कवि और समीक्षक

कृतियाँ ‘ठाकुर जगमोहन सिंह समग्र’, ‘ समकालीन हिंदी कविता’,

‘जल भीतर इक बृच्छा उपजै’ (काव्य संचयन), ‘लौटता हूँ मैं तुम्हारे पास’ (काव्य संग्रह)।

 

 

ज्ञानरंजन अपनी कहानियों तथा महत्वपूर्ण पत्रिका ‘पहल’  के संपादक के रूप में पिछले पांच दशक से विशिष्ट जगह बना चुके हैं। उनकी कहानियां एक अलग भाव-संवेदना ही नहीं, एक नए अनुभव- संसार की भी कहानियां हैं। उनकी भाषा उनकी कहानियों की एक प्रमुख शक्ति मानी जाती है। उनके गद्य की इस शक्ति का नमूना उनके सद्य: प्रकाशित गद्य संग्रह ’उपस्थिति का अर्थ’  में दिखाई देता है। उनका पहला गद्य संग्रह ’कबाड़खाना’ उनकी स्मृतियों और अनुभव जगत के अनेक उबड़-खाबड़ और पथरीले संसार को उद्घाटित करने वाला महत्वपूर्ण गद्य संग्रह रहा है।

उपस्थिति का अर्थ’ से हम ज्ञानरंजन की आंखों से अपने समय के टूटते-बिखरते और छीजते जीवन मूल्यों को एक नई दृष्टि से देखते हैं। वे एक ऐसे साहित्यकार हैं जिनके यहां जीवन और समाज के बुनियादी सवालों को लेकर बेचैनी और व्याकुलता है। इसलिए उनके गद्य को सुनना या पढ़ना अपने समय की बेचैनियों और व्याकुलताओं की एक अंधेरी सुरंग से गुजरना है। उनके गद्य में हम उन अनसुनी आवाजों को भी सुन सकते हैं जो अक्सर कहीं दबी-ढकी और खोई रह जाती हैं।

ज्ञानरंजन ने इस गद्य संग्रह में अपने व्याख्यानों, संस्मरणों, साक्षात्कारों, रेडियो-संवाद और अन्य माध्यम से हमारे समय की गुम होती आवाजों को सुनने की कोशिश की है। उनकी यह दुनिया जितनी जानी-पहचानी होती है उतनी ही नई भी। वे विषयों की गहराई में उतरना पसंद करते हैं,  उनके यहां चीजों को सतह पर खड़े होकर देखने की आश्वस्ति दूर-दूर तक नहीं है।

अपने पहले ही निबंध में ज्ञानरंजन इस स्थापना पर जोर देते हैं कि ’वास्तविकता को देखने के लिए भी आपको एक फैंटेसी की, एक स्वप्न की, आंखों की जरूरत पड़ती है। अगर आप स्वप्न नहीं देख सकते, आप फैंटेसी नहीं देख सकते, तो आप कहानी नहीं लिख सकते। आप यथार्थ नहीं लिख सकते।’ ज्ञानरंजन का यह कथन केवल कहानी के संदर्भ में ही नहीं वरन् संपूर्ण साहित्य के लिए मौजूं है। उनके यहां पूर्वनिर्धारित या पूर्वनिर्मित अवधारणा के लिए कोई जगह नहीं है।

जब ज्ञानरंजन कहते हैं, ’आकाश हम छू रहे हैं, ज़मीन खो रहे हैं’  तो वे एक ऐसे विलक्षण गद्य की पंक्ति निर्मित करते हैं जिसमें जाहिर है हमारा यह विकट समय भी झिलमिलाता दिखाई देता है। उनका इशारा आज के तकनीकी रूप से समृध्द समाज की नींव में धंसने की छटपटाहट को प्रदर्शित करता है। ज्ञानरंजन की बेचैनियां और उदासियां उनके इस संग्रह में अलग-अलग रूप में मौजूद हैं। इनके बीच हमारे साबूत बचे हुए स्वप्न और उम्मीदें हर जगह दिखाई देते हैं।

फासिज्म के बढ़ते हुए खतरे से ज्ञानरंजन अनभिज्ञ नहीं हैं। उनका यह कथन – ‘यह देश,  समाज,  साहित्य और धर्म का अंधकार काल है’, अत्यंत महत्वपूर्ण है। आगे वे यह भी जोड़ते हैं, ’ पूरे देश में मध्युगीन बर्बरता के दिन आ गए हैं।’  ज्ञानरंजन की चिंता यह है, ’ फासिज्म एक हद तक इतना चमकदार हो जाता है कि लुभाने लगता है।’  उनके इन कथनों को आज के संदर्भ में भी देखा एवं समझा जाना चाहिए।

ज्ञानरंजन के समूचे गद्य में एक वैचारिक प्रतिबध्दता दिखाई देती है। उनकी बेचैनियों और उदासियों के पीछे यही वैचारिकता काम करती है। पुरस्कारों और सम्मानों के बारे में ज्ञानरंजन मानते हैं, ’पुरस्कारों/सम्मानों से जो प्राप्त हो रहा है उससे अधिक छिन रहा है।’  इसी व्याख्यान में ज्ञानरंजन इस निष्कर्ष पर भी पहुंचते हैं, हमें नए सिरे से अपने समस्त सांस्कृतिक उपक्रमों और उसके प्रबंधन पर विचार करना चाहिए। हमें अपने पुरस्कारों की प्रक्रिया को खोल देना चाहिए और उसकी रणनीति और गोपनीयता को भंग कर देना चाहिए।’ हिंदी साहित्य में वैसे भी पुरस्कारों और सम्मानों को सर्वाधिक संदेह की नजरों से देखा जा रहा है।

अपने एक संस्मरण में हरिशंकर परसाई के साथ राजनांदगांव जाकर मुक्तिबोध से मिलने और उन्हें निकट से जानने-सुनने के बाद ज्ञानरंजन लिखते हैं कि परसाई की उपस्थिति में मुक्तिबोध चहकने लगते थे और उत्तेजित भी हो जाते थे। ज्ञानरंजन उन दिनों को इस तरह याद करते हैं, ’इन दिनों की कोई चमक नहीं थी, भरपूर जिज्ञासाएं और कौतुहल के दिन थे। मैं सीख रहा था और सीखते व्यक्ति को उन दिनों शर्म से नहीं देखा जाता था।’ अपनी इसी रचना में ज्ञानरंजन मुक्तिबोध की कविता ’अंधेरे में’ का जिक्र करते हुए लिखते हैं, ’यह कविता आधुनिक हिंदी कविता का सबसे बड़ा उजाला है।’

केदारनाथ सिंह के कविता-कर्म पर भी ज्ञानरंजन ने विचार किया है। वे कहते हैं, ’ केदारनाथ सिंह के कविता संसार में मुग्ध कर देनेवाली सादगी और संप्रेषण है। उनका लैंडस्केप पूर्वांचल में है जिसमें चरवाहे, नदियां, पुल, कारीगर, पंचायतें, छोटे शहर, कस्बे, मेले, मामूली और मासूम लोग, एक धुंधली शर्मीली दुनिया की जनता है।’ ज्ञानरंजन जिस तरह से केदारनाथ सिंह की कविताओं के मर्म को स्पर्श करते हैं, वह कविता की उनकी गहरी समझ को प्रदर्शित करता है। वे एक ऐसी शख्सियत हैं जिनके पास चीजों को देखने-परखने का अलग नजरिया है।

साक्षात्कारों में भी ज्ञानरंजन एक नए ढंग से खुद को प्रस्तुत करते हैं। एक सवाल के जवाब में वे कहते हैं, ’विचारधारा किसी लेखक को बड़ा नहीं बनाती। लेखक बड़ा और महान बनता है अपनी संवेदनाओं के कारण। ’विचारधारा की आड़ में बड़े बनते हुए अनेक लेखक और कवि को हमने शिखर से नीचे गिरते हुए देखा है।’ ज्ञानरंजन के इस कथन के निहितार्थ को समझने की आवश्यकता है। स्वयं ज्ञानरंजन तथा उनकी पीढ़ी के लेखक अपनी संवेदनाओं के कारण ही आज शिखर पर चमकते हुए दिखाई देते हैं।

एक साक्षात्कार में ज्ञानरंजन यह भी कहने से नहीं चूकते हैं, ’इस वक्त जब देश में फासिज्म का बर्बर दौर शुरू हो गया है तो एकाएक हजारों कविताएं लिखी जाने लगीं। सब की सब कविताएं- दो-चार अपवादों को छोड़कर आवेग का टुकड़ा मात्र हैं।  वे हमारी कविता की परंपरा का टुकड़ा नहीं लगतीं। ’यह ढेर सारे कवियों को नागवार लग सकता है किंतु ज्ञानरंजन के इस कथन में अतिकथन नहीं है। वे जो कुछ बोलते या लिखते हैं वह इतना निर्मम होता है कि उससे साक्षात्कार करने की हिम्मत जुटा पाना बहुतों के लिए कठिन हो सकता है। दूसरों को खुश करना या तटस्थता ओढ़ लेना ज्ञानरंजन की फितरत नहीं है। इसलिए उनके गद्य का अपना एक अलग ठाठ है।

ज्ञानरंजन ने रंगकर्मी अलखनंदन को याद किया है, इससे हम अलखनंदन को एक नए रूप में जान पाते हैं। अलखनंदन पर लिखते हुए वे उनके साथ बिताए हुए दिनों को याद कर यह जोड़ना नहीं भूलते हैं कि उनकी काया में जो भाषा तैर रही थी वह संघर्षशील हिंदी पट्टियों में तैयार हुई थी। जबलपुर में अलखनंदन के साथ मिलकर उन्होंने जिस ’विवेचना’ नामक रंग संस्था का निर्माण किया था उसे भी ज्ञानरंजन ने अपने इस गद्य में रेखांकित किया है। ज्ञानरंजन मित्रों को अपने जीवन में एक अलग और महत्वपूर्ण जगह देते हैं। वे उनकी स्मृतियों में एक खास तरह की संवेदना को बचाए रखते हैं।

ज्ञानरंजन के गद्य को पढ़ना किसी अग्निपथ से गुजरना है। इससे गुजरकर पाठकों को एक नए किस्म के ताप का अनुभव होता है और कुछ नया पाने का भी। उनका गद्य हमारी संवेदनाओं पर पड़ी राख को काफी हद तक झाड़ने का काम करता है और हृदय एवं मस्तिष्क में दबी पड़ी असंख्य चिंगारियों को फिर से कुरेदने की कोशिश भी। इसलिए ज्ञानरंजन के गद्य को सरसरी निगाह से देखकर गुजर जाना कठिन है। उनका गद्य हमें अपनी ओर बुलाता हुआ, अपनी बेचैनियों, उदासियों, व्याकुलताओं में शामिल कर लेने वाला है।

समाज में एक लेखक की उपस्थिति किस तरह से अलग मायने रखती हैं, किस तरह से अपने स्वप्न और प्रतिरोध का नया संसार गढ़ती हैं, यह ज्ञानरंजन के गद्य से हमें सीखने की जरूरत है। भाषा की चमक और खनक ज्ञानरंजन के गद्य की प्रमुख शक्ति है।

 

 

जिज्ञासा : आप ऐसा क्यों मानते हैं कि आज रचनाकारों को अपने समाज में धंसने की ज्यादा जरूरत है?

ज्ञानरंजन : मैं अपने ही साहित्य समाज से सीखता चलता हूं। कहानी के लिए यह अद्भुत समय है। यथार्थ तार-तार और विखंडित हो रहा है। केवल बौध्दिक अनुराग से काम नहीं निकलनेवाला। अपने समाज और देश से प्यार बहुत जरूरी है। अपने समाज और लोगों से वास्तविक प्यार रचनाकार ही कर सकते हैं, फासिस्ट नहीं। जानना और सूचित करना पर्याप्त नहीं है। लिखते जाना भी पर्याप्त नहीं है। छपते जाना भी पर्याप्त नहीं है। नए मुहावरे को जन्म देना, त्रासदी के मध्य डूबना-उतराना और लगभग अकेला पड़ जाना भी आज रचनाकार के लिए बेहद जरूरी है। इसलिए रचनाकारों को आज जनसंपर्क की नहीं, अपने समाज में धंसने की ज्यादा जरूरत है।

जिज्ञासा : आप अपने इस निष्कर्ष को कितना सही मानते हैं कि कविता और कहानी का स्वरूप बदलना होगा ?

ज्ञानरंजन : यह देश, समाज, साहित्य और धर्म का अधंकार काल है। स्थिति गड्डमड्ड है और आज की घटनाओं ने बहुत ज्यादा पेंच डाल दिया है। इतिहास-विवेक के लिए मुश्किलें बढ़ रही हैं। हम इतिहास में रहना चाहते हैं और इतिहास के शिक्षण से अग्रगामी बनना चाहते हैं, लेकिन इतिहास-विमुखता का विस्फोट हमें इतिहास के बाहर धकेल रहा है। यह त्रासद विडंबना है, जिससे कभी न कभी हर समाज को लड़ना पड़ता है। इसलिए अब कविता और कहानी के स्वरूप को बदले जाने की जरूरत है।

जिज्ञासा : आपके मन में पुरस्कार और सम्मान को लेकर इतनी कड़वाहट क्यों है?

ज्ञानरंजन : जब मैं अपने अंधेरे में देखता हूं या बाहर देखता हूं तो हमारे साहित्यिक समाज में घोर उथल-पुथल, मत-मतांतर, पत्रकारी किस्म के विवादी और विलक्षणता की ऐसी घड़ी चल रही है जब तीव्र हिंसा बीचोबीच पैदा हो गई है। इसमें केवल द्वेष ही नहीं मार्मिक सच्चाइयां भी काम कर रही हैं। इसलिए मेरी एक सोच यह है कि हमें नए सिरे से अपने समस्त सांस्कृतिक उपक्रमों और उसके प्रबंधन पर विचार करना चाहिए।

जिज्ञासा : ’उपस्थिति का अर्थ ’ में हरिशंकर परसाई पर आपकी एक लंबी टिप्पणी है। आपने उनके साथ एक लंबा जीवन बिताया है। परसाई जी को आप किस तरह से याद करते हैं?

ज्ञानरंजन : अगर परसाई जीवित होते तो पचास साल के दर्पण में जितने भव्य और रंगीन चित्र दिख रहे हैं, दिखाए जा रहे हैं, वे चित्र लगभग दूसरे किस्म के होते। अपनी रचना का जोखिम उन्होंने शारीरिक क्षति की कीमत तक उठाया। इसलिए मैं कहना चाहता हूं कि व्यंग्य की उत्पत्ति और महान रचना की उत्पत्ति के जो कारण हैं इनसे गुजरे बिना परसाई या परसाई जैसे किसी भी रचनाकार का निर्माण नहीं हो सकता। मीडियाक्रिटी परसाई के पास फटक नहीं सकती थी। अब परसाई का यश इतना है कि उनके निकट मीडियाक्रिटी ही मंडरा रही है।

जिज्ञासा : इलाहाबाद की पृष्ठभूमि पर भी एक छोटा-सा संस्मरण इस किताब में है। आज आप इलाहाबाद को किस तरह से याद करते हैं?

ज्ञानरंजन : मैंने इलाहाबाद में ही मुक्तिबोध को पहली बार देखा और सुना था। हमारी मंडली कमसिन, आवारा और साहित्य-उत्सुक मित्रों की मंडली थी। हमारे साथ कुछ उजाड़ दोस्तों का समूह था। दीन-दुनिया की रेखा में रहनेवाले लोग समझते थे कि हम भविष्यहीन हैं, पर हमारे भीतर नमक और भूख थी जिसकी वजह से लोग हमें प्यार करते थे। हमें इलाहाबाद का आवारागर्द समझा जाता था। उन दिनों यूरोप और अमरीका में गूंजते प्रतिरोध के स्वरों से हम परिचित थे। हमारे भीतर उन दिनों कलाओं का संचार हो रहा था। हम मोटे तौर पर दक्षिणपंथी दुनिया के खिलाफ थे जिसके प्रबल सांस्कृतिक सूत्र इलाहाबाद में मौजूद थे। प्रभात, नीलाभ और अजय सिंह हम सब चौबीस घंटे के साथी थे। उन दिनों आज की तरह लोग दिल्ली नहीं जाते थे, इलाहाबाद जाते थे। इलाहाबाद आज हिंदी का दशाश्वमेध घाट बन गया है!

जिज्ञासा : आपकी इस नई किताब में ’पहल’ को लेकर दिया गया एक व्याख्यान सम्मिलित है। आप ’पहल’ का किस तरह से आकलन करते हैं?

ज्ञानरंजन : मैंने ’ पहल’ के रूप में एक स्वप्न देखा है, उसकी नौकरी नहीं की। उसका उत्पादन नहीं किया। उसकी सत्ता नहीं बनाई। मैंने ’पहल’ को महान पूर्वजों के रास्ते पर डाल दिया है। ’ पहल ’ वामपंथ के सभी धड़ों और लोकतांत्रिकों का प्यार और सहयोग पाती रही है, यही उसकी प्राणशक्ति है। दक्षिणपंथ, कलावाद, फासीवाद के विरूध्द ’ पहल ’ का रचनात्मक संसार कभी लड़खड़ाया नहीं। ’पहल’ इसी ब्रह्मांड का छोटा-सा स्वप्न है। इसी ब्रह्मांड का यथार्थ है, वह इसी में भटक रही है। ’पहल’ की भूमिका एक छोटी-सी रोशनी है, जब तक वह हार-थक नहीं जाती।

 

 

वह हंसी बहुत कुछ कहती थीराजेश जोशी के समय-समय पर लिखे गए निबंधों, टिप्पणियों और यात्रा संस्मरणों का अनूठा गद्य संग्रह है। वे कवि के रूप में प्रतिष्ठित हैं। उन्होंने कविताओं के साथ-साथ कहानियां, नाटक और निबंधों की भी रचना की है। पद्य की तरह गद्य में भी उनका असाधारण अधिकार है। समय और समाज को लेकर उनके यहां एक गहरी व्याकुलता प्रारंभ से है। साहित्य और समाज को लेकर बहुत कुछ ऐसा है जिसे गद्य के ढांचे में कहना ही उन्हें अनुकूल लगता है। एक साहित्यकार की समाज के प्रति जिम्मेदारियों को लेकर उनके यहां एक अलग तरह की बेचैनी और सक्रियता दिखाई देती है।

इस किताब के पहले निबंध में राजेश जोशी ने जिद्दी गौरैया के माध्यम से एक अनूठा बिंब निर्मित किया है। वे कहते हैं, ‘मनुष्य भी एक जिद्दी गौरैया है। उसके सपनों को कितनी ही बार तोड़ने की, छीनने की, मारने की कोशिश की जाती है पर वह सपने देखने से बाज नहीं आता। ’ इस तरह वे मनुष्य के स्वप्न और संघर्ष को न केवल रेखांकित करते हैं, बल्कि उसकी अनिवार्यता को भी एक नए आलोक में देखने की मांग करते हैं। अपने एक निबंध में बांग्ला में कविता आवृत्ति की परंपरा को महत्वपूर्ण मानते हुए वे कहते हैं कि हिंदी में अच्छा काव्य पाठ करने वाले कवियों के उदाहरण कम हैं। वे यह जोड़ते हैं, ‘निराला बहुत अच्छा काव्य पाठ करते थे।‘

’भूख के राज्य में क्या पृथ्वी सचमुच गद्यमय है?’ में वे कहते हैं, ’अब सिर्फ गद्य ही एकमात्र संभावना है। अगर कहीं कुछ भी अच्छा और उल्लेखनीय हो रहा है तो वह सिर्फ गद्य में हो रहा है’। वे ऐसे लोगों के विषय में टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि गद्यकारों के एक बड़े समुदाय को राजेंद्र यादव वाला छूत का रोग लग चुका है। राजेश जोशी की इस बात से शत-प्रतिशत सहमत हुआ जा सकता है कि साहित्य गद्य और पद्य दोनों के बिना अपनी संपूर्णता प्राप्त नहीं कर सकता। वैश्विक साहित्य में गद्य और पद्य दोनों के लिए समान स्थान है। हिंदी पट्टी में संभव है कि पद्य को नकारते हुए केवल गद्य को महत्वपूर्ण माना जा रहा है।  यह हिंदी पट्टी की मानसिक दुर्बलता को प्रदर्शित करता है। राजेश जोशी ने कहा है, ’आज शायद हम एक ऐसे ही समय में रह रहे हैं जब कविता की आवश्यकता अधिक है और दूसरी ओर कवि कर्म कठिन हुआ है।’

महात्मा गांधी और रवींद्रनाथ ठाकुर की अद्वितीय मित्रता और उनके मतभेदों को लेकर राजेश जोशी ने अपने एक निबंध ’मित्रता और मतभेद के बीच एक महात्मा और कवि’ में दोनों युगांतकारी शख्सियतों को केंद्र में रखा है। उनका मत है कि महात्मा गांधी और रवींद्रनाथ अपने पत्रों या लेखों में अपने मतभेद को कभी छिपाने या टालने की कोशिश नहीं करते। दोनों मानते थे कि मतभेद के कारण उनकी मित्रता और अधिक दृढ़ हुई है। सव्यसाची भट्टाचार्य द्वारा संपादित किताब ’महात्मा और कवि’ को इसके लिए वे अपना आधार बनाते हैं।

अज्ञेय को केंद्र में रखकर लिखे गए निबंध ’अपनी परछाही को भेद-भेद जाते अज्ञेय’ में राजेश जोशी ने उस अज्ञेय से हमारा साक्षात्कार करवाने का प्रयास किया है जिसको लेकर अनेक तरह के मिथ और पूर्वग्रह हिंदी साहित्य में एक अरसे से विद्यमान हैं। इस निबंध में अज्ञेय के एक दूसरे ही रूप को राजेश जोशी पकड़ने का यत्न करते दिखाई देते हैं। राजेश जोशी मानते हैं, ’अपने मूल स्वभाव की बनक के पास आने के लिए ही अज्ञेय कई बार उससे बहुत बाहर, अपने स्वभाव की लगभग विपरीत हदों तक जाते दिखते हैं। कभी क्रांतिकारी संगठन के साथ, कभी राहुल सांकृत्यायन के साथ किसान आंदोलन में, कभी फासिज्म विरोधी अभियान का आयोजन करते और कभी फौज में। ’

’नया प्रतीक ’ में स्वयं अज्ञेय द्वारा लिखे जाने वाले कॉलम ’भरती का पृष्ठ’ के बारे में राजेश जोशी का निष्कर्ष है कि इस कॉलम में अज्ञेय जैसे गंभीर साहित्यकार अनेक रचनाकारों की चुटकियां लेते हुए दिखाई देते हैं। अज्ञेय के साथ अपने साक्षात्कार को लेकर राजेश जोशी बताते हैं कि 1986 के अंतिम दिनों में ‘रंगश्री लिटिल बैले ट्रूप’ की वार्षिक बैठक में अज्ञेय भोपाल आए हुए थे। प्रभात गांगुली के घर पर एक ढलती दोपहर में अज्ञेय के साथ हुई अपनी मुलाकात को इस निबंध में राजेश जोशी ने बेहद आत्मीयता के साथ स्मरण किया है।

विनय दूबे और वेणुगोपाल जैसे महत्वपूर्ण कवियों की छवियां और स्मृतियां राजेश जोशी के भीतर महफूज हैं। दोनों को जिस तरह से राजेश जोशी ने अपने अलग-अलग निबंधों में याद किया है, उससे इन कवियों की पहचान निर्मित होती है। अपने मित्र कवियों पर लिखते हुए राजेश जोशी कहीं-कहीं बेहद भावुक हो जाते हैं। राजेश जोशी मकाऊ की यात्रा पर लिखते हुए यह बताना नहीं भूलते कि साथ लाए गए सामान विमानकर्मी दल की गलतियों के कारण ढाका में ही छूट गया था। इसकी खबर उन्हें हांगकांग के विमानपत्तन पर उतरने के बाद लगती है। शेनजांग में फुटपाथिया बाजार में अपनी बेटी के साथ पहनने के लिए वस्त्र खरीदने का दिलचस्प और रोचक चित्रण भी राजेश जोशी ने अपने संस्मरण में किया है।

’हरसूद : एक नीली खिड़की और कुछ दरवाजे ’ में वे हरसूद का चित्रण करते हुए जैसे एक सुदीर्घ कविता लिखते हुए दिखाई देते हैं। इसमें विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास ’दीवार में एक खिड़की रहती थी ’ को भी याद करते हैं। नर्मदा में बांध बनने के कारण विस्थापित होने वाले ग्रामीणों के जीवन को, उनकी पीड़ा और दुख को जिस तरह राजेश जोशी ने अपने गद्य में शामिल किया है, उससे एक अलग तरह की दुनिया निर्मित होती है। विस्थापन के लिए जैसे, हर बार एक नया रूपक गढ़ते हैं। एक रूपक यह है, आदमी अभी भी उस नीली खिड़की को हाथ में पकड़े खड़ा था। जैसे वह कोई बाइस्कोप की खिड़की हो जिसमें एक गांव के उजड़ने का दृश्य चल रहा था। एक ही दृश्य लगातार चलता हुआ। छनेरा में जहां यहां के निर्वासितों को बसाया जाएगा, जब यह आदमी अपना डेरा बांधेगा और अपने पुराने घर की इस खिड़की को नये घर में लगाएगा और जब सुबह-सुबह वह इस खिड़की को खोलेगा तो क्या होगा ? पहला दृश्य कौन-सा होगा जो उसकी आंखों के आगे आएगा।’ हरसूद को लेकर ऐसा मार्मिक रूपक राजेश जोशी ही गढ़ सकते हैं।

’उर्दू है जिसका नाम’ में राजेश जोशी उर्दू भाषा और लिपि को लेकर किए गए तमाम प्रयोगों और अवरोधों की गंभीर पड़ताल करते हैं। उर्दू के विषय में वे मानते हैं ‘उर्दू के सामने ये चुनौतियां मुझे लगता है थोड़ी ज्यादा हैं। उर्दू को मुस्लिम अल्पसंख्यकों की भाषा मान लिया गया है।’ उर्दू भाषा और लिपि को लेकर उनकी यह चिंता बेहद मानीखेज है। उर्दू भाषा और लिपि को लेकर हमारे भीतर जिस तरह के संस्कारों को हवा दी गई है उसमें हम इसे धर्म और मजहब के चश्मे से देखने के आदी हो गए हैं। किसी भी भारतीय भाषा को लेकर इस तरह की वैमनस्यता नहीं दिखाई देती है जिस तरह उर्दू भाषा को लेकर दिखाई देती है।

’अपसगुन देखते ही चिल्लाती है कंधे पर बैठी अदृश्य चिड़िया’ में राजेश जोशी यह मानते हैं, ’शायद यही समय है जब कविता को अपने समय की आवाजों को सबसे अधिक सतर्कता से सुनने की जरूरत है।’ वे हिंदी कविता के समक्ष एक बड़ी चुनौती को सामने रखते हैं। अगर हिंदी कविता अपने समय की आवाजों को सतर्कता के साथ सुनने से बचने की कोशिश करती रही तो उसको एक गहरे संकट से गुजरना पड़ सकता है। एक संकट तो यह है कि वह अपनी विश्वसनीयता खो देगी और दूसरा यह है कि वह अपनी महान विरासत से कट चुकी होगी। राजेश जोशी के लिए ’असहमति में उठा हाथ हमारे समय का सबसे सकारात्मक बिंब है।’ वे इस निबंध में स्वीकार करते हैं, ’पुरुषसत्तात्मक समाज अन्याय पर आधारित संरचना है। वह स्त्री और पुरुष के बीच भेद करता है। उनके अधिकारों के बारे में भेद करता है। समान अधिकार का दावा करनेवाली लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में भी क्या सबको समान अधिकार मिल पाते हैं?’  वे नाउम्मीदी के बीच कुछ अच्छा और सुंदर घटित होगा, इस पर विश्वास करते हैं।

राजेश जोशी हमारे समय के उन प्रगतिशील और विचारवान कवियों में हैं जो हमेशा अन्याय और झूठ के विरूद्ध असहमति और प्रतिरोध की मुद्रा में दिखाई देते हैं। लगता है, जब कविता में वे अपनी बात कह चुके होते हैं और जब उन्हें लगता है कि बहुत कुछ कहने से रह गया है, तो वे गद्य का आश्रय लेते हैं।

राजेश जोशी की किताब ’वह हँसी बहुत कुछ कहती थी’  हमारे समय के एक बेचैन और प्रतिपक्ष में खड़े कवि का गद्य है जिसे अपने अस्वीकार किए जाने की कोई चिंता नहीं है। उनके इस गद्य संग्रह को पढ़ना उस धूसर संसार से गुजरना है जहां बहुत सारे टूटते हुए स्वप्न, थके हुए संघर्ष और विपदाएं हैं लेकिन उम्मीद की क्षीण किरण भी इन्हीं में झिलमिलाती है।

 

 

जिज्ञासा : आपने इस किताब में एक जगह लिखा है कि मनुष्य भी एक जिद्दी गौरैया है। जिद्दी गौरैया के इस बिंब पर थोड़ा और प्रकाश डालिए।

राजेश जोशी : जिद्दी गौरैया का बिंब सालिम अली की आत्मकथा ‘फॉल ऑफ ए स्पैरो’ से आया है। सालिम अली ने गौरैया के बारे में लिखा है कि प्रजनन के समय वह एक चिड़े को अपने साथ लाती है। चिड़ा घोंसले के बाहर बैठा रहता है। सालिम अली ने एक बार बाहर बैठे चिड़े को गुलेल से मार दिया। गौरैया दुबारा गई और एक दूसरे चिड़े को ले आई। इस तरह सालिम अली ने तीन-चार बार चिड़े को गुलेल से मार दिया पर हर बार गौरैया उड़ कर जाती और एक चिड़े को अपने साथ ले आती थी। सालिम अली ने इस प्रसंग को बहुत सुंदर ढंग से लिखा है। मनुष्य भी श्रम और संघर्ष का रास्ता कभी नहीं छोड़ता। वह जीवन को बेहतर बनाने के लिये लगातार श्रम और संघर्ष करता है। मानव समाज का आज तक का इतिहास इसी श्रम और संघर्ष की गाथा है। एंगिल्स ने बंदर से आदमी बनने की प्रक्रिया वाले लेख में लिखा है कि मनुष्य का शरीर तो केवल रूप है उसकी अंतर्वस्तु श्रम है।

जिज्ञासा : आपने लिखा है कि आलोचक अपने कवि को सबसे बड़ा कवि कहता है और कवि अपने आलोचक को सबसे बड़ा आलोचक। इस तरह ‘अहो रूपं अहो ध्वनिः’ का समा बंधा रहता है। क्या इधर यह प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है?

राजेश जोशी : यह कथन मेरा नहीं डॉ. नामवर सिंह का है। उनके पांच व्याख्यानों का एक संकलन खगेंद्र ठाकुर ने किया था। इसमें एक व्याख्यान है ’ समकालीन आलोचना की समस्याएं ’। इसी व्याख्यान में नामवर जी ने कहा है कि सच्ची आलोचना रचना के साथ चलती है, मगर एक कदम आगे। जो आलोचक यह साहस नहीं कर पाते,  वे ही रचनाकारों के बीच काफी लोकप्रिय होते हैं।

जिज्ञासा : अब सिर्फ गद्य ही एकमात्र संभावना है, इस कथन की आपने आलोचना की है। दुर्भाग्यवश इस कथन को दोहराया जा रहा है। आप ऐसे लोगों के लिए क्या कहना चाहेंगे?

राजेश जोशी : इस तरह के अति-वाक्य बोले जाते रहते हैं। लेकिन ऐसा कोई समाज किसी भी समय नहीं रहा जो कविताविहीन हो। गद्य का अपना महत्व है और हमेशा रहेगा। लेकिन साहित्य की सारी विधाएं प्रथमतः कविता में ही संभव हुई हैं। नाटक, आख्यान, काव्यशास्त्र और आलोचना भी मात्र छंद में नहीं, कविता में ही लिखी गईं। काव्यशास्त्र के ऐसे अनेक अंश देखे जा सकते हैं जो अपने आप में मुकम्मल कविता हैं। कविता का रिश्ता तो मनुष्य के मन और स्वास्थ्य तक से रहा है। इस किताब में ‘सूर्य शतक’ के संदर्भ में एक निबंध है ‘सौ रस्सी का झूला और सूर्य की कविता।‘ कविता तो गद्य के भीतर भी अपनी जगह बना लेती है। ‘पूस की रात’ में अलाव के जलने और पेड़ पर उसकी आग की रोशनी का जो वर्णन प्रेमचंद ने किया है, वह एक कविता ही है। मुझे तो ‘कफ़न’ कहानी भी एक कविता की तरह ही लगती है।

जिज्ञासा : अज्ञेय पर लिखते हुए आपने कहा है कि उनकी छवि ऐसी थी कि वह सहजता से अपने निकट आने की इजाजत नहीं देती। अज्ञेय को लेकर वैसे भी बहुत सारे मिथ और पूर्वग्रह हिंदी साहित्य में बने हुए हैं। इस पर आपकी क्या राय है?

राजेश जोशी : अज्ञेय का जीवन कई तरह के उतार-चढ़ाव से गुजरा है। वे राहुल जी के साथ किसान आंदोलन में भी रहे, एंटी-फासिस्ट आंदोलन के आयोजकों में रहे और भगतसिंह और चंद्रशेखर जैसे क्रांतिकारियों के साथ उन्होंने बम बनाने का काम किया और काल कोठरी की सज़ा भुगती। उनके जीवन के कुछ अंधेरे पक्ष भी हैं। लेकिन अज्ञेय हिंदी के एक बड़े लेखक हैं। किसी भी लेखक को चाहे उसके अंधेरे पक्षों से हमारे मतभेद हों,  पर उसके उजले पक्षों के साथ उसे देखा जाना चाहिए। किसी बड़े लेखक को पूरी तरह ख़ारिज करना मुझे गलत लगता है।

जिज्ञासा : वेणुगोपाल जैसे बहुतेरे कवियों का आज भी ठीक मूल्यांकन नहीं हुआ है। इस पर आपकी कोई टिप्पणी?

राजेश जोशी : नक्सलबाड़ी आंदोलन के साथ आई कविता का मूल्यांकन ठीक से नहीं हो पाया है। सच यह है कि साठोत्तरी कविता में अनेक आंदोलन हैं। ‘नई कविता’ पत्रिका में एक लेख लिखा गया था -किसिम-किसिम की कविता। इसमें दर्जनों आंदोलनों के नाम दिए गए हैं। नक्सलबाड़ी आंदोलन साठ के दशक के अंत में शुरू हुआ। साठोत्तरी कविता के सभी पक्षों पर विचार की आवश्यकता है। पूरी दुनिया में साठ का दशक बहुत हलचलों का दशक रहा है। भारतीय राजनीति में भी पहली बार गैर-कांग्रेसवाद के लोहियावादी विचार की पहली सरकार इसी काल में संभव हुई।

जिज्ञासा : आपने लिखा है कि शायद यही समय है जब कविता को अपने समय की आवाजों को सबसे अधिक सतर्कता से सुनने की जरूरत है। क्या आज के कवि इस आवाज को सतर्कतापूर्वक सुन पा रहे हैं?

राजेश जोशी : मुझे लगता है अनेक युवा कवि हैं जो हमारे समय की हलचलों को न केवल दर्ज़ कर रहे हैं बल्कि प्रतिरोध की एक सशक्त आवाज़ उनकी कविता में है। इसके साथ ही आदिवासी अंचलों और भाषाओं से हिंदी में लिखने वाले अनेक कवि आए हैं। इन्होंने हमारी भाषा को अनेक नए शब्दों और नए अनुभवों से समृद्ध किया है। कविता के कानों को ही नहीं आलोचकों के कानों को भी सतर्क और संवेदनशील होने की ज़रूरत है। तभी वे नई आवाजों और कविता की नई भंगिमाओं को पकड़ सकेंगे।

 

( 1 )  उपस्थिति का अर्थ (गद्य संग्रह) : ज्ञानरंजन,सेतु प्रकाशन,  दिल्ली

( 2 )   वह हँसी बहुत कुछ कहती थी (गद्य संग्रह) : राजेश जोशी, सेतु प्रकाशन, दिल्ली

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