मराठी के चर्चित कवि।अब तक मराठी में आठ कविता संग्रह प्रकाशित।कविताओं का अनेक भारतीय भाषाओं में अनुवाद।
कविता लिखने के लिए
कविता लिखने के लिए लीजिए कोरा कागज
जो मिलता है हर एक को एक इस लोक में
अगर शुरुआत की ऊपर से
तो जा सकते हो एकदम तल तक
ऊपर दो उंगली जगह नाम के वास्ते छोड़ दीजिए
स्वर्ग उतना ही दूर है ऐसा समझ कर
बाईं तरफ छोड़ दीजिए दो उंगली जगह नि:शब्द
जो है नहीं उनकी स्मृति में
जो है उन्हें वहां से जाने दीजिए दाईं तरफ
जहां तक वे पहुंच सकते
जो आते हैं उन्हें आने दीजिए
पंक्ति के बाद पंक्ति
उतरते
उतरते
अक्षरों की स्याही गर्द या फीकी
आकार छोटा या मोटा हुआ
तो होने दीजिए
उन्हें एक ढाँचे में ढालनेवाले हम कौन होते हैं?
लेकिन कविता खत्म होने पर
उसके नीचे निश्चय ही डाल दीजिए अपना नाम
जैसे घर का दरवाजा बंद करने के बाद
लगाते हैं ताला
और चाबी रख दीजिए कविता के माथे पर
शीर्षक के वास्ते
बची हुई सब जगह खुली छोड़ दीजिए
ताकि अर्थ खेल सके
फिर हो जाइए जुदा
कागज को लांघकर
उंगली पर यहां की स्याही का भी दाग न छोड़कर।
कवि
कवि उठाना चाहता है शिव धनुष
कविता की प्राप्ति के लिए
छाती के बल गिरकर मुंह से खून बहाना पड़े
तो भी तैयार रहता है उसके लिए
कविता ने स्वयंवर में चुना नहीं तो भी
छोड़ता नहीं है उसका पीछा घने वन में भी
सामने भेजता है स्वर्णमृग प्रतिमा
जो ले जाती है दूर औरों को कविता से
फिर घनघोर एकांत में जाकर
खड़ा रहता है कविता के द्वार
भिखारी हो कर पुकारता है
‘मैया, दे दे भिक्षा’
कवि के मैया कह कर पुकारने पर
आना ही पड़ता है कविता को
घर, द्वार और अर्थ की सुनिश्चित रेखा लांघ कर
तो कवि उसे ही उठाता है भिक्षा मान कर
भरता है उड़ान आकाश में
काट देता है रोकनेवाले विवेक के पंख
ले जाता है सागर पार अपने राज
रखता है कठिन पहरे में
ठुकराता है पतिव्रता भार्या की प्रार्थना
स्वजनों का समझाना
छोड़ने के लिए कविता का मोह
कह देता है कविता को
‘तुम मेरी ही हो
क्योंकि पैदा हुई हो तुम मेरी ही मनोभूमि में
मेरे ही बोए हुए शब्दों से’
एक ही समय कविता होती है माता
दुहिता और प्रियतमा भी कवि की
कवि होता है मर्यादा के परे
दुतकारता है मर्यादा पुरुषोत्तम की कड़ी चेतावनी
दूत के पूंछ को लगाता है आग
गूंजने देता है अपने ही शहर में
आग की लयबद्ध धुन
खड़ा होता है अंतिम सत्वपरीक्षा के लिए
पुरुषोत्तम के बाण अचूक
तो कवि के होते हैं दस-दस चेहरे
एक को उड़ाया तो उगता है दूसरा
कवि दांव पर लगाता है अपना समूचा अस्तित्व
आखिर में हृदय के तल में शर झेल कर
होता है धराशायी
कविता के लिए छोड़ कर अनंत आकाश
मरता है अतीव संतोष से
कि कविता है अब उसकी
जो आया है उसके लिए
हजारों योजन अंतर पार कर
समुंदर लांघ कर
और जिसने अचूक साधा है कवि हृदय का निशाना
इसके उपरांत उसने
कविता को सम्राज्ञी पद पर बहाल किया
वनवास में भेज दिया
या खुद कविता ही भूमि में हो गई गुम
किसी भी बात से नहीं होता
कवि का कुछ लेना देना।
नया कवि
मिल जाता है नया कवि
जैसे नजर आए तुम्हारे बाग में कोई नया पंछी
लेकिन तुम बता ही नहीं सकते औरों को
तुमने कौन-सा पंछी देखा
क्योंकि किसी को भी पता नहीं होता उसका
देखा भी नहीं होता पहले कभी
किसी चिड़ियाघर में
नया कवि उपयोग में लाता है
वही शब्द जो तुम लाते हो
लेकिन गूंथता है इस तरह कि लगने लगते हैं अनोखे
तुम्हें लगता है
तुमने भी ऐसी ही लिखी होती कविता
अगर तुमने लिखी होती यह कविता
मगर तुम लिखते रहते हो
तुम पहले से लिखते आ रहे हो वही कविता
जैसे चिड़ियाघर के पंछी होते हैं
अपने अपने नाम के पिंजरे में
नाचते, गाते, फुदकते
साथ वाले फलक पर लिखे हुए वर्णन के मुताबिक
तुम्हें लगता है लेनी चाहिए खबर नए कवि की
जैसे लगे दिखाना ही होगा मेरा देखा हुआ नया पंछी
लेकिन भुर्र हो जाए वह
फिर लगता है होना चाहिए यह पंछी
अपने गांव के चिड़ियाघर में
और पिंजरा ही हो जाए भुर्र।
प्रतिबिंब
(गुरुदेव रवींद्रनाथ के लिए)
कवि लबालब भर आया है
झुका है सामने खुलते गए अथांग सफेद कागज पर
कवि को लगता है कागज एक विस्तीर्ण जलाशय
उसके हाथ की कलम पतवार रही है
इस पार की कविता की पंक्तियां उस पार
कवि को स्पष्ट दिखाई दे रहा है
जलाशय में ऊपर का नीलतम आकाश
आकाश में सफेद बादल
धीरे धीरे आ रहे हैं ऊपर
तैर रहे हैं पानी पर धुंध बनकर
चल रही है उसकी नावें धुंध में से
हर एक चलते हुए डांड के साथ
गहरे गहरे होते जाने वाले पानी में
कवि को दिखाई दे रहा है
पानी के तल में आकाश का वत्सल हाथ अविकल
उसमें सहज समाया है
लबालब भर आया जलाशय
कवि की प्रियतमा झुकी हुई कवि के पीछे से
देख रही है अविश्वास से
कवि के काले काले गीले अक्षर
खींच लेने वाले
अनुभव कर रहा है कवि उसकी गर्दन पर
तैर कर आती हुई प्रियतमा की सांसें
और उनमें से द्रवित होते जा रहे शब्द
कवि को लगता है किसी क्षण
बरसेंगे वे नीचे के जलाशय में
बैठे-बैठे उठाता है कवि अपना बायां हाथ
और संभाले रखता है
अपार वत्सलता से
भर आए हुए
प्रियतमा का स्तन।
शेषप्रश्न देवदास
दूर देश में पारो के दरवाजे तक जाकर
दरवाजे के इस ओर ही देवदास मर कर पड़ा बेदखल
शरद बाबू ने कहा
‘किसी को भी न आए ऐसा मरण’
मुझे लगा क्यों आए होंगे शरद बाबू
कलम के उस ओर से इस ओर?
या संभाल के रखा था उन्होंने
उस नोक पर अपना मरण
खुद इस ओर आकर?
क्यों देखता ही रहा देवदास
कर्महीन होकर पारो का विवाह किसी और से
जैसे पढ़ता जा रहा हो
किसी उपन्यास में सुनिश्चित चरित्रक्रम?
या देवदास ही गया था इस ओर से उस ओर
रचने के लिए अपना मरण?
क्यों कहा चंद्रमुखी ने देवदास से
‘इतना मत पीना’
या उसे पता था शराब अंदर जाने के बाद
देवदास को जो दिखाई देती है
वह पारो ही होती है?
या चंद्रमुखी ही हो गई थी पारो
देवदास के अंदर जाकर?
क्यों मिली पारो देवदास से अपने विवाह के बाद?
क्यों बुलाया उसने उसको अपने घर?
क्या कर रही थी पारो बंद दरवाजे के अंदर
देवदास के जाने तक अपने शरीर के बाहर?
या वह पारो ही थी रुकी उस ओर
होकर देवदास का मरण?
फिर वह कौन थी जो थी इस ओर?
फिर किसने कहा
‘किसी को भी न आए ऐसा मरण?’
क्यों फिर भी अपना लगता है देवदास
मन में इतने सारे सवाल उठने पर भी
या मैंने ही रखा है चरम यत्न से
इन प्रश्नों के फन पर खुद को संभाल कर
यह नोक देवदास पर रख कर?
अपनी ही कविता
अपनी ही कविता प्रस्तुत करते समय भी
लगता है विलक्षण निराधार
अगर हाथ में कागज न हो
लगता है सांसें जा रही हैं उड़कर हवा पर
और पहुंच ही नहीं रहे हैं पैर जमीन तक
भर आता है अपार भय
कि पैरों को सतह मिलने के पहले ही
खत्म न हो अपनी ही कविता
जब कागज होता है हाथ में कसा हुआ
लगता है कितना सुरक्षित
सांस छाती में
और पैर जम कर धंसे हुए
कविता के कागज पर।
दुख
वैसे भी, अपना दुख भी अपना कहां होता है?
होता है उधार लिया हुआ किसी और का
जैसे चंद्रमुखी ने लिया हो देवदास का
गौतम ने तो समस्त मानवजाति का
लोग चाहते हैं कि हो अपना अपना मसीहा
जिसकी झोली में चुपके से छोड़ सके
अपना अपना दुख
लेकिन अपनी ही पहली संतान
नदी में छोड़ने वाली पृथा ने
दुख ही मांगा था कृष्ण से
ताकि कृष्ण की याद आती रहे हर हमेश
कृष्ण ने मन ही मन में कहा-
यानी कि मुझे ही मांग रही हो तुम
क्योंकि मैं ही हूँ हर जीवात्मा का दुख
वैसे तो छोड़ना चाहा तो भी
छोड़ नहीं सकते अपने दुख का मोह
मेहनताना लेकर
दूसरे का दुख रोने वाली रुदाली भी
रो लेती है उसी रुलाई में
अपना भी दुख जल्दी जल्दी
होता नहीं है किसी के पास उतना धीरज
कि खुद को छीलते छीलते
पहुंच पाए दुख के गाभे तक
जहां होगा अलौकिक खालीपन
अमर्यादित सुख से भरा हुआ
लेकिन वहां तक पहुंचने की हिम्मत
नहीं करता है मर्त्य मानव
रुक जाता है पहले ही
जैसे अंत तक पहुंचने के पहले ही
खत्म हो कविता।
अनुवाद : स्वयं कवि द्वारा
संपर्क :हेमलता, ९१७/१९सी, फर्गुसन कॉलेज रास्ता, पुणे–४११००४ मो. ८३२९६१४३७१