कवि, आलोचक। अद्यतन कविता संग्रह ‘लौटता हूं मैं तुम्हारे पास’ 

आज की कहानी कई अर्थों में अपनी पूर्ववर्ती कहानियों से भिन्न है। यह न केवल नई विषयवस्तुओं का संधान करती है, बल्कि कथा के अनेक ऐसे दुर्गम क्षेत्रों में प्रवेश करने का जोखिम भी उठाती है, जो आज से पहले लगभग असंभव सा जान पड़ता था। यह कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आज की कहानी सीधे हमारे निर्मम समय से, इस मायावी और बहुरूपिया यथार्थ से टकराने की कोशिश करती हुई दिखाई देती है। वह जीवन और समाज की तलहटी में दबी-ढकी सचाइयों को ढूंढकर उसे कथाबद्ध करने का कार्य करती है। इसके अलावा, अपनी तई प्रतिरोध का एक नया मुहावरा गढ़ने की कोशिश करती हुई, अंतर्वस्तु से लेकर रूपविधान और भाषा तक में अतिरिक्त सजगता बरतते हुए कथा को एक नई ऊंचाई तक ले जाने का उद्यम करती है। इसलिए आज की कहानियों से गुजरना हमारे समय के जटिल यथार्थ की कई अंधेरी खोहों और सुरंगों के बीच से गुजरना है। प्रस्तुत है समीक्षा संवाद.

प्रेम के पाठ’ रमेश उपाध्याय की बारह कहानियों का नवीनतम कथा संग्रह है। उनकी ये सभी कहानियां प्रेम को केंद्र में रखकर लिखी गई हैं। नब्बे के दशक से रमेश उपाध्याय हिंदी कहानी में सक्रिय रहे हैं। उनके पास कहानी लिखने का दीर्घ अनुभव है। ‘प्रेम के पाठ’ में संगृहीत कहानियां प्रेम के बदलते स्वरूप को लेकर हैं। स्वयं कहानीकार ने स्वीकार किया है, ‘प्रेम कहानी केवल प्रेम की कहानी नहीं होती। वह संपूर्ण जीवन और जगत की कहानी होती है। वह जीवन और जगत को प्रेममय बनाकर बेहतर और सुंदर बनाने के उद्देश्य से लिखी जानेवाली कहानी होती है।’

‘कामकाज’ इस संग्रह की महत्वपूर्ण कहानी है। इस कहानी का नायक सदाशिव एक कामरेड है जो मजदूरों के लिए एक स्टडी सर्कल चलाता है। उसका जीवन बहुत अस्त-व्यस्त है। उसकी एक प्रेमिका है विदुला। विदुला के पिता नहीं चाहते कि उसका विवाह सदाशिव जैसे बेरोजगार से हो। वह सदाशिव को विदुला के जीवन से हट जाने का सुझाव देता है ताकि उसका विवाह एक डॉक्टर से कर सके। बहुत दिनों बाद जब सदाशिव की विदुला से मुलाकात होती है तो पता लगता है विदुला ने उसके इंतजार में अभी तक किसी से शादी नहीं की और इस तरह कहानी के अंत में दोनों का मिलन हो जाता है।

‘प्रेम के पाठ’ कहानी में नायक का प्रेम पहले अपनी ममेरी बहन माधुरी से हो जाता है। माधुरी उसे समझाती है कि भाई-बहन में प्रेम नहीं हो सकता। तब नवीं कक्षा में जाने के बाद उसका प्रेम इंग्लिश टीचर से हो जाता है। टीचर उसे समझाती है कि अभी तुम बच्चे हो। यह उसके लिए प्रेम का दूसरा पाठ था, जिससे वह जानता है कि ‘प्रेम होता नहीं किया जाता है, उसे करने की एक उम्र होती है, उससे पहले कुछ बनना होता है और प्रेम जो है वह विवाह के लिए किया जाता है।’

फिर उसकी मुलाकात कामरेड अंसारी से होती है। कामरेड अंसारी उसे कहते हैं ‘आप प्रेम की कविता लिखना चाहते हैं तो प्रेम कीजिए, साथ में वे यह भी कहते हैं कि दुनिया भर की अच्छी प्रेम कविताएं इसी बेखुदी के आलम में लिखी गई है।’ कहानी का अंत कुछ इस प्रकार होता है, ‘इस प्रकार हमने प्रेम का पांचवा पाठ पढ़ा। लेकिन वह ऐसा निकला कि खत्म ही नहीं होता। उसे हम आज तक पढ़ रहे हैं और शायद ताउम्र पढ़ते रहेंगे।’

‘काठ में कोंपल’ भूमंडलीय यथार्थ को रेखांकित करने वाली कहानी है। वैश्वीकरण और बाजार ने हमारे जीवन के मूल्यों को बदल दिया है और मनुष्य को एक-दूसरे के खिलाफ भी खड़ा कर दिया है। निजी पूंजी के आगे साम्यवाद का सपना टूट गया है। अब एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था जन्म लेने लगी है जिसका कोई वैचारिक आधार नहीं है। लेखक ने इस कहानी में भी प्रेम को प्रमुख स्थान देते हुए दो भिन्न धर्मों के लोगों के विवाह का चित्रण किया है। इस कहानी में साम्यवाद के विघटन को कहानीकार ने गंभीरता से लिया है। उसके चित्रण में उम्मीद की किरण भी दिखाई देती है कि अभी सब कुछ नष्ट नहीं हुआ है। अभी काठ में कोंपल का उगना शेष है।

जिज्ञासा : पहले की कहानियों में और आज की कहानियों में आप क्या अंतर पाते हैं?

रमेश उपाध्याय : कहानी अपने समय के बदलते यथार्थ को नए ढंग से देखने-दिखाने पर बदलती है। देश और दुनिया के यथार्थ में एक बड़ा बदलाव बीसवीं सदी के अंतिम दशक में सोवियत संघ के विघटन और नव-उदार पूंजीवाद के भूमंडलीकरण से आना शुरू हुआ। इससे पहले की कहानियां प्राय: स्थानीय यथार्थ की कहानियां हुआ करती थीं, किंतु इस बदलाव के बाद की कहानियां स्थानीय यथार्थ को भूमंडलीय यथार्थ से जोड़कर देखने-दिखाने लगीं। मैं इसे भूमंडलीय यथार्थवाद कहता हूं और इसे हिंदी कहानी में आया एक बहुत महत्वपूर्ण बदलाव मानता हूँ।

जिज्ञासा : आपको प्रेम से संबंधित कहानियां लिखने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई?

रमेश उपाध्याय : मैंने केवल प्रेम से संबंधित कहानियां नहीं, विभिन्न विषयों से संबंधित विविध प्रकार की कहानियां लिखी हैं। ‘प्रेम के पाठ’ संग्रह में मेरी समय-समय पर लिखी गईं बारह प्रेम कहानियां हैं। लेकिन इनमें भी आप कथ्य, रूप, भाषा, शिल्प और शैली की द़ृष्टि से पर्याप्त विविधता पाएंगे।

जिज्ञासा : अविज्ञापितकहानी में अलका अग्निहोत्री का संघर्ष क्या आज की नारी का संघर्ष है?

रमेश उपाध्याय : ‘अविज्ञापित’ कहानी अलका अग्निहोत्री के जीवन संघर्ष के साथ-साथ उसके जीवन में प्रेम, प्रेम के अभाव और पुन: एक अनोखे ढंग से उस अभाव की पूर्ति की कहानी है। इसका संकेत कहानी के अंतिम वाक्य में इस प्रकार किया गया है, ‘कई बार प्रेम के हल्के-से अल्पकालिक संबंध जरूरत से ज्यादा विज्ञापित हो जाते हैं, जबकि प्रगाढ़ दीर्घकालिक संबंध अविज्ञापित ही रहे आते हैं।’

जिज्ञासा : एक झरने की मौतमें आपने अरविंद के चरित्र को इतना कुंठाग्रस्त क्यों दिखाया है?

रमेश उपाध्याय : ‘एक झरने की मौत’ का अरविंद कुंठाग्रस्त व्यक्ति नहीं, प्रतिकूल परिस्थितियों में तिल-तिल कर मरने की नियति को प्राप्त एक भारतीय कलाकार है। इसका परिवेश उसके कला-सृजन में सहायक न होकर बाधक बनता है। इसी कारण वह आरंभ में एक उन्मुक्त बहने वाले झरने जैसा है, जबकि अंत में एक सड़ते-सूखते तालाब जैसा हो जाता है।

जिज्ञासा : काठ में कोंपलकहानी में आपने दो पीढ़ियों के प्रेम को चित्रित किया है, जो हिंदू और इस्लाम धर्म से आते हैं। साम्यवाद को लेकर भी आपने गंभीर टिप्पणी की है। आज के छद्म राष्ट्रवाद के दौर में प्रेम और साम्यवाद को हम कितना बचा पाएंगे?

रमेश उपाध्याय : ‘काठ में कोंपल’ आज के भूमंडलीय यथार्थ की कहानी है। सोवियत संघ के विघटन से लेकर आज तक देश और दुनिया में जो साम्यवाद-विरोधी परिवर्तन हुए हैं, वे ऐतिहासिक हैं। उनका प्रभाव एक तरफ मानवीय संवेदनाओं के हरे-भरे वृक्ष के सूखे काठ में तब्दील हो जाने के रूप में दिखाई देता है, तो दूसरी तरफ उसी काठ में से फूटती हुई उम्मीद की नई कोंपल के रूप में। इस ऐतिहासिक परिवर्तन को दिखाने के लिए ही इसमें इतिहास पढ़ने-पढ़ाने तथा इतिहास लिखनेवाले चरित्रों का चित्रण किया गया है। जहां तक आज की परिस्थिति में प्रेम और साम्यवाद को बचाने की बात है, जो चीजें मानव जीवन के लिए आवश्यक होती हैं, उन्हें चाहे जितना मिटाने की कोशिश की जाए, समस्त मानव जाति उन्हें बचाने का प्रयत्न करती है।

योगेंद्र आहूजा के सद्यः प्रकाशित कहानी संग्रह ‘लफ़्फ़ाज़ तथा अन्य कहानियां’ से गुजरना एक अनुभव संसार से गुजरना है। इधर के कथा लेखकों में योगेंद्र आहूजा एक उल्लेखनीय नाम है। वे पूर्व के अपने दो कथा संग्रहों से अपनी अलग पहचान बना चुके हैं और एक समर्थ कहानीकार के रूप में जाने जाते हैं। उन्हें लंबी कहानियों के लेखक के रूप में जाना जाता है। उनका तीसरा तथा नवीनतम कथा संग्रह ‘लफ़्फ़ाज़ तथा अन्य कहानियां’ में भी ‘लफ़्फ़ाज़’, ‘मनाना’ तथा ‘डॉग स्टोरी’ जैसी तीन सुदीर्घ कहानियां संगृहीत हैं। ये तीनों कहानियां अपनी विशिष्ट अतंर्वस्तु, सुघड़ रूपविधान और भाषा की सघन बुनावट के चलते अलग से हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं।

योगेंद्र आहूजा के इस संग्रह की कहानियों को पढ़ते हुए सहज ही यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वे हमारे आज के इस बेहद निर्मम समय को निकट से देखने, समझने तथा अनुभव करनेवाले सचेत लेखकों में से एक हैं। इसलिए उनकी कहानियां जीवन की तलछट में दबी-ढकी उन सचाइयों को भी अनावृत्त करने की शक्ति और सामर्थ्य रखती हैं, जिसे अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है।

‘लफ़्फ़ाज़’ कहानी लिखते समय लगता है लेखक भारतीय राजनीति की वर्तमान प्रवृत्तियों को, समाज और राजनीति की विडंबनाओं को बेहद निकट से देख रहा है। इस समय पूरे देश में लफ़्फ़ाजों का ही बोलबाला है, जो झूठ के बल पर राजनीति और समाज के शिखर पर हैं। एक पात्र कहता है, ‘तकरीरें और तकरीरें दुनिया के हर सब्जेक्ट पर, देश का अतीत, भविष्य, लोकतंत्र, सेक्युलरिज्म, मुसलमान अमरीका आदिवासी क्या कुछ नहीं। कौन नहीं करता? तुम कहोगे और भला हम हिंदुस्तानियों से ज्यादा बहसबाज कौम कौन सी है? गरबीले बहसबाज आरग्यूमेंटेटिव इंडियन। तुम अब भी नहीं समझे? लफ़्फ़ाज़ की खासियत यह थी कि वह दोनों तरफ से एक जैसे आवेग, एक जैसे यकीन, और एक जैसे आंसुओं के साथ बहस करता था और देखते ही देखते बदल सकता था। वह दोनों तरफ नजर आता था, बल्कि हर तरफ। चारों तरफ लफाज ही लफाज।’

कई बार जब सीधे कहना मुश्किल होता है,  कहानी और कविता रूपक में, प्रतीक में, बिंब में अपने समय के सच को प्रतिबिंबित करती है। ‘लफ़्फ़ाज़’ जैसी कहानी को पढ़कर कुछ ऐसा ही प्रतीत होता है। एक सजग कहानीकार को कई बार कहानी के बने-बनाए फ्रेम को तोड़कर बाहर निकलना पड़ता है और एक अलग रास्ते की उसे तलाश करनी पड़ती है। अंधेरे और धूसर रास्तों पर उसे भटकना पड़ता है। योगेंद्र आहूजा संभवत: इसी तरह के लेखक हैं।

इस संग्रह की एक अन्य कहानी है ‘मनाना’। इस कहानी की शुरुआत मेल से होती है। यह मेल किसी और को नहीं पत्नी को किया गया है। एक ऐसी पत्नी को जो तीस साल की वैवाहिक जिंदगी को छोड़कर कहीं चली गई है। उसका पति रोज उसके लौट आने का इंतजार करता रहता है और उसे मेल पर मेल करता रहता है जिसका उत्तर देना पत्नी कभी जरूरी नहीं समझती है। मृण्मयी ऐसी ही एक असाधारण और दुर्लभ चरित्र है, जो 46 वर्ष की उम्र में अपनी बेटी नीलू को लेकर पति को छोड़कर कहीं चली गई है।

मृण्मयी को पति से यह शिकायत है कि उसका पति उसे किताबों में वर्णित प्रेम की तरह प्रेम नहीं करता है। पागल प्यार, दीवानगी, मैडनेस जैसा प्यार मृण्मयी को अपने पति से चाहिए। वह अपने पति से यह भी कहती है कि उस दूसरे प्यार को पाने के लिए कोई दूसरा जीवन नहीं मिलेगा। मृण्मयी प्रेम को पूरी तरह से पाना चाहती है। वह केवल इसी जीवन में यकीन करती है और जानती है कि इस एक जीवन में ही वह सब कुछ पा लेना है, जो उसे पा लेना चाहिए।

‘मानना’ कहानी अपने विन्यास में एक स्त्री की आकांक्षा और स्वप्न की कहानी है। हमारे पुरुष-प्रधान समाज में यह कभी जानने की कोशिश नहीं की जाती कि एक स्त्री के भीतर जो स्त्री है उसके भीतर किस तरह के स्वप्न पल रहे हैं। वह जीवन को किस तरह से जीना चाहती है। वह किस तरह से अपने भीतर के उन्मुक्त गगन में विचरण करना चाहती है। उसके सपने और आकांक्षाएं क्या हैं? उसके लिए जीने के मायने क्या हैं? मृण्मयी के बहाने इस कहानी में इन सवालों का उठ आना स्वाभाविक है। इस कहानी को बुनते हुए योगेंद्र आहूजा स्त्री मन के साथ-साथ एक पुरुष के मन को भी चित्रित करने का प्रयास करते हैं।

इस संग्रह की तीसरी और अंतिम कहानी ‘डॉग स्टोरी’ है। हिंदी में अब तक किसी कुत्ते को केंद्र में रखकर इस तरह की कहानी लिखी गई हो, यह मेरी जानकारी में नहीं है। बाकी पात्र इसी कुत्ते के इर्द-गिर्द घूमते हैं। इस कुत्ते की एक कुतिया प्रेमिका भी है विशालाक्षी। यह कहानी कुत्ते के बहाने हमारे जीवन-जगत में जो कुछ भी हो रहा है उसकी कहानी है। कुत्ता हमारे समाज में जो कुछ भी हो रहा है उस सबको न केवल देख रहा है, बल्कि समझ भी रहा है कि यह सब कुछ मनुष्य और समाज का विरोधी है। यह पूरी कहानी प्रतीकों में लिखी गई है।

‘डॉग स्टोरी’ में एक जगह सिकंदर नामक कुत्ता अन्य कुत्तों को संबोधित करते हुए कहता है ‘भूल जाओ कि तुम कुत्ते हो। तुम शेर हो, इससे कम कुछ भी नहीं। जब मुश्किल वक्त आता है हम सबको, हममें से हरेक को अपने कद से ऊंचा उठना होता है।’ कथा के अंत में यही सिकंदर सब कुत्तों के पास जाकर कान में कहता है ‘उठो प्यारे, शेर वक्त आ गया। जल्दी दोस्त, इसलिए कि कभी-कभी थोड़ी देर का मतलब हो सकता है, बहुत देर हमेशा के लिए।’ यह कोई साधारण कथन नहीं है, बल्कि अपने समय में नैतिक प्रतिरोध का, अपने समय में हो रहे अन्याय का प्रतिकार करने के साहस को प्रेरित करनेवाला कथन है।

जिज्ञासा : इस तरह की लंबी कहानियों को आप कैसे साध लेते हैं?

योगेंद्र आहूजा : इस संग्रह की ही नहीं, अन्य कहानियां भी जो दूसरे संकलनों में हैं, पर्याप्त लंबी हैं। लेकिन ऐसा सायास नहीं हुआ। सचेत रूप से, पहले से प्लान कर लंबी कहानी लिखने की कोशिश मैंने कभी नहीं की। वे लिखे जाने के दौरान मन को मथ रहे ख्यालों, उत्तेजनाओं, प्रतिक्रियाओं को एक ही जगह समेट पाने के क्रम में स्वत: लंबी होती गईं। मुक्तिबोध का प्रसिंद्ध कथन ‘कहीं भी खत्म कविता नहीं होती’ मुझे कहानी के संबंध में भी उतना ही सच जान पड़ता है। कहानी भी कहां खत्म होती है? हर कहानी का अंत एक दूसरी कहानी की शुरुआत होता है। इस मायने में हर अंत एक प्राविजिनल या आरजी या कामचलाऊ अंत ही होता है।

कहानियों के लंबे कलेवर का कुछ संबंध हमारे समय में यथार्थ की प्रकृति से भी है। लेकिन आपका प्रश्न यह है कि वे कैसे, किस प्रकार लिखी गईं। वे एक या दो बैठकों में नहीं, पर्याप्त समय लेकर, अपने आप के भीतर डुबकी लगाकर लिखी जा सकीं, नींद में कटौती कर, नियमत: रोज कुछ समय उन पर काम कर और उस दौरान अंतर्मुख होकर, मित्रों से और जरूरत होने पर नौकरी से छुट्टी लेकर। लेकिन यह न समझें कि ऐसा कहकर मैं लिखने के ‘कष्टों’ या ‘पीड़ा’ का, ‘यातनाओं’ का जिक्र कर रहा हूँ। लिखना केवल कष्ट देता, कोई सुख नहीं तो लिखने की आवश्यकता ही क्या थी? एक लेखक के लिए मनोनुकूल लिख सकना उससे जुड़े तमाम कष्टों की क्षतिपूर्ति होता है। ‘लिखना’ एक ऐसा कर्म है जिसका रिवार्ड लिखने में ही तत्काल मिलता है, प्रचुर मात्रा में।

जिज्ञासा : आप अपनी कहानियों में जीवन की अनेक ऐसी अनुगूंजों को पकड़ने का प्रयत्न करते हैं जो अक्सर तलहटी में ही कहीं दबीढकी सी रह जाती हैं। इस तरह आप कई दुर्गम इलाकों में भी प्रवेश करने का जोखिम उठाते हैं। ऐसा क्यों?

योगेंद्र आहूजा : मेरे लेखकीय मिजाज का हिस्सा ही इसे कह सकते हैं। हम ऐसे समय में हैं जहां ‘असली’ सचाइयां अक्सर साफ नजर नहीं आतीं। वे कहीं सात पर्दों के पीछे छिपी होती हैं। आभासित, प्रतीतिगत यथार्थ अक्सर विभ्रम या छल साबित होता है। हमारे तीव्रगति समय में वह देखते ही देखते बदलता भी है। उसे समझने, पकड़ने और कहने के लिए नए कथारूपों, नई कथाविधियों की तलाश कहानी लेखन का हिस्सा है। उस तक पहुंचने के रास्ते में दुर्गम, वीरान इलाके आ सकते हैं।

जिज्ञासा : लफ़्फ़ाज़ जैसे चरित्रों को न केवल आप अपनी कहानी में उठाते हैं, वरन उसे नायकत्व प्रदान कर पाठकों का नजरिया बदल देते हैं। आप इस लफाज से कहां तक इत्तेफाक रखते हैं?

योगेंद्र आहूजा : ‘लफ़्फ़ाज़’ में जो लफ़्फ़ाज़ है, कहानी उसके इर्द-गिर्द जरूर है लेकिन वह ‘नायक’ नहीं है। लफ़्फ़ाजी के लिए मेरे मन में वितृष्णा का भाव है, जैसा कहानी के स्वर से जाहिर है – इसलिए उससे इत्तफाक रखने, अनुमोदन देने का प्रश्न ही नहीं। लफ़्फ़ाजी यानी खूबसूरत मगर बेमानी शब्दों से भ्रमित करना, उन्हें ‘अदा’ की तरह बरतना, कुछ ऐसा कहना जो दरअसल आत्मा का सच नहीं, घोरतम छल है, गुनाह है। लफ़्फ़ाज़ जो हमारे सुंदर शब्दों का, वाक्यों का उठाईगीर होता है, लेकिन मन ही मन उनका मजाक बनाता है। वह शत्रु से भी अधिक खतरनाक होता है, इसलिए कि आसानी से पहचान में नहीं आता और हमारी लड़ाइयों को भीतर से कमजोर करता है।

जिज्ञासा : डॉग स्टोरी मेरी दृष्टि में हिंदी कहानी की परंपरा में काफी कुछ नया जोड़ने वाली एक बेहद मार्मिक और प्रयोगधर्मी कहानी है। इस अनोखी अंतर्वस्तु पर लिखते हुए क्या आपको यह नहीं लगा कि यह एक दुष्कर कार्य है?

योगेंद्र आहूजा : नवीनता से यदि आपका आशय स्ट्रीट डॉग्स को सोचते-विचारते सजग पात्र बना कर उनके जरिए कहानी कहने से है, तो यह तो नई बात नहीं। विश्व साहित्य में, क्लासिक रचनाओं में कुत्तों की एक बेहद सशक्त मौजूदगी है। जैक लंदन की ‘कॉल ऑफ द वाइल्ड’ और काका की ‘इन्वेस्टिगेशंस ऑफ अ डॉग’ प्रसिद्ध कहानियां हैं। इनमें केंद्रीय पात्र कुत्ते हैं। होमर की ‘ओडिसी’ में बीस बरसों के बिछोह के बाद ओदीसियस और उसके प्रिय कुत्ते आर्गोस का, जो मृत्यु के करीब है, निःशब्द पुनर्मिलन इस प्रकार वर्णित है कि किसी भी संवेदनशील पाठक की आंखों में आंसू ला सकता है।

प्रेमचंद की भी एक अज्ञात या अल्पज्ञात कहानी है ‘अधिकार चिंता’, जिसके पात्र सोचने-विचारने वाले कुत्ते हैं। उनकी ‘पूस की रात’ भी ‘जबरा’ के बिना एक अधूरी कहानी होती। वही तो है जो उसे संपूर्ण हार की, हताशा की कहानी बनने से बचाता है।

इस कहानी का जो फॉर्म है, ‘बच्चों की कहानी’ के ढांचे में बड़ों की कहानी -उसे जरूर प्रयोगधर्मी कह सकते हैं। इस फॉर्म में एक गंभीर और पर्याप्त लंबी कहानी कहने की कोशिश दुष्कर तो थी, बेशक।

उमा शंकर चौधरी का तीसरा तथा नवीनतम कथा संग्रह है दिल्ली में नींद’। वे भी अपनी लंबी कहानियों के लिए जाने जाते हैं। उनके नवीनतम कथा संग्रह में चार लंबी कहानियां संगृहीत हैं ‘कहीं कुछ हुआ इसकी खबर किसी को न थी’, ‘कंपनी राजेश्वर सिंह का दुख’, ‘दिल्ली में नींद’ तथा ‘नरम घास, चिड़िया और नींद में मछलियां’।

उमा शंकर चौधरी की ‘दिल्ली में नींद’ एक अलग किस्म की कहानी है। लगभग पचपन पृष्ठों में फैली इस सुदीर्घ कहानी में लेखक ने दिल्ली जैसे महानगर की त्रासदी को उकेरने का प्रयास किया है। इस कहानी में कहानीकार ने दिल्ली की विभीषिका और त्रासदी के बीच फँसे हुए एक साधारण मनुष्य और उसके परिवार की कहानी चित्रित की है। चारुदत्त सुनानी और उसके परिवार की कहानी कहते हुए लेखक भूमंडलीकरण और नव्य-पूंजीवाद के दौर में सामान्य मनुष्य की हताशा का चित्रण करना नहीं भूलता। इसको पढ़ते हुए लगता है जैसे आप किसी लंबी कविता से गुजर रहे हैं जो अपने ताने-बाने में जितनी बीहड़ है उतनी ही काव्यात्मक संवेदना से भरपूर। इस कहानी के उपशीर्षक हैं- ‘स्त्रियों की चुप्पी में भी एक आवाज होती है’, ‘एक दिन सुनानी ने आसमान की अलगनी पर एक पिंजरा टांग दिया था’, ‘आम आदमी की जिंदगी में दुख दस्तक देता ही देता है’, ‘आवाज की भी एक जगह है’ और राजेश जोशी की एक कविता की पंक्ति है ‘रात किसी का घर नहीं।’ ये उपशीर्षक न केवल कहानी को अर्थगर्भित बनाते हैं वरन कहानी की संवेदना को काव्यात्मक संवेदना की ऊंचाई भी प्रदान करते हैं।

‘नरम घास, चिड़िया और नींद में मछलियां’ एक अन्य महत्वपूर्ण कहानी है। फुच्चु मास्साब के माध्यम से एक ऐसे चरित्र को इस कहानी में उकेरा गया है जिसे प्रकृति से बेहद लगाव है। एक तरह से उसके लिए चिड़िया, मछलियां तथा हरी-भरी घास और पेड़-पौधों का अपना एक अलग महत्व है। फुच्चु मास्साब के बीमार हो जाने के कारण उन्हें अपने बेटे के पास शहर आना पड़ता हैं। उनका बेटा शहर की एक बड़ी सोसायटी के फ्लैट में रहता है।

फुच्चु मास्साब एक ऐसे छोटे से गांव के रहने वाले हैं जहां उन्होंने अपने लिए एक छोटी सी झोपड़ी और पोखर का निर्माण किया है। वे रोज इसी पोखर के इर्द-गिर्द चावल के दाने बिखेर देते थे, जिसे चिड़िया खाती थी और पोखर का पानी पीकर सुस्ताती थी। जब रात में सारी चिड़ियां अपने घोंसलों में लौट जाती थीं तो फुस्सु मास्साब पोखर के किनारे लेटकर अपने हाथ पानी में डालकर मछलियों को कहानियां सुनाते थे। वह एक असाधारण और विरल चरित्र हैं।

फुच्चु मास्साब शहर की यांत्रिकता को स्वीकार नहीं कर पाते। वे हमेशा चिड़ियां और मछलियों को याद करते हैं। इसी तरह एक दिन सोसायटी के लॉन में स्वीमिंग पुल के पास दम तोड़ देते हैं। यह प्रकृति से प्रेम और प्रकृति के बीच जीनेवाले एक ऐसे सरल और विरल मानवीय व्यक्ति की कहानी है जो दुर्भाग्य से इस पृथ्वी पर धीरे-धीरे कम होते जा रहे हैं।

एक दूसरी कहानी ‘कहीं कुछ हुआ है, इसकी खबर किसी को न थी’ एक अलग भाव संवेदना की कहानी है। एक छोटे से ब्लॉक में नौकरी करनेवाले वासुकी बाबू की पदोन्नति होने के बाद कानपुर शहर में उनकी पोस्टिंग हो जाती है। परिवार के सारे लोग खुशी-खुशी कानपुर आ जाते हैं।

इस कहानी का अंत इस तरह से कारुणिक रूप में होता है ‘यहां कहीं कुछ हुआ है इसकी खबर किसी को नहीं थी। किसी को भी नहीं।’ यह महानगर की यांत्रिकता को और एक सामान्य परिवार की विवशता को और निरंतर अकेले पड़ते चले जानेवाले परिवार की पीड़ा को प्रदर्शित करता है।

‘कंपनी राजेश्वर सिंह का दुख’ एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो अपने बाहुबल से आस-पास के गांवों में अपना सिक्का जमा लेता है। यही राजेश्वर बाद में पांच बेटियां होने के बाद टूट-सा जाता है। वह हर बार बेटा होने की आस रखता था। पांच बेटियों का पिता होने से उनका सारा घमंड, सारा रौब समाप्त हो जाता है। वह बीमार रहने लगता है और एक दिन दुनिया से विदा भी ले लेता है।

उमा शंकर चौधरी के पास कहानी लिखने की कला है और एक विचारसंपन्न द़ृष्टि भी। आज के समय को जानने-बूझने की गहरी ललक उनके भीतर है और यथार्थ को समझने का गहरा विवेक भी। उनके लिए कहानियां किस्सागोई भर नहीं हैं, बल्कि किस्सागोई के भीतर से आज के जीवन की त्रासदी को उकेरने का गहरा साहस है।

जिज्ञासा : आप आज के जटिल तथा मायावी यथार्थ को बेहतर तरीके से समझते हैं और अपनी कहानी में बेहद बारीकी के साथ बुनते हैं। ऐसा कैसे संभव कर पाते हैं?

उमा शंकर चौधरी : मुझे लगता है, एक साहित्यकार को अपने समय के जटिल यथार्थ से वाकिफ होना चाहिए और सिर्फ वाकिफ ही नहीं होना चाहिए, बल्कि इसके लिए उसे फिक्रमंद भी होना चाहिए। एक उत्कृष्ट साहित्य के लिए आवश्यक है कि वह अपने समय की कठिन से कठिन गुत्थी की कलई खोलने की सामर्थ्य रखता हो। ‘दिल्ली में नींद’ ऐसा ही एक प्रयास है। महानगर की चमक तो सबको दिखती है, परंतु उसके पीछे का जो अंधेरा है उसे सिर्फ साहित्य ही देखता है। जटिल यथार्थ अपने सही परिप्रेक्ष्य में संप्रेषित भी हो सके, इसके लिए मुझे हमेशा लगता है कि क्राफ्टिंग के स्तर पर उसे कुछा नया होना चाहिए। इसलिए मैं बुनावट के स्तर पर भी उसमें नयापन लाने की कोशिश करता हूँ।

जिज्ञासा : दिल्ली में नींदमें प्रयोगधर्मिता क्या कथा को अधिक अर्थगर्भित बनाने का प्रयास है?

उमा शंकर चौधरी : ऊपर मैंने जिस प्रयोगधर्मिता की बात की है, यह उसी का हिस्सा है। चूंकि मैं एक कवि भी हूँ तो शायद इसका फायदा मेरे शिल्प को मिल रहा होगा। लेकिन हां, मैं इस बात से अवश्य सहमत हूँ कि गद्य में काव्यात्मकता का प्रयोग एक तरफ तो पठनीयता को बढ़ा देता है वहीं दूसरी तरफ गद्य के अर्थ को भी कई स्तर पर विस्तार देता है। यह काव्यात्मकता ही वह कारण है कि गद्य एकरेखीय नहीं रहता और हमारे समय का जटिल यथार्थ हमारे समक्ष सही अर्थों में संप्रेषित हो पाता है।

जिज्ञासा : कहीं कुछ हुआ है, इसकी खबर किसी को न थीमें वासुकी बाबू जैसे मध्यवर्गीय परिवार की त्रासदी को रचते हुए ऐसा लगता है कि कथाकार स्वयं उस परिवार की त्रासदी में हिस्सेदार रहा हो?

उमा शंकर चौधरी : अगर मैं अपनी कहानी के द्वारा ऐसा महसूस करवा पाया तो यह उस कहानी की सफलता है। लेखक जो लिखता है तो यह जरूरी नहीं है कि वह अपना भोगा हुआ यथार्थ ही लिख रहा है। परंतु यह भी उतना ही सच है कि उस त्रासदी से या उस विडंबना से वह अपने आप को किसी न किसी रूप में जुड़ा अवश्य पाता है। वैसे इस कहानी की जो त्रासदी है वह अपनी घटना से ज्यादा उसमें व्यक्त भाव में है। घटना कोई हो सकती है, परंतु मुख्य है इस विश्वास का दरकना जो इंसान को अंदर से खोखला करता जा रहा है। वासुकी बाबू महानगर के शिकार इसलिए होते हैं कि उनके अंदर इंसानियत अभी जिंदा है। वे विश्वास करते हैं और शिकार हो जाते हैं। इसे उस घटना से हटा कर कहीं भी किसी भी रूप में लागू किया जा सकता है।

जिज्ञासा : ऐसा लगता है कि नरम घास, चिड़िया और नींद में मछलियांमें फुच्चु मास्साब के चरित्र के बहाने यथार्थ और प्रकृति का एक नया वृतांत रचते हुए इस बेहद अमानवीय और यांत्रिक समाज की भी आप खबर ले रहे हैं?

उमा शंकर चौधरी : एक संवेदनशील और सजग साहित्यकार के रूप में मुझे हमेशा लगता है कि महानगर किसी बुजुर्ग के लिए एक कब्रगाह की तरह है। महानगर अपनी रफ्तार, अपनी चमक, अपने शोर में हर उस इंसान को पीछे छोड़ता चलता है, जो उसकी रफ्तार को धीमा करने लगता है। एक बुजुर्ग अपनी बीमारी, अपनी उम्र से बाद में मरता है, महानगर का अकेलापन, अजनबीयत, अमानवीय रवैया उसे अंदर से घुला कर पहले ही मार देता है। हम सब इस रफ्तार का हिस्सा होते हैं और आनंद ले रहे होते हैं, यह जानते हुए कि एक दिन इस उम्र में हम भी फँसेंगे और यह महानगर अपनी रफ्तार में हमें भी निकाल कर फेंक देगा। विकास की इस रफ्तार ने हमारे भीतर की इंसानियत को मार दिया है।

जिज्ञासा : अंतर्वस्तु और शिल्प को लेकर इन कहानियों में एक अतिरिक्त सजगता दिखाई देती है। इस पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है?

उमा शंकर चौधरी : मेरा साफ मानना है कि कोई भी विषय सही रूप में तब तक संप्रेषित नहीं हो सकता है जब तक शिल्प के स्तर पर भी वह उतना ही मजबूत न हो। एक उत्कृष्ट साहित्य अंतर्वस्तु और शिल्प के मेल से रचित होता है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। इसलिए एक कठिन यथार्थ को कई स्तरों पर उद्घाटित करने के लिए यह आवश्यक है कि उसका शिल्प काव्यात्मक हो, जादुई हो। ‘दिल्ली में नींद’ या ‘नरम घास…’ जैसी कहानी मुझे नहीं लगता कि एक घिसे-पिटे शिल्प में लिखी जा सकती है। मैं जब कहानी पर सोचता हूँ तो विषय और शिल्प दोनों स्तरों पर प्रयोग को ध्यान में रखकर ही सोचता हूँ।

समीक्षित पुस्तकें

(1) प्रेम के पाठ : रमेश उपाध्याय, अनुज्ञा बुक्स, दिल्ली 2020
(2) लफाज तथा अन्य कहानियां  : योगेंद्र आहूजा, आधार प्रकाशन, पंचकूला हरियाणा 2020
(3) दिल्ली में नींद :  उमा शंकर चौधरी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली 2020

 

रमेश अनुपम, बी-204, कंचन विहार, डूमर तालाब (टाटीबंध), रायपुर- 492009 (छत्तीसगढ़)  मो.6264768849