युवा कवि।कई कविता संकलनों तथा प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।संप्रति उत्तर 24 परगना में अध्यापन।

भाषा की अपनी राजनीति और संस्कृति होती है।वह इसी रास्ते पर चलकर अपना वर्चस्व बनाती है।भाषा भारतीय जनता को आपस में जोड़ने के लिए पुल का काम करती आई है।राष्ट्रीय चेतना के विकास में हिंदी का बड़ा योगदान रहा है।आजादी की लड़ाई के समय से ही लोगों ने हिंदी भाषा के महत्व को बखूबी समझा था।हिंदी की भारतीयता का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है, पर इसी हिंदी को लेकर लंबे समय से विवाद भी रहा है।

हिंदी में बनी फिल्में, गाने, मीडिया, टीवी धारावाहिकों  ने अधिकाधिक लोगों तक हिंदी की पहुंच बनाई है।आजकल ओटीटी पर भी सबसे ज्यादा हिंदी में मनोरंजन की सामग्री उपलब्ध है।हिंदी प्रदेशों में विशाल उपभोक्ता बाजार होने के कारण भी हिंदी की मांग है।यह भाषा राजनीति के भी केंद्र में रही है।यह सत्ता, शक्ति और आधिपत्य की भाषा भी कही जा रही है।भारतीयता के निर्माण में जिस समावेशी संस्कृति की कल्पना की जाती है, उसके लिए हिंदी साधक है या बाधक, यह सवाल उठता रहा है।क्या अंग्रेजी अधिक समावेशी है?

हिंदी की भारतीयता दूसरी सभी भारतीय भाषाओं को साथ लेकर चलने में है, किसी को निम्न और किसी को ऊंचा समझने में नहीं।हिंदी और दूसरी भाषाओं के बीच आदान-प्रदान का स्तर क्या है, एक प्रश्न यह भी है।सचाई यह है कि आज भी हिंदी पट्टी की बड़ी आबादी दक्षिण भारतीय भाषाओं को नहीं पहचानती।इसका उत्तर-पूर्वी भारत से कुछ लेना-देना नहीं है।हिंदी पट्टी की अधिकांश आबादी हिंदी और अंग्रेज़ी के सिवाय तीसरी भाषा नहीं जानती।हिंदी की भारतीयता पर सोचते हुए हमें इन मुद्दों पर विचार करना होगा।साथ ही उन चुनौतियों पर भी विचार करना होगा जो हिंदी के स्वाभाविक विकास में बाधक हैं।क्या अंग्रेजी का वर्चस्ववादी स्वरूप और उसपर अत्यधिक निर्भरता एक बड़ी समस्या नहीं है?

आज अंग्रेजी का निजी शिक्षण संस्थानों से लेकर बड़े सरकारी शिक्षण संस्थानों तक पूरा प्रभाव है।इन संस्थानों की संरचना ऐसी है कि उच्च वर्ग के बच्चे ही यहां प्रवेश पाएं एवं पास करके निकलने पर सारे बड़े पद और अच्छी नौकरियां इन्हीं के पास रहें।अंग्रेजी का इस्तेमाल करने वाले मात्र 2-3 प्रतिशत लोग बहुसंख्यक आबादी पर इस रास्ते से अपना प्रभुत्व जमाए हुए हैं।प्रश्न उठता है कि क्या हिंदी को शक्ति की भाषा कहा जा सकता है?

आज भी सिर्फ हिंदी या कोई अन्य भारतीय भाषा में पढ़ा हुआ व्यक्ति, जिसे ठीक से अंग्रेजी बोलना नहीं आता, पढ़ा-लिखा समझा ही नहीं जाता।वह कहीं स्वीकार्य नहीं है।उसे किसी अच्छे भारतीय या मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी नहीं मिल सकती।जिस देश में अपनी मातृभाषा के प्रति लोगों के मन में विशेष सम्मान न हो उसकी क्या स्थिति हो सकती है?

भारतीय विश्वविद्यालयों के शोध का स्तर लगातार नीचे गिर रहा है।इन जगहों पर शार्टकट से काम चल रहा है।इसका एक बड़ा कारण यह हो सकता है कि हमारे शोध की भाषा मातृभाषा नहीं है।शोधकर्ता अधिकतर अंग्रेजी में अपना शोधपत्र लिख रहे हैं, सृजनात्मकता कहां से आएगी? आप सपने एक भाषा में देखते हैं और काम किसी दूसरी भाषा में करते हैं।अब प्रश्न उठता है कि कैसे हम उच्च शिक्षा के माध्यम के रूप में हिंदी या दूसरी भारतीय भाषाओं को बढ़ावा दे सकते हैं?

सवाल

(1) हिंदी को लेकर ‘हिंदी राष्ट्रवाद’, ‘हिंदी साम्राज्यवाद’ आदि कई तरह की बातें कही जाती हैं।इनपर आपके क्या विचार हैं?

(2) ‘हिंदी की भारतीयता’ की आप किस तरह व्याख्या करेंगे? (कृपया उदाहरणों के साथ अपनी बात स्पष्ट करें)

(3) क्या ज्ञान के विभिन्न विषयों की उच्च शिक्षा कभी हिंदी माध्यम से दी जा सकेगी? उच्च ज्ञान के लिए अंग्रेजी पर निर्भरता कम करने के क्या उपाय हैं और क्या संभावनाएं हैं?

(4) हिंदी मध्यवर्ग का अंग्रेजी की तरफ बढ़ता आकर्षण क्या हिंदी को अंततः पिछड़ों की भाषा बना देगी? हिंदी में भविष्य की वापसी कैसे संभव है?

अनामिका

प्रसिद्ध कथाकार और कवयित्री।स्त्री चेतना की प्रवक्ता।कविता संग्रह टोकरी में दिगंतपर साहित्य अकादमी पुरस्कार।

भाषा हो या व्यक्ति
बढ़ता वही है जो सबको प्यार करता है

‘हिंदी राष्ट्रवाद’, ‘हिंदी साम्राज्यवाद’ – इस तरह के मुहावरे खरहे के सींग की तरह लगते हैं ।हिंदी आधुनिकता के गर्भ से जन्मी स्वाधीनता संग्राम की बेटी है।उसके संस्कार जनतांत्रिक हैं।इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि उसने तत्सम-तद्भव-देशज की ही पंक्ति में विदेशज को भी बिठाया है।वह हमेशा यह मानकर चली है कि जैसे हर व्यक्ति अपने ढंग से अनूठा है, हर भाषा भी।ठीक है, कुछ भाषाओं के पास अधिक समृद्ध साहित्य की विरासत है, पर जनतंत्र में ‘विरासत’ शब्द भी मूंछ पर ताव देने का माध्यम नहीं बनना चाहिए! कोई अनामगोत्र है, उसके पीछे विरासत की गठरी नहीं तो भी वह उतना ही अनूठा है।उसमें भी उतनी ही संभावनाएं अंतर्भुक्त हैं, जिन्हें सामने लाने का हर संभव प्रयास न सिर्फ सरकारी समितियों, बल्कि भगिनी भाषाओं को भी करना चाहिए- उससे बोलकर, उसका संकोच तोड़कर, सुंदर अनुवादों द्वारा उसमें नई त्वरा, नई बिजली भरकर।पर ये प्रयास आरोपित नहीं लगने चाहिए और न इस भाव से किए जाने चाहिए जैसे कृपा की जाती है या जबरदस्ती!

हिंदी भाषा खुली बांहों वाली भाषा है और इसकी समृद्धि में कहीं कोई कमी नहीं।जितने अनुवाद विदेशी और भारतीय भाषाओं से हिंदी में हुए हैं, उतने किसी और भाषा में नहीं हुए।हिंदी ने सबको ही प्यार से अंकवारा है पर तेलुगु, मराठी, मलयालम, पंजाबी और उड़िया- जैसी महामना भाषाओं के सिवा किसी और भाषा ने हिंदी को नहीं अंकवारा।बांग्ला और भारतीय अंग्रेजी के सिवा दूसरी भगिनी भाषाओं को भी नहीं!

महादेवी वर्मा ने जिन दिनों ‘चांद’ के अंक निकाले थे, उन्होंने एक अनूठा काम किया था! हिन्दुस्तानी हिंदी, मराठी हिंदी, मलयाली हिंदी, पंजाबी हिंदी, बांग्ला हिंदी के कई मनहर आलेख उन्होंने छापे।वहां की प्रबुद्ध लेखिकाओं से हिंदी में लेख लिखवाए।उनके लेखों के ऐसे अनुवाद संभव किए जिनमें उनकी अपनी मातृभाषा की छांह थी।इस एक कदम से हिंदी क्षेत्र के कई विवाद एकदम से सुलझ गए- हिंदी का भगिनी भाषा उर्दू और अपनी ही पितामही-मातामही भाषाओं यानी बोलियों से जो रगड़ा सुलगाया जा रहा था, उसका प्रत्यक्ष समाधान भगिनी भाषाओं की यह होली है जिसमें सबपर सबका रंग हो- वह भी प्रीत का गाढ़ा, चटक रंग- ऐसा कि ‘धोबिनिया धोए आधी रात!’

हिंदी की भारतीयता का सबसे बड़ा प्रमाण है इसकी सर्वग्राहकता! भारत की कोई गली, कोई सड़क ऐसी नहीं जहां हिंदी बोलने वाला व्यक्ति अपने आधारभूत वाक्य/मंतव्य सामने वाले को समझा न सके।टीवी-सिनेमा, वीडियो, विज्ञापन, नेताओं के राष्ट्रीय प्रसारण हिंदी के सरल-सरस मुहावरे जनमानस में ऐसे छिड़क देते हैं, जैसे अक्षत-रोली देव मूर्तियों पर छिड़की जाती है! तो कुंचम-कुंचम, एकटू-एकटू, थोड़ा-थोड़ा समावेशन हर भारतीय भाषा में हिंदी का हो ही चुका है।मुहल्ले की सबसे छोटी बच्ची की तरह हिंदी भारती के हर भाषा-घर में वह निर्द्वंद्व घूमी-फिरी है, सबकी गोद चढ़ी है! अपनी नन्ही बांहें फैलाकर इसने सबका दिल जीता है! कहीं कोई जोर-जबरदस्ती नहीं की!

सर्वस्वीकार भारतीय संस्कृति का बीज-शब्द है और हिंदी का भी।किसी को इसने पराया जाना ही नहीं, क्योंकि स्वाधीनता संग्राम के दौरान यह जन्मी ही सड़कों पर थी! सहयोग से फली-फूली!

सब भाषाओं को बराबर मान देने, सबको एक चटाई पर बिठाने के बड़े जनतांत्रिक अभियान में दुनिया की जिन भाषाओं ने अनुवाद के माध्यम से शिरकत की है, उनमें हिंदी भी एक है।औपनिवेशिक शासन का विरोध करना था तो प्रेमचंद आदि वरिष्ठों ने एक कारगर नीति अपनाई- उन्होंने फे्रंच, रूसी, जर्मन साहित्य के अनुवाद किए।इस तरह शिक्षित जनमानस में अंग्रेजी साहित्य का प्रबल प्रतिपक्ष खड़ा किया।स्वाधीनता आंदोलन की भाषा हिंदी बनी तो सबकी सहमति से ही- गांधी और पटेल की मातृभाषा गुजराती थी, राजगोपालाचारी तमिलभाषी थे और स्वयं टैगोर, राजेंद्र लाल मित्र और सुनीति कुमार चट्टोपाध्याय आदि की मातृभाषा बांग्ला थी।अंबेडकर की मातृभाषा थी मराठी, लाला लाजपत राय की मातृभाषा पंजाबी थी।

स्वाधीनता आंदोलन की भाषा के रूप में हिंदी के चुनाव के पीछे का तर्क यही था कि थोड़े फर्क के साथ हिंदू-मुसलमान दोनों इसे बोलते हैं।यह 1857 के बाद के सिपाही तंबुओं में हिंदू-मुस्लिम दोनों के सहकार का साझा धन है।भाषा-परिवार की सबसे छोटी, सबसे मिठबोलवा बेटी के रूप में विकसित हुआ है इसका नागर स्वरूप।वह खड़ी बोली से उभरी है, पर सरोकारों में जनतांत्रिक हैं, तत्सम-तद्भव-देशज-विदेशज सब तरह के शब्दों को एक पांत में बिठाने का जनतांत्रिक संस्कार इसमें है।जरूरत के अनुसार अपनी निर्मिति के लिए यह हमेशा तैयार मिलेगी, आधुनिकता के गर्भ से जन्मी है- गद्य के गर्भ से जन्मी है- राज-काज की खातिर सूत्रधार भाषा के रूप में अच्छी रहेगी! मलयालयम-तेलुगु-कन्नड़ जैसी भाषाएं तमिल के वर्चस्व से परेशान थीं, पूर्वोत्तर की सारी भाषाएं और उड़िया बांग्ला के रोब से तो हिंदी के नाम पर वे भी सहमत हो लिए।भाषिक दोहन का कोई इतिहास नहीं था हिंदी का, क्योंकि अपने इलाके में भी यह किसी की घरेलू बातचीत की भाषा भी नहीं थी।

एकदम कोरी-कुंवारी कन्या के रूप में उस समय तो सबने इसका वरण कर लिया, पर बाद में जब  उत्कृष्ट साहित्य, उत्कृष्ट अनुवाद की भाषा के रूप में इसने अपनी कद-काठी बढ़ा ली तो लोग इसमें कमियां निकालने लगे कि हिंदी ज्ञान-विज्ञान, राज-काज की, कानून की, विचार की भाषा नहीं।मेरे मत में क्रियोलीकरण के साथ धीरे-धीरे ये समस्याएं भी दूर हो जाएंगी, यदि नई पीढ़ी  को हम  सजग कर पाएं।

संयुक्त परिवार के दिनों में दादी-नानी, बुआ-चाची, मौसी-मामी और अपनी मां- चारों दिशाओं से दौड़कर हमें अंकवार लेती थीं।हिंदी कविताएं भी युवकों को हर तरफ से अंकवार सकती हैं।अनुवाद का सूफियाना क्रम स्थापित करके इन कविताओं के समानांतर इनके अंग्रेजी और स्थानीय भाषिक अनुवाद जहां-तहां पोस्टरों के रूप में लगाए जा सकते हैं।हिंदी पट्टी के युवक इसमें रुचि ले भी रहे हैं।

पिछले पैंतीस वर्षों में अपने चौबीस घंटों का अधिकांश मैंने नई पीढ़ी के साथ अंतरंग गपशप करते हुए बिताया है- स्वप्न में, कविताओं में और प्रत्यक्ष भी- सिर्फ अपने गर्भ-जाए बच्चों, घर और मुहल्ले के बच्चों किशोरों-नवयुवकों से नहीं, बल्कि विश्वविद्यालय के छात्रों और दो सेतु- भाषाओं- हिंदी और अंग्रेजी के उदीयमान लेखकों से भी, जिन्हें मैंने लगातार अनुवाद-कार्य में लगाए रखा।नई पीढ़ी से अंतरंग संवाद के इतने लंबे और प्रगाढ़ अनुभवों के साक्ष्य से मैं इतना तो कह ही सकती हूं कि हर भाषिक और सांस्कृतिक विवाद का निराकरण अनुवाद हो सकता है…

अनुवाद क्या हैं? दो भाषाओं की अंतरंग गपशप जो हर भारतीय बच्चा सहज साध सकता है, क्योंकि वह पैदा ही होता है भाषिक पंचवटी की छांह में।जैसे हर भारतीय कई मांओं की छांह में पलता है, कई मातृभाषाओं की छांह में भी।एक अंतरराष्ट्रीय, एक देशी सेतु-भाषा साधकर वह कई तरह के भाषिक विवाद सुलझा सकता है।

इसे साधने का सहज माध्यम अनुवाद ही है।मेरा तो मत है कि हर लिफ्ट में, हर मेनू-कार्ड पर, बिलबोर्ड पर, अस्पताल और स्कूल-कॉलेज की दीवारों, स्थानीय भाषा, हिंदी और अंग्रेजी की श्रेष्ठ कविताएं लगा दी जाएं- एक ही छोटी कविता- तीनों भाषाओं में वैसे ही अंकवार ले हमें- जहां निगाह जाए।

सामान्य विज्ञापनों के समानांतर हिंदी कविता पोस्टर तैयार होने चाहिए- अंग्रेजी और स्थानीय अनुवादों के साथ।ये पोस्टर जगह-जगह चिपकाए जाने चाहिए, खासकर जहां कोई क्यू हो, प्रतीक्षा का आलम हो।इस तरह चाहे-अनचाहे हमारे अवचेतन की डाक पेटी में एक कविता की चिट्ठी तीन-तीन भाषिक संस्करणों में पोस्ट हो जाएगी! भाषा की आंतरिक संरचना आत्मसात करने में कविता कितनी मदद करती है- नर्सरी राइमों और बाल-गीतों के अनुभवों से हम अच्छी तरह जानते हैं! इंटरनेट पर भी तीन समानांतर भाषाओं में रोचक कविता-वीडियो अपलोड करना एक अच्छा उपाय है- तीन भाषाओं में समान गति अख्तियार करने का, अपने भीतर भाषिक त्रिवेणी कल-कल, छल-छल भाव से उतार लेने का!

विश्वयुद्ध के समय से यह बात स्पष्ट हो गई थी कि सांस्कृतिक विवाद नहीं, सांस्कृतिक संवाद है विश्व शांति का माध्यम।सांस्कृतिक ही नहीं, सभ्यता-संवाद के भी सबसे सहज माध्यम अनुवाद हैं।

हर संस्कृति एक कहानी सुनाती है।तरह-तरह के विज्ञापन, कहावतें, मुहावरे, कविताएं, नाटक और कथा-कथन इसके माध्यम हैं।अगर किसी राष्ट्र को लगे कि उसकी भाषिक या सांस्कृतिक गरिमा विदेशों में मान्यता पा रही है तो वह उसे अलग तरह का मान देने लगता है: घर की मुर्गी तो दाल बराबर होती है पर वही मुर्गी सोने के अंडे देने वाली मुर्गी हो जाती है या नर्सरी राइम में ‘एट नाइन टेन, एग बिग फैट हेन’ तो उसका रुतबा अलग हो जाता है।घर का जोगी जोगड़ा, आन गांव का सिद्ध! हर प्रोफट मुहम्मद को इसीलिए मक्का छोड़कर मदीना चला जाना होता है।हमारे यहां जोगी भी घर छोड़ देते हैं और कहावत बनती है- ‘रमता जोगी बहता पानी’।कौन विश्वास करेगा कि कल जो गलियों में गिल्ली-डंडा खेल रहा था, उसे दुनिया का परम सत्य ऐसा मिला कि वह उपदेश देने की स्थिति में आ गया!

अनुवाद नए रूप में कहानी सुनाने का एक माध्यम है।अनुवाद के दौरान भाषा नए यथार्थ गढ़ती है।दो भाषाओं की अंतरंग गपशप के दौरान ही नए अर्थों-अनर्थों के सात गवाक्ष खुल जाते हैं! चीनियों ने संस्कृत पाठों का अनुवाद किया, यहूदियों और फिर रोम ने हीब्रू और ग्रीक पाठों का तो एक दुनिया अधिक बड़ी दुनिया हो पाई!

विश्वग्राम में तो, खैर, अनुवाद सॉफ्ट डिप्लौमेसी का हिस्सा हैं।ब्रिटिश काउंसिल आदि संस्थाएं सांस्कृतिक आदान-प्रदान की जो बड़ी राजनीति करती हैं, अनुवाद की उसमें बड़ी भूमिका है।पहले शरणार्थी, मानवाधिकर, अंतरराष्ट्रीय अपराध, आतंक, नशीले पदार्थ, पर्यावरण आदि लो वोल्टेज पॉलिटिक्स का हिस्सा थे।अब मीडिया भी सांस्कृतिक डुबकी (कल्चरल डिप) का रंग बदल रही है तो अनुवाद के आश्रय ही, और हिंदी सर्वाधिक अनुवादोत्सिक भाषा है।

बिहार में एक बड़ा प्रकाशन था- भारती भवन।उसने हिंदी में भौतिकी, रसायन शास्त्र, जीव विज्ञान और गणित की ऐसी सुभग, सुंदर, सचित्र, कार्टूनयुक्त पाठ्यपुस्तकें हिंदी में छापी थीं कि हमारे ज्यादातर समकालीन उन्हें ही पढ़कर चुटकियों में आई.आई. टी., मेडिकल कॉलेज आदि की प्रवेश-परीक्षाएं निकाल लेते थे।ये किताबें हम- जैसे विद्यार्थियों को बहुत सरस लगती थीं जिनकी विज्ञान में कोई खास गति न थी! जैसे, एक उदाहरण याद आता है- तीसरी श्रेणी ‘लिवर’ का जिसको समझाते हुए आर्किमिडीज का एक कार्टून बनाया गया था।इसमें वे एक लाठी पर ग्लोब टिकाए अंतरिक्ष में बैठे हैं और नीचे लिखा है ‘यदि मुझे अंतरिक्ष में एक टेक मिल जाए तो मैं एक लाठी पर ग्लोब टिका दूं।’

इसी तरह दूसरी श्रेणी के लिवर के उदाहरण स्वरूप में बहंगी पर दही का मट्ठा उठाए एक फेरीवाले का चित्र था।

‘एकलव्य’, ‘एनबीटी’ आदि ने भी बोलचाल की हिंदी में श्रेष्ठ किताबें बच्चों और किशोरों के लिए बनाईं।वैज्ञानिक शब्दावली आयोग ने भी अच्छा काम किया।सी.एस.डी.एस. के सौजन्य से पाठ्य पुस्तकें तो नहीं, पर समाज विज्ञान की स्तरीय पुस्तकें अभय कुमार दुबे, आदित्य निगम और रविकांत ने हिंदी में छपवाईं, जिससे शोधार्थियां का बहुत भला हुआ।

मातृभाषा भी मां ही है! उसका हर संकट में उपलब्ध रहना, दुविधा की हर घड़ी में अंतरंग संवाद के लिए प्रस्तुत रहना जरूरी है।आठवीं के बाद अन्य मातृभाषाएं क्या, हिंदी भी पाठ्यक्रमों से गायब हो जाती है! माता-पिता-शिक्षक-किताब की दुकानें- वाचनालय-पुस्तकालय, नाट्य मंडल आदि को इस ओर अत्यधिक सजग होना होगा कि ढेर-सी कहानियां और कविताएं मातृभाषा में बच्चों को उपलब्ध हों, ताकि मातृभाषा रक्त में रसधार-सी बहे!

अंग्रेजी ने यह बखूबी किया- ‘नर्सरी राइम’ और ‘फेयरी टेल्स’ की मनहर किताबों का चस्का बचपन से अपने उपनिवेश के सब कर्णधारों को लगाया।बाद की पुस्तकें भी अंग्रेजी में उपलब्ध कराईं तो  वर्ग-विशेष के लिए यह धाय मां ही मां हो गई।

दुश्मन कोई नहीं होता।प्रतिपक्षी से बड़ा शिक्षक कोई नहीं।अंग्रेजी प्रचारतंत्र की भाषा है, चुस्त प्रबंधन-नियोजन की भाषा।मेधा के फलक का विस्तार तो निरंतर साधना द्वारा अर्जित चित्त-विस्तार से ही होता है।पर किताबें बाजार का हिस्सा हैं और अंग्रेजी की किताबें दूर तक पहुंचती हैं, क्योंकि अंग्रेजी प्रकाशक प्री-व्यू, रिव्यू, विज्ञापन, ‘बुक-प्रमोशन टुअर’ आदि टीम-टाम की व्यवस्था अधिक  कुशलता से कर पाते हैं।

अंग्रेजी औपनिवेशिक शासन के जोर पर शुरू से ही राज-काज और कुशल प्रबंधन की भाषा तो रही ही है! एयरपोर्ट से लेकर मेट्रो स्टेशन, बड़े पुस्तक केंद्रों, एमेजॉन आदि विक्रय केंद्रों, पुस्तकालयों में भी अंग्रेजी की सामान्य किताबें भी सहज उपलब्ध हो जाती हैं।बड़े पुस्तक मेलों में भी इनकी होर्डिंग बड़ी होती है।

हिंदी के कुछ प्रकाशकों ने समानांतर विक्रय-व्यवस्था खड़ी की है, पर अन्य प्रकाशकों को भी उन्हें साथ लेकर चलना चाहिए।गांवों-कस्बों और छोटे शहरों में स्त्री, दलित और आदिवासी समूह हिंदी की पत्रिकाओं, अखबार और पुस्तकों के लिए अधिक लालायित रहता है।प्रकाशकों को चाहिए कि वे पंचायत और समुदाय भवनों में भी समानांतर विक्रय-केंद्र चलाएं।स्टेशन पर, बस-स्टॉप, विद्यालय और विश्वविद्यालय के सामने भी वे मोबाइल वैन रखकर हिंदी की किताबें उपलब्ध कराएं!

किताबें अलादीन का चिराग हैं।जिस घर में आती हैं, वहां एक शीतल प्रकाश हमेशा जगा रहता है! हिंदी की और मातृभाषा की किताबें ही उन लोगों के जीवन में एक नई रोशनी भर सकती हैं जिन्हें रोशनी की आवश्यकता सबसे ज्यादा है! उसी परिवेश से हमारे नए चिंतक, लेखक और समाज सेवक आएंगे- वंचित समाज से और स्त्रियों से।ऐसा इसलिए कि उनमें एक आदर्श समाज गढ़ने का जज्बा अभी बाकी है।उनमें सामुदायिक जीवन के स्पंदन भी अभी बाकी हैं।वे पूरी तरह आत्मलीन और स्वार्थी नहीं हुए- बस थोड़ा प्रकाश मिल जाए मातृभाषा की किताबों का तो बड़े परिवर्तन वे ला पाएंगे।

मध्यवर्ग रोजगारमुखी होता है।हिंदी अभी तक पूरी तरह रोजगार की भाषा बन नहीं पाई।हिंदी का बाजार/भोक्ता-समूह तो बड़ा है, इसलिए अच्छी हिंदी बोलने वाला समूह आसानी से व्यवसाय चला सकता है।ज्यादातर यूट्यूब-विज्ञापन हिंदी में ही होते हैं, पर बड़ी कार्पोरेट कंपनियों में नौकरी की एक शर्त अंग्रेजी हो गई है! जो नवयुवक/नवयुवतियां इंजीनियरिंग या मेडिकल कॉलेज की प्रवेश-परीक्षा निकाल भी लेते हैं, वे यदि गांव के हिंदी माध्यम स्कूल से पढ़कर आए हैं, अंग्रेजी में पाठ्यपुस्तकें पढ़ना-समझना और अंग्रेजी में ही उत्तर लिखना  उनके लिए इतना सहज नहीं रह जाता है।कितने लोग बीच में पढ़ाई छोड़कर स्थानीय राजनीति, हिंदी पत्रकारिता, हिंदी थियेटर, हिंदी कविता या हिंदी सिनेमा की दुनिया में आना चाहते हैं, पर हर किसी को वहां भी सफलता नहीं मिलती।हिंदी-जगत के ये निकाय कुछ सितारे जरूर पैदा कर गए हैं, पर जनसामान्य की स्थिति विकट ही है: वह भी सिर्फ इसलिए कि बचपन में उन्हें औपनिवेशिक भाषा अंग्रेजी ठीक से नहीं सिखाई गई, जिसमें उच्चतर शिक्षा की ज्यादातर किताबें उपलब्ध थीं! विश्वविद्यालय में भी अंग्रेजी फर्राटेदार न बोल पाने वाले लोग हाशिये पर डाल दिए जाते हैं।

हिंदी एक हँसमुख दोस्त भाषा है- सड़क और गलियों की भाषा, पंचायत, कहवाघर, चाय-ढाबों और प्रखर विचार-विमर्श की भाषा भी।भाषा हो या व्यक्ति-बढ़ता वही है जो सबको प्यार करता है, सबको लेकर चलता है और कोई पदानुक्रम नहीं मानता!

पर इसमें कोई शक नहीं कि हिंदी के समकक्ष अंग्रेजी भी सिखाई जानी चाहिए- क्योंकि सेतु भाषाएं तो दोनों ही हैं।नेतरहाट विद्यालय, सर्वोदय विद्यालय आदि के पढ़े हुए बच्चे हिंदी माध्यम से पढ़कर आते हैं और जहां  रहते हैं, अलग से दमकते हैं, क्योंकि हिंदी-अंग्रेजी- दोनों में उनकी गति अच्छी होती है! ‘टीच फॉर इण्डिया’ झुग्गी-झोपड़ियों के बच्चों को अंग्रेजी सिखाने का एक महत्वपूर्ण अभियान है।दिल्ली सरकार ने भी इस दिशा में सार्थक पहल की है।

हर भाषा जीवन-जगत पर नई खिड़की की तरह खुलती है! जो जितनी भाषाओं का साहित्य जानता है, वह उतना परिपक्व और मननशील होता है।हिंदी भारत के लिए सेतु-भाषा है- ठीक वैसे, जैसे अंग्रेजी विश्व के लिए! आसन्न परिवेश से, आम जन से गहनतम संवाद करने के लिए स्थानीय भाषा के साथ एक सूत्रधार भाषा या सेतु भाषा को ठीक से जानना ही चाहिए।भाषा जानने का सबसे कारगर माध्यम साहित्य है, क्योंकि भाषा के सबसे सरस, सबसे बंकिम और सर्वाधिक स्मरणीय प्रयोगों का खजाना है साहित्य! कोई भाषा ठीक तरह से जाननी हो तो तीन आसान तरीके हैं।उस भाषा-भाषी से प्रेम करिए और अंतरंग बातचीत कीजिए।उसका साहित्य पढ़िए और सब-टाइटिलों के साथ उस भाषा की अच्छी फिल्में देखिए! एक बात और, जो अच्छा लगे उसका अनुवाद करके अपने बच्चों को सुनाइए या मुहल्ले के बच्चों को! संभव हो तो उन चुने हुए अंशों का मंचन भी कराइए! इतनी प्रतिश्रुति भाषा हर नागरिक से मांगती है! यह भी एक तरह का मातृ-ऋण है जो हमें चुकाना ही चाहिए!

डी-115, द्वितीय तल, मंदिर मार्ग, साकेत, नई दिल्ली-110017  email- anamikapoetry@gmail.com

अजय तिवारी

प्रसिद्ध आलोचक।अद्यतन आलोचना पुस्तक इतिहास की रणभूमि और साहित्य

मध्यवर्ग का रुझान अंग्रेजी की ओर बढ़ रहा है

(1) ‘हिंदी राष्ट्रवाद’पदावली ही दोषपूर्ण है।लेकिन आजकल व्यापक चलन में है।वस्तुतः यह ‘हिंदी नेशनलिज्म’ का अनुवाद है।एक भाषा के बोलनेवाले ‘नेशन’ 15वीं-16वीं शताब्दी के यूरोप में विकसित हुए।इन ‘नेशंस’ की प्रेरणा मूलतः सांस्कृतिक थी।संस्कृति का आधार भाषा है।इसलिए जब 14वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में दक्षिणी इटली ने तुर्क आक्रमण से ध्वस्त व्यापार का पुनरुत्थान किया, तब उसके साथ इतालवी भाषा और संस्कृति के प्राचीन गौरव को भी पुनर्जीवित किया।इसे यूरोपीय पुनर्जागरण का सूत्रपात कहा जाता है।यह पुनर्जागरण इतालवी भाषा के इर्द-गिर्द, उसी के माध्यम से संपन्न हुआ।इटली का प्रभाव आसपास की संस्कृतियों पर भी पड़ा।क्रमशः स्पेन, जर्मनी, इंग्लैंड और फ्रांस में भी अपनी-अपनी भाषाओं के माध्यम से सांस्कृतिक उत्थान की प्रक्रिया आरंभ हुई और एक नई चेतना का अभ्युदय हुआ।यह नई चेतना ‘राष्ट्रवाद’ कहलाई।इसे ‘राष्ट्रवाद’ इसलिए कहा गया कि यूरोप में तुर्कों के बाद रोमनों ने हमले किए थे, तुर्कों का धर्म इस्लाम था और रोमनों का धर्म ईसाइयत।

अधिकांश यूरोप पर ईसाई धर्मावलंबियों का प्रभुत्व था।5वीं शताब्दी में रोमन साम्राज्य का पतन हुआ और प्लेटो द्वारा स्थापित ‘एकेडमी’ बंद हो गई।तभी से यूरोप में अंधकार युग का आरंभ माना जाता है।यह अंधकार युग ५वीं शताब्दी में ईसाई प्रभुत्व से शुरू होकर 15वीं शताब्दी में पुनर्जागरण के उत्थान तक एक हजार साल कायम रहा।अंधकार युग में पूरे यूरोप की बोलचाल की भाषाएं दबी थीं।उनके स्थान पर ईसाइयों की धर्मभाषा लैटिन राज-काज, सांस्कृतिक व्यवहार और उच्च वर्ग की भाषा थी।इसलिए पुनर्जागरण, जिसे अंग्रेजी में ‘रिनेसां’ अथवा ‘रिनेसांस’ कहते हैं, उसने नई सांस्कृतिक जागृति के साथ लैटिन को अपदस्थ करके जनता की बोलचाल की भाषाओं को सांस्कृतिक व्यवहार में प्रतिष्ठित किया।यह धार्मिक वर्चस्व के विरुद्ध लोकसंस्कृति का भी उत्थान था।

लोकसंस्कृति, लोकभाषा और नई चेतना के साथ ईसाई यूरोपके भीतर से नए आधुनिक राष्ट्रों का अभ्युदय हुआ।इसलिए आधुनिक राष्ट्रोंके साथ भाषा के अटूट संबंध को लक्षित करके ब्रिटिश नेशन’, ‘फ्रेंच नेशन’, जर्मन नेशनकी पदावली का व्यवहार हुआ।इसकी देखादेखी राष्ट्रीय आंदोलन के दौर में कुछ अंग्रेजीदां बुद्धिजीवियों ने हिंदी नेशनऔर हिंदी नेशनलिज्मका उपयोग आरंभ किया।

यूरोप में जो प्रक्रिया चली, वही मध्येशिया में दिखाई देती है, जहां इस्लाम की धर्मभाषा अरबी थी, लेकिन बोलचाल की भाषाएं तुर्की, फारसी, पश्तो इत्यादि दूसरी भाषाएं थीं।यहां भी सूफी आंदोलन के साथ जो पुनर्जागरण शुरू हुआ, वह अरबी के स्थान पर लोकभाषाओं का आश्रय लेकर चला, जिनपर फारसी का गहरा असर था।अरबों और तुर्कों की अपेक्षा ईरान की सभ्यता, संस्कृति और दर्शन अधिक उन्नत थे।लेकिन मध्येशिया का अतीत यूरोप से भिन्न था।इसलिए पुनर्जागरण के सामान्य नियम में समानता के बावजूद यूरोप और मध्येशिया के सांस्कृतिक जीवन और इतिहास में यथेष्ट भिन्नता है।फिर भी भाषाई आधार पर राष्ट्रों का नवजीवन इस काल में मध्येशिया की भी विशेषता है।

भारत का इतिहास इसका अपवाद नहीं है।प्राचीन भारत की धर्मभाषा संस्कृत थी, फिर इतिहास युग में आने पर बौद्धों की धर्मभाषा पालि बनी, जैनियों की धर्मभाषा प्राकृत।चौदहवीं शताब्दी में जब इटली में लियोनार्डो द विंची और पीकों डेला मिरंडोला कला, विज्ञान और शिक्षा के क्षेत्र में समानता के मूल्य प्रतिष्ठित कर रहे थे और इंग्लैंड में चौसर अग्रेजी भाषा को संवार रहे थे, तब बनारस में कबीर और दिल्ली में अमीर खुसरो खड़ी बोली हिंदी के माध्यम से नई जनचेतना की अभिव्यक्ति कर रहे थे।यह नई चेतना का संघर्ष यूरोप और मध्येशिया की भांति भाषा का भी संघर्ष था।इसका सबसे ज्वलंत प्रमाण कबीर की यह अति-प्रसिद्ध उक्ति है‘कबिरा संस्कृत कूपजल, भाषा बहता नीर’! संस्कृत ही धर्म की भाषा थी, वही आभिजात वर्ग की भाषा भी थी।इसीलिए तुर्क शासक जहांगीर के दरबार में उपस्थित पंडितराज जगन्नाथ ने उसे ‘जगदीश्वर’ की उपाधि संस्कृत में ही दी थी‘दिल्लीश्वरो वा जगदीश्वरो’!

यूरोप और मध्येशिया से भारत के इतिहास की भिन्नता इस बात में है कि यहां पारंपरिक अभिजात वर्ग की और धर्म की भाषा संस्कृत थी, लेकिन नए आभिजात वर्ग और राज्यसत्ता की भाषा फारसी थी।संस्कृत का प्रभाव तो देशव्यापी था, लेकिन संयोग से फारसी भाषी राज्यसत्ता का केंद्र हिंदी प्रदेश था।संस्कृत के प्रभुत्व से बंगाली, तमिल, मराठी आदि सभी भाषाओं को संघर्ष करना पड़ा, लेकिन फारसी से मुख्य संघर्ष हिंदी को करना पड़ा।जिस तरह हिंदी के संघर्ष से हिंदी ‘राष्ट्रीयता’ का विकास हुआ, उसी तरह बंगाली, तमिल, मराठी आदि के संघर्ष से बंगाली, तमिल, मराठी ‘राष्ट्रीयताओं’ का विकास हुआ।जिसे भारतवर्ष, भारत देश या भारत राष्ट्र कहा जाता है, वह इन सभी ‘राष्ट्रीयताओं’ से मिलकर बना है।

विडंबना यह है कि यूरोप में ईसाई धार्मिक प्रभुत्व टूटा तो आधुनिक राष्ट्रों का अभ्युदय हुआ, ये राष्ट्रप्रधानतः एक भाषा के इर्दगिर्द निर्मित हुए।लेकिन भारत में पुनर्जागरण हुआ तो अनेक राष्ट्रीयताओंका अभ्युदय हुआ और उन सबसे मिलकर भारत नामक राष्ट्र बना।इसलिए भारतवर्ष अनेक भाषाएं बोलनेवाले लोगों का राष्ट्र है, जिसे अनेकता में एकताभी कहा जाता है।

इस वस्तुगत इतिहास को देखते हुए यह प्रश्न उठता है कि ‘हिंदी नेशनलिज़्म’ या ‘हिंदी राष्ट्रवाद’ की चर्चा करनेवाले बुद्धिजीवी बंगाली राष्ट्रवाद, तमिल राष्ट्रवाद या मराठी राष्ट्रवाद की बात नहीं करते।आखिर क्यों? जबकि भाषाई आधार पर अपनी सांस्कृतिक एकता की पहचान का आग्रह इन सभी में बहुत अधिक है अथवा हिंदीभाषी जनता से बहुत अधिक है।मराठियों की राष्ट्रीयता 17वीं शताब्दी में औरंगज़ेब के समय इतनी उन्नत थी कि उन्होंने शिवाजी के नेतृत्व मे ‘मराठा सत्ता’ की स्थापना की थी।फिर भी मराठी राष्ट्रवाद की बात नहीं होती।फिलहाल हम इस समस्या के विश्लेषण में नहीं जा सकते, लेकिन एक बात पर गौर करना आवश्यक है।हिंदीभाषी क्षेत्र अपनी संरचना में एक तरफ पूरब में बंगाल-उड़ीसा से, दूसरी तरफ दक्षिण-पश्चिम में महाराष्ट्र-गुजरात से जुड़ा है।अपनी विशालता के कारण वह सांस्कृतिक महत्व भी अधिक रखता है।इसलिए दूसरी भाषाओं के बुद्धिजीवी हिंदी से सशंकित होते हैं।यही नहीं, पुराने समय से वाणिज्य-व्यापार के नाते अलग-अलग भाषा बोलनेवाले लोग एक-दूसरे के इलाकों में आते-जाते और बसते रहे हैं।

हिंदी बोलनेवाले भी अन्य प्रदेशों में बसते रहे हैं।इससे हिंदी का अखिल भारतीय विस्तार अपेक्षाकृत अधिक हुआ है।इन अलगअलग भाषाओं को बोलने वालों को राष्ट्र राज्यनहीं कहा जा सकता, जैसा यूरोप में है।

डॉ. रामविलास शर्मा ने इस समस्या पर सबसे अधिक विचार किया है।19वीं शताब्दी से प्रचलित एक पारिभाषिक पद ‘जाति’ को उन्होंने इसके लिए उपयुक्त बताया है।राष्ट्रों का अस्तित्व स्वतंत्र होता है।जातियां अपनी विशेषता रखती हैं, साथ ही वे मिलकर राष्ट्र का निर्माण करती हैं।हिंदी ‘राष्ट्र’ नहीं, हिंदी जाति है; जैसे मराठी राष्ट्र नहीं, मराठी जाति है।भारत में हिंदी-मराठी-बंगाली-तमिल सभी सम्मिलित हैं।यह यूरोप के इतिहास से भारतीय इतिहास की भिन्नता है।ये सभी जातियाँ मिलकर ‘राष्ट्र’ की रचना करती हैं, यह ‘बहुजातीय राष्ट्र’ है।इन जतियों में अंतर्विरोध पहले भी थे, लेकिन शत्रुता नहीं थी।शत्रुता की धारणा का प्रचार हुआ ब्रिटिश साम्राज्यवाद से संघर्ष के दिनों में, जब अंग्रेजों ने अपने विरुद्ध भारतीय जनता के संघर्ष को आपसी संघर्ष में बदलने के उपाय किए।व्यापक सामाजिक जीवन में जिस तरह सांप्रदायिकता को फूट के लिए इस्तेमाल किया गया और आज भी शासकवर्ग इस अस्त्र का उपयोग करता है, उसी तरह शिक्षित और बौद्धिक समुदाय को विभाजित करने के लिए भाषाई अस्मिता का उपयोग किया गया।यह बात आज़माकर देखी जा सकती है कि ‘हिंदी राष्ट्रवाद’ की धारणा माननेवाले बुद्धिजीवी शुरू से ही अंग्रेजीदां लोग हैं।इस पदावली में साम्राज्यवादी प्रभाव झलकता है।

दूसरी अवधारणा हिंदी साम्राज्यवादकी है।यूरोप की अनेक आधुनिक जातियां व्यापार पर कब्जे के लिए साम्राज्यविस्तार की नीति पर चलीं।पुर्तगालियों ने, स्पैनिश लोगों ने, फ्रांसीसियों ने, सबसे बढ़कर अंग्रेजों ने साम्राज्य स्थापित किए।

साम्राज्य स्थापित करने वाले ‘नेशन’ अपनी श्रेष्ठता के दंभ से उद्वेलित थे।इसलिए एक ओर ‘नेशन’ से ‘साम्राज्यवाद’ का संबंध स्पष्ट होता है, दूसरी ओर साम्राज्यवाद के साथ उत्पीड़न का भाव प्रकट होता है।हिंदी साम्राज्यवाद का प्रश्न उठाने वाले यह विचार नहीं करते कि साम्राज्यवादी देश दूसरे जनगण का शोषण करके स्वयं समृद्ध हुए, लेकिन हिंदी प्रदेश ने ऐसा साम्राज्य स्थापित किया कि देश के सबसे पिछड़े इलाकों में उड़ीसा की भाँति झारखंड, छत्तीसगढ़, बिहार-हिंदीभाषीक्षेत्रहीहै।साम्राज्यवाद-विरोधी नवजागरण में ‘हिंदी राष्ट्रवाद’ ‘हिंदी साम्राज्यवाद’ जैसे पदावली को तिलांजलि देने का सांस्कृतिक कार्य अधूरा रह गया था।इसे पूरा किए बिना भारतीय बौद्धिक जगत को और जनसाधारण को एकीकृत करना संभव नहीं है।

(2) ऊपर हमने देखा कि भारत की विभिन्न भाषाओं में हिंदी एक है।जिसे भारतीयता कहा जाता है, वह इन सभी भाषाओं के समग्र सांस्कृतिक प्रभाव का नाम है।इसलिए बंगाली की भारतीयता, तमिल की भारतीयता या हिंदी की भारतीयता की बात मुझे बहुत तर्कसंगत नहीं लगती।इसमें संदेह नहीं कि पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी के नवजागरण में तमिलनाडु से असम तक एक सांस्कृतिक भावधारा का प्रसार दिखाई देता है।यह अखिल भारतीय चेतना है।यह चेतना केवल अभिजात वर्ग या बौद्धिक वर्ग तक सीमित नहीं है।वह कारीगरों-किसानों-अछूतों और स्त्रियों में भी फैली थी।साधारणतः इसे भक्ति आंदोलन कहा जाता है।रामविलास शर्मा ने इसे ‘लोकजागरण’ की संज्ञा दी है।यह लोकजागरण हिंदी में भी प्रबल वेग से चला।जिस तरह खुसरो ने ‘तूती-ए-हिंद’ बनकर भारतीयता की चेतना को अभिव्यक्ति दी, उसी तरह तुलसीदास ने ‘भलि भारत भूमि भले कुल जन्म समाज सरीरु भले लहि के’ लिखकर भारतीयता को ही हिंदी मानस बताया है।इन स्पष्ट उल्लेखों के अतिरिक्त सांस्कृतिक जीवन के वैशिष्ट्य को अभिव्यक्त करने में हिंदी अन्य भारतीय संस्कृतियों से कम भारतीय नहीं है।

हम केवल हिंदी की बात करें तो तत्कालीन भारतीय समाज की सबसे प्रमुख प्रवृत्ति और समस्या थी पारंपरिक समाज के बाशिंदों और आगंतुक विदेशी शासकों के बीच संघर्ष और सामंजस्य की, धार्मिक दृष्टि से हिंदुओं और मुसलमानों के घुलमिलकर एक समाज बनने की।इस प्रक्रिया में टकराव और मेलजोल की दोहरी परिघटना दिखाई देती है।कम-से-कम खुसरो, कबीर और जायसी के साहित्य की अंतर्वस्तु के निर्माण में इस परिघटना का निर्णायक प्रभाव मौजूद है।

यह प्रभाव जायसी के काव्य मे अंतर्वस्तु के स्तर पर तो अभिव्यक्त होती ही हैहिंदुवन तुरकन भई लराई’, यह काव्य के स्वरूप में भी झलकता है, जिसे महाकाव्य और मसनवी शैली का मिश्रण कहा गया है।

तुलसी की भाषा के निर्माण में भी यह प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है।उनके ‘गरीब नेवाज’ हों, ‘करतार’ हों या ‘बजाज-सराफ’, यह शब्दावली अरबी-फारसी प्रभाव का नतीजा है।दूसरे शब्दों में, भारतीयता कोई अमूर्त वस्तु नहीं है।वह विभिन्न रूपों में हिंदी के माध्यम से व्यक्त होती है।

(3) जहां तक हिंदी माध्यम से उच्च शिक्षा देने की संभावना की बात है तो यह बिलकुल संभव है।अंग्रेजी राज्य से पहले यहां शिक्षा का माध्यम क्या था? अंग्रेजी राज्य कायम होने के बाद, फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना के बाद तक यहां के विद्यालयों और गुरुकुलों में शिक्षा का माध्यम क्या था? यह तो कोई नहीं कहता कि यहां शिक्षा थी ही नहीं।यह भी कोई नहीं कहता कि यहां केवल व्याकरण और साहित्य पढ़ाया जाता था।अगर पहले हिंदी में शिक्षा दी जा सकती थी तो कोई कारण नहीं है कि अब नहीं दी जा सकती।आजादी के संघर्ष के दौरान अपनी भाषा के लिए जागरूकता थी, तब शिक्षा में एक तरफ भारतीय भाषाएं व्यवहृत होती थीं, दूसरी तरफ विदेशी शासन अपने संस्थानों के जरिये अंग्रेजी माध्यम को बढ़ावा देता था।

1857 के प्रथम स्वाधीनता संघर्ष का जिस निर्ममता से दमन हुआ, उसके चलते देशी और स्वदेशी बौद्धिक समूह का लगभग उन्मूलन हो गया।उसके बाद देशी भाषाओं के लिए आग्रह तो रहा, लेकिन अवसर घटते गए।अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा, विशेषतः उच्च शिक्षा का विस्तार हुआ।इस प्रक्रिया में नवशिक्षित भारतीय मध्यवर्ग आंतरिक रूप से विभाजित हुआ।देशी भाषाओं में शिक्षा पाने वाला समुदाय एक ओर, अंग्रेजी में शिक्षा पाने वाला समुदाय दूसरी ओर।इस विभाजन ने मध्यवर्ग को संगठित नहीं होने दिया, बल्कि उसकी चेतना को दुचित्तेपन से ग्रस्त किया।

साधन संपन्न भारतीयों की नई पीढ़ी उच्च शिक्षा के लिए जब विदेश जाने लगी, तब स्थिति और बदल गई।विदेशों से नई रोशनी लेकर वापस आनेवाले भारतीय सामाजिक जीवन और राष्ट्रीय आंदोलन में अधिक महत्वपूर्ण होने लगे।

कांग्रेस हो या वामपंथी आंदोलन, विदेश से लौटनेवाले अंग्रेजीभाषी प्रभुत्व की स्थिति में रहे, स्वदेश में रहकर संघर्ष करनेवाले अनुसरण की स्थिति में आते गए।इसका एक परिणाम आजादी के बाद यह हुआ कि नए शासकवर्ग ने देशी भाषाओं में शिक्षा की संभावना को स्वीकार नहीं किया।

गांधी का नाम जपना और उनकी शिक्षा नीति को व्यवहार में लागू न करनायहदुचित्तापननएशासकवर्गकेव्यवहारमेंदेखाजासकताहै।ज्यों-ज्यों निजी क्षेत्र का विस्तार होता गया, शिक्षा में निजीकरण का प्रभाव बढ़ता गया, त्यों-त्यों हिंदी और अन्य देशी भाषाएं शिक्षा का माध्यम बनने की लड़ाई हारती गईं, अंग्रेजी का प्रभुत्व बढ़ता गया।

उदारीकरण के बाद से तो यह संभावना और क्षीण हो गई है कि हिंदी या दूसरी भारतीय भाषाएं शिक्षा का माध्यम बनेंगी।इस कार्य के लिए जो दृढ़ संकल्प चाहिए, वह उदारीकरण के समर्थक शासक वर्ग में नहीं है, सत्ताधारी दल कोई हो।

यह संभव है कि हिंदी का पुरजोर समर्थन करके कोई सत्ताधारी दल दूसरे भाषाभाषियों को भड़काए और भाषा की राजनीति को अपनी सत्ता का साधन बनाए।जनता के विभाजन से राज करने का गुरुमंत्र अंग्रेज़ दे गए हैं।भारतीय अर्थतंत्र और राजनीति जैसे-जैसे साम्राज्यवादी देशों पर निर्भर होती जाती है, वैसे-वैसे देशी भाषाओं के व्यवहार की लड़ाई क्षीण होती जाती है।याद कीजिए, साम्राज्य-विरोधी संघर्ष के समय साधनों के अभाव में भी राजनीतिविज्ञान, अर्थशास्त्र, विज्ञान, समाजशास्त्र आदि विषयों पर हिंदी में मौलिक लेखन होता था।यह काम अब भी हो सकता है।इसके लिए संकल्प और जनवादी चेतना की आवश्यकता है।दुर्भाग्य से आज वामपंथ तक इस चेतना से दूर है।इसके बिना न जनता को जाग्रत किया जा सकता है, न सच्चा देशभक्त नागरिक तैयार किया जा सकता है।स्वभावतः हमें विकास की रणनीति बदलने का प्रयत्न करना होगा, विकास की प्रक्रिया में जनता की सक्रिय भूमिका का लक्ष्य निर्धारित करना होगा।यह तभी होगा जब जनता को उसके बोलचाल की भाषा में आरंभिक ही नहीं, उच्च शिक्षा दी जाए।

(4) मध्यवर्ग का रुझान अंग्रेजी की ओर बढ़ रहा है, यह सत्य है।क्या आर्थिक और शैक्षणिक विकास के चलते ‘पिछड़ों’ में मध्यवर्ग उत्पन्न नहीं हुआ है? 1947 में भारत संसार के सबसे अविकसित दस देशों में था।1987 में वह दस विकसित औद्योगिक राष्ट्रों में एक हो गया था।यह विकास केवल सवर्णों का नहीं हुआ था, दलितों और पिछड़ों का भी हुआ था।इसलिए 1977 में मंडल आयोग की जो रिपोर्ट केवल बिहार में लागू हुई थी, वह 1989 में राष्ट्रीय स्तर पर लागू हुई।उसके लिए नीचे का इतना दबाव था कि अनेक युवाओं द्वारा आत्मदाह करने के बावजूद सरकार ने पिछड़ों का आरक्षण वापस नहीं लिया।इस दबाव को समझना कठिन नहीं है।जो पार्टियां परंपरागत रूप में सवर्णों का पक्ष लेकर चलती थीं, वे भी सत्ता पाने के लिए और सत्ता में आने के बाद पिछड़ों के आरक्षण की जोरदार हिमायती बन गईं।

आजादी के बाद पूंजीवादी विकास ने सामंती जातिगत ढांचे को कमजोर किया, अंशतः तोड़ा, उसकी जगह वर्गों की संरचना का विकास किया।भाषा के मामले में हम देखते है कि हर समुदाय का मध्यवर्ग अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा में ही अपने बच्चों को भेजता है।

जो गरीब आदमी मध्यवर्ग में आने की जद्दोजहद कर रहा है, वह भी पेट-तन काटकर अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम स्कूल में भेजता है। ‘रंगभूमि’ में प्रेमचंद ने लिखा था कि उर्दू पढ़कर चपरासी बनोगे, हिंदी पढ़कर क्लर्क।अब कह सकते हैं कि हिंदी पढ़कर चपरासी बनोगे, अंग्रेजी पढ़कर क्लर्क, अफसर या एग्ज़ेक्यूटिव!

सारांश यह कि जीवन के उत्थान की संभावनाएं जिस भाषा में दिखेंगी, लोग उसकी तरफ जाएंगे।कोई इसलिए शिक्षा नहीं लेता कि पढ़-लिख कर पहले से निचले पायदान पर चला जाए।आप देखिए कि आबादी के जो हिस्से अभी तकआजादीकेअमृतमहोत्सवतकशिक्षासेनहींजुड़ेहैं, या सामाजिक कारणों से जिस समाज के अंश अभी शिक्षा से दूर हैं, वे हिंदी पर निर्भर हैं।इसलिए कह सकते है कि शैक्षणिक माध्यम के रूप में हिंदी गरीबों, आदिवासियों, निम्नमध्यवर्गीय स्त्रियों की भाषा है।प्रश्न में निहित चिंता सही है कि इससे समाज में विखंडन बढ़ेगा।इसे रोकने की नीतियों पर सरकार को, सामाजिक संस्थाओं को, राजनीतिक पार्टियों को और नागरिक समाज को सामूहिक प्रयत्न करना होगा।

-30, श्रीराम अपार्टमेंट्स, 32/4, द्वारका, नई दिल्ली110078 मो.9717170693

अवधेश प्रधान

प्रसिद्ध समालोचक।पूर्व प्रोफेसर, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय। अद्यतन पुस्तक सीता की खोज

भारतीय भाषाएं जगेंगी तो देश जगेगा

(1) भारत में जब ‘खुली अर्थनीति’ स्वीकार कर ली गई, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए दरवाजा पूरा खोल दिया गया।भूमि, सस्ता श्रम, तमाम प्राकृतिक संसाधन- पहाड़, नदी, झील, जंगल, खनिज, तेल, गैस; तमाम सार्वजनिक उपक्रम – बैंक, एल.आई.सी, संचार, रेलवे, बिजली, हवाई सेवाएं वगैरह निजी पूंजी की सेवा में सौंप देने का सिलसिला शुरू हुआ।उसी समय विश्व साम्राज्यवाद के विरुद्ध राष्ट्रीय प्रतिवाद का स्वर जनता ने उठाना शुरू किया।जब देश में स्वाधीनता संग्राम और नवजागरण की राष्ट्रीय स्मृतियों का उपयोग जनता की राष्ट्रीय चेतना को निखारने के लिए और उसके राष्ट्रीय प्रतिवाद को और मजबूत बनाने के लिए करना जरूरी था और अनेक जागरूक चिंतक, बुद्धिजीवी और लेखक ऐसा कर भी रहे थे, उस समय आलोक राय जैसे अंग्रेजीदाँ ‘हिंदी राष्ट्रवाद’ और ‘हिंदी साम्राज्यवाद’ जैसी बेतुकी अवधारणाएं लेकर मैदान में आए।

बहुत पहले रामविलास शर्मा ने ‘हिंदी नवजागरण’ की अवधारणा प्रस्तुत की थी :1857 का गदर हिंदी नवजागरण की पहली मंजिल थी, इसी का विकास भारतेंदु युग (दूसरी मंजिल), द्विवेदी युग (तीसरी मंजिल) और छायावाद युग (चौथी मंजिल) में हुआ।हिंदी प्रदेश में हिंदी नवजागरण की बहस ने एक नई स्फूर्ति पैदा की।राष्ट्रीय जागरण और मुक्ति के संघर्ष में हिंदी समाज अपनी भूमिका की पहचान कर रहा था ताकि नवजागरण के अधूरे अभियान को फिर से तेज किया जाए तभी यह विलायती बोली सुनने को मिली-हिंदी ने उर्दू को बहिष्कृत किया, फिर जनपदीय बोलियों का दमन किया।वह सामंती हिंदू नैतिकता बोध से ग्रस्त है।

भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर प्रेमचंद तक ने तमाम सामाजिक और धार्मिक रूढ़ियों पर लगातार प्रहार करते हुए हिंदी को सांस्कृतिक जागरण की भाषा बना दिया था।उन तमाम उपलब्धियों पर पानी फेरते हुए कहा गया कि हिंदी के आधुनिक विकास की प्रक्रिया में, ‘एक प्रतिक्रियावादी, दक्षिणपंथी, पंडिताऊ, पोंगापन हिंदी की खास पहचान बन जाता है।

उस दौर की पत्रिकाएं, जो बराबर घाटे में चलीं और ब्रिटिश राज में जिनका लगातार दमन हुआ वह शायद इसी ‘पंडिताऊ पोंगापन’ के कारण।हिंदी ने एक और गलती की, ‘उर्दू की नवाबी छवि से बिलकुल भिन्न हिंदी की छवि बनाने की और शुद्ध साहित्यिक स्तर पर उसे ब्रजभाषा की रीतिकालीन रति काव्य परंपरा से दूर करने की।’ आलोक राय के विचार से अभी हिंदी में नायिका भेद वाली कविता जारी रहनी चाहिए थी! हिंदी के विकास को ‘हिंदू रंग में रंगने की भरपूर कोशिश की गई।वसुधा डालमिया के लिए हिंदी ‘हिंदुओं की राष्ट्रभाषा’ है, भारतेंदु ने ‘हिंदू परंपराओं का राष्ट्रीयकरण’ किया! भारतेंदु ने तो बलिया वाले भाषण में सभी धर्मों और जातियों के लोगों को भेदभाव भूलकर एक होने का संदेश दिया था, लेकिन ये अंग्रेजी दाँ डॉक्टर हिंदी और उर्दू को, हिंदी और जनपदीय बोलियों को, हिंदुओं और मुसलमानों को एक-दूसरे से अलग करने वाली दवाएं तजबीज करते हैं, ताकि अंग्रेजी का वर्चस्व कायम रहे और विश्व साम्राज्यवाद के विरुद्ध एकताबद्ध राष्ट्रीय प्रतिवाद खड़ा न हो सके।

(2) ‘हिंदी की भारतीयता’ की व्याख्या कई तरह से की जा सकती है।सबसे पहले तो हिंदी को हिंदी होना चाहिए।हिंदी की भारतीयता सबसे पहले उसके हिंदीपन में है।हिंदी गद्य के आरंभ काल के लेखकों के बारे में रामचंद्र शुक्ल का विचार था कि ‘उनकी हिंदी हिंदी होती थी।वे लोग अपनी भाषा की प्रकृति को ठीक-ठीक पहचानते थे।जब बांग्ला, संस्कृत, अंग्रेजी आदि का दबाव बढ़ा तो हिंदी का रूप बिगड़ने लगा।और यह संकट सबसे अधिक अंग्रेजीदाँ के विद्वानों के मध्य था।वे आप्टे की अंग्रेजी-संस्कृत डिकशनरी सामने रखकर शब्द प्रतिशब्द अनुवाद करते समय मूर्खता, तटस्थता, दीनता, स्थिरता की जगह मौर्ख्य,  ताटस्थ्य, दैन्य, स्थैर्य आदि लिखने लगे।इस तरह हिंदी लिखना शुरू किया जो हिंदी का रूप बिगाड़ना है।नरेश मेहता ने एक समय हिंदी में बांग्ला के शब्दों को अनमेल मिलावट करके उसकी सूरत ही बिगाड़ दी थी।डाको, विनगो, आलोको, उत्सवित जैसे चित्र-विचित्र उपयोगों से उसकी भाषा पंगु हो गई।

आज हमारे सामने उर्दूहिंदी का झगड़ा नहीं है।नागरी लिपि में छपा उर्दू साहित्य खूब पढ़ा जाता है।हिंदू, मुसलमान सभी बोलचाल की हिंदी का व्यवहार करते हैं।आज रचनात्मक साहित्य में संस्कृत, बांग्ला, पंजाबी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी, उत्तराखंडी, झारखंडी, हरियाणवी जनजीवन और जीवन परिवेश के साथ वहां वहां की बोली बानी भी खुलकर आ रही है।

दुष्यंत कुमार के बाद हिंदी में ग़ज़लों की बाढ़ आ गई।सभाओं में, जुलूसों में जनकवियों के साथ-साथ दुष्यंत कुमार, अदम गोंडवी, बल्ली सिंह चीमा की गजलें भी गाई जाती हैं।सिनेमा और टीवी ने हिंदी को दूर-दूर तक भारत में और भारत के बाहर पहुंचाया है।पिछले चालीस-पचास वर्षों में स्त्री, दलित, पिछड़े और आदिवासी समुदाय से आने वाले लेखकों की तादाद लगातार बढ़ती रही है।इससे हिंदी का अनुभव-संसार व्यापक हुआ है।

लेकिन कुछ खतरे भी बढ़े हैं।एक खतरा सरकारी हिंदी, कार्यालयी हिंदी, नौकरशाही हिंदी का है; दूसरा खतरा अनुवाद-बोझिल हिंदी का है और तीसरा खतरा हिंगलिश का है।कोई जमाना था, जब पराड़कर युग के अखबारों की मदद से लोग हिंदी सीखते थे।अब तो हिंदी पत्र-पत्रिकाओं के नाम तक हिंदी में नहीं है।इंडिया टुडे, आउट लुक, नवभारत टाइम्स, कुबेर टाइम्स आदि।स्तंभ के शीर्षक तक अंग्रेजी में आने लगे- जॉब, बिजनेस, करंट अफेयर्स, कैरियर, स्पोर्ट्स, रेसिपी, एक्सपर्ट टिप्स वगैरह।पूंजीवादी मूल्यहीनता और अनैतिकता के फलस्वरूप भाषा तक में जबदरस्त गिरावट आई।जनहित में नई योजनाओं की घोषणाएं नेताओं की ओर से जनता को ‘सौगात’ ही जाने लगीं गोया लोकतांत्रिक कर्तव्यों का निर्वाह भी नेताओं का कोई ‘एहसान’ हो।सबसे बड़ी विडंबना तो यह है कि सुंदर को ‘सेक्सी’ कहा जाने लगा।मेरे लिए  ‘हिंदी की भारतीयता’ का अर्थ है हिंदी का अपना जातीय सहज-स्वाभाविक रूप।वह संस्कृत और फारसी के रत्नकोष का भी सदुपयोग करे, अंग्रेजी और विश्वभाषाओं से भी पौष्टिक आहार का संग्रह करे, लेकिन उसका घनिष्ठ संबंध धरती से- अपनी जनपदीय भाषाओं से बना रहे।भारतीय भाषाओं से उसका स्वस्थ संवाद जारी रहे।और हर हाल में, उसका मुंह जनता की ओर हो, सरकार की ओर नहीं।वह जनता की ओर से बोले, शासन की ओर से नहीं।

(3) अभी जो हालात हैं उनको देखते हुए तो नहीं लगता है कि उच्च शिक्षा हिंदी माध्यम से अब कभी दी जा सकेगी।मालवीय जी हिंदी के प्रेमी भक्त थे, स्वतंत्रता सेनानी और कांग्रेस के बड़े वरिष्ठ नेता थे।हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी को एक विषय के रूप में पढ़ने-पढ़ाने की शुरुआत उन्होंने की।अदालतों में नागरी लिपि और हिंदी का प्रयोग उन्होंने शुरू कराया।फिर भी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी माध्यम से उच्च शिक्षा देने के प्रस्ताव पर वे अंग्रेजी सरकार को सहमत नहीं कर पाए।जब लोहिया जी ने ‘अंग्रेजी हटाओ’ आंदोलन किया तो कुछ असर पड़ा, पर बहुत कम।

बी.एच.यू.में एक हिंदी समिति बनी, जिसने भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, जीव विज्ञान, कृषि विज्ञान, राजनीति विज्ञान आदि की श्रेष्ठ पुस्तकों का अनुवाद कराया, प्रकाशित किया।वह सब का सब गोदाम में पड़ा रहा, फिर मुफ्त में शहर के पुस्तकालयों को दे दिया गया।ट्रकों में भरकर सारा माल हटाकर कमरा खाली करा लिया गयाबस।अब हिंदी समिति एक नाम भर है।

मेरा अनुमान है, काशी, प्रयाग, लखनऊ, इलाहाबाद- सब जगह ऐसी समितियां हैं।यही हश्र हुआ होगा।जब तक उच्च शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी बनी रहेगी तब तक हिंदी या किसी भारतीय भाषा में अनूदित ग्रंथों की कोई उपयोगिता नहीं होगी।

एक बात गंभीरता से समझ लेनी चाहिए कि अंग्रेजी उच्च ज्ञान का एक माध्यम है, एकमात्र माध्यम नहीं है।क्रोचे और ग्राम्शो ने अपने ग्रंथ इतालवी में लिखे, अंग्रेजी में नहीं।अफ्रीकी अर्थशास्त्री समीर अमीन ने फ्रेंच में लिखा।कई अर्थशास्त्रियों ने पुर्तगाली और स्पेनिश में लिखा।समूचे लैटिन अमरीका में तो स्पैनिश चलती है।जापान ने जो भी तकनीकी प्रगति की है उसका माध्यम जापानी भाषा है।कुश्ती की अंतरराष्ट्रीय भाषा रूसी है इसीलिए हरियाणा के पहलवान जे एन यू के रूसी भाषाविदों से मदद लिया करते हैं।एक छोटा-सा देश इजराइल आज की दुनिया का बहुत आगे बढ़ा हुआ देश है।वहां उच्च शिक्षा और शोध का माध्यम हिब्रू है।हिब्रू बहुत पुरानी भाषा है, लेकिन नए ज्ञान का माध्यम बनी हुई है।वहाँ नोआ हरारी है- इस समय दुनिया के बड़े चिंतकों में से एक।उन्होंने कभी नहीं शिकायत की कि हिब्रू पुराने जमाने की, पिछड़े जमाने की भाषा है, उसमें आधुनिक ज्ञान-विज्ञान का चिंतन, अध्यापन, लेखन, संप्रेषण नहीं किया जा सकता।

हमारे यहां भी सुधाकर द्विवेदी जैसे गणितज्ञ की प्रतिभा अंग्रेजी पर निर्भर नहीं रही।बनारस, जयपुर, लखनऊ, रायगढ़ जैसी जगहों पर संगीत का विकास अंग्रेजी पर निर्भर नहीं रहा।गौरी शंकर हीराचंद, गोपीनाथ कविराज, आचार्य नरेंद्रदेव, रामकृष्ण दास, वासुदेवशरण अग्रवाल, राहुल सांकृत्यायन और रामविलास शर्मा ने जो चिंतन, लेखन, भाषण और संप्रेषण हिंदी में किया, वह किसी भी भाषा में ऊँचा स्थान पाने का अधिकारी है।पी.सी.जोशी, श्यामाचरण दुबे, सुधीरचंद्र, गोविंदचंद्र पांडे और कृष्ण कुमार और नए लोगों में अनुपम मिश्र और प्रसन्न कुमार चौधरी ने अपने अपने क्षेत्र में जो कुछ हिंदी में लिखा है, उससे विश्वास होता है कि हिंदी में मौलिक और श्रेष्ठ चिंतन और लेखन की संभावनाएं अब भी हैं।

(4) सचाई यह है कि अंग्रेजी की ओर आकर्षण अब केवल उच्च वर्ग और मध्यवर्ग तक सीमित नहीं रह गया है, निम्नवर्गों में और गरीबों तक में अपने बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाने की चाहत ने जोर पकड़ा है।लड़के, अंग्रेजी पढ़ी-लिखी लड़की से शादी करना चाहते हैं।छोटे-छोटे कस्बों और गांवों तक में इंगलिश स्पीकिंग कोर्स के विज्ञापन लिखे मिलते हैं- अंग्रेजी बोलो फटाफट।हिंदी में कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, यात्रावृत्तांत, संस्मरण वगैरह खूब लिखे और पढ़े जा रहे हैं, लेकिन सामाजिक विज्ञान और प्राकृतिक विज्ञान के विषयों में मौलिक लेखन शून्य के बराबर है।

हिंदी अखबारों में ज्ञानविज्ञान संबंधी किसी स्तंभ के लिए भविष्य फलजितनी भी जगह नहीं होती।लेदेकर मौसम के बारे में कुछ सूचना भर होती है।ज्ञानविज्ञान का अंग्रेजी से अनुवाद 1980-90 तक चलता रहा, बाद में वह भी बंद हो गया।

‘हिंदी साम्राज्यवाद’ की बात करने वाले अंग्रेजी के वर्चस्व का जिक्र तक नहीं करते।माना कि टीवी चैनलों में और सोशल मीडिया पर हिंदी छाई हुई है, लेकिन उसकी अंतर्वस्तु क्या होती है? उस सबसे किस तरह  का दिल और दिमाग बन रहा है? समूचे हिंदी प्रदेश में ढोंगी बाबाओं और ज्योतिषियों की धूम है या फिर हिंसा और हुड़दंग करने वाली ताकतों की, जब गोबर, गोमूत्र, हवन और टोटकों से कोरोना ठीक करने का सार्वजनिक प्रचार होने लगता है तब समाज में शिक्षा, ज्ञान विज्ञान, तर्क और विवेक के लिए जगह कम होने लगती है।चारों तरफ अशिक्षा या कुशिक्षा, अज्ञान, अंधविश्वास, अफवाह, मताग्रह और कट्टरपन का बोलबाला हो जाता है।हमारा समाज एक जगमगाती हुई धूमधाम और धूम-धड़ाके से भरी हुई बर्बरता की ओर बढ़ रहा है।लगता है, हिंदी केवल वही गरीब पढ़ेंगे जो अंग्रेजी पढ़ने की फीस नहीं जुटा पाएंगे।ऐसी स्थिति में भारत ‘विश्वगुरु’ तो क्या, ‘विश्वचेला’ तक नहीं बन पाएगा।

हिंदी के भविष्य की वापसी भारत के भविष्य की वापसी से जुड़ी हुई है।भारतीय नवजागरण और स्वाधीनता संग्राम की अधूरी परियोजना पर फिर से काम करना पड़ेगा।उस दौर की चुनैतियों से संघर्ष करने के दौर में हमारा देश जागा, हमारी भाषाएं जागीं, देश के कोने-कोने से नई-नई प्रतिभाएं, नई-नई मनीषाएं आईं और विपरीत परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए शिक्षा में, विज्ञान में, कला में, साहित्य में, धर्म और दर्शन में, इतिहास और समाजशास्त्र में मौलिक चिंतन हुआ, मौलिक प्रयोग हुए एक से एक संस्थाएं बनीं, ज्ञान-विज्ञान के नए-नए केंद्र बने।नए जमाने की चुनौतियाँ भी नई हैं और बड़ी हैं।औपनिवेशिक मानसिकता को परे फेंककर अर्थनीति से लेकर शिक्षा नीति तक में क्रांतिकारी विचारों की श्रृखंला का विकास करना होगा, जनता को नए विचारों में शिक्षित करना होगा और उसे आमूल-चूल परिवर्तन के लिए उठ खेड़े होने को तैयार करना होगा।यह एक लंबी लड़ाई है।छोटी-छोटी प्रचार पुस्तिकाएं निकलें, उनके इर्द-गिर्द छोटे-छोटे ‘स्टडी-सर्कल’, छोटे-छोटे पुस्तकालय बनें।झोला पुस्तकालय ही सही, लेकिन नए विचारों को फैलाने का सिलसिला चल पड़े।इसी से हिंदी और तमाम भारतीय भाषाओं और जनपदीय बोलियों के भी भविष्य की वापसी संभव है।

एन 1/65 ई 52, शिव प्रसाद गुप्त कालोनी, सामने घाट, नगवा, वाराणसी-221005 मो.8400925082

अष्टभुजा शुक्ल

वरिष्ठ और सुपरिचित कवि।कविता संग्रह, निबंध संग्रह और कई संपादित पुस्तकें प्रकाशित।श्रीलाल शुक्ल स्मृति इफ्को सम्मान से सम्मानित।

भारतीयता हिंदी के रक्त में विद्यमान है

भारतीय गणतंत्र इन दिनों आजादी के अमृत-महोत्सव में सराबोर है और उचित ही है।औपनिवेशिक साम्राज्यवाद की गुलामी से मुक्ति का 75वां वर्ष मनाने का हक उस किसी भी देश को है, जिसने स्वाधीनता का मूल्य चुकाने के लिए इतनी यातनाएं सहते हुए इतने बलिदान दिए हों।समाजों और राज्यों की दृष्टि से भारत में आरंभ से ही ‘गणों’ और ‘जनपदों’ की संकुल अवधारणा क्रियाशील रही है, जिसे रवींद्रनाथ टैगोर ने ‘महा मानवसमुद्र’ की संज्ञा से अभिहित किया था।

इसीलिए भारतीय गणराज्य दुनिया की दूसरी राष्ट्रीय अवधाराणाओं की भाँति ‘राज्यों का यूनियन’ नहीं, बल्कि यह इस महादेश की बहुभौगोलिक, बहुसांस्कृतिक और बहुभाषिक संकुलता की एक जीवन-प्रणाली है।यह संकुलता वस्तुतः इतनी घुलनशील और अंतर्वर्ती है कि इसे खंडित दृष्टि से देखने की चेष्टा ही इस महासमाज में सेंध लगाने की कुदृष्टि प्रतीत होती है।और इसका प्रत्यक्ष प्रमाण आजादी की वह लड़ाई ही है जिसकी मुक्ति कामना ने अनेक जीवन-विश्वासों, संप्रदायों, भाषाओं, वर्गों, वर्णों और नस्लीय या लैंगिक भेदभावों के बिना, समूचे देशवासियों को एकस्वर में उद्वेलित कर दिया और वे अपना हक छीनकर ही माने।

अनेक भाषाओं की चहल-पहल से भरे इस गणराज्य में एक उभयनिष्ठ भाषा के तौर पर हिंदी को स्वीकृति मिली जिसका अनुमोदन बांग्लाभाषी नेताजी सुभाषचंद्र बोस, गुजराती भाषी महात्मा गाँधी, पंजाबीभाषी भगत सिंह, मूलतः मराठीभाषी दयानंद सरस्वती से लेकर दक्षिण के सत्यनारायण मोट्टूरि जैसे जननायकों ने समय-समय पर किया था।मतलब अन्य भारतीय भाषाओं की क्षेत्रीय अस्मिताओं के साथ हिंदी समूचे हिंदुस्तान को संबोधित करने की आकांक्षा रखने वाली एक भाषा के रूप में प्रस्तावित हुई थी।इसके मूल में अंग्रेजी की वर्चस्वकारी अंग्रेजियत का विस्थापन और भारतीयता की लोकतांत्रिक कामना थी।

इन संदर्भों के आलोक में यह देखना काफी अर्थपूर्ण होगा कि स्वाधीनता प्राप्ति के लगभग 18 वर्षों बाद 1965 में अंग्रेजी हटाओका नारा देकर बाकायदा आंदोलन भी छेड़ा गया।

ऐसे में आजादी के 75 सालों तक ऐसा क्या होता रहा कि हम एक स्वाधीन भाषा अभी तक अर्जित नहीं कर सके और समूचे देश को संबोधित करने की प्रतिज्ञा लेकर चलने वाली हिंदी को ही धीरे-धीरे विस्थापित करके अंग्रेजी अपना प्रभुत्व बढ़ाती गई।यहाँ तक कि वह अन्य भारतीय भाषाओं को भी अपनी चपेट में लेकर उन्हें वैकल्पिक बनाकर अपदस्थ करती रही।

अब अंग्रेजी केवल भाषा नहीं, बल्कि एक वर्चस्ववादी मानसिकता है।यह मानसिकता ही हिंदी को हीनतर सिद्ध करने पर तुली हुई है, बल्कि यह कहना ज्यादा समीचीन होगा कि अंग्रेजी ‘स्टेटस सिंबल’ बना दी जा रही है।उसमें अंग्रेजियत और औपनिवेशिकता के जीवाणु हैं।सभ्यता और संस्कृति की नफीसी है।इस संस्कृति के विकास के लिए हिंदी अपर्याप्त एवं पिछड़ी भाषा है।अंग्रेजी वैश्विकता की जबान है।हम जानते हैं कि गुलामी के विरुद्ध अधिकांश वैचारिक लड़ाई हिंदी में ही लड़ी गई और आज हमारा आजाद देश उन्मुक्त विश्व बाजार में खड़ा है।इसी कशमकश में एक ओर राष्ट्रवादी संस्कृति या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है तो दूसरी ओर साम्राज्यवादी वैश्विकता।इस दौर में हम ‘नेशन फर्स्ट’ की अवधारणा के वशीभूत हो चुके हैं।संस्कृति के नाम पर यहां इतनी ज्यादा अपसंस्कृति है कि कहा नहीं जा सकता।

हमारी हिंदी की जो वसीयत और परंपरा है, उसमें न तो किसी किस्म की नस्ली शुद्धता का आग्रह है और न ही उसमें दूसरों पर दबदबा कायम करने की कोई साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा।यह अधिकाधिक समावेशी, उदार और लोकतांत्रिक है।इसकी निर्मिति विविध तत्वों के सन्निवेश से संभव हुई है और उन्हीं के साथ भारतीयता की समग्र अवधारणा भी निहित है।हिंदी कभी वाचालताओं, प्रतिशोधों या ‘अन्यों’ को निगल जाने के परपीड़न के आनंद की भाषा नहीं रही।बल्कि इसी भाषा में यदि पुनरुत्थानवादी उद्घोष दर्ज हो रहे हैं तो इसी में इसके प्रतिरोध और अवज्ञा की अमिट लिपियाँ भी उत्कीर्ण हैं।यही हिंदी की जातीयता है और यही इसकी भारतीयता भी।

आंकड़े बताते हैं कि प्रयोक्ताओं या बोलने वालों के लिहाज से हिंदी का समूची दुनिया में तीसरा या चौथा स्थान है, फिर भी संयुक्त राष्ट्र संघ के थाने से बारबार इसका रिरियाहट भरा आवेदन वापस या खारिज कर दिया जाता है।यही दुरदुराहट हिंदी के लिए समूचे देश में व्याप्त सामाजिक या भाषिक भद्रता के बीच है।

हिंदी कइयों को अभद्र और निम्नस्तरीय प्रतीत होती है।और उन्हें ही क्यों, हिंदी उन तथाकथित प्रगतिशील और साम्यवादी राजनीति के अंदरखाने में भी दोयम दर्जे की ही हैसियत रखती है, क्योंकि उनके सारे घोषणापत्र और नीति-निर्धारक निर्देश अंग्रेजी में ही चरितार्थ होते हैं।यह विचार-चेतना सामान्य जनता के दुख-दर्द और संघर्ष की प्रतिज्ञाओं से लैस है और इसमें  मानव-मुक्ति के व्यापक उद्देश्यों के चलते, देश कम दुनिया कुछ ज्यादा दिखाई देती है।लेकिन हिंदी भारतीयता की भाषा है-परिभाषा है।आज जब लोकतंत्र कई अर्थों में वैश्विक-पटल पर आकार ले रहा है, तब दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र कहे जाने वाले भारत की सर्वाधिक लोकतांत्रिक भाषा अगर कोई है तो वह हिंदी ही हो सकती है।

जहां तक हिंदी में उच्च शिक्षा के पठन-पाठन का प्रश्न है तो धीरे-धीरे क्षेत्रीय भाषाओं में भी पठन-पाठन की आवाजें ऊँची हो रही हैं।कई प्रतियोगिताओं में प्रांतीय भाषाओं के लिए प्रश्न अनिवार्य कर दिए गए हैं।हिंदी में शिक्षा का एक ही अर्थ है- नागरी लिपि की अनिवार्यता।पिछले दिनों हिंदी के हितार्थ उसे रोमन लिपि में लिखे जाने के प्रस्ताव कुछ लोगों द्वारा दिए जाने लगे थे।इससे अधिक दयनीय और हिंदी के विरोध में प्रस्ताव दूसरा कोई हो ही नहीं सकता।इसे हिंदी के साथ नमकहरामी की श्रेणी में रखा जा सकता है।जाहिर-सी बात है कि अंग्रेजी के पास विश्वभाषा बनने का न तो निकट भविष्य में कोई संभावना है और न शक्ति है।अंग्रेजी सिर्फ हिंदी भाषाभाषियों के उस तबके की ललक है जो नकलची और आत्महीनता का शिकार है।

भारतीयता हिंदी के रक्त में है।उसे न कोई शुद्धता खत्म कर सकती है न कोई संकरता।अलबत्ता हमें इस मोर्चे पर माली जैसी सतत चौकीदारी करनी होगी।इन चिंताओं के बीज हमें आगामी पीढ़ी के संस्कारों में डालने होंगे और नीति-निर्धारकों को सावधान करते रहना होगा।आज वह मध्यवर्ग ही है जो संकुचित राष्ट्र की गिरफ्त में सबसे ज्यादा है।हो सकता है कि उसकी अपनी रूढ़ियों से ही एक लिपि के रूप में नागरी के प्रति आगे चलकर कोई नारद-मोह भी पैदा हो।लेकिन चिंताओं को निराशाओं में घटित कर देना बहुत समझदारी नहीं है।

 आचार्य रामचंद्र शुक्ल नगर, (इटैली पांडेय), कैली रोड, पोस्ट : लबनापार272002, बस्तीमो.8795594931

ए.अरविंदाक्षन

वरिष्ठ आलोचक और शिक्षाविद।महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के पूर्वउपकुलपति।कोच्चि में निवास।

हिंदी प्रदेश क्यों नहीं सीखते हिंदीतर भारतीय भाषाएं

(1) स्वतंत्रता-संग्राम के दौर में हिंदी को राष्ट्रभाषा कहा जाता था।इस धारणा में वह देश की भाषा के रूप में अंग्रेजी का विकल्प थी।उसमें सभी समुदायों को साथ लेकर चलने की दृष्टि भी थी जो उसकी समावेशिकता को सूचित करती है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सभी भारतीय भाषाओं को राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त हो गया।इस दृष्टि से हिंदी भी राष्ट्रभाषा है जैसे बांग्ला, असमिया या मलयालम।हिंदी को एक अतिरिक्त दर्जा मिल गया, जिससे वह अंग्रेजी के साथ राजभाषा बन गई।

हिंदी अनेक प्रदेशों में बोली जाती है, इसलिए उसके भीतर से ‘हिंदी राष्ट्रवाद’ की भाषाई राजनीति का विकास धीरे-धीरे होने लगा।यह अधिकार की राजनीति का एक अवांतर पक्ष है।अपने प्रभुत्व को स्थापित करने का यह तंत्र है।इसे ही ‘भाषाई साम्राज्यवाद’ भी कहा जा सकता है।यह हिंदी के लिए प्रीतिप्रद स्थिति नहीं है।

(2) हिंदी की भारतीयता वास्तव में भारत की भारतीयता की तरह एक व्यापक परिकल्पना है।इसमें कोई संदेह नहीं कि हिंदी ही एकमात्र भारतीय भाषा है जो राष्ट्रभाषा बनने की अर्हता रखती है।लेकिन इसके लिए उसे अपनी ‘भारतीयता’ को समृद्ध करना होगा।उसे अधिक समावेशी बनना होगा।देश की तमाम भाषाओं को विकसित करने की दिशा में उसे दत्तचित्त होना होगा।हमारी पाठ्य-पद्धति में त्रिभाषा-सूत्र स्वीकृत है।लेकिन हिंदी प्रदेश ने इसे कभी कार्यान्वित नहीं किया।

हिंदी को यदि अपने पंखों को पसारना है तो उसे चाहिए कि वह दूसरी भारतीय भाषाओं को भी अपनाए।अपने प्रदेश तक सीमित होकर, अपनी बोली बानी तक सिमटकर हिंदी न अपनी समृद्धि सिद्ध कर सकती है और न हिंदी अपनी भारतीयता प्राप्त कर सकती है।

स्वयं ‘भारतीय’ कहने से कोई भाषा भारतीय नहीं हो सकती।हिंदी की भारतीयता कोई भाषाई तंत्र न होकर एक विराट सांस्कृतिक  परिकल्पना है।इस दिशा में ही हिंदी को अग्रसर होना होगा।इसके लिए इन परियोजनाओं पर ध्यान देना होगा :

(क)हिंदी प्रदेशों में हिंदीतर भाषाओं के पठन-पाठन को सुनिश्चित करना।
(ख)हिंदीतर प्रदेशों के इतिहास एवं संस्कृति का अध्ययन करना
(ग)हिंदीतर प्रदेशों के साहित्य एवं कला का समग्र अध्ययन करना, हिंदी में प्रकाशन के माध्यम से इनका प्रचार करना और अपनी आंतरिक समृद्धि को बढ़ाना।

(3)ज्ञान के विभिन्न विषयों की उच्च शिक्षा हिंदी के माध्यम से संभव है।यह असाध्य नहीं है, पर यह आसान कार्य नहीं है।यह समस्या मात्र हिंदी प्रदेश तक सीमित नहीं है।जब हम इस प्रश्न को हिंदी प्रदेश के संदर्भ में रखकर देखते हैं तो पहली बड़ी समस्या है पाठ्य सामग्री का अभाव।प्रयोगशाला एवं कक्षा में हिंदी माध्यम से अध्यापन के समुचित प्रबंध का अभाव।राष्ट्रीय स्तर के संस्थानों के माध्यम से इस कार्य को शुरू करने की दिशा में कदम न उठाना।

अंग्रेजी पर निर्भरता कम करने के लिए सबसे प्रमुख कार्य यही होना चाहिए कि रोजगार सापेक्ष सभी संस्थाओं में व्याप्त अंग्रेजी वर्चस्व को खत्म किया जाए।यह कार्य अंग्रेजी का शत्रु पक्ष में खड़ा करके नहीं, बल्कि समन्वित ढंग से ही किया जाए।

अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की बढ़त आज देखी जा सकती है।वहां हिंदी को अनिवार्यतः पढ़ाया जाना चाहिए।इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वहाँ हिंदी साहित्य पढ़ाया जाए।ज्ञान विषयक क्षेत्रों के अध्ययन हेतु अनुकूल भाषा का अध्यापन अनिवार्य है।इसके लिए पाठ्य पद्धति में परिवर्तन भी अनिवार्य है।

स्कूल के छात्रों के लिए हिंदी की ऐसी कक्षाएँ रखी जाएं जो ज्ञान के विभिन्न विषयों पर आधारित हों और वे विशेषज्ञों द्वारा बनी हों।छात्रों को लगना चाहिए कि यह कार्य अच्छी तरह हिंदी के माध्यम से ही संभव है।

(4) हिंदी में भविष्य की वापसी भारत के विज्ञान, प्रौद्योगिकी एवं कृषि के क्षेत्र में विकास पर निर्भर है।भारत जब एक विकसित देश बन जाएगा, तब भारत की भाषाओं में सभी कार्य संभव किए जा सकते हैं, अगर प्रयत्न किए जाएं।भारतीय भाषाओं के विकास के बिना भारत एक पूर्ण विकसित देश नहीं बन सकता।जब तक भारत अविकसित तथा अधिकाधिक दूसरे देशों पर निर्भर देश बना रहेगा तब तक उसकी भाषाएं भी पिछड़ी ही समझी जाएंगी।ऐसे में अंग्रेजी का वर्चस्व भी कम नहीं हो सकता।

भारत को अपने को एक विकास-केंद्रित देश में बदलना होगा जो महज विज्ञापन के आधार पर नहीं, बल्कि अनुभवों के साक्ष्यों के आधार पर सिद्ध होगा।इस विशाल देश के नागरिकों को विकास के समस्त फायदों को मुहैया कराना होगा, जिसके माध्यम से उनमें देश का स्वत्वबोध विकसित हो।राजनीति के महज गूढ़ तंत्रों के बल पर विकास को परिभाषित करना या उसका कार्यान्वयन करना हानिकारक है।देश का सही विकास देश की वापसी को सुगम बना सकता है।

सांद्रय, कोलयकोड, पुतुश्वेरी, पालक्काट678623  (केरल)

कर्मेंदु शिशिर

प्रसिद्ध आलोचक और लेखक।नवजागरण पर विशिष्ट कार्य।दो उपन्यास, तीन कहानी संग्रह, तेरह आलोचना पुस्तकें और कई यात्रा संस्मरण तथा संपादित पुस्तकें प्रकाशित।

भारतीयता की धारणा
समय के साथ बदलती रही है

(1) हिंदी के साथ साम्राज्यवाद और जिस अर्थ में ‘राष्ट्रवाद’ का प्रयोग किया जा रहा है, वह हो ही नहीं सकता।हिंदी अपने जन्म से आज तक कभी राजसत्ता की भाषा रही ही नहीं और न शासक की।इसका जन्म ही विभिन्न जनपदीय भाषाओं के आपसी मेलजोल से हुआ।आचार्य किशोरी दास वाजपेयी ने इसके संस्कृत से उद्भव को नकारते हुए इसका उद्भव जनपदीय भाषाओं से सिद्ध किया है।कुछ मूर्ख पढ़ते नहीं और कुछ पढ़कर भी दुष्टता करते हैं।आप भारतेंदु या उनके कुछ पहले से लेकर आज की हिंदी के विभिन्न रूपों को देख जाइए।जिसकी आंख में बदमाशी का माड़ा पड़ा है, उसे कभी नहीं दिखेगा और वे कभी नहीं समझ सकते।इसका विकास और क्रमशः परिष्कार भारतीय स्वाधीनता-संग्राम के साथ-साथ होता रहा है।आप 1857 से 1947 के बीच के संपूर्ण भारतीय साहित्य को देख लीजिए।एक ही विचार, एक ही सोच, एक ही संघर्ष और एक ही स्वप्न मिलेगा।यह सहयात्रा है कि वर्चस्ववाद? हिंदी बहुत ही नमनीय भाषा है।इसकी प्रकृति में ही साम्राज्यवाद-विरोध है।इसी विरोध की संजीवनी से यह पली-बढ़ी है।

अब आप ‘राष्ट्रवाद’ को लेकर भी थोड़ा विचार कर लीजिए।हिटलर के बाद राष्ट्रवाद का इस्तेमाल एक खतरनाक राष्ट्रीय प्रवृत्ति के रूप में होने लगा।अंध राष्ट्रवाद मानवता का दुश्मन बनकर उभरा।दूसरे देश को या उसकी भूमि को बलात दखलियाना देश के हित में माना जाने लगा और उचित ही अंध-राष्ट्रवाद का विरोध हुआ।दूसरे का अहित कर अपने देश का हित सोचा जाना हर तरह से विरोधयोग्य है।लेकिन इसका ऐसा इस्तेमाल किया जाने लगा कि अंतरराष्ट्रीय होने के चक्कर में अपने देश का अहित भी उचित है।ये दोनों दो छोर हो गए।आप सोचिए आज

दुनिया में कौन ऐसा देश है जो अपने हित की बलि देकर दुनिया का भला सोचता है? एक गांव का हित एक जनपद का हित है और एक जनपद का हित एक प्रदेश का और एक प्रदेश का हित देश का और देश का हित दुनिया का हित हो, इसमें कोई अंतर्विरोध न हो।यह सही तरीका हुआ।

प्राचीन काल, मध्य काल और आधुनिक काल में राष्ट्र भक्ति का स्वरूप एक जैसा नहीं है और न होना चाहिए।उसी तरह राष्ट्रवाद का इस्तेमाल है।एक देश का हित अगर दूसरे देश के अहित से सधता है तो इस राष्ट्रवाद का विरोध होना चाहिए।इस आलोक में कोई आकर बताए कि कैसे हिंदी ने दूसरे का अहित किया है? उल्टे हमेशा से हिंदी का अहित सरकारों, उसके संस्थानों और तमाम इदारों ने किया है।उनका ढांचा साम्राज्यवादी रहा है।हिंदी, तमाम भारतीय भाषाएं और तमाम जनपदीय भाषाएं उनके दमन का शिकार होती रही हैं।

(2) कोई भी भाषा उसके बोलने वाले समाज से अविच्छिन्न रूप से जुड़ी होती है।भाषा और भारतीयता दोनों कोई स्थिर ईकाई नहीं है।दोनों में समय के साथ परिवर्तन होता है और यह स्वाभाविक भी है।जब उस भाषा के बोलने वाले की सोच और संवेदना में बदलाव आता है तो उसकी अभिव्यक्ति उसकी भाषा में ही होती है।अब दुनिया का कोई भाषाई समाज समान रूप से संकीर्ण या उदार नहीं होता।समान रूप से प्रबुद्ध नहीं होता और न ही समान रूप से समझदार।उसमें प्रगतिशील भी होते हैं और प्रगतिशीलता विरोधी भी।सबकी अभिव्यक्ति उसी भाषा में होती है।

अब आप हिंदी के उद्भव को लेकर देखिए कि उसकी जड़ों में अपनी मिट्टी, हवा और परिवेश का योगदान है या नहीं।भारतीयता की अवधारणा एक लंबे समय के बाद बनती है जो समय के साथ बदलती भी है।उदाहरण के लिए आप हिंदी के तद्भव और जनपदीय शब्दों, मुहावरों, कहावतों, लोकोक्तियों अथवा जन व्यवहार की अभिव्यक्ति पाते हैं तो आपको लगता है, इस भाषा के संस्कार में भारतीयता तो है।अब आप इसी हिंदी की जांच कीजिएगा तो इसमें लगभग 6000 (छह हजार) शब्द अरबी-फारसी और पश्तो के मिल जाते हैं।ऐसा क्यों हुआ? इसलिए कि इतिहास में उन भाषाओं के बोलने वाले से हमारा ऐतिहासिक तौर पर राजनीतिक और सामाजिक रिश्ता बना।फिर अंग्रेज आए और लंबे समय तक रह गए।उनकी भाषा, रहन-सहन, खानपान और बात व्यवहार का असर पड़ा।

आपको यह दिखता है कि यह तो बदला हुआ विजातीय रूप है इसको भारतीय माने कि नहीं।यहीं पर नजरिए और दृष्टिकोण की भूमिका मुख्य हो जाती है।रहनसहन, बातव्यवहार और खानपान बदलने से हमारी भारतीयता छीन गई? लुट गई? शीलभंग हो गया?

ऐसी सोच जड़ लोगों की होती है।जो सतत परिवर्तन और गतिशीलता के स्वाभाविक विकास को समझते हैं, वे परेशान नहीं होते।वे रैशनल होकर सोचते हैं और सहजता से स्वीकार करते हैं।अब भाषा में अंग्रेजी के कुछ शब्द आ रहे हैं और सहजता से घुल मिल गए हैं तो उसको मान लेने से भारतीयता की क्षति नहीं हो जाती! इसलिए इस आसंग में सबसे महत्वपूर्ण है आपका नजरिया! आपका दृष्टिकोण!! आपकी रैशनलिटी!!!

(3) सरकार अगर चाह ले तो हिंदी में उच्च शिक्षा जरूर दी जा सकती है।हंगरी सहित यूरोप के बेहद छोटे देश चिकित्सा, यांत्रिकी और प्रबंधन की शिक्षा अपनी ही भाषा में देते हैं।यूरोप की यात्रा में अंग्रेजी पूरी तरह सहायक होती है- ऐसा नहीं है।वहां सब लोग अंग्रेजी थोड़े ही जानते हैं।

पहली बात यह है कि भारत के जितने गैर-साहित्यिक लेखन करने वाले लेखक हैं वे अगर अपना लेखन पहले अपनी भाषा में करें और फिर अंग्रेजी में लिखें।मौलिक रूप से अपनी भाषा में जरूर और पहले लिखें।इससे ही बहुत फर्क पड़ जाएगा।

दूसरी बात यह कि विश्वविद्यालयों में मानविकी विषयों की पढ़ाई की शुरुआत हो जाए।तीसरी बात यह कि ऐसे छात्रों को नौकरी में प्राथमिकता दी जाए।वैसे हर पढ़ने-पढ़ाने वाले लोग एक विदेशी भाषा सीखें, इसके लिए एक या दो साल के कोर्स हों।लेकिन शिक्षण अपनी ही भाषा में हो।इससे बहुत फर्क पड़ सकता है।

एक बात यह कि देश में अनुवाद के विश्वविद्यालय खुलने चाहिए।हिंदी हो या अंग्रेजी, एक भाषा अब पर्याप्त नहीं रह गई है।आपको एक से अधिक भाषा आनी ही चाहिए।एक तरीका यह हो सकता है कि शुरू में एक-एक मानविकी विषय के लिए एक-दो विश्वविद्यालय को स्पेशलाइज किया जाए।बहुत देर हो चुकी है, लेकिन हड़बड़ी में कुछ नहीं हो सकता।योजनाबद्ध तरीके से धीरे-धीरे ही संभव हो सकता है।इसके लिए सरकार को कृतसंकल्प होना पहली शर्त है।दूसरी बात, पुस्तकें स्तरीय तैयार कराई जाएं, जिनकी भाषा ग्राह्य और आधुनिक हो।तीसरी बात यह कि शुरू में अत्यंत योग्य और प्रशिक्षित शिक्षक तैयार किए जाएं।कमाल पाशा की तरह का कोई योग्य, संकल्प वाला और दक्ष शासक रहे तो सब कुछ संभव है।

हमारे यहां सबसे बड़ी समस्या है राइट मैन टू राइट प्लेस की।यह सबसे कठिन है।सवाल यह नहीं है कि कैसे किया जाए! यह सब एक आदमी विचार करके दे दे।ऐसे नहीं होता।इस पर काबिल और दक्ष आदमी बैठकर विचार करेंगे और एक ब्लू प्रिंट बनाएंगे तो क्यों नहीं बन सकता।

(4) किसी समाज या देश में भाषा के सवाल को आप स्वायत्त रूप में नहीं ले सकते।वह आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्वरूप, प्रभावों और उसके बदलावों पर निर्भर करता है।जिसके पास पूंजी और ताकत है, वह बहुत कुछ तय करता है।हमारे देश में पूंजी का अंतरराष्ट्रीय फैलाव है।राष्ट्रीय पूंजीपति रह नहीं गए हैं।चिकित्सा, अभियंत्रण और प्रबंधन का जोर है।इन तीनों में शिक्षा इतनी महंगी है कि गरीब की गुंजाइश ही नहीं है।पूंजी और सत्ता को ऐसे लोग चाहिए जो आजादख्याल के न हों।राजनीति में उनकी दिलचस्पी न हो।वे बाजार के उपभोक्ता बनें।खाए पीएं और मौज करें।बाजार में सब उपलब्ध है और इनकी जेब में रकम है।इनको ऊंची तनख्वाह दी जरूर जाती है, लेकिन माध्यम के लिए।फिर उनसे मोटरगाड़ी, फ्लैट के लिए सीमेंट, लोहा, शीशा, अल्युमिनियम, सोफा, सजावट, टीवी, फ्रीज़ मसलन तमाम तरह की चीजें।श्रृंगार और फैशन का बाजार, गहनों का सिनेमा, महंगे मोबाइल, बच्चों के लिए हजार सामान- मसलन ऊंची तनख्वाह तो निकाल ही लेते हैं।ऊपर से कर्ज में डाल देते हैं।आप परिवार, समाज, देश दुनिया से कटकर अपने बच्चों और पत्नी तक सिमट जाते हैं।आपको विचार वाली पुस्तकों और साहित्य से पूरी तरह काटकर एक जीवित रोबोट बना देते हैं।ये यस मैन हैं।इनके पास कोई भाषा नहीं होती जो इनको मनुष्य या मनुष्यता से जोड़ सके।ये तो जीवित प्राणी हैं ही नहीं।

अब आप कह रहे हैं कि हिंदी पिछड़ों की भाषा बनकर रह जाएगी।बनकर रह नहीं जाएगी, बन चुकी है।आप हमको बताइए, इस देश में कब शासक और शासित जनता की भाषा एक रही है।संस्कृत राजभाषा थी तो जनता प्राकृत बोलती थी।फिर फारसी राजभाषा बनी तो जनता अपनी-अपनी लोकभाषा बोलती थी।फिर अंग्रेजी बनी तो बनी हुई है।जनता अपनी-अपनी भाषा में बोल रही है।इसलिए शासक और जनता की भाषा तभी एक हो सकती है जब सचमुच जनता का शासन हो।ऐसा हो या न हो लेकिन हम सब इसी स्वप्न को शिल्पित करने के लिए संघर्षरत हैं।

बी-301 किंग्सउड कोर्ट अपार्टमेंट, गैलेरिया मार्केट के पीछे, क्रॉसिंग रिपब्लिक, गाजियाबाद – 201016

मृत्युंजय

प्रबुद्ध लेखक, रंगकर्मी और संस्कृतिकर्मी।

2047 में भारतीय भाषाओं की क्या दशा होगी?

भारतीयता क्या है, अगर हम इस प्रश्न से उलझेंगे तो हम इस प्रश्न का भी सामना करेंगे कि भारतीय भाषाओं की भारतीयता क्या है? वह एकरूप होगी या हर भारतीय भाषा की भारतीयता अलग-अलग होगी? अगर अलग-अलग होगी और हम उसे मान्यता देते हैं, तभी हिंदी की भारतीयता की खोज अर्थवान होगी।

भारत की भारतीयता की बुनियाद परस्परता और समावेशिकता है।लेकिन हिंदी समेत सभी भाषाएं अतिरिक्त रूप से शुद्धता की आग्रही हैं, संकरता से सजग।अगर भारतीय भाषाएं अपनी-अपनी भारतीयता का सृजन नहीं करती हैं तो भारत का अपनी भारतीयता खोना अनिवार्य है।

किसी भी भाषा के शब्दों का एक जन्म स्थान या भाषा-कुल तो हो सकता है, मगर यह भी समझा जाना चाहिए कि किसी राष्ट्र की सीमा उस भाषा की शब्द सीमा नहीं होती।शब्द साइबेरिया के पक्षी की तरह जहां मौसम अनुकूल पाते हैं वहां पहुंच जाते हैं, मगर वे पक्षी की तरह लौटते नहीं हैं।वे जहां पहुंचते हैं, वहां रच-बस जाते हैं।लेकिन पिछले 75 सालों में भाषा के संदर्भ में भारत के लोग जिद्दी हुए हैं।उन्होंने नि:संकरता को आदर्श मान लिया है।

नागरिक का धर्म से रिश्ता हो सकता है।मगर भाषा में, उदाहरणस्वरूप हिंदी में हिंदू धर्म की अभिव्यक्ति होने से वह हिंदू भाषा नहीं हो जाती।इसी तरह अंग्रेजी का व्यवहार करने से कोई ईसाई नहीं हो जाता।न ही उर्दू या अरबी के प्रयोग करने से कोई मुसलमान हो जाता है।किसी भी भाषा के शब्दों से छुआछूत आदमी से छुआछूत जैसी बुरी प्रवृत्ति है और हानिकारक है।

हिंदी समेत भारत की एक भी ऐसी भाषा नहीं है जो सारे राष्ट्र के स्तर पर बरते जाने का स्वप्न देखती हो।किसी भारतीय भाषा को अपनी स्थानीयता के दायरे से बाहर निकलने में कोई रुचि नहीं है, यहां तक कि अपने दायरे में सीमित रहकर मर मिट जाने का खतरा उठाते हुए भी।भारत की प्रायः हर भाषा अपनी स्थानीयता की सीमा में बंधकर कमोबेश दम तोड़ने की ओर धीरे-धीरे बढ़ रही है, हिंदी भी।

कोई भाषा मरती क्यों है? एक कारण यह है कि उस भाषा विशेष के बरतने वालों की आबादी धीरेधीरे कम होने लगती है।लेकिन भारत की अधिकांश मान्यताप्राप्त और कई गैरमान्यताप्राप्त भाषाओं के बारे में ऐसा नहीं है।हर भारतीय भाषा को बरतने वालों की आबादी लगातार बढ़ती रहेगी, पर हर भाषा ही अपने बोलने वाले लोगों के बीच लगातार सिकुड़ती जाएगी।यह एक विडंबनापूर्ण स्थिति है।

विश्व की हर भाषा को यह अधिकार है कि वह अपना विस्तार करे।धर्म बहुसंख्यकों के कंधे पर बंदूक रखकर अपने फैलाव की मुहिम चलाता है।यह काम धर्मांतरण के माध्यम से भी हुआ है।भाषा अपने विस्तार के लिए ऐसा नहीं करती।उसे अपने विस्तार के लिए धर्म की तरह छल-कपट की नई-नई रेसिपी तैयार नहीं करनी पड़ती।इसलिए भाषाई राष्ट्रवाद की संकल्पना एक जुमले से अधिक की हैसियत नहीं रखती।इतना अवश्य सच है कि धार्मिक घृणा की भट्ठी की आग तेज कर दी जा सकती है।हिंदी राष्ट्रवाद का मामला कुछ इसी तरह बना है।

यदि कोई भाषा अपना विस्तार लगातार देखना चाहती है, तो उसे अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिए ईमानदारी से बड़ी मशक्कत करनी पड़ती है।उसे ज्ञान के हर अनुशासन का विकास करना होता है, ज्ञान के नए क्षेत्र की खोज में भी लगना पड़ता है।तभी कोई भाषा अपने भूगोल या स्थानीयता के दायरे से बाहर निकलकर अपना मान बढ़ाती है।इसके अलावा, भाषाओं के बीच आदान- प्रदान को व्यापक करना पड़ता है।श्रेष्ठता की ओर बढ़ने का एक मानदंड यह भी है।

भारत की हिंदी समेत किसी भी भाषा ने इस दिशा में ईमानदार कोशिश नहीं की।भारत की जिन भाषाओं ने आठवीं अनुसूची में शामिल होने के लिए आंदोलन किया है, उन्होंने भी इस ओर ध्यान नहीं दिया।किसी भी भाषा ने यह नहीं जताया कि वह अपनी जमीन से उड़ान भरने के लिए तैयार है, कि उसने इतनी और ऐसी तैयारी कर रखी है कि अपने राज्य की सीमा में शिक्षा और प्रशासन के मामले में वह स्वयं समर्थ है।भाषा को समर्थ बनाने के लिए किसी भी आंदोलन में यह काम शामिल होना चाहिए था।ऐसा नहीं हुआ तो यह हुआ है कि हर भारतीय भाषा धीरे-धीरे अपनी कब्र खोदने लगी है।

2047 में देश की आजादी के सौ साल पूरे होंगे, उस समय तक भारतीय भाषाएं किस स्थिति में होंगी? क्या तब भारतीय भाषाओं के अच्छे दिन आ चुके होंगे? इन दिनों एक नया मुहावरा चलन में आया है- ‘अच्छे दिन’।इसकी व्यंजना नितांत नवीन है।भारतीय भाषाओं के संदर्भ में क्या अच्छे दिन चरितार्थ होंगे?

किसी भी भाषा के विस्तार पाने के कुछ बुनियादी कारण होते हैं।एक, भाषा का रोजगारपरक होना, दूसरा, व्यवसाय-उन्मुखी होना और तीसरा, प्रशासन की कार्यवाही चलाने की क्षमता से संपन्न होना।

भारत की भाषाओं के माध्यम से विज्ञापन का व्यवसाय जरूर होता है, लेकिन किसी भाषा ने ऐसी दक्षता हासिल नहीं की है कि यह दावा कर सके कि वह अपने राज्य का राजकाज अपनी भाषा में चला सकती है।इसके अलावा पिछले ७५ सालों में भाषा में रोजगार के अवसर लगातार कम होते गए हैं और आगे अधिक कम होते जाना है।

निश्चित रूप से भाषायी विज्ञापन का बाजार इतना बड़ा है कि भाषायी अखबार चमक-दमक रहे हैं।लेकिन यह कहना सही नहीं है कि भाषायी अखबार के जीवित होने और विज्ञापन में भारतीय भाषाओं के इस्तेमाल से भाषा बची रहेगी।विगत तीस वर्षों में भाषायी अखबारों की प्रसार संख्या तीव्र गति से बढ़ी है।फिर भी भाषाओं को तेजी से सिमटते हुए देखा जा सकता है।विज्ञापन व्यवसाय की वजह से बांग्ला के कई दुर्गापूजा विशेषांक अवश्य बचे हुए हैं, लेकिन यह बांग्ला को बचाए रखने का भरोसा नहीं देता है।

देखने की बात यह है, 2047 में बांग्ला कितनी जीवित और जीवंत मिलेगी? हिंदी कितनी बची रहेगी? आज जिनकी उम्र बीस साल है, वे आमतौर पर अखबार नहीं पढ़ते।पच्चीस साल बाद जब वे पैंतालीस के होंगे तब वे अखबार क्यों पढ़ेंगे?

संभव है, तब अखबार हों ही न।ऐसी हालत किसी एक भाषा की नहीं है, कम या बेशी भारत की सभी भाषाओं की है।तकनीकी विकास ने भारतीय भाषाओं की लिपि के सामने भी जीवन-मरण का प्रश्न पैदा कर दिया है।जब किसी भाषा की लिपि बदलती है तो वह अपनी लिपि और अपनी भाषा की व्यवस्था से बाहर आ जाती है।

दरअसल भारतीय भाषाएं ‘वर्नाक्युलर’ की हैसियत से बाहर नहीं आ पा रही हैं। ‘वर्नाक्युलर’ माने दोयम दर्जे की भाषा।आज भारत समेत दुनिया के और देश जिस अंग्रेजी भाषा द्वारा दमन के शिकार हैं, वह अंग्रेजी भी कभी ‘वर्नाक्युलर’ थी।लेकिन उसकी स्थति बदली।सवाल केवल खेल पलटने का है।

भारत की उच्चतम अदालत के मुख्यद्वार पर 75 सालों से नो एंट्री का बोर्ड हिंदी समेत सभी भारतीय भाषाओं के लिए लगा हुआ है, वैसे ही जैसे गुलाम भारत में कुछ विशेष सड़कों पर ‘इंडियन्स आर नॉट एलाउड’ लिखा होता था।आज भी उच्च स्तरीय क्लबों में भारतीय परिधानों के लिए ‘नो एंट्री’ की व्यवस्था है।

यह जितना गजब है उतना ही अजब यह है कि पिछले 75 सालों में इसके लिए किसी को गुस्सा नहीं आया।कहीं से इसके लिए कोई मांग नहीं बनी।इन मुद्दों पर जंतरमंतर पर किसी ने आमरण अनशन नहीं किया।लघु पत्रिका के स्वर्णयुग में वहां इसके लिए कोई बहस नहीं छिड़ी।किसी भी राजनीतिक पार्टी ने भारतीय भाषाओं के प्रश्न को अपने मेनिफेस्टो में शामिल नहीं किया।यहां तक कि वे लोग जो यूएनओ में हिंदी का छक्का मारकर वाहवाही लूटते हैं, और अपनी ब्रांडिंग हिंदी का विशेष हिमायती होने से करते हैं, वे भी नजर फेरे रहते हैं।एक ओर उपेक्षा का ऐसा दृश्य है, दूसरी ओर, ‘हिंदी राष्ट्रवाद’ जैसी तोहमत की शिकार है हिंदी!

छोटी अदालतों में हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं के दाखिले पर कानूनन कोई रोक नहीं है, मगर अब वहां से भी वे बेदखल हो रही हैं।2047 तक आतेआते हालात ऐसे होंगे कि हिंदी या भारतीय भाषाओं में अदालत में हलफनामा दाखिल करने वाला एक वकील नहीं मिलेगा।भारत में विधि की पढ़ाई हिंदी या किसी भारतीय भाषा में होती है क्या? हिंदी या भारतीय भाषाएं अभी अगर आंशिक रूप से न्याय की भाषा हैं तो 2047 तक यह आंशिक हैसियत भी वे खो चुकी होंगी।

देश में ‘एक देश – एक कानून’ की लहर चल रही है।लेकिन राजभाषा अधिनियम की तरफ अभी तक नजर नहीं गई है।यह अधिनियम ऐसा है जो न सभी राज्यों पर लागू है, न निजी व्यापारियों और कॉरपोरेट घरानों पर लागू है, न इसका पालन करना आम जनता के लिए जरूरी है।यह केंद्रीय सरकार और कई राज्यों के सरकारी कर्मचारियों पर, जिनकी आबादी सीमित है और सीमित होती जा रही है, केवल उन्हीं पर लागू है।इतनी छोटी आबादी पर लागू होने के बावजूद हिंदी आंशिक रूप से प्रभावी राजभाषा अधिनियम की वजह से हमेशा कोसी जाती रहती है।वह लानत-मलामत की शिकार रही है।एक दृश्य यह है।दूसरा दृश्य यह है कि हिंदी भाषा वर्चस्ववादी होने के आरोप से घिरी है।

भारतीय भाषाएं अब लोक जागरण का काम भी नहीं करतीं।भाषाएं जब लोक जागरण का काम करती हैं, तब वे लोक पक्ष में खड़ी होती हैं।अब हर भारतीय भाषा कविता-कहानी में मगन है।साहित्य भाषा का सम्मान है।साहित्य लोक जागरण का माध्यम भी है।मगर साहित्य तक किसी भाषा का सिमट जाना उसकी एक संकीर्ण सीमा है।साहित्यिक विमर्श अगर हो भी रहे हों, पर अब  साहित्येतर विमर्श की भाषा नहीं रह गई हैं भारतीय भाषाएं।जिस भाषा में विमर्श या बहसें न चलती हों, उस भाषा से जनता का जुड़ाव कम होता जाता है।जनता अपनी भाषा से दूर जा रही है तो इसकी एक वजह यह भी है।केवल मनोरंजन की भाषा बनकर कोई भी भाषा लंबी आयु नहीं पा सकती।दुर्योग यह है कि हर भारतीय भाषा मनोरंजन की भाषा बनकर खुश है।

वह भी किनके मनोरंजन की भाषा? उनकी नहीं, जो उन्नत हैं।उनकी भी नहीं, जो संपन्न होंगे।उनकी भी नहीं जो, श्रेष्ठि वर्ग शामिल होंगे।उनकी तो कतई नहीं, जो शासक हैं।भारतीय भाषाएं सिर्फ उनके मनोरंजन की भाषा है जो आर्थिक रूप से दलित हैं और आगे होंगे।सिर्फ उनकी, जो पिछड़े हैं।सिर्फ उनकी, जो हाशिए पर हैं।उनकी तो जरूर है जो हर तरफ से मारे गए हैं और कोई आवाज नहीं हो।हिंदी या भारतीय भाषाओं में एकतरफा संवाद होता है।मकसद होता है, सुनो मगर नि:शब्द रहो, सुनो और खर्चो-खरीदो, सुनो और वोट दो।

ऐसे समुदायों की भाषा दमित और पिछड़ी हुई ही हो सकती है।साफ है कि हिंदी समेत सभी भारतीय भाषाओं के हालात कुछ ऐसे ही होंगे।आने वाले दशकों में भारतीय भाषाओं का कोई मान न होगा।नतीजा यह होगा कि हर वर्तमान पीढ़ी अपनी अगली पीढ़ी को मातृभाषा के दायरे से बाहर करेगी।

किसी भी भाषाभाषी के लिए न्याय की तरह चिकित्सा भी नैसर्गिक जरूरत है।लेकिन भारत के किसी भी भाषाभाषी को चिकित्सा उसकी भाषा में नहीं मिलती।चिकित्सा की पढ़ाईलिखाई किसी भारतीय भाषा में नहीं होती है।इसकी दूरदूर तक संभावना नहीं दिखती कि चिकित्सा विज्ञान पढ़ने की भाषा और चिकित्सा देने की भाषा कभी कोई भारतीय भाषा होगी या हिंदी होगी।

विज्ञान ऐसा विषय है कि वह दुनिया के किसी भी विकसित देश में उस देश की भाषाओं में ही पढ़ाया जाना चाहिए।भारत इस मामले में अपवाद नहीं हो सकता।भारत को याद रखना है कि केवल अर्थनीति के ग्लोबल होने से देश ग्लोबल नहीं हो जाता।कोई भी देश ग्लोबल तब होता है, जब उस देश का हर नागरिक विज्ञान और वैज्ञानिक चेतना से लैस होकर विश्व-नागरिक का मन रखता है।यह लक्ष्य तभी हासिल किया जा सकता है जब हर स्तर पर विज्ञान की पढ़ाई भारतीय भाषाओं में हो।क्या भारत इसके लिए तैयार है? दूर-दूर तक नहीं, बल्कि एक जमाने में जो थोड़ा-बहुत होता था, अब वह भी नहीं हो रहा है।

भारत मंगल और चांद पर अवश्य पहुंचा है।सवाल है, वहां किस भाषा में पहुंचा है? भारत ने अगर कभी मंगल या चांद पर ठिकाना बनाया, अपने नागरिकों को बसाया, तो वहां भाषा कौन-सी होगी? अंतरिक्ष से यह संदेश बार-बार आ सकता है ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा’, लेकिन अंतरिक्ष में हिंदी या किसी भी भारतीय भाषा का कोई दृश्य नहीं होगा।

अंत में एक काल्पनिक सवाल है : कल्पना कीजिए, अगर प्रलय हुआ और आज के भारत का अस्तित्व मिट गया, तो हजारों साल बाद शोध के माध्यम से भारत की भाषा के बारे में जो जानकारियां मिलेंगी, उनके विश्लेषण से सबसे अधिक प्रयोग में आने वाली भाषा कौन-सी होगी?

आखिर क्या किया जाए कि हालात सुधरें? हर राज्य सरकार को दूसरे राज्यों में ‘भाषा अंतरराज्य संबंध-संवर्धन कार्यालय’ खोलना चाहिए।इस कार्यालय के माध्यम से भाषा शिक्षण और अनुवाद प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाना चाहिए।उदाहरणस्वरूप तमिलनाडु सरकार गैर-तमिल राज्यों में यह कार्यालय खोलकर तमिल शिक्षण और अनुवाद प्रशिक्षण दे।इसी तरह गुजरात करे।यानी सभी राज्यों में सभी राज्यों का यह कार्यालय हो इसके माध्यम से शिक्षण और प्रशिक्षण कार्यक्रम चलें।

हिंदी के मामले में यह हो सकता है कि हिंदी के सभी राज्य अकेलेअकेले या फिर एक साथ मिल कर ऐसे कार्यालय खोलकर हिंदी शिक्षणप्रशिक्षण की दिशा में पहल करें।उचित यह रहेगा कि पहले गैरहिंदी भाषी राज्य पहल करें।हिंदी के वर्चस्ववादी होने के झमेले से बचा जा सकेगा।

अगर ऐसी पहल की गई तो भारतीय द्विभाषियों की एक बड़ी फौज बन जाएगी।आदान-प्रदान बढ़ेगा।वैमनस्य कम होगा।भोजन और भाषा के आदान-प्रदान से समरसता बनती है।भारत में भोजन के स्तर पर आदान-प्रदान से समरसता कायम है।भाषा के स्तर पर समरसता अपेक्षित है।

दूसरा यह हो सकता है कि : सभी राज्य सरकारें दो आयोग बनाएं।पहला ‘वकालत पाठ्यक्रम अनुवाद आयोग’ और दूसरा ‘चिकित्सा पाठ्यक्रम अनुवाद आयोग’।इनके माध्यम से हर राज्य सरकार अपने राज्य की भाषा में दोनों क्षेत्रों के लिए पाठ्य सामग्री का अनुवाद तैयार करे।

अगर ऐसा कुछ किया गया तो यह उम्मीद बनती है कि आजादी के सौ वर्ष पूरे होने पर न केवल हिंदी की, बल्कि सभी भारतीय भाषाओं की स्थिति में परिवर्तन दिखेगा।केवल हिंदी के बारे में सोचने से हिंदी नहीं बचने वाली है।लोकतांत्रिक सरकार लोक-दबाव से प्रेरित होती है।हिंदी का भविष्य नहीं, हिंदी में भविष्य विचारणीय है।

लेकिन यह सब आसान नहीं है।क्योंकि भारतीयता का एक विशिष्ट गुण है आलस्य और इच्छाशक्ति का अभाव।भारतीयों का यह इतना बड़ा गुण है कि अगर कहीं से रसद-पानी बैठे-बिठाए मिल जाए तो वे खेती करना छोड़ दें।भाषा तो भारत का एक ऐसा मसला है कि सभी मुतमइन हैं कि कुछ किया जाना नहीं है।

इन्हीं कारणों से हालत यह बनी है कि पढ़े लिखे भारतीयों का अपनी भाषा में पढ़ना, बोलना और लिखना आज असहज हो चुका है।जिन भाषाओं में यह सब असहज होता है, उस भाषा में सोचना भी मुश्किल हो जाता है।जिस भाषा में सोचना मुश्किल है वह भाषा सोचनीय हालात को प्राप्त होती है।भारत की हर भाषा सोचनीय स्थिति को प्राप्त है।रास्ता कठिन है।मगर इतना भी नहीं कि चाहत हो तो बात न बने।

बात बनेगी, अगर बात चलेगी।बात चलेगी, तो एक कोने से दूसरे कोने तक पहुंचेगी।एक पड़ोस से दूसरे पड़ोस तक पहुंचेगी।एक लंबा कारवां बनेगा।तब यात्रा शुरू होगी भारतीयता की खोज की।उस खोज का एक जरूरी माध्यम बनेगी भाषा।भाषा के माध्यम से जो भारतीयता बनेगी, वह भोजन-माफिक विविधतापूर्ण भारतीयता होगी।भारत की वास्तविक भारतीयता।भाषा वह रौशन-चिराग है जिससे कलुष मिटता है, सभ्यता बनती है।

सी11.3, एनबीसीसी विबज्योर टावर्स, न्यू टाउन, कोलकाता700156 मो.9674986495

विजय बहादुर सिंह

वरिष्ठ आलोचक और कवि।प्रमुख कृतियाँ : नागार्जुन का रचना संसार’, ‘महादेवी के काव्य का नेपथ्य।भवानी प्रसाद मिश्र और नंददुलारे वाजपेयी ग्रंथावली का संपादन।

हिंदी को जिदपूर्वक अपनाए रखकर ही
हिंदी के अस्तित्व की रक्षा संभव है

(1) दक्षिण और हिंदी प्रदेशों में सत्ता की जो राजनीति है, जब तक उसमें कोई अपेक्षित बुनियादी बदलाव नहीं आता, ‘हिंदी राष्ट्रवाद’ ‘हिंदी साम्राज्यवाद’ के आरोप चलते रहेंगे।भारत के नागरिकों का समूह एक ऐसा रणक्षेत्र है जहां सत्ताखोर राजनीति अपना जोर आजमाइश करती है।दूसरी ओर, उत्तर के लोगों को अपने आप से यह क्यों नहीं पूछना चाहिए कि वे एकाध दक्षिणी भाषा कब सीखना शुरू करेंगे।दूसरे, अपने-अपने प्रदेश में कान्वेंट स्कूलों का हिंदीकरण कब करेंगे।असल सवाल तो यह है कि केंद्रीय सरकार सबसे पहले अंग्रेजी के वर्चस्व से कब निपटती है? राष्ट्रवाद यहां क्यों नहीं दिखना चाहिए?

(2) प्रकारांतर से आप क्या यह कहना चाहते हैं कि हिंदी भाषी जनसमूह भारतीयता के बाहर हैं या वे भारतीय हैं ही नहीं? क्या प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, मैथिलीशरण गुप्त आदि गैर भारतीय हैं? भारतीयता है क्या? क्या वह दाल रोटी, इडली डोसा, माछ भात या फिर ओणम, बिहू, होली, दीवाली से परे कोई चीज है? क्या वह हमारे जीवन विश्वासों से भिन्न कुछ है?

(3) हिंदी के ज्ञानक्षेत्र को लेकर बराबर सवाल उठाए जा रहे हैं।चाहिए भी।समाज विज्ञान और विज्ञान के क्षेत्र में जब तक प्रचुर वाङ्मय नहीं आएगा, तब तक केवल साहित्य के बल पर यह भाषा खड़ी नहीं हो पाएगी।इसके लिए इस क्षेत्र में सक्रिय समाज विज्ञानियों, विज्ञानियों को अपनी समर्पणशीलता और अपनी बौद्धिकता की राष्ट्रीयता का प्रमाण देना होगा।दुख है कि वे ऐसा नहीं कर रहे।इसका एक कारण यह भी है कि सरकारें खुद इन बुनियादी मुद्दों को लेकर चिंतित नहीं हैं।

जो लोग राष्ट्रवाद को अपना पहचानपत्र बनाए घूम रहे हैं, वे इस संदर्भ में कौनसा धर्म निभा रहे हैं।फिलहाल उनका अभियान उर्दू शब्दों को लेकर है।वे यह भी नहीं जानते कि कबीर, तुलसी, नानक, बाबा फरीद, यहां तक कि गुजराती भाषा में उर्दू के शब्द घुसे बैठे हैं।हिंदी तो उर्दू की जुड़वां बहन ही है।

हिंदी की निर्भरता पहले संस्कृत और अब अंग्रेजी पर है।यही हाल सभी भाषाओं में है।इसके लिए शिक्षा नीति जिम्मेदार है।

बात यह भी है कि हम अभी सांस्कृतिक चेतना के स्तर पर आजाद नहीं हो पाए हैं।भारत का कैरियरजीवी मध्यवर्ग परम सुविधाजीवी और अवसरवादी और आत्मपरस्त वर्ग है।ऐसे चरित्र से देश का भविष्य हमेशा निराशाजनक रहेगा।

(4) हिंदी न कभी पिछड़ों की भाषा थी, न होगी, जब तक इसे बोलने वाली किसान आबादी बची रहेगी।पिछले दिनों किसानों का जो युगांतरकारी आंदोलन हुआ था, उसकी भाषा क्या थी? पिछड़े लोग गुलाम मानसिकता के होते हैं।वे नकल करते हैं या फिर तमाम तरह के संघर्षों से मुंह चुराते और भागते हैं।उनका अपना न कोई जीवन-स्वप्न  होता है, न उसके लिए किसी तरह की संघर्ष नीति।

किसान आंदोलन हम लेखकों और बुद्धिजीवियों को यह आईना दिखा गया है कि हम सांस्कृतिक परजीवी हैं।संघर्षों से भागते हैं और किसी सुरक्षित शरण की ओट लेकर जो सुविधाएं हमें मिली हुईं हैं उनको भोगने को और अपने मुगालतों से भरे शर्मनाक जीवन को सफल जीवन मान लेते हैं।अगर आजादी से पहले का मध्यवर्ग ऐसा करता तो हम जो अभी आधे-अधूरे आजाद हुए हैं, वह भी न हो पाते।

हिंदी को घर से लेकर बाजार और आफिस तक ही नहीं, चेतना के धरातलों से लेकर मौलिक सपनों के क्षितिजों तक अपनाकर और जिदपूर्वक जी कर ही हिंदी के अस्तित्व की रक्षा संभव है।

29 निराला नगर, दुष्यंत कुमार मार्ग, भोपाल462003 (मध्य प्रदेश) मो. 9425030392

संपर्क प्रस्तुतिकर्ता :​गली न. 18, मकान सं. 2/1/1/1, मानिकपीर, पोस्टकांकीनारा, उत्तर 24 परगना,पश्चिम बंगाल743126 मो. 9339487500