वरिष्ठ लेखक, लघु पत्रिका आंदोलन के एक प्रमुख व्यक्तित्व और ‘अक्सर’ पत्रिका के संपादक।
मैं जब सभागार में घुसा तो धाराप्रवाह भाषण जारी था। मैं पीछे एक कुर्सी पर जाकर चुपचाप बैठ गया। मैंने पास बैठे व्यक्ति से धीरे से पूछ लिया, ‘ये वक्ता कौन हैं?’ ‘आईएएस जे.पी. पाठक हैं’, उत्तर मिला। पाठक जी बोलते रहे तथा गांधी जी की उपलब्धियों का बखान करते रहे। चंपारण, खेड़ा, चौरी-चौरा, भारत छोड़ो आंदोलन-क्या कुछ नहीं बताया उन्होंने। वे ऐसे बोल रहे थे जैसे कोई पैन ड्राइव बज रहा हो। उन्होंने भाषण समाप्त किया तो संयोजक ने उनके वैदुष्य और वक्तृत्व की भूरि-भूरि प्रशंसा की। यह भी बताया कि वे जीवन में आपादमस्तक गांधीवादी हैं।
संयोजक डी.डी. वर्मा उन्हें बाहर छोड़ने गए। कुछ लोग उनके पीछे-पीछे थे। मैं सोचने लगा इतने ओजस्वी और धाराप्रवाह भाषण के बाद मेरा बोलना कितना अप्रभावी रहेगा। वर्मा जी लौट आए और वे मुझे उठाकर आगे ले गए। मेरा संक्षिप्त-सा परिचय दिया और मुझे बोलने के लिए आमंत्रित किया। मैं बहुत संकोच के साथ माइक के सामने खड़ा हुआ। सामने बैठे श्रोता प्रबुद्ध लोग थे। उनके समक्ष बोलना सरल काम नहीं था।
मैंने साहस जुटाया और कहना शुरू किया- मैं उस पीढ़ी का व्यक्ति हूँ जिसने गांधी का समय देखा है। इसलिए मैं आपके समक्ष पहले यह स्पष्ट करूं कि मैं गांधी जी से किस प्रकार जुड़ गया, गांधी जी ने किस तरह से मेरे जीवन में प्रवेश किया। मैं जब इंटर कक्षा में आया तो शहर से स्टोव खरीद कर लाया। उसे गांव वालों के समक्ष जलाकर दिखाया। जब स्टोव (जिसे उस समय प्राइमस कहते थे, क्योंकि प्राइमस एक स्वीडन की कंपनी थी जो स्टोव बनाती थी और उसी कंपनी के स्टोव तब भारत के बाजार में उपलब्ध थे।) पर पानी खौलने लगा तो एक बुढ़िया के मुख से बेसाख्ता निकला- ‘ए गांधी बाबा, तूने क्या-क्या बनाकर दे दिया।’ यह वाक्य मेरे मन में गड़ गया और आज तक मैं इसका अर्थ समझने का प्रयास कर रहा हूँ।
मैंने एक किस्सा और सुनाया- मैं जब आठवीं कक्षा में पढ़ता था। मेरे एक शिक्षक थे- बेहद विनम्र, हँसमुख और विद्यार्थियों को प्रेरणा देने वाले। शाम को रोज वे हमारे साथ खेलते, हमें खेलना सिखाते, प्रार्थना सभा कराते और देशभक्ति के गीत सुनाकर हमें याद कराते। मातृवंदना कराते। हम लोग उनसे बहुत प्रभावित थे। इसी बीच एक रोज खबर आई कि दिल्ली में गांधी जी को गोली मार दी गई। दूसरे दिन स्कूल में शोक सभा हुई। हम सभी रो रहे थे। क्यों? हमें पता नहीं। पर सबने देखा कि हमारे वे प्रिय अध्यापक गायब थे। बाद में वे कभी स्कूल लौटे ही नहीं। उस रहस्य को मैं आज तक नहीं समझ पाया। आज भी मुझे लगता है कि गांधी जी की हत्या में उनका जरूर कोई संबंध था। क्या था, यह आज तक नहीं समझ पाया। पर इसकी अनेक व्याख्याएं मैं करता रहा हूँ।
मैं जो भी बोला अपनी तरह से गांधी को समझने की द़ृष्टि से बोला। गांधी एक व्यक्ति भर नहीं हैं- वह एक दर्शन हैं, जीवन पद्धति हैं तथा मनुष्यता के निकट जाने का सबसे महत्वपूर्ण मार्ग हैं। वह कोई देवता नहीं हैं जिसे आराधना-प्रार्थना से रिझाया जा सके। गांधी भाषणबाजी का विषय नहीं, आचरण का उपक्रम है। वे विश्व में इसलिए पूजित हो सके कि वे पूरे विश्व की चिंता करते हैं, मानवता तथा मानव मूल्यों की रक्षा की बात करते हैं।
वे परिवार की छोटी–छोटी बातों पर पूरा ध्यान देते हैं। वे देवदास गांधी को पत्र लिखते हैं और कस्तूरबा की गंभीर बीमारी की सूचना देते हैं। वे पुत्र को यह लिखना नहीं भूलते कि तुम्हारा हस्तलेख बहुत खराब है, इसे सुधारो। क्या ऐसे व्यक्ति को समझना आसान है जो अपने व्यक्तित्व तथा आचरण में पूरे विश्व को समाहित कर लेता है? मैंने अपना वक्तव्य समाप्त किया और श्रोताओं से कहा– अच्छा हो यदि आप लोग, मैंने जो कुछ कहा है, उसपर प्रश्न करें। बातचीत करने से बहुत सी चीजें स्वत: स्पष्ट हो जाती हैं।
मेरे इस प्रस्ताव के बाद एक महिला संभागी खड़ी हुई और बोली- ‘आपको बहुत-बहुत साध्ुवाद। आपने जिस तरह गांधी जी को समझा है, वे हमारे दिल के और निकट हो गए हैं। यदि ऐसे ही वक्तव्य सुनने को मिलें तो यह प्रशिक्षण सार्थक हो सकेगा। आप फिर कब आएंगे?’ पूछकर वह बैठ गई। मुझे थोड़ी हैरत हुई। फिर अविलंब वर्मा जी ने माइक संभाल लिया और कुछ शब्द कहे- हम जल्दी ही आपको संबोधित करने के लिए इन्हें फिर बुलाएंगे।
वर्मा जी मुझे और कुछ और वी.आई.पी. होने का आभास देने वाले लोगों को लेकर एक अलग कमरे में पहुंच गए, जहां हम थोड़े से लोगों के लिए लंच की अलग से व्यवस्था थी। वर्मा जी ने कहा, ‘आप तो बहुत ही अच्छा बोले, जैसे गांधी जी को दिल से समझ कर बोल रहे हों।’
‘वर्मा जी, मैं तो कोई गांधी पर अधिकारी विद्वान नहीं हूँ। आप लोगों ने तो गांधी जी का गहरा अध्ययन किया है और किताबें भी लिखी हैं। मैं बस यों ही…’
‘नहीं नहीं, आपकी समझ बहुत गहरी है। इस संस्थान में आप जैसे गुणी व्यक्ति का अधिकाधिक उपयोग होना चाहिए।’
खाना परोसा जाने लगा। सब कुछ चुस्त-दुरस्त और स्वादिष्ट। वर्मा जी संस्थान के निदेशक हैं और मुख्यमंत्री के चहेते हैं। सही कहूँ कि भोजन में मजा आ गया। भोजनोपरांत वर्मा जी ने मुझे कुछ देर यहीं बैठने के लिए कहा।
वर्मा जी ने थोड़ी देर बात आकर मुझसे कहा, ‘आप बहुत प्रभावशाली ढंग से बोलते हैं। गांधी जी पर आपका आज का वक्तव्य बहुत चुभने वाला था।’
‘क्या गांधी जी का नाम लेने से या अपने को गांधीवादी कहने से गांधी जी का सम्मान बढ़ता है?’ मैंने पूछा।
‘नहीं, पर मुख्यमंत्री इस संस्थान को आदर्श रूप देना चाहते हैं।’
‘क्या मुख्यमंत्री ने गांधी जी को पढ़ा और समझा है?’
‘पढ़ा तो नहीं है, पर वे गांधीवादी हैं’, वर्मा जी ने जोर देकर कहा।
‘कैसे?’
‘वे खादी पहनते हैं, जमीन पर सोते हैं और…’
‘सफाई से झूठ बोलते हैं’, मैंने बीच में ही टोक दिया- ‘इस देश के कितने लोग फुटपाथ पर सोते हैं और गांधीवादी लोगों की कारें उनको कुचल जाती हैं, फिर भी उनका कुछ नहीं होता?’
‘यार, तुम बहुत कटु हो जाते हो! अब हमें तो यह सब मिला है, मुख्यमंत्री के आदेश का पालन करना ही है।’
‘यह क्यों नहीं कहते कि मुख्यमंत्री के साथ आप भी गांधी जी का व्यवसाय कर रहे हैं?’ मैं चलने के लिए खड़ा हो गया।
वर्मा जी ने इस बार नहीं रोका। वे मुझे बाहर तक छोड़ने आए और बोले, ‘मैं जल्दी ही आपसे फिर बात करूंगा।’
‘वर्मा जी आप मुझे नहीं बुलाएंगे।’ कहकर मैं आगे बढ़ गया।
समय की गति बहुत तेज है। कुछ दिन बाद ही विधानसभा के चुनाव हुए और सरकार दूसरे दल की बन गई। नई सरकार का पहला प्रहार गांधी संस्थान पर हुआ। पहले तो इसके वर्मा जी और अन्य अधिकारियों को हटा दिया गया। नई विधानसभा की पहली बैठक में ही गांधी संस्थान को बंद करने का प्रस्ताव पारित करा दिया गया।
अब यहां एक अच्छी इमारत बन गई। इमारत बहुत भव्य है- आधुनिकतम सुविधाओं से संपन्न। कलात्मक ढंग से सजे बड़े-बड़े कमरे। भवन में दीवारों पर गांधी की विभिन्न मुद्राओं के अनगिनत चित्र। सर्वत्र एसी, उन्नत कोटि का फर्नीचर। भवन के मुख्य द्वार पर सुनहरे अक्षर में ‘गांधी संस्थान’ लिखा हुआ, साथ में नए मुख्यमंत्री द्वारा उद्घाटन के विवरण। नई सरकार ने पुराना सब उखाड़ फेंका।
नई सरकार के पास भी वर्मा जी जैसे अनेक लोग थे जिन्हें उपकृत किया गया था। जिस दल की सरकार बनी थी, उसके कई पूर्वज नेता थे जिनकी स्मृति को अक्षुण्ण रखने के प्रयास जरूरी थे। वे नेता भी गांधी संस्थान में आ गए!
एक दिन मैंने करिश्मा देखा, संस्थान की इमारत जे.एल.एन. मार्ग पर खुलने वाले फाटक पर गांधी संस्थान का एक छोटा-सा पुराना बोर्ड टेढ़ी-मेढ़ी हालत में लटका दिख रहा है। मन में प्रश्न उठा, यह कैसे बच गया?
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