वरिष्ठ इतिहासकार। भूतपूर्व विभागाध्यक्ष, इतिहास विभाग एवं पूर्व डीन, कला संकाय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय।
पारंपरिक ज्ञान की अवधारण समावेशी थी- चाहे पाश्चात्य यूनानी चिंतन हो या भारतीय मानस! ज्ञान की इस अवधारणा के अंतर्गत विज्ञान भी सम्मिलित था। बीसवीं शताब्दी के यूरोप में शनैः-शनैः ज्ञान को पृथक-पृथक संबोधन के आधार पर विभिन्न विषयों में विभक्त करने का चलन शुरू हुआ था। अन्यथा इस बीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में थियोडर मॉमसेन को उसकी कृति ‘हिस्ट्री ऑफ़ रोम’ पर साहित्य का नोबेल पुरस्कार क्यों मिलता? अतः यह सहज ही समझ में आता है कि विषयवार विभाजन अध्ययन-अध्यापन की सुविधा और विस्तृत होते हुए ज्ञान को समेटने के उद्देश्य से किया गया! ज्ञान बिना संस्कार भी आंशिक ही रहता है। संस्कार उसको पूर्णता प्रदान करते हुए उसका एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरण करते हैं। ये मानव सभ्यता और संस्कृति के संवाहक होते हैं। इसी स्थानांतरण के क्रम में मानव बुद्धि का विकास संभव और सहज होता है।
उपर्युक्त के आलोक में हम मानव बुद्धि के विकास-क्रम को भी समझ सकते हैं। बुद्धि के लिए अध्ययन और व्यवहार दोनों को एक-दूसरे का पूरक माना गया था, साथ ही बुद्धि के परिमार्जन और समृद्धि के लिए अपरिहार्य भी। पुरानी मान्यता के अनुसार बुद्धि के निरंतर उपयोग से ही ‘बुद्धि’ समृद्ध और संवर्धित होती है। ज्ञान (अध्ययन और इंद्रियों से अर्जित, दोनों ही) द्वारा ही बुद्धि में विवेक जागृत रहता है। वह तीक्ष्ण होती है। मानव के प्रारंभिक अर्थात ‘यायावर काल’ से कबीलों में संबद्ध होते ही ‘सामूहिक निर्णय’ के सिद्धांत को इसी आशय से अपनाया गया कि अलग-अलग लोगों की बुद्धि और उनके पृथक-पृथक अनुभवों से लाभ उठाया जा सकता था। आज की वर्तमान जनतांत्रिक प्रणालियों में भी ‘सामूहिक निर्णय’ और ‘सामूहिक दायित्व’ का पालन मंत्रिमंडल, संसदीय समितियों, अफसरशाही समितियों आदि के माध्यम से संभव होता है।
प्रारंभिक विकास-क्रम में व्यक्तिगत ज्ञान और अनुभव के अतिरिक्त जो ‘संस्कार’ की बात ऊपर कही गई है, उसे हम ‘सामूहिक ज्ञान’ कहते हैं। यही ‘सामूहिक बुद्धि’ या कलेक्टिव इंटेलिजेंस भी है। यह बुद्धि सतत प्रवाहशील रहती है और परिस्थिति अनुकूल मूल्यों-प्रतिमानों के परिवर्तनों को आत्मसात करते हुए ‘सामूहिक बुद्धि’ को विकसित एवं संवर्धित करती चलती है। किंतु विज्ञान ने जब कंप्यूटर और कंप्यूटर ने जब अपने विकास-क्रम के अग्रिम चरण में ‘कृत्रिम बुद्धि’ को अपनाया तब ज्ञान के क्षेत्र में स्वागत के साथ संशय भी उत्पन्न होना स्वाभाविक था।
क्या ‘कृत्रिम बुद्धि’ में कोई अंतर्निहित नवीनीकरण का प्रावधान भी है? और, यदि है तो उसे कैसे, कब और कौन संचालित अथवा नियंत्रित करता है? मानव की बुद्धि नित नए प्रयोग से संवर्धित और परिष्कृत होती रहती है- क्या ऐसा ‘कृत्रिम बुद्धि’ के साथ भी संभव है? यह एक ऐसा प्रश्न है, जो इसके सर्वत्र प्रयोग में संशय की स्थिति पैदा करता है। हालांकि, सीमित क्षेत्रों में इसके उपयोग की सार्थकता को स्पष्टतः आज कोई नकार नहीं सकता!
हम कह सकते हैं कि सामाजिक, मानविकी और कला विषयों के अध्ययन, शोध आदि में ‘कृत्रिम बुद्धि’ का उपयोग संतुलित ढंग से करने की जरूरत है! हम जो बात इतिहास को लेकर करने का साहस कर रहे हैं, वह वस्तुतः सभी गैर-वैज्ञानिक समूह के विषयों पर लागू होती है, हालांकि इतिहास के संदर्भ में हम लगभग आधिकारिक तरीके से बात को रख सकते हैं। ‘कृत्रिम बुद्धि’ कैसे हमारे परंपरागत ज्ञान और मानव-विकास क्रम को प्रभावित करती है या कर सकती है, यह अपने-आप में एक रोचक और विश्लेषण के दृष्टिकोण से आवश्यक विषय है!
अब जब तकनीकी विकास के क्रम में कृत्रिम बुद्धि या बुद्धिमत्ता या आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का दौर स्थापित है और इसका व्यापक उपयोग हो रहा है, इतिहास-लेखन पर भी इसका प्रभाव पड़ना अपरिहार्य है। वस्तुतः ‘आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस कंप्यूटर साइंस की एक नवीन विकासशील शाखा है। यह संगृहीत किए गए तर्क, ज्ञान प्रतिनिधित्व, योजना, सामान्य बोध, भाषाई भेद के साथ विभिन्न वस्तुओं को सक्षम ढंग से उपयोग करने की कार्यकुशलता के साथ ‘प्रोग्राम्ड’ होता है! इसके कुशलतापूर्वक उपयोग के लिए वैज्ञानिकों ने सांख्यिकी प्रविधि एवं पारंपरिक प्रतीकात्मक पद्धति को मिश्रित करते हुए नई प्रविधि विकसित करने में सफलता प्राप्त की है। इस ‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ के विज्ञान को विकसित एवं व्यवस्थित करने के लिए कंप्यूटर विज्ञान के साथ ही भौतिकी, गणित, मनोविज्ञान, तत्वविज्ञान, भाषाविज्ञान तथा अन्य सभी संबंधित विषयों की प्रविधियों को सम्मिलित किया गया है, ताकि यह एक समावेशी कार्यक्रम संचालित करने में सक्षम हो सके। वस्तुतः इसी व्यापक प्रविधि में ही इसकी सफलता भी निहित है!
‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ की विकसित प्रविधि उपभोक्ता या उपयोगकर्ता की आवश्यकतानुसार तर्क और अनुमान नियमों का उपयोग करके अपने संचित (प्रोग्राम्ड) ज्ञानकोश से उपयोगकर्ता के निर्देशानुसार कार्य संपादित करने में सहयोग करती है। ‘स्मार्ट फोन’ हों या कंप्यूटर, सब इसपर निर्भर रहते हैं। यहां तक कि बड़े कार्यालयों, घरों और मॉल आदि में भी इसका दखल निरंतर बढ़ रहा है। वायु संचालन प्रभाग, यातायात, संचार और गाड़ियों से लेकर रोबो तक; निर्णय लेने के माध्यम; ‘बायोमैट्रिक्स’ से लेकर आदेश के अनुसार कार्य करने वाले उपकरणों, जैसे ‘सीरी’ या ‘एलेक्सा’ सब इसी के भरोसे कार्य करते हैं।
इसके अधिक प्रयोग से इसपर मनुष्य की निर्भरता अत्यधिक बढ़ती जाती है। विद्वान लोग इसे सबसे बड़ा खतरा तब मानते हैं, जब कृत्रिम बुद्धि के माध्यम से उपकरण आदि बिना मानवीय आदेश अथवा हस्तक्षेप के सभी प्रकार के निर्णय लेने लगेंगे। ऐसे में अनेक नीतिगत निर्णयों के साथ नैतिक दृष्टिकोण भी प्रतिकूल रूप से प्रभावित हो सकता है। वैसे भी यह निश्चित नहीं हो सकता कि यह कृत्रिम बुद्धि किस आधार पर निर्मित होगी।
क्या यह ‘सामाजिक बुद्धि’ अथवा ‘सामूहिक बुद्धि’ या ‘व्यक्तिगत बुद्धि’ का प्रतिनिधित्व करेगी? इसका निर्धारण किस आधार पर होगा? या, एक सीमा के बाद ‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ अपनी ‘यांत्रिक बुद्धि’ से ही संचालित होने लगेगा? यह प्रश्न भी है कि कृत्रिम बुद्धि, वैज्ञानिकों के मानव मस्तिष्क के भी किस स्तर से संचालित होगी? क्या ये मात्र मस्तिष्क के चेतन अथवा अवचेतन स्तरों से संचालित हो सकती है, यह भी एक समस्या का कारण बनेगा। मनुष्य के व्यक्तित्व में ‘स्प्लिट पर्सनेलिटी’ का जो तत्व है, वह भी एक जटिलता का कारण बन सकता है। अंततः विकल्पों के भंवर में इसके अराजक होने की संभावना भी प्रबल है।
हम जानते हैं कि बुद्धि का संबंध मानव मस्तिष्क से है। यह उस मस्तिष्क के चेतन, अवचेतन स्तरों से संबद्ध मुद्दा है। इसी चेतन-अवचेतन से इतिहास लेखन भी जुड़ा है। वोल्टेयर ने इतिहास-लेखन के विषय में कहा था कि मानव ने जो कुछ किया, मात्र वही इतिहास का विषय नहीं है, अपितु उसने जो सोचा वह भी इतिहास-अध्ययन की परिधि में आता है। उसके मतानुसार, ‘इतिहास, मानव-मस्तिष्क के विकास का अध्ययन है’! (विल एवं एरियल ड्यूरां, द स्टोरी ऑफ़ सिविलाइजेशन)। इस समावेशी अध्ययन के लिए ही मानव-विकास के बहाने सभ्यता का अध्ययन और सभ्यता के अध्ययन के लिए प्रत्येक युग में सांस्कृतिक उपलब्धियों को मापन या संकेतांक माना गया।
इस मान्यता या परिभाषा के अनुसार यदि संस्कृति का एक आयाम में अध्ययन करना हो तब हमें साहित्य, दर्शन, धर्म का अध्ययन करना होगा। द्विआयामी उद्देश्य से चित्रकला के तथा त्रिआयामी अभिव्यक्ति में मूर्तिकला एवं स्थापत्य कला के अध्ययन की अपरिहार्यता है। वस्तुतः इन्हीं माध्यमों से मानवीय अभिव्यक्ति संभव है।
इतिहास का अध्ययन अंततः मानव सभ्यता के विकास का क्रमबद्ध अध्ययन है। चूंकि, सभ्यता के प्रत्येक चरण में मानव के विकास को समझना पड़ता है, अतः सांस्कृतिक उपलब्धियों के अध्ययन से ही यह संभव हो पाता है। इस दृष्टिकोण से ‘सांस्कृतिक इतिहास’ ही मानव इतिहास या उसकी विकास-यात्रा का अध्ययन है!
इतिहास को चूंकि, मानव विकास का क्रमबद्ध अध्ययन माना जाता है, इस दृष्टिकोण से इतिहास भी मानव-मस्तिष्क के विकास का क्रमबद्ध अध्ययन हो जाता है। अतः ‘कृत्रिम बुद्धि’ से इतिहास-लेखन और इतिहास-दर्शन प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दोनों रूपों से प्रभावित होता है।
अब इतिहास लेखन के विकास-क्रम से इसे समझने का प्रयास किया जाए। आधुनिक इतिहास लेखन में सांस्कृतिक इतिहास के बाद के क्रम में जिस प्रकार उत्तर-संरचनावाद, उत्तर-आधुनिकतावाद, उपाश्रयी शाखाओं के साथ विभिन्न विमर्शों से लेकर उत्तर-सत्य का जो दौर चल रहा है, उसमें ‘अर्थपूर्ण भाषाई बाजीगरी’ (सिमेंटिक जग्लरी) ने एक दुविधापूर्ण स्थिति उत्पन्न कर दी है।
‘दुचित्तापन’ के वर्तमान दौर में यह दो विरोधाभासी विशेषताओं से युक्त काल प्रतीत हो रहा है। इसमें एक ओर मानव-विश्व एकीकृत लगता है, दूसरी तरफ, यह एक निश्चित ही भीषण अराजकता का काल है! (एरिक कह्लर, द मीनिंग ऑफ़ हिस्ट्री)। यदि एक तरफ ऐसा लग रहा है कि दुनिया के पुरातन रिवाजों को पश्चिमी जगत समाप्तप्रायः कर देगा, दूसरी ओर, स्पेंग्लेर की ‘पाश्चात्य के पतन’ की भविष्यवाणी भी स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रही है! वस्तुतः तकनीकी परिवर्तन के कारण मानव की परिस्थितियां परिवर्तित होती हैं। इसके फलस्वरूप मानव-जीवन के मूलभूत मानक और मूल्यों-प्रतिमानों में परिवर्तन अपरिहार्य होता है। मानव-जीवन का आधार भी परिवर्तित होने लगता है। संभवतः इसीलिए मानव व्यक्तिगत रूप से और स्थापित समूहों/समाजों के रूप में इन क्रांतिकारी परिवर्तनों के साथ सामान्यतः तारतम्य नहीं बैठा पाता।
यही विरोधाभास अभूतपूर्व वर्तमान अराजक स्थितियों का कारण है! यह अभूतपूर्व इसलिए भी है कि एक ओर वह तकनीकी परिवर्तनों की स्वीकृति से जूझता है और दूसरी तरफ वह तकनीकी एकता से संगठित होने का लाभार्थी भी है!
वैसे तो विश्व संक्रमणशील होने के नाते सदैव अस्थायी या एक सीमा तक ‘अराजक’-सा प्रतीत होता है, किंतु पहली बार इस अराजकता को एक खास तकनीकी उत्प्रेरक ने एक अलग दशा और दिशा प्रदान कर दी है!
इसी अराजकता के कारण हम अपने विषय के अध्ययन एवं लेखन में ‘पोस्ट-ट्रुथ’ या सत्य के परे वाले स्तर तक पहुंच गए हैं! दूसरा विरोधाभास पाश्चात्य सभ्यता के स्वरूप में निहित है। यह स्वतः ही अंतर्निहित अंतर्विरोध की भूमिका का निर्वहन करती है।
पश्चिमी जगत अपनी श्रेष्ठता साबित करके औपनिवेशिक दुनिया पर अपना आधिपत्य स्थापित करने के लिए अफ्रीका, एशिया और दक्षिण अमेरिका के देशों की सभ्यताओं और संस्कृतियों को नकारते रहे हैं। किंतु टॉयन्बी ने हम सब का ध्यानाकर्षण नजरअंदाज की गई इन सभ्यताओं-संस्कृतियों की ओर किया है। उसने ऐतिहासिक विकास-क्रम की सही समझ के लिए पुरातत्व से लेकर नृतत्व विज्ञान की प्रविधि तक को इतिहास के विश्लेषण में प्रयुक्त करने की वकालत की है। अतः जो समाजशास्त्री तथा औपनिवेशिक विचारक इन उपनिवेशों की सभ्यताओं को अपरिवर्तनशील तथा अपरिवर्तनीय मान रहे थे, वे भी अपनी मान्यताओं में परिवर्तन करने को बाध्य हुए और इन सभ्यताओं के विकास को सम्मिलित करके ही मानव विकास के क्रम को समझने पर जोर देना शुरू किया!
जब भी पश्चिम की श्रेष्ठता की बात उठती है, हम उसे तकनीकी के प्रयोग तथा औद्योगिक क्रांति से संबद्ध करके देखते हैं, अन्यथा शेष सभ्यताओं में औद्योगिक व्यवस्था से पूर्व सांस्कृतिक परिस्थितियां न केवल भिन्न थीं, बल्कि कई मायने में वे पाश्चात्य संस्कृति से श्रेष्ठ भी कही जा सकती हैं। किंतु तकनीकी विस्तार ने उन सभ्यताओं की चेतना को निश्चित ही प्रतिकूल रूप से प्रभावित किया। वे सभी समूह कभी क्षेत्रीय तो कभी राष्ट्रीय चेतना से अभिभूत रहे – कम से कम 18वीं शताब्दी से लेकर विश्व-युद्धों के दौर तक यही प्रतीत होता है। वे अपनी सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, औद्योगिक इकाइयों की सामूहिक चेतना में अपनी नितांत व्यक्तिगत चेतना को विस्मृत कर बैठे हैं। इस प्रकार, वे नित्यप्रति थोड़ा-थोड़ा ‘स्व’ का क्षरण कर रहे हैं! और जब ‘व्यक्तिगत चेतना’ का ह्रास होता है, तब बौद्धिक रूप से इनसान ही समाप्तप्राय होने लगते हैं।
कैह्लर ने इसके एक बड़े दुष्परिणाम की ओर बहुत पहले हमें सचेत कर दिया था। उसके अनुसार इस व्यक्तिगत चेतना के लोप से मनुष्य अपनी संस्थाओं के प्रति एक नितांत उदासीन दृष्टिकोण अपना लेता है। यह उनपर अनास्थापूर्ण या आलोचनात्मक दृष्टि न रखकर अंततः अराजक होने का अवसर प्रदान करता है। इस प्रकार, सरकारें अनैतिक तथा असंवैधानिक शक्तियों के हाथ में चली जाती हैं! (वही)।
‘कृत्रिम बुद्धिमता’ मानवीय दिमाग और शरीर के कार्यों को अपने हाथों में लेकर, उनके बेहतर निष्पादन से मानव दिमाग के उपयोग को कमतर करता जाएगा। अंततः मानव दिमाग, कार्य के अभाव में सिकुड़ जाएगा। अनेक कार्यों के संपादन से मुक्त दिमाग का अवचेतन भी अनेक प्रकार से प्रभावित होने लगता है और वह गलतियां ही नहीं करता, अपितु अनेक प्रकार के अवमूल्यन को अपनाने को विवश होता है।
तकनीकी का प्रवाह मानव विकास के प्रवाह और उसकी गति से बहुत कम होने के कारण मूल्यों-प्रतिमानों का ह्रास करता ही है। बची कसर ‘सूचना क्रांति’ पूरी कर देती है। पाश्चात्य जगत का विकसित किंतु सुविधाजीवी मानव अपनी बुद्धि के स्थान पर कंप्यूटर और उससे पहले कैलकुलेटर आदि के अत्यधिक उपयोग से एक बड़े ‘दिमागी शून्य’ का सामना करने को बाध्य है।
इस क्रम से ‘कृत्रिम बुद्धिमता’ और भी गति पाती है। कैह्लर इसे यूनानी और उसके बाद के रोमन साम्राज्य तथा संस्कृति के पतन के साथ तुलनात्मक रूप से जोड़ता है और उसे उस पतनशील युग की याद आती है। आज की इन प्रवृत्तियों को उस काल की प्रवृत्तियों से तुलनात्मक रूप से अध्ययन करने पर वह एक समानता का अनुभव करता है, फिर जोर देकर उद्घोष-सा करता है, ‘इस सीमा तक मानव मस्तिष्क के सिकुड़ने के फलस्वरूप पाश्चात्य का पतन अवश्यंभावी है!’ (वही)।
हम एक अन्य पक्ष पर नज़र दौडाएं तब भी हमें शीत-युद्ध की समाप्ति के बाद राष्ट्रीयता के बोध से उत्पन्न परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है – भले ही हम ‘वैश्विक ग्राम’ की अवधारणा उच्चारित करते रहें। उत्तर और दक्षिण कोरिया हो या रूस-यूक्रेन हो या भारत-चीन या अफगानिस्तान का तालिबान-हक्कानी संघर्ष या अरब-इज़राइल क्षेत्र हो, आज भी राष्ट्रीयता अपने अस्तित्व के साथ उपस्थिति दर्ज करने के लिए संघर्षरत ही नहीं, हिंसक रूप से युद्धरत भी है!
वर्तमान समय में परमाणु युद्ध की संभावना कम नहीं हो रही है। संयुक्त राष्ट्र की बढ़ती निष्क्रियता या नाटो जैसी संस्था पर छोटे देशों की निर्भरता- ये घटनाएं हमको एक ऐसे सत्य का एहसास कराती रहती हैं जो सिकुड़ते विश्व में संघर्ष उत्पन्न करने की क्षमताओं से लैस है! यदि अब ‘हिरोशिमा-नागासाकी’ जैसा कुछ हुआ, तब इस विकसित क्षेत्र का क्या हाल होना है किसी से छुपा नहीं है, युद्ध में मिसाइल किसी न्यूक्लियर रिएक्टर पर एहसानमंद न हो, तब क्या होगा?
इस पूरे परिदृश्य में विश्व कैसा होगा? कौन संयुक्त राष्ट्र के ‘दीर्घस्थायी लक्ष्यों’ के अभाव में अपना अस्तित्व बचाने में सफल होगा? कैह्लर वहां तक जाता है और चेतावनी देता है कि ‘(यूरोप में) ‘स्लैव्स’ तथा विशेष रूप से अफ्रीका तथा एशिया के अश्वेत लोग ही अस्तित्व बचाने में कामयाब होंगे- अपने मानव-संसाधनों की संख्या बल के आधार पर नहीं, बल्कि उस ‘मानवीय पदार्थ’ या ‘इनसानियत’ के नाते जो उनकी कम सिकुड़ी चेतना के चलते उनके मस्तिष्क के पूर्ण और अधिक उपयोग के लिए सक्षम होगी! वे पश्चिम की वैज्ञानिकता और अपने मस्तिष्क के उपयोग से पतनशील पाश्चात्य जगत का स्थान ग्रहण करेंगे! (वही)।
कैह्लर अंततः यूरोपीय है। अतः वह एक दूसरे विकल्प को भी अनुरेखित करता है। यह भी संभव है कि विचारधाराओं का परित्याग करके ‘वैश्विक ग्राम’ की परिकल्पना को सार्थक करते हुए पाश्चात्य जगत पश्चिम के अलावा अन्य मानव समूहों के साथ संपृक्त रूप से पुनः विकास का मार्ग पकड़ने में कामयाब हो जाए! निश्चित ही तब ‘इतिहास के अंत’ की भविष्यवाणी का भी अंत होगा।
इतिहास अपने उद्देश्य के साथ संरचना के अर्थ के अनुरूप सहज भाव से लिखा अथवा समझा जा सकता है! कैह्लर मानता है कि मानव सभ्यता का अनवरुद्ध विकास क्रम ही मानव का इतिहास है! क्या मानव अन्य ग्रहों पर अपने उपनिवेश स्थापित कर ले और वहां नए क्रम से जीवन यात्रा को आगे बढ़ाए? (वही)।
इतिहास में यह निश्चित ही एक निर्णायक प्रस्थान-बिंदु है, क्योंकि इतिहास को हम मानव की विकास-यात्रा के क्रमिक अध्ययन के रूप में देखते, लिखते एवं व्याख्यायित करते हैं। इस विकास-यात्रा के अध्ययन में हम अनेक ऐतिहासिक प्रक्रियाओं का विश्लेषण करते हुए आगे बढ़ते हैं। अतः इतिहास-लेखन की समस्या मूलतः मानव की समस्या का अर्थ खोजना ही है! मानव की समस्या उसकी चेतना और मस्तिष्क की समस्या है। शायद पाश्चात्य के पतन में मानवीय एकता की संभावना परिलक्षित हो! (वही)।
अतः इस प्रश्न से आगे बढ़कर इतिहास लेखन के दर्शन के विषय में सोचने को बाध्य होना पड़ेगा। ऐसी समस्यायों से समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, नृतत्वशास्त्र और राजनीतिशास्त्र के विद्वान भी जूझ रहे हैं। उनके उत्तर में ही इतिहास दर्शन के उद्देश्य तथा सही संरचना के उद्भव की संभावनाएं दिख रही हैं।
उपर्युक्त अध्ययन के आलोक में एक उदाहरण से हम अपनी बात को खत्म करने का प्रयास करेंगे। डेविड रुन्चिमैन ने अपनी महत्वपूर्ण कृति, ‘हाऊ डेमोक्रेसी एंड्स’ में इस समस्या को विश्लेषित किया है। वह स्टीवन पिंकर के तर्कों को लगभग काटता है। पिंकर ने अपनी कृति, ‘द बेटर एन्जेल्स ऑफ़ आवर नेचर’ (2011) में व्यवस्था के स्थायित्व के साथ उसके प्रगतिशील बने रखने पर जोर दिया था, किंतु रुन्चिमैन अपने अध्ययन से स्थापित करता है कि परिस्थितियां अधिक जटिल तथा संकटपूर्ण होती जा रही हैं! अतः इतिहासकारों-सामाजिक विज्ञान के अध्येताओं को इतिहास-लेखन और उसके दर्शन पर नए सिरे से चिंतन की आवश्यकता है। इससे यह भी प्रमाणित होता है कि मानव विकास-क्रम परिवर्तनशील है न कि अपरिवर्तनीय। अतः कृत्रिम बुद्धि या बुद्धिमत्ता में प्रगतिशीलता की एक निश्चित मात्रा और उसके मूल्यांकन का कोई उचित ढंग आवश्यक ही नहीं, अपरिहार्य होता जाएगा!