मछली बना लेती थीं।इधर बिराम कुमांग परिवार ने सामिष भोजन खाना बंद किया और शाकाहारी भोजन का आनंद लेना शुरू किया, जिसे वे वडोदरा के रेस्तरांओं में खाते थे।वे झापन दी को परेशान न होने के लिए कहते।भात, दाल और एक तरकारी और नाम के लिए एक सामिष डिश।एक साधारण-सी अंडा करी भी पर्याप्त होती।
‘यह सच है कि यह शहर साफ-सुथरा है, झी।’ झापन दी पानमुनि झी से बोलीं। ‘यहां रहने का यह सबसे बड़ा आकर्षण है।यहां की हर चीज सुव्यवस्थित है।तुम अभी तक अहमदाबाद नहीं गई हो न झी?
‘नहीं, हालांकि मैंने सुना है इसके बारे में।अच्छी जगह है न?’
‘अच्छी? बहुत ही सुंदर।’ झापन दी की आंखें चमक उठीं।इतनी अच्छी सड़कें हैं कि उनपर ही लेट जाने का मन करे।बाजार और दुकानें…!’
‘हूँ… मैं तुम्हारे कुमांग से कहूंगी कि एक दिन वहां ले चलें।’
जरूर जाओ झी।जानती हो झी, पहले गुजरात के शहर भी काफी गंदे थे।सड़कों पर कचरा ही कचरा और घनी आबादी।प्लेग नाम की जो एक महामारी आई थी, वह याद है तुम्हें।यही कोई छह-सात साल पहले?
पानमुनि झी ने सिर हिलाया।उन्हें याद आ गया।उस साल एक दिन वे घाटशिला रेलवे स्टेशन पर थीं जब यह घोषणा की गई थी कि अहमदाबाद-हावड़ा एसप्रेस उस स्टेशन से गुजरने वाली है, और लोगों ने प्लेटफॉर्म से दूर हटना शुरू कर दिया था।जैसे ही अहमदाबाद-हावड़ा एसप्रेस पहुंची, जोरों से सीटी बजाते हुए, हर एक ने अपना चेहरा दूसरी तरफ घुमा लिया था और मुंह, नाक और चेहरा हथेलियों और रूमालों से ढक लिया था।
‘उस महामारी के बाद से ही यहां की सरकार ने यह सुनिश्चित किया कि शहरों और कस्बों में साफ-सफाई रखी जाए।’ झापन दी ने बताया।
‘झापन, मैं तुम्हें सच बताऊं’, पानमुनि झी अपने संथाली लंच के बाद अकसर कहतीं कि भुवनेश्वर में मैं हमेशा बाहर सड़क किनारे के रेस्तरां में खाने से बचती थी।जब कभी रवि और होपोन मेरे खाने के लिए बाहर से खरीद कर कुछ भी लेकर आते थे, मैं बीमार पड़ जाती थी।पेट दर्द और गैस से परेशान हो जाती थी।मैं इतना ज्यादा डरी हुई रहती थी कि मैं बाहर मुश्किल से ही कभी खाती थी।जब तुम्हारे कुमांग मुझसे बाहर खाना खाने के लिए चलने को कहते तो मैं उनसे अच्छी और साफ-सुथरी किसी महंगी जगह चलने के लिए कहती, जैसे – स्वस्ति या मेफेयर, नहीं तो मैं नहीं जाती थी।लेकिन झापन, यहां मुझे बाहर खाना अच्छा लगता है।’
‘मैंने कहा था न झी, कि आपको यह जगह पसंद आने लगेगी।’
लेकिन पुरानी आदतें जल्दी नहीं जाया करतीं।सोरेन परिवार ने काफी हद तक अपने को मछली, चिकेन, मटन से सफलतापूर्वक दूर कर लिया था।फिर भी वे कभी-कभी अंडे जैसी सामान्य चीज के लिए तड़प कर रह जाते।
शुभनपुरा कालोनी के पास के बाजार के एकदम दूसरे छोर पर बिहार से आए एक व्यक्ति की एक छोटी-सी दुकान थी।पूरे बाजार में यह अकेली दुकान थी जहां अंडे बिकते थे।उस दुकान पर हमेशा लोगों की भीड़ लगी रहती थी।बिराम कुमांग या होपोन वहां जाते, चारों ओर नजर दौड़ाते कि कोई परिचित निगाह उनकी जासूसी तो नहीं कर रही है।दो अंडे खरीदते।उन्हें अच्छी तरह ढकते।खरीदारी वाले अपने कपड़े के झोले में रखते और घर आ जाते।
अंडे की खरीद अगर कठिन थी, तो उसे पकाने का काम अपने आपमें पूरे का पूरा एक मिशन था।एक समय में एक और अंडा पकाने का मतलब था पकड़ा जाना।अगर होपोन ने एक दिन एक अंडा खा लिया तो दूसरा अंडा करीब एक हफ्ते बाद ही खा सकता था, जब पानमुनि झी को यह यकीन हो जाए कि उसने जो अंडा पकाया था उसकी गंध अब घर से, शुभनपुरा कालोनी से जा चुकी है।
अंडे के छिलकों को निपटाना भी एक समस्या थी।हर सुबह सोरेन परिवार कूड़ा कचरा, सब्जी के छिलकों, रैपरों, रद्दी कागज, चायपत्ती को डस्ट बिन में लगाए गए पालीथिन बैग में भरकर बांध देते थे।बिराम कुमांग या होपोन उसे कालोनी के बाहर रखे म्युनिसिपल कचरे के डिब्बे में फेंक दिया करते थे।कभी-कभी जब वे अंडे के छिलके कचरे में नहीं फेंक पाते थे, तब उसे किचेन गार्डन में गाड़ देते थे।
ऐसे समय पानमुनि झी को भुवनेश्वर का अपना आजादी से रहना याद आ जाता।और बंगाल की खाड़ी की ठंडी हवा जो सबको एक जैसा स्पर्श करती।पानमुनि झी को याद आया कि वे रवि और होपोन के लिए दो-दो अंडों का आमलेट बनाया करती थीं।उनके बनाए स्वादिष्ट कातला माछ की तारीफ शहर की सारी संथाली महिलाएं करतीं।हां, इसके साथ ही नियमित रूप से चिकेन और मटन की डिशेज थीं।अंडा, मछली, चिकेन और मटन बनाने की सुगंध उनकी रसोई से निकलती और पूरे एचआईजी हाउसिंग बोर्ड कालोनी में तैरती रहती।किसी की भौंहें टेढ़ी नहीं हुईं।उनके पति का कालर पकड़ कर पूछने के लिए कोई उनके घर नहीं आया कि सोरेन तुमसे मैंने कहा था न कि नानवेज मत पकाना।नहीं।बल्कि उनके पड़ोसी उनसे पूछते थे कि भौजो एई डिश तामो केमती तैयार करोछो?’ और वह खुशी-खुशी उन्हें बताती।
उड़ीसा में पानमुनि झी कुछ भी हो सकती थीं- एकं संथाल, एक ओड़िया, एक बंगाली।गुजरात में वे सिर्फ गुजराती ही हो सकती थीं।भुवनेश्वर में शहर के सारे संथाल एकसाथ मिलकर बाहा, सोहराई और सकरात मनाया करते थे।वे अपनी वार्षिक पिकनिक मनाने नंदन कानन, चिड़ियाघर जाते थे और सभी अतिथियों के लिए जिल-लेटो पकाते थे।
यहां तक कि वे ओडिशा के दूसरे स्थानों, जैसे कटक, पारादीप, राउरकेला, बारीपदा और कोरापुट में रहनेवाले दूसरे संथालों को भी आमंत्रित करते थे।यह जमावड़ा बहुत शानदार होता था।पानमुनि झी को झापन दी से पता चला कि यहां गुजरात में भी संथाल रहते हैं और यहां दफ्तरों में काम करते हैं।पानमुनि झी सोचने लगीं कि क्या यह गुजरात में संभव है कि सारे संथाल एकसाथ मिलकर पिकनिक पर जाएं और खुल्लमखुल्ला जिल-लेटो पकाएं।और जब उनके दिमाग में यह विचार आया था तब जिस समाज में वह रह रही थीं उसके अनुकूल बनने की मांग या दबाव के चलते वह अपने को अपने में ही सिमटता हुआ महसूस कर रही थीं।
फिर भी वडोदरा के प्रति उनका आकर्षण बना रहा।
2002 में होपोन की बोर्ड परीक्षाओं से पहले जब पानमुनि झी पिछली बार झारखंड गई थीं तब उन्होंने ऐप्लिक तथा कांच के काम वाला लहंगा चोली अपनी तीन साल की भतीजी के लिए खरीदा था।अपने घर के लिए वडोदरा के कारीगरों द्वारा तैयार काष्ठकला वाला सोफा भी खरीदा था।इस पर बहुत अच्छी नकाशी की गई थी।रंग-रोगन इतनी खूबसूरती से किया गया था कि उसकी चमक के क्या कहने।उनका पुराना सोफा घर के पिछले बरामदे में रख दिया गया था और नया गुजराती सोफा बैठक कक्ष में।पानमुनि झी भितिया वाल हैंगिंग और बीड के काम वाले तोरणों और गुलदानों से भी घर भर लिया था।
एक वर्ष से कम समय में सोरेन परिवार ने अपने को नए शहर में सुव्यवस्थित कर लिया था।दफ्तर और पड़ोस दोनों ही जगह उनके काफी मित्र हो गए थे।और अब जबकि यह सभी जानते थे कि सोरेन परिवार आदिवासी मूल का है, वे वहां के चलन के अनुसार मंदिर जाते थे, हिंदू त्योहार मनाते थे, उपवास वाले दिनों में उपवास भी रखते थे, धूप-बत्ती भी करते थे।और वे स्वीकृत थे।
जिस तरह से बिराम कुमांग और पानमुनि झी ने वडोदरा को अपना घर बनाया था उससे मि. राव काफी खुश थे।संध्या समय फाटक पर बिराम कुमांग और उनके बीच की बातचीत दिनोंदिन आत्मीय और निश्चिंतता भरी होती गई।इधर पानमुनि झी और मिसेज़ राव सखी बन गई थीं।
एक दिन सुबह के समय जब बिराम कुमांग दफ्तर जा चुके थे, अचानक आकर मिसेज राव ने पानमुनि झी को आश्चर्य में डाल दिया।उन्हें फ्लैट से बाहर निकलते शायद ही कभी देखा जाता हो।थोड़ी बहुत इधर-उधर की बातें करके अचानक वे बोलीं, ‘प्लीज मिसेज़ सोरेन क्या मैं आपकी रसोई में एक अंडा फ्राइ कर लूं? मि. राव मुझे नहीं करने देंगे।’ पानमुनि झी स्तब्ध रह गईं।एक पल को वे समझ ही नहीं सकीं कि क्या कहें।यह कितना अजीब सा था।उन्होंने अचानक यह कितनी सरलता से पूछ लिया।वे मुश्किल से एक-दूसरे को जानती थीं।कहीं यह उन्हें फंसाने का फंदा तो नहीं? कहीं मिसेज राव ने होपोन को अंडे के छिलके किचन गार्डन में गाड़ते हुए तो नहीं देख लिया? अब क्या होगा?
पानमुनि झी ने कहा, ‘मिसेज़ राव…’ और रुक गईं।लगा कि मिसेज़ राव समझ गईं और बोलीं,’ नहीं, नहीं प्लीज़ गलत न समझें मिसेज़ सोरेन।आपके पहले जो परिवार यहां रहता था, उसे मि. राव ने दूर भेज दिया…।मैंने महीनों से कोई नॉनवेज नहीं खाया है।वो मुझे नहीं खाने देंगे।’
उस सुबह पानमुनि ने स्पाइसी आंध्रा एग फ्राइ बनाना सीखा।अपने भोजन के बाद मिसेज राव बाथरूम में गईं।पानमुनि झी ने उनके गरारा करने की आवाज सुनी।उनके निकलते समय पानमुनि झी ने उन्हें मुखशुद्धि के रूप में एक इलायची दी।
अगले कुछ महीने पानमुनि झी और मिसेज़ राव अपने पसंदीदा सामिष व्यंजन बनाने के लिए समय-समय पर झापन दी के घर जाते रहे।कभी-कभी होपोन भी स्कूल के बाद उनके पास चला जाता अपना निर्णय देने के लिए कि किसकी डिश ज्यादा स्वादिष्ट है।
…..
२७ फरवरी२००२ की सुबह बिराम कुमांग और होपोन वडोदरा रेलवे स्टेशन पर थे।घाटशिला का रिजर्वेशन कराने के लिए।होपोन की परीक्षा समाप्त होने के बाद वे वहां जाने का कार्यक्रम बना रहे थे।करीब ग्यारह बज रहे होंगे।बिराम कुमांग टिकट ले चुके थे और बाहर निकलने के लिए आगे बढ़ रहे थे, जहां होपोन उनका इंतजार कर रहा था।अचानक हलचल मच गई।
कोई चिल्लाया कि ट्रेन में आग लगा दी गई है।बिराम कुमांग अभी होपोन तक नहीं पहुंचे थे।पलक झपकते ही रिजर्वेशन काउंटर पर भगदड़ मच गई।
ट्रेन जल गई? कहां?
यहां नहीं, तो कहां? हुआ क्या?
कौन मरा?
कब?
दंगा? कहाँ?
टिकटों की किसी को परवाह नहीं रही।फार्म, ट्रेन का टाइम टेबल सब भूल गए लोग।हर आदमी रिजर्वेशन काउंटर से दूर भागने लगा।
होपोन डरा हुआ अपने चारों ओर देखने लगा।उसने देखा, उसके पिता गेट की तरफ भागे चले आ रहे हैं।वह अपना हाथ उठाकर चिल्लाया, ‘बाबा!’
‘चलो’, बिराम कुमांग चीखकर बोले, घर चलो, जल्दी।’
होपोन को दुबारा बोलने की जरूरत नहीं पड़ी।वह भागकर रिजर्वेशन भवन की सीढ़ियों से उतरने लगा और पार्किंग वाली जगह की ओर दौड़ा।कार के नजदीक पहुंचकर उसने पलटकर देखा।उसके पीछे परेशान और घबराए हुए लोगों की भीड़ थी।लोग अपने बच्चों, बैग और सामान को पकड़े स्टेशन से दूर भागे चले जा रहे थे।दूसरी ओर शहर की तरफ दृश्य थोड़ा शांतिपूर्ण था।जो लोग अपने वाहनों से आए थे, वे उन्हें बाहर निकाल रहे थे।लोग सभ्यता से पेश आ रहे थे, एक-दूसरे को गाड़ियां निकालने की जगह दे रहे थे कि वे रिवर्स कर सकें।उनकी नजरों में जल्दबाजी थी।
बिराम कुमांग ओम्नी की तरफ दौड़े, चाबी लगाकर दरवाजा खोला, अंदर घुसे, होपोन की ओर का दरवाजा खोला, जल्दी अंदर आओ।’ वह बोले।
‘बाबा’, होपोन ने कहा, ‘तुम पहले गाड़ी रिवर्स कर लो मैं देखता हूँ।’
‘तुम पहले अंदर आओ।’ बिराम कुमांग ने सख्ती से कहा।
होपोन झपटकर अंदर बैठा और भड़ाक से दरवाजा बंद किया।बिराम कुमांग ने गाड़ी रिवर्स की।पिछली गाड़ी को हल्की सी खरोंच लगी।होपोन के दिल की धड़कन जैसे एक पल को रुक गई।उसने अपने पिता के चेहरे पर एक नजर डाली- पिता को उसने इतने तनाव में कभी नहीं देखा था।वे पार्किंग स्थल से निकलते हुए स्टेशन से बाहर निकलकर शहर के रास्ते पर आ गए।
अब घबराहट और भगदड़ ने अपना असर बाहर भी डालना शुरू कर दिया था।स्टेशन के पास वाली गलियों में शटर गिरा दिए गए थे। ‘कहीं दंगा हो गया है’, बिराम कुमांग ने होपोन से कहा।उनकी आंखें सड़क पर थीं और चेहरे पर तनाव फैला हुआ था।
‘क्या हो गया है?’ होपोन ने पूछा।
‘दंगा।रायट।हो सकता है लोग मारे भी गए हों, ठीक-ठीक कुछ भी नहीं पता।’
‘मारे गए? कहां?’
‘मुझे नहीं मालूम।’
होपोन ने इसके बाद न कुछ पूछा, न कहा।वह पिता के साथ जल्दी से जल्दी घर पहुंच जाना चाहता था।वह मां के बारे में सोच रहा था कि वह क्या कर रही होंगी।अगर कहीं दंगा हो रहा होगा तो उसकी खबर टीवी पर भी दी जाएगी।उसकी मां आमतौर पर सुबह-सुबह टीवी नहीं देखतीं।पर वह मना रहा था कि वह इस समय टीवी देख लें ताकि वे दंगे के बारे में जान जाएं और दरवाजे खिड़कियां सब बंद कर लें।वह पिता से टिकटों के बारे में भी पूछना चाहता था।वे लोग इतनी हड़बड़ी में भागे थे कि टिकट कहीं गिर न गए हों।तभी उसे पिता के शर्ट की जेब में टिकटों की झलक दिख गई।
शुभनपुरा कालोनी स्टेशन से दस किलोमीटर की दूरी पर थी।बिजी रहने वाली एच टी रोड की बगल में।घर जाते समय बिराम कुमांग और होपोन ने देखा कि बहुत से लोग आसपास चल रहे थे, गाड़ियां सामान्य ढंग से चल रही थीं और रोजमर्रा की जिंदगी करीब-करीब आम दिनों जैसी थी।बिराम कुमांग सोच रहे थे कि कितनी देर तक यह इस तरह रह पाएगा।
घर पहुंचते ही होपोन गाड़ी से कूदकर भागा और मुख्य फाटक खोलकर अंदर घुसा।बिराम कुमांग ने गाड़ी सीधे अंदर ले जाकर शेड में पार्क कर दी।अंदर घुसते ही उन्होंने घर के दरवाजे बंद करके सिटकिनी चढ़ा दी।फिर एक-एक करके खिड़कियों को बंद करके सिटकिनी लगाने लगे।
‘क्या हुआ?’ पानमुनि झी ने चिंतित होते हुए बिराम कुमांग से पूछा।वह घर में अकेली थीं।घर की साफ-सफाई करने और बर्तन धोनेवाली दाई आकर जा चुकी थी। ‘घर में हर चीज है? चावल, आटा, तरकारी, बिस्किट, साबुन? क्या किसी चीज की जरूरत है?’
‘ह..हां, यों?’ पानमुनि झी ने चिंतित स्वर में पूछा।सब ठीक है न?’
‘नहीं, ठीक नहीं है।’ बिराम कुमांग ने कहते हुए खिड़की से बाहर सड़क पर देखा।कर्फ्यू लग सकता है।लोग कह रहे थे कि गुजरात की किसी जगह रेलगाड़ी में आग लगा दी गई है।मुझे बताओ कि घर में हर जरूरी चीज का स्टाक है न? नहीं तो मैं जल्दी से जाकर अभी खरीद लाऊं?’
‘नहीं, नहीं, कहीं नहीं जाना है।’ पानमुनि झी ने रोका। ‘हमारे पास सबकुछ है।कहीं मत जाओ।होपोन अंदर बैठो।’
दिन चढ़ने तक पूरा वडोदरा खामोश हो गया।एक घंटे से भी कम समय में शहर की चहलपहल ने सन्नाटे का रूप ले लिया।शहर के मकानों के सभी खिड़की दरवाजे बंद थे।बिराम कुमांग और होपोन के आने के करीब दस मिनट बाद मि. राव उन लोगों की खोज खबर लेने आए थे।सभी लोग घर पर ही हैं, देखकर उन्होंने मुख्य द्वार पर ताला लगा दिया था, और ऊपर जाकर घर अंदर से बंद कर लिया था।
बिराम कुमांग ने टीवी चला दिया- सभी समाचार चैनलों पर जलने वाली ट्रेन की चर्चा थी।बताया जा रहा था कि कुछ तीर्थयात्री अयोध्या से वापस लौट रहे थे साबरमती एसप्रेस में, और जब वडोदरा से सौ किलोमीटर दूर थी, गोधरा में ट्रेन रुक गई।कुछ लोगों ने ट्रेन में आग लगा दी।यह भी कहा जा रहा था कि आग लगाने वालों ने कंपार्टमेंट के दरवाजों को बाहर से लाक कर दिया था।अंदर मौजूद सभी अट्ठावन लोग जलकर मर गए।अपराधियों की पहचान मुसलमानों के रूप में की गई।अब हिंदू इसका बदला ले रहे थे।
अहमदाबाद में घरों से निकलकर हिंदू सड़कों पर आ गए थे।वे मुसलमानों की संपत्ति को लूट रहे थे।उनकी हत्या कर रहे थे और जला रहे थे।खबरों में वडोदरा में भी हिंसा फैलने की बात बताई जा रही थी।लेकिन अपने घर के बाहर सड़क पर सोरेन परिवार को हर जगह शांति दिखाई दी।शायद कस्बे के दूसरे हिस्सों में हिंसा भड़की हुई थी, वह इलाका जहां मांस बिकता था।
पानमुनि झी ने जैसे ही टीवी पर खबर देखी, झापन दी को फोन किया।झापन दी को भी कुछ नहीं मालूम था कि क्या घटना घट गई है।
‘हम ठीक हैं झी’, भारी सुरक्षा वाले सीआईएसएफ कैंपस के अपने घर से झापन दी ने बताया। ‘हमारी चिंता मत करो।आप सब कैसे हैं?’
‘हम ठीक हैं।हम घर पर हैं।हमने सब दरवाजे-खिड़की बंद कर रखे हैं।’
‘ठीक है, झी।घर के अंदर ही रहो।बाहर मत निकलना।’
इसके बाद पानमुनि झी ने रवि को फोन किया, पर वह अपने होस्टल में नहीं था।कुछ घंटे बाद करीब ४ बजे रवि का फोन आया, ‘तुम सब घर पर ही हो न?’ उसने पूछा।
‘हां, हम घर पर ही हैं।तुम कहां थे? तुमसे बात करना चाह रही थी।’ पानमुनि झी ने कहा।
‘मैं अस्पताल में वार्ड ड्यूटी पर था।हमको दंगे का वहीं पर पता चला।यह सभी चैनलों पर हर खबर में है।तुम सबसे बात करने के लिए मैं भागकर एक पीसीओ पर आया हूँ।मैंने कितनी बार कोशिश की लेकिन लाइन बिजी बता रहा था।’
‘हम सब ठीक हैं।कटक का या समाचार है?’
‘कटक में शांति है।बेकार चिंता न करो।’
‘होस्टल में वापस जाओ।बाहर अकेले नहीं निकलो।रात में अकेले कहीं मत जाओ।अगर असुरक्षित महसूस करो या दंगा भड़क जाए तो किसी दोस्त के घर चले जाओ या कस्बे से बाहर निकल जाओ।या फिर घाटशिला ही वापस चले जाना।तब तक वहां रहो, जब तक सब ठीक न हो जाए।’
‘बो, मैं सब संभाल लूंगा।परेशान न हो।यहां सब ठीक है।’
वे पूरे दिन घर के अंदर ही रहे।जलने वाली ट्रेन सारे दिन चैनलों पर छाई रही।पुलिस की गाड़ियां सड़क पर सारे दिन गश्त लगाती रहीं।पूरे दिन घर में बंद होने के कारण कुछ भी देख या सुन नहीं सके।पूरी शाम उन्होंने पर्दे खींचे रखे और मद्धिम रोशनी जलाई।जब वे सोने गए तो उनके जोरों से दिल धड़क रहे थे।
अगली सुबह वे तड़के उठ गए।टीवी पर पिछले दिन वाली पुरानी खबर ही दिखाई जा रही थी।बिराम कुमांग ने ड्राइंग रूम की खिड़की का पर्दा बगल में जरा सा खिसका कर बाहर झांका।सड़कों पर कोई नहीं था सिवा कुछ पुलिस वालों के।सभी घरों के दरवाजे और खिड़कियां बंद थे। ‘हम कैदी बन गए हैं।’ बिराम कुमांग बोले।
उस रात भीड़ आई।
……
जो सबको पता था, वह यह कि मि. मुहम्मद शहर के बाहर कहीं काम करते थे।घर पर केवल चार स्त्रियां थीं।उनकी पत्नी, उनकी बूढ़ी विधवा मां और दो किशोर वय की बेटियां।शुभनपुरा कालोनी में यह अकेला मुसलमान परिवार था।
सोरेन परिवार समेत सारे पड़ोस ने अपनी बंद अंधेरी खिड़कियों से देखा- जैसे ही दो ट्रक पहुंचे हर ट्रक से करीब बीस-बीस आदमी उतरे।उनके हाथों में तलवार, डंडे, और जलती हुई मशालें थीं।वे नारे लगा रहे थे।
भीड़ में से कुछ आदमी नीचे कूदे।उन्होंने मुहम्मद परिवार के घर के फाटक को धक्का देकर खोल दिया।उन्होंने बगीचे से पत्थर और ईंटें चुनीं और खिड़कियों पर फेंकने लगे।उसके बाद वे सामने के दरवाजे पर झूल गए।
‘मादर…! बाहर निकलो।’
भीड़ दरवाजा पीटने लगी।वह किसी भी पल टूट सकता था।
‘मां को….मुसलमान।मां के… में छुप कर बैठा है।बाहर निकल।’
भीड़ की गर्जना से शुभनपुरा कालोनी की दीवारें हिल रही थीं।
‘तुमने हमारे लोगों को मारा, बहन…।हम तुम्हें जलाएंगे।’
लगातार उछलने मारने से दरवाजा टूट गया।और पेट्रोल बम जलाकर मुहम्मद के ड्राइंग रूम में फेंका गया।कांच की बोतल टूट कर बिखर गई और तुरंत पर्दों ने आग पकड़ ली।यह एक खामोश विस्फोट था।
घर की औरतें भागकर ऊपर चढ़ गईं और धुएं से दम घुटने के कारण उन्होंने खिड़कियों के पल्ले खोल दिए।वे पहली मंजिल की खिड़कियों से झुककर रो-रोकर, चिल्लाते हुए मदद मांगने लगीं।जबकि नीचे भीड़ अश्लील गालियां दे रही थी और खुशी मना रही थी।और अपने शिकार पर थूक रही थी।ठीक इसी समय कुछ अजीब घटना घटी।
टन्न! स्टील की एक देगची भीड़ के किनारे खड़े आदमियों के पैरों पर गिरी।
आदमियों ने चकित और चौकन्ने होकर ऊपर देखा।
‘मादर….! कौन है?’ आदमी चिल्लाए। ‘हम तुम्हारी खाल खींच लेंगे।’
घुमा कर फेंकी गई कलछुल सीधे और एक दंगाई की आंख में जा लगी।
वह अपनी आंख पकड़े हुए जमीन पर गिर गया।दुविधा में भीड़ शांत हो गई। ‘कौन?’ बिराम कुमांग फुसफुसाए।लगता था कि बर्तन उनके मकान के टेरेस से फेंके जा रहे थे।पानमुनि झी चुप थीं।वे जानती थीं कि यह कौन था।बिराम कुमांग और होपोन खिड़की से बाहर देखने के लिए घूमे।पानमुनि झी रसोई में गई और चुपचाप खाना पकाने वाले कुछ बर्तन इकट्ठा किए और चुपके से अपनी सखी का साथ देने के लिए निकल पड़ी।बिराम कुमांग और होपोन ने देखा स्टील के तीन ग्लास, एक प्रेशर कुकर और डिनर वाली थालियों के सेट भीड़ पर गिरे।
जल्दी ही बर्तनों, डंडों, और घरेलू सामानों की बरसात होने लगी।अब वे दूसरी छतों से भी फेंके जा रहे थे।
मुहम्मद के घर के ड्राइंग रूम में जैसे ही आग फैली भीड़ के चालीस पचास लोगों को लोहा, स्टील, अलमुनियम, टीन, और लकड़ी की चीजों की बौछार का सामना करना पड़ा।शुभनपुरा कालोनी की स्त्रियां एक फौज में बदल चुकी थीं।कुछ ने उन्हें कढ़ाइयों और कटोरियों को फेंक-फेंक कर मारा।दूसरों ने डेगची, फ्राइंग पैन इत्यादि।कुछ ने पुराना भारी लोहा फेंका।कुछ ने लकड़ी, डंडे और झाड़ू फेंके।जिनके पास फेंकने के लिए भारी चीज नहीं थी, उन्होंने तरकारियां, जूस और मखन के पैकेट, तेल और केचप की बोतलें फेंकीं।
भीड़ में बहुतों को चोट आई।भारी लोहे उनके सिर पर गिरे, शीशे की बोतलों से टांगें कट गईं।फ्राइंग पैनों से आंखों, नाक और गरदनों पर चोट आई।
‘तुम सब कायर हो!’ आदमी गुस्से से चिल्लाने लगे।
‘हां, हम कायर हैं!’ महिलाओं ने चिलला कर जवाब दिया।’ लेकिन अगर अपने बाप की औलादें हो, तो मर्दों से भिड़ो।तुम उस घर की किसी औरत को नुकसान नहीं पहुंचा सकते।’
‘वे मुसलमान हैं, उन्हें खत्म कर देना ही सही है।’
‘पहले हमें खत्म करो।हम नीचे आ रहे हैं।हमें पहले मारो फिर उन औरतों को।’
इस आक्रमण ने दंगाइयों को रोक दिया।अब कालोनी के पुरुष बाहर सड़क पर निकल आए।उनके आगे-आगे नेतृत्व कर रहे थे एक सेवानिवृत्त फौजी सज्जन। ‘पहले हमें मारो’, वृद्ध सिपाही ने आदेश के स्वर में कहा, ‘फिर तुम उन औरतों के पास जाना।’
उनके पीछे एक भीड़ इकट्ठी हो गई थी, साठ-सत्तर स्त्री-पुरुषों से कहीं अधिक।दंगाइयों की भीड़ में मौजूद लोगों की संख्या से कहीं ज्यादा।जैसे ही शुभनपुरा की भीड़ मुहम्मद के घर सामने इकट्ठी हुई, राव साहब और बिराम कुमांग भी अपने घर से बाहर निकलकर उनके साथ खड़े हुए।
‘हम तुमसे अनुरोध करते हैं कि तुम लोग इन्हें नुकसान मत पहुंचाओ।’ यह कहते हुए फौजी महोदय के हाथ जुड़े हुए थे, लेकिन आवाज सख्त और विश्वास से भरी थी। ‘उन्हें नुकसान मत पहुंचाना।’
दंगाई पलटे, ट्रक में बैठे और निकल गए।
अंदर लिविंग रूम में लगी आग अब बाहर बढ़ने को थी।सारे पुरुषों ने इकट्ठे होकर एक मानव श्रृंखला बना ली- पानी, बालू को लेकर व्यवस्थित किया।अंततः महिलाएं बच गईं।बूढ़ी महिला दम घुटने से मृतप्राय हो गई थीं।पर एक घंटे तक खुले में रहने से शुद्ध वायु ने उनमें प्राणों का संचार किया।उनकी बहू और पोतियां डर से पत्थर हो गई थीं।पुत्रवधू का रोना थम ही नहीं रहा था और पोतियां कुछ बोल ही नहीं रही थीं।फौजी सज्जन उन्हें अपने घर ले गए।
और इस तरह शुभनपुरा कालोनी में पहरा देने की शुरुआत हुई।कालोनी के पुरुषों ने तय किया कि वे रात में कालोनी में पहरेदारी करेंगे।उन्होंने सुना था कि अहमदाबाद की शांतिपूर्ण दिखनेवाली कालोनियों में लूटपाट हुई थी या वे नष्ट कर दी गई थीं।उन्होंने शुभनपुरा में यह खतरा उठाया।मुहम्मद का घर चोरों और भीड़ का आसानी से शिकार हो सकता था।
हर शाम सूर्यास्त के बाद युवा व्यक्ति लाठी और सीटी से लैस होकर संबंधित घरों की रखवाली करते थे।कोई भी अजीब क्रियाकलाप देखने पर वे अलार्म बजा देते थे।होपोन और बिराम कुमांग भी इस दल के सदस्य थे।जैसे-जैसे दिन गुजरे, लोग अपनी नियमित दिनचर्या में लगते गए।पर रात में कर्फ्यू वापस लग जाता था।
गुजरात में बोर्ड परीक्षाएं १५ दिनों के लिए टाल दी गईं।लेकिन इन पंद्रह दिनों के बाद भी शांति नाम की चीज नहीं आ सकी।विद्यार्थियों को पुलिस संरक्षण में परीक्षाएं देनी पड़ीं।होपोन को भी।बिराम कुमांग खुद ड्राइव करके होपोन को स्कूल पहुंचाते और लाते थे।सारी खरीदारी दिन के समय की जाती थी।जैसे ही अंधेरा होने लगता, लोग अपने को घरों में बंद कर लेते।पुलिस की गाड़ियां सारे शहर में गश्त लगाने लगतीं।लोग दल बनाकर अपनी लाठियों और सीटियों के साथ अपने घरों और इलाकों की पहरेदारी पर मुस्तैद हो जाते।ऐसा एक महीने से ज्यादा समय तक चलता रहा।
बिराम कुमांग दंगों के बाद और भी दो सालों तक गुजरात में रहे।२००४ में उनका स्थानांतरण रांची में हुआ।पानमुनि झी और होपोन, हालांकि काफी पहले ही घर आ गए थे। होपोन, बोर्ड परीक्षा पास करने और प्रमाणपत्र लेने के बाद बेहतर कुछ करने की दृष्टि से मां के साथ भुवनेश्वर वापस आ गया था।उन्होंने एक मकान किराए पर लिया।होपोन ने वहां के एक कालेज में दाखिला ले लिया।वे सारा फर्नीचर वापस ले आए- काष्ठकला वाला सोफा सेट, ग्लास टाप वाली सेंटर टेबल, गुजरात के हैंडीक्राफ्ट इंपोरियमों में खरीदे गए सभी स्मृतिचिह्न।बिराम कुमांग राव साहब के ही मकान में रहते रहे।छुट्टियों में घर चले जाते थे।उन्होंने घर के नजदीकी शहर में स्थानांतरण के लिए आवेदन भी कर दिया था।जब उनका स्थानांतरण रांची में हुआ, वे सब बहुत ज्यादा खुश हुए।उन्हें डोरांडा में एक सुंदर, तीन शयनकक्षों वाला अपार्टमेंट मिला।रवि और होपोन ने सारे सामान भुवनेश्वर से रांची लाने में पूरी मदद की और तब बिराम कुमांग को रांची ले आने के लिए वडोदरा गए।
पानमुनि झी को घर में रहने जैसी अनुभूति हुई।यह उनके अनुसार उनका ‘अपना इलाका’ था।
सिल्वर कार्प को निश्चिंत होकर नमक और हल्दी पाउडर लगाकर मैरिनेट करती हुई वे बोलीं, ‘यहां हम कुछ भी खाएं, किसी को बुरा नहीं लगता।और हमें भी इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन क्या खाता है।’
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