विद्यासागर विश्वविद्यालय में शोधार्थी और संस्कृतिकर्मी।

हिंसा एक आदिम प्रवृत्ति है।इसका लक्ष्य है, सामने वाले में वर्चस्व के लिए भय और आतंक पैदा करना।हिंसा की परिभाषा देते हुए कहा गया है कि हिंसा किसी व्यक्ति या समूह के विरुद्ध शारीरिक शक्ति का साभिप्राय उपयोग है।यह धमकी के रूप में हो या वास्तविक।इसका नतीजा चोट, मृत्यु, मनोवैज्ञानिक नुकसान या दुर्बलता के रूप में होता है।शक्ति प्रदर्शन की इच्छा हिंसा की प्रवृत्ति को बढ़ाती है।मानव ने सभ्यता के विकास के साथ ही अस्तित्व रक्षा के लिए समूहबद्ध होना शुरू किया।आधुनिक युग में अस्तित्व के साथ समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व की भावना जुड़ी।इसके बावजूद, औधोगिक क्रांति के बाद साम्राज्यवादी नीति के कारण कई देशों ने अपनी सीमा का विस्तार करने के लिए हिंसा का रुख अख्तियार किया।उपनिवेशवाद, दोनों विश्वयुद्ध और अंध-राष्ट्रवाद से जन्मी हिंसा इसके उदाहरण हैं।

हिंसा हर देश में खुद को स्थापित करने और दूसरों को मिटा देने का विचार है।वर्तमान दौर धर्म, जाति और एक न एक संकीर्ण विचारधारा पर आधारित हिंसा का दौर है।सत्ता की भूख ने तरह-तरह से हिंसा को अपना माध्यम बनाया।नई पूंजीवादी व्यवस्था हिंसा की नई सभ्यता के संचालक की भूमिका में हैं।सिकंदर की तरह यह व्यवस्था पूरे विश्व में राज करने की मंशा से संचालित हो रही है।

आज समाज में वर्ग-आधारित, धर्म-आधारित, जाति-आधारित हिंसा चरम पर है।धार्मिक जुलूस या जाति समावेशों का उद्देश्य अब ‘दूसरे’ को नीचा दिखाना हो गया है।हाल में ही राजस्थान के एक सरकारी स्कूल में एक दलित छात्र को इसलिए एक शिक्षक ने पीटा कि उसने उसके मटके से पानी पी लिया था।पिछले दशक में मॉब लिंचिंग की घटनाएं देखने को मिलीं।इन दिनों भीड़ हिंसा का पर्याय है।समाज के प्रबुद्ध वर्ग महसूस करने लगे हैं कि हिंसा की नई सभ्यता अत्यंत क्रूर और मानव-विरोधी है।इसका समाज पर इतना बुरा प्रभाव पड़ा है कि ‘अहिंसा’ शब्द का मजाक उड़ाया जा रहा है।सैकड़ों साल की मानवीय उपलब्धियां नष्ट हो रही हैं।यह इस दौर की सबसे बड़ी चिंता का विषय है।दरअसल हिंसा की नई सभ्यता ने ‘जीने का अधिकार’ असुरक्षित कर दिया है।

यह परिचर्चा हिंसा की नई सभ्यता को जानने, समझने और उससे सचेत होने की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है।मुझे खुशी है कि इस परिचर्चा में आज के समय के महत्वपूर्ण विद्वानों और चिंतकों ने हिस्सा लिया है।

सवाल
(१) दुनिया के देश हिंसा और शत्रुता के नए दौर में प्रवेश करते दिख रहे हैं, इसकी क्या वजहें हो सकती हैं?
(२) वर्तमान युग की हिंसा का आर्थिक विकास, संस्कृति और जनजीवन पर क्या असर पड़ रहा है?
(३) भारत जैसे बहुधार्मिक-बहुजातीय देश में तनाव और हिंसा बढ़े हैं, इसे रोकने के क्या उपाय हैं?
(४) गांधी की अहिंसा का दर्शन क्या है? वह आज सैद्धांतिक स्तर पर कितना अर्थपूर्ण और व्यावहारिक स्तर पर कितना कारगर है?

मेधा पाटकर
आदिवासियों, किसानों, दलितों के लिए संघर्षरत प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता, समाज सुधारक और चिंतक।

हिंसा नहीं, अहिंसा चाहिए
युद्ध नहीं, शांति चाहिए
बम नहीं, रोटी चाहिए!

() हिंसा पशुत्व का प्रमाण मानी जाती रही है।लेकिन आज यह मानव जाति के द्वारा भी प्रकट हो रही है।पशुओं का एक-दूसरे से प्यार का, सहयोग का रिश्ता होने के कई दाखले पर्यावरणशास्त्रियों द्वारा सामने लाए जाते रहे हैं, तो हिंसा से मात्र पशुओं को जोड़कर उन्हें अपमानित करना, अब यह न करें हम! मानव भी एक प्राणी है, लेकिन उसे ‘समाजप्रिय’ कहा, माना जाता है।इस विशेषता के चलते क्या मानव भी हिंसक होकर परस्पर एक-दूसरे के बीच अप्रियता फैला सकता है? ऐसे कटु रिश्तों से ही उभरती है अमानवीयता!

इस प्रवृत्ति से परिचालित दुनिया भर के युद्ध आज ही नहीं, पीढ़ियों से चलते आए हैं।राजाओं के बीच युद्ध अपना राज्य क्षेत्र का विस्तार करने के लिए हुआ करते थे, जिनमें आक्रमण ही नहीं, नफरत भी प्रदर्शित होती रही।कहीं राजा युद्ध में उतरे अपनी भूमि, अपनी प्रजा को बचाने के लिए।लेकिन हिंसा हिंसा से रोकी नहीं जाती, बढ़ती है, फैलती है।यह भूल नहीं कर सकते हम, याद करते हुए उन सभी को, जिनकी जिंदगी बलि चढ़ गई।इस वृत्ति को हम देखते रहे हैं, प्रत्येक महायुद्ध में और अभी-अभी यूक्रेन पर हुए विध्वंसक हमले में।हमें जानना जरूरी है कि युद्ध-ज्वर में अब छाया हुआ है बाजार! पूंजी और संपदा की लूट हो रही है।कारण, युद्ध के द्वारा कहीं तेल का तो कहीं पानी का खजाना जो अपने हाथ में लेना चाहते हैें, वे मानव-मानव और मानव-प्रकृति का रिश्ता नहीं मानते, नजरअंदाज करते हैं, बेरहमी से।अर्थनीति और राजनीति के बीच का रिश्ता दृढ़ होता साफ नजर आता है।

बाजारी स्पर्धा में एक देश नहीं, देशों के ‘संघ’ युद्धखोर बनते हैं।यूक्रेन क्यों नहीं जुड़ा नाटो से, इसका जवाब ढूंढ़ने में सत्य सामने आता है, न सिर्फ विचारधारा का, बल्कि अमेरिका के दक्षिण अमेरिका सहित कई देशों से रहे माफियाखोर संबंधों का भी।संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा जो अपेक्षित था, राष्ट्र-राष्ट्र के बीच एकता और विवादों में समझौता, वह नजारा बदल गया है।संयुक्त राष्ट्र संघ की ताकत अब इसमें कंपनियों की घुसपैठ से कमजोरी में तब्दील हो गई है।यह इसलिए कि उद्योगपतियों की पूंजी से राष्ट्रप्रमुख सत्ता हासिल करते हैं, तो वे कहां तक करेंगे और क्यों करेंगे प्रतिनिधित्व जनता का?

युद्ध उपकरणों का बाजार भी तो युद्धखोरी को बढ़ाता है! बोफोर्स हो या राफेल, दक्षिण अफ्रीका हो या पलेस्टाइन- हर क्षेत्र में सामाजिकता को सांप्रदायिकता में परिवर्तित करके होती हिंसा का आधार नाखून नहीं, शस्त्र ही बनते हैं।इनमें आधुनिक तकनीक का उपयोग होता है।इनके सौदे न केवल शस्त्र बल्कि अस्त्र भी बन जाते हैं।स्वयं राजनेता आतंकवादी बन जाते हैं ।वे मानवीय मूल्य, संस्कृति, प्रकृति और शांति को ध्वस्त करते हैं।

आर्थिक विकास का बड़ा बोलबाला सत्ताधीशों द्वारा हो रहा है।विकास के नाम पर हिंसा, विस्थापन और विषमता थोपी जाती है।लेकिन बहुसंख्यक समाज को आर्थिक अभाव-कष्ट भुगतना पड़ता है।वह शोषण का शिकार होता है, आर्थिक कर्जदार बनता है और बेरोजगारी झेलता है।इन सबके सही आंकड़ों की जानकारी और विश्लेषण में पारदर्शिता और जवाबदेही का पूर्णतः अभाव देश सहन करता है, वह अनजाना रह जाता है।इन समस्याओं को उपेक्षित करने का मकसद है जाति-धर्म के नाम पर अस्मिता को उकसाने का, जो हिंसा को जन्म देता है और अस्तित्व के सवालों को, आर्थिक समस्याओं को नजरअंदाज करता है।इस विभाजन के नाम पर वे वोट बैंक बनाते हैं तो कहीं मेहनतकशों को गुलाम बनाकर, बड़े पूंजीपतियों को उनके श्रम, कौशल और सेवा का कम दाम देकर शोषण का मौका देते हैं।

जनता को उलझाकर रखने वाले नेता अपने बच्चों को तो विदेश की सैर, ऊंची शिक्षा और बड़ा पद देते हैं, जबकि दलितों-गरीबों के हाथ में तिरंगा नहीं, एकरंगा झंडा पकड़ाकर हिंसा में धकेलते हैं! इसीलिए फिर से कहती हूँ, हिंसा में छिपा है अर्थनीति और राजनीति का गठबंधन!

संस्कृति की विविधता सबसे अधिक भारत में रही है, लेकिन धर्मांधता इस विविधता को मिटाना चाहती है।इसीलिए आदिवासी, दलित जिनके विश्वास भिन्न होते हैं, जिनकी अपनी-अपनी विशिष्ट संस्कृति है, उनकी विविधता में भी एकता बनी रही है।उन्हें भी विशिष्ट धर्म का मानकर और बनाकर अपने कब्जे में उन समुदायों को लेकर हिंसक कैडर निर्माण किए जाते हैं।आदिवासियों के गुरु, योद्धा और नेता-राजाओं के प्रतीकों को भी अब एकधर्मी राष्ट्र बनाने का सपना देखने वालों ने अपना लिया है।इससे सादगी, स्वावलंबन, प्राकृतिक निर्भरता जैसे गुण रखने वाली संस्कृति अब खोती जा रही है।इसे संस्कृताइजेशन कहते हैं, जिसमें संकीर्ण धार्मिक प्रक्रियाओं में इन लोगों को बंद किया जा रहा है।सबसे खतरनाक यही है कि उन्हें अपनी संस्कृति भूलकर धर्म के नाम पर गर्व करना सिखाया जा रहा है।ऊंच-नीच का भेदभाव उनके मन में ठूंस-ठूंस कर उन्हें हिंसक बनाया जा रहा है, अन्य धर्मों और संस्कृति के प्रति! इसे रोकना होगा।

() हिंसा के विविध रूप होते हैं- खुली और छुपी हिंसा भी होती है! आज के युग में समाज के विभिन्न समुदायों पर, केवल उनके शरीर पर नहीं,  जिंदा रहने के लिए जरूरी आजीविका और संसाधनों पर भी पूंजीवाद का हमला हो रहा है ।पूंजी कमाने और बढ़ाने के उद्देश्य से कई पूंजीपति मालिक विविध साजिशों से छीन लेते हैं जल, जमीन, पहाड़ और जंगल भी।इस तरह प्रकृति-निर्भर आदिवासी, मछुआरे, पशुपालक, सीमांत किसान और खेती से जुड़कर जीने वाले मजदूर भी खो बैठते हैं जीने का आधार।छंटनी करके श्रमिकों के खून-पसीने पर बनाई फैक्ट्रियों, मिलों को बंद करने या बेचने वाले उद्योगपति अपनी भलाई के लिए थोपते हैं श्रमिकों पर जिंदगी भर की बेरोजगारी और करते हैं उनका अहित।

इसमें रोजगार की ही नहीं, जीवन की भी हत्या होती है।हत्यारे हथिया लेते हैं अपनी हासिली।इसका असर आम लोगों के पूरे जीवन पर पड़ता है।देश आत्मनिर्भर नहीं होता, बल्कि इस घटना से गांव-गली में रहने वाले अन्नदाताओं, सेवादाताओं और सादगी से जी रहे समुदायों की सामान्य जरूरतों की पूर्ति भी नहीं हो पाती।जो मुट्ठीभर हैं, वे हो जाते हैं स्वयं केंद्रित!

जाति, धर्म के नाम पर जो हिंसा हो रही है, इससे उन कइयों की जिंदगी छीन ली जा रही है, जो निरपराध हैं।उनके परिवार अनाथ होते हैं।वैसे भी सामाजिक रिश्ते टूटने से दिल भी टूट जाता है।आजकल तो प्रशासन भी जांच के बिना, अतिक्रमण के नाम पर बुलडोजर लाकर अल्पसंख्यक समाज के मकान ध्वस्त करते हुए पाए गए हैं।यह अवैध काम करने वाला बुलडोजर कोर्ट का ही रूप लेकर फैसला और हमला करता है।बेघर हुए परिवार जो भुगतते हैं, वह होता है अत्याचार।इससे उबरने में परिवार को कई साल लग जाते हैं।उसे न्याय के लिए घर वहीं बनाने या अपने निरपराध बेटे को जेल से छुड़वाने के लिए जंग छेड़नी पड़ती है।

जातिवाद भी खूंखार हिंसा को जन्म देता है।जाति नीची मानकर बच्चों का कत्ल करना, चोरी या पानी पीने के नाम पर- यह सब हो रहा है।मध्यप्रदेश के नीमच में या राजस्थान में हुई ऐसी हिंसक घटनाएं हम मंजूर नहीं कर सकते, न ही कोई कानून माफी दे सकता है।लेकिन हिंसा से होने वाली मौत से गुजरने के बाद भी बचे हुए परिवार को उजाड़ कर रखना अमानवीयता है।वंचना और शोषण को जीते हुए इनसान एक अधमरी दशा भुगतता है।समाज के स्तर पर असर तो और गंभीर होता है।शांति खोना, डर फैलना और जाति-धर्म के नाम पर हर मामले में गैरबराबरी भुगतना- ये सब परिणाम आर्थिक-सामाजिक विकास में रोड़ा डालते हैं।लेकिन इसकी बड़ी कीमत चुकाई जाती है और इसका कोई रिकॉर्ड या हिसाब तक नहीं रखा जाता है न ही भरपाई की जाती है।

() भारत हमेशा विविधता से भरपूर राष्ट्र रहा है।यहां की गंगा-जमुना तहजीब दुनिया की एक जानी-मानी संस्कृति रही है।लेकिन ब्रिटिशों की साजिश रही है- ‘भारत फोड़ो’, जिसे करारा जवाब दिया युसूफ मेहर अली ने ‘भारत छोड़ो’ के नारे से और महात्मा गांधी जी ने ‘करेंगे या मरेंगे’ के आंदोलन से! हम आजादी पाने के लिए हुए विभाजन और गांधी जी की शहादत को नहीं भूल सकते।भारत तब से आज तक भिन्नता के विवाद से मुक्त नहीं माना जा सकता।फिर भी अनेक जातियों, अनेक धर्मों वाली यहां की संस्कृति भारतीयता की खूबसूरती रही है, लेकिन बीच-बीच में उभारे गए दंगे इस खूबसूरती को खत्म करने की साजिश रचते रहे हैं।

इस स्थिति को बदलने के लिए हमें समाज के दिल को छूने वाले कार्यक्रमों की जरूरत है।कभी मध्य प्रदेश के हमारे क्षेत्र में हिंदू परिवार भी मुहर्रम के दिन ताजिये लगवाते थे; ईद और दीवाली के रोज हिंदू और मुस्लिम परिवार एक-दूसरे के घर जाकर फलाहार करते थे।लेकिन अब वह खत्म-सा है।सह-भोजन जैसा कार्यक्रम सतत आयोजित करना जरूरी है।इसके लिए अगुआ कार्यकर्ताओं की छोटी-छोटी टुकड़ी हर गांव, नगर में खड़ी होनी चाहिए।

जाति और धर्म पर ही ध्यान केंद्रित करने के लिए जो राजनीतिक दल/संगठन कोशिश करते हैं और साजिशें रचते हैं, उन्हें हम जन-आंदोलनों के द्वारा ही खारिज करवा सकते हैं।लेकिन आंदोलन का मतलब केवल रास्ते पर बैठना या बड़े जुलूस निकालना नहीं है।समाज को आंदोलित करने वाली निरंतर चलने वाली प्रक्रिया को ‘आंदोलन’ कहा जाता है।आज जरूरी है, विविध प्रकार की यात्राएं लेकर गांव-गांव तक पहुंचना।संवाद ही बढ़ाता है संवेदना और मिटाता है वेदना।

आज यह बहुत जरूरी है कि जहां हिंसा, दंगे हों, वहां हम पहुंचे और समुदायों में समन्वय बनाने का काम करें।साथ ही निष्पक्ष जांच भी होनी चाहिए ताकि समाज समझ सके।सचाई के बदले झूठ कोई न फैला पाए।

सच तो यही है कि राष्ट्रीय स्तर पर धर्मांधता और जातिवाद के खिलाफ आवाज उठाने के लिए यात्राएं हों, सम्मेलन हों।सभी धर्मगुरु एक मंच पर आकर संदेश दें।हमलोग और जो अनेक जन-आंदोलनों के साथी हैं, अब पहुंचेंगे जिले-जिले में।२ अक्टूबर से १० दिसंबर तक देश के सैकड़ों जिलों में निकलेंगी ऐसी यात्राएं।हम जिलावार संगठन और समन्वय बनाकर यात्रा निकालेंगे। ‘नफरत छोड़ो’ और ‘संविधान बचाओ’ के संकल्प  और नाम के साथ देश भर के संवेदनशील और प्रगतिशील लोग और आम लोग इसमें जुड़ेंगे।

() गांधी मात्र एक नाम नहीं विचार है, अत्यंत व्यापक।आज की पूंजी बाजार-आधारित अर्थव्यवस्था, केंद्रीकरण और विषमता पर आधारित विकास की अवधारणा और भोगवादी जीवन प्रणाली का विकल्प देश और दुनिया को देने वाले महात्मा गांधी ही तो थे।इसलिए संकुचित धर्मांध विचारधारा के समर्थक, जो ब्रिटिशों का साथ देते थे, तिरंगा नहीं लेते थे अपने हाथ में, उनके ही प्रतिनिधि ने गांधी की हत्या की थी।गांधी जी की दृष्टि, उनका जीवनदायी नजरिया आज भी जीवित है।उन्हें अफ्रीका के नेल्सन मंडेला से अमेरिका के ओबामा तक हर कोई प्रणाम करता और मानता आया है।वस्तुतः  सादगी और स्वावलंबन भरी जीवन प्रणाली ही दुनिया को बचा सकती है।यह शायद दुनिया के नुमाइंदे भी समझते हैं, भले उन्हें पूर्ण रूप से अपना न पाए हों।

गांधी-विचार को मानने का एक प्रमुख कारण है अहिंसा।गांधी हिंसा को कायरता और अहिंसा को निडरता का प्रतीक ही नहीं, नतीजा मानते थे।आज हिंसा के खिलाफ हिम्मत से लड़ने वाले अपने सामने वालों की कायरता ही तो भुगत रहे हैं।हमारे साथियों, अंबेडकर के वंशजों, आदिवासियों के सहयोगियों से डरते क्यों हैं राजनेता? उनपर झूठे आरोप लगाकर जेल में बंद क्यों करते हैं? कारण यही है कि वे नहीं चाहते कि उनकी अर्थनीति और राजनीति से हो रही हिंसा, लूट और विनाश की पोल खुल जाए।वे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर गांधी का उपयोग तो करते हैं, लेकिन उनके विपरीत आदर्शों पर चलते हैं।यह विरोधाभास राजनीति के लिए कोई नई बात नहीं है।

अहिंसा का मूल्य अहिंसा के रास्ते स्वाधीनता संघर्ष के कारण आजादी पाने के बाद सच और सफल साबित हुआ।उसे संविधान में स्थान मिला तो अब संविधान को ही अपनी गीता मानकर हमें आगे बढ़ना है।गांधी के ‘ग्राम स्वराज’ से लेकर सत्य और अहिंसा के आधार पर जीवन मार्ग और राज मार्ग ही हमारी मंजिल है, यह समझना होगा।

हिंसा जीवन विरोधी मामला है।वह नशा से पैदा होती है, चाहे शराब का हो या सत्ता का।हम चाहते हैं कि हिंसा का आधार न जाति बने और न धर्म का वर्चस्व बने।धर्म का दर्शन भी अहिंसक होता है।हिंसा या धर्मांधता अधर्म का दर्शन है।गांधी जी का यह विचार आज जन-जन तक जाकर समझाना होगा।उन्हें गांधी-विरोधी भ्रम जाल में फंसने से बचाना, हमारा कर्तव्य बनता है।

‘सत्य’ आज एक चुनौती-भरा मूल्य बन गया है।उसे नकार कर और छुपाकर असत्य फैलाने वाले व्यक्ति ही हम जैसे जन-आंदोलन के कर्मियों को प्रताड़ित करते हैं।वे अपने मिथ्या वचन, आश्वासन, विश्लेषण और दावे प्रचारित करते हैं।असत्य के आधार पर अर्थनीति और राजनीति भी कमाई का साधन बन जाती हैं।इसे उजागर करना, इसकी पोल-खोल करना आज आसान नहीं रहा है।अब तकनीकी तरीकों से ‘गूगलाइजेशन’ बन गया है ‘ग्लोबलाइजेशन’! इसके लिए कोई आइटी सेल बनाता है।कोई सोशल मीडिया का असामाजिक कार्य के लिए इस्तेमाल करता है।तो हम जन-जन तक अपनी बात प्रभावी तरीके से पहुंचाने के रास्ते ढूंढें।वैकल्पिक माध्यमों का निर्माण करें।याद रहे कि गांधी जी और बाबा साहेब आंबेडकर ने यही किया था।वे अंग्रेजी राज में यह कर पाए थे।उन लोगों ने हस्तलिखित विचार फैलाकर ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन में देश की जनता को उतार दिया।हजारों ने जेल में सजा भुगती, हजारों ने शहादत दी।वे यदि इन सबके लिए हिम्मत और प्रेरणा दे पाए तो आज कोई गांधी न होते हुए भी हमें गांधी दर्शन से सामूहिक नेतृत्व में आगे बढ़ना होगा।दांडी यात्रा भी कुछ साथियों के समर्थन से ही शुरू की थी गांधीजी ने, उन्होंने चिमटीभर नमक से चुनौती दी थी।फिर देश की जनशक्ति उसमें शामिल होती गई।

हम भी जिले-जिले में उपरोक्त यात्राएं ‘नफरत छोड़ो’, ‘संविधान बचाओ’, ‘देश बचाओ’, ‘देश बनाओ’ जैसे ऐलान के साथ शुरू करेंगे।इसमें  आप भी शामिल हो जाएं।साहित्यिक-कलाकार, किसान-मजदूर, सभी श्रमजीवियों-बुद्धिजीवियों के बीच समन्वय स्थापित करके हम चाहते हैं देश में जागरण हो।गांधी दर्शन मात्र सैद्धांतिक न रहे।हम अधिक से अधिक लोगों के दिल और दिमाग में पहुंचाएं उनके विचार, जो रोजगार निर्माण के साथ समाज, संसाधन (जल, जंगल, जमीन) और संविधान बचाने के लिए नींव खड़ी करेगा।गांधी जी की उस वक्त दी गई -बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खिलाफ स्पष्ट चेतावनी आज सबसे बड़ा संदेश है।सबसे पीड़ित व्यक्ति को नजर में रखकर नजरिया बनाना, यह भी गांधीवाद का हिस्सा है।गांधी के विचारों को सिद्धांत और व्यवहार – दोनों में उतारने के लिए हो जाएं तैयार!

नर्मदा बचाओ आंदोलन, नर्मदा आशीष नवलपाडा, बरवानी, मध्यप्रदेश४५१५५१
ईमेल medha.narmada@gmail.com

नंदकिशोर आचार्य
सुप्रसिद्ध साहित्यकार।सोलह कविता संग्रह, नौ नाटक, सात आलोचना की पुस्तकें।अद्यतन पुस्तक साम्य योग के आयाम विनोवा दृष्टि पुनर्पाठ

गांधी की नहीं
अपनी सार्थकता पर विचार की जरूरत

हिंसा मनुष्य में अंतर्जात नहीं है।मनोविश्लेषणात्मक अध्ययनों का निष्कर्ष है कि मनुष्य बाह्य कारकों के दबाव में हिंसक हो तो सकता है, किंतु वह उसका प्राकृतिक स्वभाव नहीं है।इन बाह्य कारकों में आर्थिक-सामाजिक और राजनीतिक कारकों के साथ सांस्कृतिक परिवेश से उत्पन्न ‘बिलीफ सिस्टम’ की भी अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

हिंसा के वर्तमान दौर में ये सभी कारक सक्रिय हैं।मूलतया यह हमारी जीवन-दृष्टि और जीवन-शैली से जुड़ा सवाल भी है।हम मनुष्य को मूलतः एक ऐंद्रिक अस्तित्व मानने लगे हैं।भौतिकवाद के दर्शन को स्वीकार कर लेने का तात्पर्य ऐंद्रिकतावाद नहीं है।नैतिकता और त्याग की भावना का भी सुदृढ़ भौतिकवादी आधार है।इसकी व्याख्या करते हुए एम. एन. राय का कहना था कि एक नियम-शासित ब्रह्मांड से उत्पन्न होने के कारण मानव मूलतः एक विवेकशील प्राणी है तथा स्वतंत्रता जैसे मूल्य और नैतिकता मानव की जिजीविषा की ही अभिव्यक्तियां हैं।भौतिकवाद में विश्वास रखने वाले लोग भी जब अपने विचारों और लोकमुक्ति के लिए अपने प्राणों तक को जोखिम में डाल देते हैं और मृत्यु को भी साहसपूर्वक स्वीकार कर लेते हैं तो एम. एन. राय का कथन सही लगने लगता है।लेकिन, भौतिकवादी दर्शन को ऐंद्रिकतावाद में घटित कर देने का परिणाम यह हुआ है कि हमने मानव को एक ऐंद्रिकतावादी उपभोक्ता मान लिया है।इस ऐंद्रिकता की अबाध और अपरिमित पूर्ति ही हमारी आर्थिक क्रियाशीलताओं का लक्ष्य हो गया है।इसके कारण एक हिंसक प्रौद्योगिकी और हिंसक उपभोक्तावाद का निरंतर प्रसार होता गया है।

नैतिकता-निरपेक्ष तकनीकी और उपभोग ने व्यक्ति को जैसे स्वार्थी बना दिया है, वैसे ही उसकी सामुदायिक अभिव्यक्तियों- जाति, नस्ल, संप्रदाय, क्षेत्र, राज्य आदि को भी।अपने स्वार्थ और उपभोग-वृद्धि की आकांक्षा ने मनुष्य को प्रकृति के प्रति ही नहीं, अन्य मानव और मानव समुदायों के प्रति भी हिंसक बना दिया।युद्ध, आतंकवाद, सांप्रदायिक उन्माद, नस्ल, उद्योगीकरण तथा ऐसे ही कारकों से हो रही हिंसा के निरंतर प्रसार ने पूरे विश्व को किसी-न-किसी बहाने अपनी गिरफ्त में ले लिया है।धार्मिक संप्रदाय धर्म-पालन की प्रतिस्पर्धा में ही रुचि रखते हैं; वे एक दूसरे से शक्ति की प्रतिस्पर्धा में पड़ते हैं, जिसका परिणाम उनकी पारस्परिक हिंसा में होता है।

राज्यों में अपने-अपने नागरिकों को अधिक लोकतांत्रिक अधिकार, स्वास्थ्य, रोजगार और जीवन सुविधाएं मुहैया कराने की प्रतिस्पर्धा नहीं है- बल्कि नागरिकों को तो वहां एक असहाय प्राणी बना दिया गया हैं।उनकी प्रतिद्वंद्विता अपने संसाधनों, शक्ति और आर्थिक लाभ के लिए होड़ में है, जिसका परिणाम अंततः युद्ध के सिवा और कुछ नहीं हो सकता।हर प्रकार के सबलीकरण का कारण अंततः राज्य के और अधिक सबलीकरण में तब्दील हो जाता है।जनता के प्रतिनिधित्व के नाम पर राज्य अपनी शक्ति-वृद्धि को ही लोकतंत्र कहकर प्रचारित करते हैं और महात्मा गांधी के इस कथन को भूल जाते हैं कि लोकतंत्र और हिंसा साथ-साथ नहीं चल सकते।जो राज्य आज कहने के लिए लोकतांत्रिक हैं, उन्हें या तो खुलकर सर्वसत्तात्मक हो जाना होगा या अगर वे सच्चे लोकतांत्रिक बनना चाहते हैं तो उन्हें साहसपूर्वक हिंसक रूप अपनाना होगा।

किसी देश की अर्थव्यवस्था का प्रयोजन समाज की भौतिक आवश्यकताओं की स्वस्थ पूर्ति तथा रोजगार उपलब्ध करवाना होना चाहिए।लेकिन अब उसका प्रयोजन जीडीपी में निरंतर वृद्धि है, जिसमें इस बात की कहीं चिंता नहीं है कि किस प्रकार के उत्पादन से यह वृद्धि हो रही है और उसका प्रकृति और मानव समाज पर कितना हिंसक असर पड़ रहा है।

अभी यह विश्लेषण होना चाहिए कि समृद्ध समझे जाने वाले राष्ट्रों की जीडीपी में शस्त्र-उद्योग, विलास-उद्योग तथा आतंक-उद्योग का कितना योगदान है, जबकि यह तीनों अपनी प्रकृति में ही हिंसक है।कभी-कभी आश्चर्य होता है कि आतंकवादी संगठनों को वैसे अस्त्र-शस्त्र कैसे मिल जाते हैं जिन्हें केवल संपन्न देश ही उत्पन्न करते हैं।

सांस्कृतिक परिवेश और विश्वास-निर्मिति में शिक्षा का स्थान केंद्रीय है।लेकिन जब शिक्षा सहकार के बजाय प्रतिद्वंद्विता को, सार्थकता के बजाय येन-केन-प्रकारेण सफलता को, मूल्य अन्वेषण के बजाय ऐंद्रिक मनोरंजन को तरजीह देने लगे और विद्यार्थियों में स्वतंत्र चिंतन और उनके स्वतंत्र व्यक्तित्व का विकास करने का माध्यम होने के बदले स्वयं ही हिंसक राज्य और हिंसक बाजार की एजेंट होकर रह जाए, तो समझा जा सकता है कि वह कैसे सांस्कृतिक परिवेश का निर्माण कर सकेगी।

इसलिए मूल सवाल हिंसक घटनाओं का नहीं, बल्कि उस दृष्टि का है जो हिंसा का कारण बनती है।शमाकर ने कभी कहा था कि हम दरअसल एक तत्वमीमांसीय रोग से ग्रस्त हैं और उसका इलाज भी तत्वमीमांसीय ही हो सकता है।गांधी ऐसे ही एक तत्वमीमांसक हैं, जो हमारे रोग का मूल कारण मिटाना चाहते हैं, केवल उसके लक्षणों को नहीं।जब बुद्ध दुख का कारण अविद्या को बताते हैं तो उसका निवारण भी अविद्या को मिटाने से ही हो सकता है।कारण के बने रहने पर रोग की उपचार-प्रक्रिया कुछ राहत तो दे सकती है, रोग को नहीं मिटा सकती।

इसलिए सवाल गांधी चिंतन की व्यावहारिकता और प्रासंगिकता का नहीं, बल्कि अहिंसक जीवन-दृष्टि और जीवन-शैली की प्रासंगिकता का है।इसलिए गांधी की प्रासंगिकता पर विचार से पूर्व हमें अपनी वर्तमान हिंसक जीवन-दृष्टि और जीवन-शैली की प्रासंगिकता और व्यवहार्यता पर विचार की जरूरत है।हिंसा का विकल्प अहिंसा ही हो सकती है।क्या हम अहिंसक उत्पादन, अहिंसक उपभोग, अहिंसक राज्य और उसके लिए एक अहिंसक जीवन-दृष्टि को अपनाने के लिए तैयार हैं? सवाल गांधी-दृष्टि के अर्थपूर्ण होने का नहीं, बल्कि स्वयं अपने अर्थपूर्ण होने का है- और सार्थकता त्याग के बिना नहीं मिलती।

सुथारों की बड़ी गुवाड़, बीकानेर- ३३४००५ मो. ०९४१३३८१०४५

हेतु भारद्वाज
वरिष्ठ लेखक, लघु पत्रिका आंदोलन के एक प्रमुख व्यक्तित्व और प्रधान संपादक ‘अक्सर’।

हिंसा का मूल बाजार की शक्तियों में है

() समय की गति विचित्र है।वह सदा एक सी नहीं रहती पर किसी कालखंड में एक प्रवृत्ति हावी हो सकती है।सामंतवादी शासन ने प्राय: हिंसा को प्रश्रय दिया।परस्पर प्रतिद्वंद्विता, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा, वर्चस्व स्थापित करने की प्रबल इच्छा, अपनी संस्कृति पर गर्व तथा उसकी श्रेष्ठता का दंभ हिंसक वृत्तियों को जन्म देता है।

आज हिंसा एक वैश्विक प्रवृत्ति है।रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध किसी वैचारिक मतभेद का परिणाम न होकर रूस की विस्तारवादी इच्छा का परिणाम है।विचित्र स्थिति यह है कि अपने वैचारिक आधार का दम भरने वाला चीन अपनी वैचारिक सोच के विरुद्ध आचरण कर रहा है।एक स्तर पर चीन और अमेरिका में कोई अंतर नहीं है, क्योंकि दोनों को ही अपने-अपने उत्पादों को खपाने की चिंता है।अमेरिका विश्व का सबसे बड़ा हथियार निर्माता है।वह हथियारों का निर्माण कर उन्हें बेचकर अपना बाजार बढ़ाना चाहता है।दो देशों के बीच होने वाले युद्ध में दोनों ओर से हथियार तो अमेरिका में बने ही लड़ते हैं।चीन अपने उत्पादों को सारे विश्व में, बिना उनकी गुणवत्ता की परवाह किए, खपाने के लिए प्रयत्नशील है।अत: आज वैश्विक स्तर पर हिंसा का प्रमुख कारण बाजार है।अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय, सामाजिक, पारिवारिक तथा व्यक्तिगत स्तर पर पसरे इस बाजार ने हमें हिंसक बनाया है।

()  हिंसा का अर्थ केवल रक्तपात नहीं है- भावनात्मक स्तर पर शोषण सबसे खतरनाक हिंसा है।बाजार ने हमारे चारों ओर वस्तुओं का अंबार ला दिया है ताकि मानवीय अस्तित्व को वह इनमें विलीन कर सके।सड़कें कारों से ढक गई हैं, हमारे चारों ओर विलास के उपादानों का संभार है, जिसने हमारी रचनात्मकता को सोखकर हमारे अंतस में वस्तुओं के भोग की कामना में बदलकर सूक्ष्मता के साथ हिंसा को प्रश्रय दिया है।हम बाजार की जकड़बंदी से घिरे हैं, जो हमें प्रतियोगिता, प्रतिद्वंद्विता, वर्चस्व स्थापित करने की इच्छा, अधिकाधिक वस्तुओं के संचय की होड़ ने हमें हिंसक बना दिया है।यह ऐसी हिंसा है जो प्रत्यक्ष रूप से दिखती नहीं, पर यह हमारी संस्कृति, हमारी विरासत तथा हमारी विकास यात्रा को लील रही है।

आज जो हिंसा का सूक्ष्म किंतु मारक रूप हमारी उपलब्धियों को ध्वंस कर रहा है, उसका मूल प्रेरक आर्थिक उपक्रम अर्थात असीम शक्ति वाला बाजार है।

()भारत जैसे बहुधार्मिक देश में स्थूल तथा सूक्ष्म हिंसा निरंतर बढ़ रही है।इस हिंसा का सबसे प्रबल कारण धर्म ही है जिसे हमने मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारा आदि की ईंटों के बीच दबोच दिया है और वह राम, कृष्ण, हनुमान, नबी, ईसाई की रक्षा तक सीमित हो गया है।धर्म हमारी रक्षा नहीं, हम धर्म की रक्षा करने में हिंसा को प्रोत्साहित कर रहे हैं।धार्मिक संकीर्णता, अतीत के प्रति मोहांधजड़ता, अपने आपको श्रेष्ठ मानने का झूठा हठ हमें हिंसक बना रहा है।किंतु अगर हम भारतीय संस्कृति के मूल तत्वों- त्याग, अपरिग्रह, परोपकार, परदुखकातरता, सहानुभूति, विनम्रता, सहजता, सरलता, बंधुत्व, स्व से पर को अधिक समझने की ओर बढ़ें तो हिंसा का शमन होगा।

() हम गांधी को आचरण से परे रखकर उसे अपने लाभ के लिए प्रयोग करने के पाखंड पर विश्वास करने लगे हैं।गांधी ने जो दर्शन हमें दिया वह हमसे आचरणगत सत्य और अहिंसा की मांग करता है, वह साध्य की अधिकता से साधन की पवित्रता को अपनाने पर बल देता है।गांधी अब किसी व्यक्ति का नाम नहीं रहा, बल्कि एक मानवता केंद्रित जीवन शैली का नाम है।गांधी का अहिंसा दर्शन सैद्धांतिक स्तर पर हमारे विश्वास का आधार भर है, जबकि व्यावहारिक स्तर पर वह मनुष्य को देवत्व की ओर ले जाने की जीवन शैली है।पर वह कारगर तभी होगी जब हम इसे अपने क्रियाकलापों में पूरी शिद्दत से अपनाएं।

 ए-२४३, त्रिवेणी नगर, गोपालपुरा बाईपास, जयपुर-३०२०१८  मो. ९४१४७५२०३९

सुधीश पचौरी
मीडिया विश्लेषक।विख्यात स्तंभकार।अद्यतन उपन्यास ‘मिस काउ – ए लव स्टोरी’।

हम और हमारी हिंसाएं

()‘हिंसा’ कहने से हम हिंसा के नाना रूपों को ओझल कर सकते हैं, इसलिए मैं ‘हिंसा’ को हिंसा कहने की जगह ‘हिसाएं’ कहना चाहूंगा।

आज कई तरह की हिंसाओं के बीच हम जीते हैं।कभी-कभी यहां तक महसूस होता है कि किसी हिंसा की आंच अब आई कि अब आई! इन दिनों बहुत सी हिंसाएं लोगों के अवचेतन में बैठने लगी हैं और बहुत से उनको खुलेआम व्यक्त भी करने लगे हैं।

अब तक हम तीन तरह की हिंसाओं से परिचित रहे हैं।एक, सत्ता की हिंसा, दूसरी, सांप्रदायिक हिंसा, तीसरी निजी इज्जत के लिए की जाती हिंसा! प्रॉपर्टी के लिए की जाती हिंसा क्रिमिनल लॉ में आती है इसलिए उसे गिना नहीं जाता, लेकिन वह भी एक हिंसा है।इसी तरह फिल्मी हिंसा एक बनाई गई हिंसा है जिसका असर भी पड़ता है, जिसे ‘एक्शन’ का नाम देकर स्वीकृत कराया जाता है।

इन दिनों दो और तरह की हिंसाएं सामने हैं : एक है- आतंकवादी हिंसा, जो इन दिनों ‘मघ्यकालीन धर्मयुद्धों’ के नारों के साथ आती है, जो धार्मिक विद्वेष से पे्ररित होती है और बदले में धार्मिक प्रतिहिंसा पैदा करती है।

इस हिंसा का चेहरा वैश्विक है और राष्ट्रीय भी।बहुत से लोग मानते हैं कि दो महायुद्धों के बाद यौद्धिक हिंसा में कमी आई है, लेकिन अब ‘नान स्टेट एक्टर्स’ की हिंसा कई बार सुसंगठित राष्ट्रों तक पर भारी पड़ती नजर आती है!

नई हिंसाओं की कुछ विशेषताएं उनको पुराने किस्म की हिंसाओं से अलग करती हैं: आज हिंसा एक ‘बेहद आर्गनाइज्ड और सुनियोजित एक्ट’ है।पहले हिंसा के पक्ष लेते हुए लोग हिचकते थे, अब वे अपनी हिंसा को न केवल ‘डिफेंड’ करते हैं, बल्कि दूसरे की हिंसा के इतिहास को गिनाने लगते हैं, ‘कब किसने क्या किया’, ‘व्हाट अबाउटरी’ करने लगते हैं।इस तरह हर समूह या व्यक्ति अपनी अपनी हिंसा को ‘एकदम सही’ ठहराने लगता है।इतना ही नहीं, वे उसे ‘मजबूरी’ की जगह ‘जरूरी’ भी बताने लगते हैं! इन दिनों तो ‘शिकारी’ भी अपने को ‘शिकार’ की तरह पेश करता है।

अब तक सीआइए या केजीबी टाइप की ग्लोबल खुफिया एजेंसियां थीं, जो हिंसा को एक औजार की तरह इस्तेमाल करती थीं।यह शीतयुद्ध के दौर की बात है।अब बड़े ग्लोबल कॉर्पोरेट भी इसे औजार बनाते हैं।इस संदर्भ में सीआइए के हिटमेन ‘जान पर्किन्स’ की ‘इेकॉनामिक हिटमेन’ पुस्तक पठनीय है।

कुछ हिंसाएं ‘निहित’ हिंसाएं हैं, जैसे बड़ी पूंजी कीे हिंसा, फ्री मार्केट और उपभोग की हिंसा और ‘तकनीक संबलित  सूचित  समाज’ द्वारा ‘तकनीक सूचना वंचितों’ के प्रति निहित हिंसाएं! ताकतवर द्वारा कमजोर को हाशिए पर डालने की हिंसा भी इसी तरह की है!

इनके अलावा अपने यहां बहुत सी धार्मिक तथा जातिगत हिंसाए भी हैं जो यत्र-तत्र नाना रूपों में व्यक्त होती रहती हैं!

ऐसी तमाम हिंसाएं हमारे दैनंदिन का हिस्सा हैं।हमें हर वक्त अनेक प्रकार की हिंसाओं की खुराक मिलती हैं जो हमें  पहले डराती है साथ ही आकर्षित भी करती है, फिर हममें ‘दूसरे’ के प्रति नफरत पैदा करती है, फिर हमें वैसा ही हिंसक बनाने लगती है, जिससे हम नफरत करते हैं।

बौद्धिकों को आम आदमी की हिंसा तो खूब दिखती है, लेकिन अपनी नहीं दिखती।पढ़े-लिखों में भी अपनी-अपनी हिंसा है! इनके अलावा भाषागत और सांस्कृतिक हिसाएं भी हैं! यह नई हिंसा है जो उसके ‘कर्ता’ को नहीं दिखती।

कारण कि नई हिंसा के ‘लक्षण’ भी बदल गए हैं।नए मार्क्सवादी चिंतक स्लावोज झाइझेक अपनी यूट्यूब मास्टरक्लास में ‘डेजर्ट ऑफ पोस्ट-आइडियोलोजी’ में एक जगह किंचित व्यंग्य से कहते हैं कि नए समय में तलवार आदमी को नहीं मारती, बल्कि आदमी ही तलवार को इनवाइट करता है…

() जब तक दुनिया दो धु्रंवीय थी तब तक हिंसा ‘पे्रडिक्टेबिल’ और ‘मैनेजेबिल’ थी, लेकिन जैसे ही सोवियत संघ का विखंडन हुआ वैसे ही दुनिया कई ‘शक्ति केंद्रों’ में बंटने लगी और उसी मात्रा में हिंसा की मात्रा बढ़ने लगी!

शीतयुद्ध के खात्मे के साथ ही पूंजीवादी बरक्स समाजवादी विचारधराओं का मुकाबला खत्म हो गया। ‘वृद्ध पूंजीवाद’ ‘लेटकैपिटलिज्म’ द्वारा संचालित तकनीकी क्रांति ने दुनिया को ‘अमरीका केंद्रित’ बना दिया, लेकिन  तकनीक की उपलब्धता के कारण दुनिया के मुकाबले छोटे-छोटे ध्रुव भी अंगड़ाई लेने लगे।नई तकनीकी क्रांति ने उनको इसके लिए सक्षम बनाया।

‘नौ/ग्यारह’ की प्रतिक्रिया में अमरीकी हमलों ने प्रकारांतर से ‘इस्लाम बरक्स ईसाइयत’ के पुराने जिहादों की यादें ताजा कर दीं।ऊपर से आतंकवादी विरोधी लेकिन अंदर से ‘ईविल’।ईसाइयत के अनुसार बताया गया ‘ईविल’ के विरोध में किए जाते अमरीकी हमलों में एक अनकहा धार्मिक कंटेंट रहा, जिससे इस्लामी आतंकवादी टकराते रहे  और हिंसा के नए-नए रूपों के पीछे बहुत से मघ्यकालीन जिहादी  संगठन अपने पुराने नामों के साथ जन्म लेने लगे।तालिबान, अलकायदा, आइसिस आदि ‘सेमी स्टेट’ और ‘नॉन स्टेट’ एक्टर्स ने अमरीका के एक ध्रुवीय वर्चस्व को हिलाना शुरू कर दिया।नए-नए ध्रुव उभरने लगे।रूस का यूके्रन पर हमला और चीन का ताइवान को घेरना अपने को नए ध्रुव की तरह पेश करना है।इस चक्कर में अपने जैसे सेक्यूलर समाज में भी नए-नए धार्मिक ध्रुव अपने अपने वर्चस्व की दावेदारी पेश करने लगे हैं।समाज कट्टर धार्मिक ध्रुवों में बंटने लगा है।

विचित्र बात यह है कि एक ओर नई पूंजी संचालित तकनीकी क्रांति और दूसरी ओर इन मघ्यकालीन धर्मकेंद्रित ध्रुवों के बीच कोई अंतर्विरोध नहीं नजर आता।नई तकनीक बहुत दूर तक ‘विचारधारा न्यूट्रल’ लगती है, लेकिन है नहीं।

यह स्थिति अपने आप में ‘स्किजोफ्रेनिक’ यानी ‘मानसिक रूप से विघटित’ है।ऊपर से तकनीक और धर्म में मेल दिखता हो, लेकिन अंदर-अंदर एक बौखलाहट भी रहती है, क्योंकि तकनीक पश्चिम की ईसाइयत की जीत का प्रतीक नजर आती है।इसीलिए मघ्यकालीन जिहादी भाव अधिक प्रकट होते हैं।इस प्रक्रिया में मनुष्य के चित्त में भी नया विभाजन होता है।

नया पूंजीवाद किस तरह से मनुष्य के चित्त को ‘दोफाड़’ करता है इसे फ्रांसीसी उत्तर संरचनावादी  मनोविज्ञानी-द्वय ‘डिल्यूज व गुट्टारी’ के अध्ययन ‘कैपिटलिज्म एंड स्किजोफे्रनिया’ के जरिए बेहतर समझा जा सकता है।उनका मानना है कि मनुष्य ‘अंगरहित’ हो गया है, उसमें जो चाहे ‘फीड’ किया जा सकता है और चलाया जा सकता है!

नई तकनीक को ही ले लीजिए, जिसका एक रूप सोशल मीडिया है।यह नए फ्री मार्केट के माडल का ‘आभासी प्रोडक्ट’ है और उसी के लिए व उसी के हिसाब से चलता है।वह हर आदमी को न्यूनतम सूचना देकर एंपावर होने का आभास कराता है और इस प्रक्रिया में वह उसको चरम आत्मरतिवादी, अंहकारी, क्षुब्ध और ‘आत्मस्फोटकारी’ बनाता है।वह अपने भीतर से ही फटने लगता है। ‘इंप्लोड’ होने लगता है।उसका ‘चित्त’ ही हिंसक होने लगा है।जिसने अपना मुहल्ला नहीं जीता होता वह उसी बीती हुई दुनिया को जीतने या फिर से जीवित करने के लिए निकल पड़ता है और एक मिथकीय स्वर्ग की कामना करने लगता है और जब वह ऐसा नहीं कर पाता तो और क्षुब्ध होता है और उसमें हिंसात्मक भाव बढ़ते दिखते हैं।

ऐसे ही लोग अतीत की ‘फॉल्टलाइनों’ को आज की तकनीक से ठीक करना चाहते हैं, लेकिन यह भूल जाते हैं कि जैसे आप इन फाल्टलाइनों को ‘ठीक’ करना चाहते हैं वैसे ही असंख्य दूसरे, अदर/अदर्स भी इसी तरह ठीक करने में लगे हो सकते हैं।इसलिए इन दिनों अनेक लोग न जीते जा सकने वाले युद्धों को चलाए हुए हैं।तकनीकी त्वरता और तकनीकी छल के कारण कानून व्यवस्थाएं भी इनका कुछ नहीं बिगाड़ पातीं, क्योंकि आज की ‘पोस्ट ट्रुथ इंडस्ट्री’ ने ‘ट्रुथ’ को ही ‘रिप्लेस’ कर दिया है।

इसीलिए इन दिनों हिंसा एक ‘ऐडवेंचर नहीं, बल्कि ‘स्किल’ है, ‘खेल’ है, ‘रणकौशल’ है और ‘एक्स्पर्टाइज’ है।हम उसकी निंदा करने की जगह या उसकी निंदा करते हुए भी हिंसा के कौशल पर मुग्ध होते हैं।चाहे लिंचिंग हो या दूसरे तरह की हिंसा, सबके पक्षधर निकल आते हैं!

बढ़ती धार्मिक हिंसा के मूल स्रोतों को समझने के लिए सेमुअल हंटिग्टन की ‘द क्लैश आफ सिविलाइजेशंस’ को पढ़ा जा सकता है।हिंसाओं की नई संस्कृति ‘सभ्यताओं के इसी संघर्ष’ का परिणाम है।

() अपना समाज बहुधार्मिक, बहुजातीय, बहु नस्लीय, बहुभाषी और बहुस्थानी है, जिनके बीच की ‘फाल्टलाइनें’ आपस में टकराती रहती हैं।

नई तकनीक ने तीसरी दुनिया के लोगों को ‘बौरा’ दिया है।वे ‘भैंसा गाड़ी’ युग से निकलकर सीधे ‘ऑनलाइन’ युग में आ गए हैं।यह बड़ा सांस्कृतिक झटका है, जिसने आम आदमी को अंदर से लेकर बाहर तक ‘अस्थिर चित्त’ कर दिया है।इसीलिए इन दिनों किसी के भी चित्त में चैन नहीं है!

एक ही झटके में हमने कई युग पार कर लिए हैं, इसलिए भी हर बंदा अपने को ‘वंचित’ समझता है और तुरंत बदला लेना चाहता है!

तकनीक ने तीसरी दुनिया के लोगों को पहली दुनिया जैसा बनने का सपना दिखा तो दिया है, लेकिन पहली दुनिया अब भी बड़ी ग्लोबल पूंजी की ताकत की दुनिया है।ये सारा तकनीकी ताम-झाम उसी का बनाया है।उसे लेकर हम समझते हैं कि हम एंपावर हो रहे हैं, जबकि हमारे सारे ‘एंपावरमेंट’ का ‘कापीराइट’ उसी बड़ी पूंजी, बड़ी तकनीक के मालिकों के पास होता है! तकनीक और सोशल मीडिया स्वयं ‘सोशल स्किजोफ्रेनिया’, (मनो-विभाजन) के सबसे बड़े उदाहरण हैं।

() ऐसे में गांधी जी का ‘अहिंसा दर्शन’ एक ‘परम विचार’ तो है, लेकिन ‘अलभ्य’ भी नजर आता है! यों भी ‘अहिंसात्मक आचरण’ बड़ी कीमत मांगता है, जिसे इस संकीर्ण स्वार्थी जगत में कोई ‘एफोर्ड’ नहीं कर सकता।इसीलिए गांधी जी सिर्फ विदेशी मेहमानों के लिए ‘टूरिस्ट स्पॉट’ भर रह गए हैं।वे हमारे लिए अब एक ‘ब्रांड’ भर हैं, जिसे हम कायदे से बेच भी नहीं पाते!

यों तो बहुत पहले ही नाथूराम गोडसे ने गांधी जी की हत्या कर दी थी, लेकिन इन दिनों हम सब मिलकर उनको अंतिम ‘अलविदा’ कहने पर तुले हैं, क्योंकि हम उनको एक ‘आफत’ मानते हैं।इसीलिए हमने उनको एक नाटक में, एक ‘फीटिश’ में ‘रिड्यूस’ कर  दिया है।लोग पहले उनको ‘मजबूरी का नाम महात्मा गांधी’ की कहावत से याद किया करते थे, अब हम उस कहावत पर अमल करते नजर आते हैं!

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विष्णु नागर
वरिष्ठ हिंदी कवि और गद्यकार।नवभारत टाइम्ससहित कई प्रमुख पत्रिकाओं में संपादकीय दायित्व का निर्वाह।रातदिनऔर ईश्वर की कहानियाँविशेष रूप से चर्चित।

अंततः एकदूसरे से घुलनेमिलने की
समानांतर संस्कृति ही बचेगी

() हिंसा यूं तो कब नहीं थी, मगर इस दौर की हिंसा और शत्रुता बहुआयामी है।अमेरिकी समाज अपनी तमाम समृद्धि के बावजूद घनघोर रूप से हिंसक समाज है।वहां गोरे आज भी अश्वेतों और बाकी अन्यों से उसी तरह का कथित खतरा मानते हैं, जैसा यहां मुस्लिमों से हिंदुओं और हिंदुस्तान को खतरा बताया जा रहा है।पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप उन्हीं गोरों के आज भी ताकतवर प्रतिनिधि माने जाते हैं! उन्हीं गोरों के, जिनके पूर्वज-खुद वहां के मूल निवासियों- रेड इन्डियनों का संहार करके- अमेरिका के मालिक बन बैठे हैं।उन्हें उनके बाद बाहर से आकर बसे सभी गैर गोरे लोग शत्रु नजर आते हैं।

आज आम अमेरिका हमारे देश के गरीबों जितने गरीब न हों, मगर अपने स्तर पर भयानक रूप से वह भी असमान समाज है।गन कल्चर का खात्मा वहां इतना आसान नहीं है।फिर नफरत की अनेक परतें वहां भी हैं।अमेरिका का राष्ट्रपति डेमोक्रेट हो या रिपब्लिकन, वह दुनिया में वर्चस्व की दौड़ में हमेशा सबसे आगे रहना चाहता है।उसके लिए रूस और चीन की बढ़ती ताकत चुनौती है।उधर न चीन पीछे रहना चाहता है, न रूस।अमेरिका, रूस और चीन को तरह-तरह से घेरना चाहता है।वहां के तानाशाह और कुछ भी करें, उन्हें यह स्वीकार नहीं हो सकता।यूक्रेन-रूस के बीच चल रहा पाशविक युद्ध इसी का एक परिणाम है।तबाह यूक्रेन के लोग हो रहे हैं, मगर इस तबाही का मुख्य कारण अगर रूस है तो अमेरिका भी।उसके नाटो सहयोगी भी कम नहीं।

इसी तरह सत्ता पर वर्चस्व की बहुरंगी लड़ाइयां तमाम छोटे- बड़े देशों के अंदर और बाहर चल रही हैं।कहीं इसपर कथित लोकतंत्र को हथियार बनाकर ताकतवर समुदाय हावी हो रहा है, कहीं फौजी तानाशाही के जरिए।ये लड़ाइयां स्थानीय भी हैं और इनका एक वैश्विक कोण भी है।कहां मानवाधिकार का हनन दिखाई देगा और कहां नहीं, यह सब अमेरिका जैसे देशों के अपने हितों से तय होता है।कहां चुप रहना है, कहां बोलने भर की औपचारिकता पूरी करनी है और कहां सैन्य हस्तक्षेप करना है, यह उस देश के निजाम से अमेरिका के स्वार्थ संबंधों से तय होता है।जो देश अमेरिका के द्वारा इस्तेमाल किए जाने को तैयार हैं, उन्हें अमेरिका से कोई डर नहीं।अमेरिका उस देश को धमकी भी कभी देगा तो वह बंदर घुड़की होगी।उदाहरण बिलकुल सामने है।

() हिंसा किसी देश के आर्थिक विकास, उसकी संस्कृति-सभ्यता, जनजीवन को निश्चित रूप से प्रभावित करती है।वैसे आर्थिक विकास के भी एक मायने अब नहीं हैं।भारत जैसे देश में इसके मायने हैं चंद लोगों की दिन दूनी, रात चौगुनी बढ़ती हुई संपत्ति।खरबपतियों के बैंकों के कर्ज माफ करना, रोजगार देने के कथित आधार पर उन पर करों का बोझ घटाना और साधारण जनों को बुरी तरह पीस डालना, उनके लोकतांत्रिक अधिकार छीनना।सरकार का मुखिया अपने ही देश में उनके लिए बेहिचक काम करे, इतना ही नहीं, विदेशों में उनके लिए लाबिंग करे, यह विकास है।साधारण जन अपने रोजगार खो दें, नयों को अवसर न मिलें, सरकारी उपक्रम बेचते चले जाना विकास है।

हजारों सालों से जो मिलीजुली संस्कृति बनी है, उसे नकार कर धार्मिक बहुमत के पतनशील तबकों की सोच को संस्कृति मान लेना, संस्कृति है।सभ्यता है- देश के अल्पसंख्यकों और असहमत जनों को धमकाना, प्रताड़ित करना, जेलों में ठू़ंसना।और यह सब जनजीवन पर असर डालता है।उसके स्वाभाविक सहज जीवन के विकास को बाधित करता है।

() भारत जैसे बहुधार्मिक, बहुजातीय समाज का पिछले आठ वर्षों में जो हाल बना दिया गया है, वह चिंता का मुख्य विषय है।जो हिंदू भारत बनाया जा रहा है, वह हमारा भारत नहीं हो सकता।इसमें रोज मेरे जैसों की सांस घुटती है।रोज कुछ मरता जाता है।जीवन में कभी मैंने ऐसे भारत की कल्पना नहीं की थी।हो सकता है, मैं इस भारत के निर्माण के संकेतों को पहले समझ नहीं पाया हूँ,  जबकि मैं क्षमताभर उसी समय उस भारत को पहचान रहा था, जिसमें नई-नई टेक्नोलॉजी आ रही थी।उसकी जरूरत या उसके प्रभाव-दुष्प्रभाव को अपनी सीमाभर समझ रहा था।

मैंने खानपान और फैशन आदि में इधर आए लगभग क्रांतिकारी बदलावों को भी सामर्थ्य भर समझने की कोशिश की है।फैशन के बदलावों के साथ खुद चलना तो मुश्किल था मगर खाने में आए बदलावों के साथ कुछ हद तक चला भी हूँ।हम शायद पहली बार अपने ही देश के विभिन्न हिस्सों के खानपान, उनकी संस्कृति और कला को बेहतर ढंग से समझने की कोशिश अब करने लगे हैं।उसका स्वागत कर रहे हैं! खाने की विविधता आज के समय की नई होती संस्कृति की एक बड़ी पहचान है।वह हिंदुत्व की तरह अपने स्वभाव में हिंसक-आक्रामक नहीं है, सौम्य और आग्रहशील है।वह आपको आमंत्रित करती है अपनी जड़ता तोड़ने के लिए, आप पर लदती नहीं।अंततः एक-दूसरे के साथ घुलने-मिलने की यह समानांतर संस्कृति ही बचेगी, हिंदुत्व की घटिया-हिंसक, मानवद्रोही संस्कृति नहीं।यह समानांतर विकसित होती संस्कृति, अनजाने ही, हिंदुत्ववादियों की हिंसक संस्कृति का प्रतिलोम है, पर जाहिर है इसी के भरोसे बैठ जाना काफी नहीं।यह भी खतरे में आ सकती है।मुसलमान क्या खाएं, कैसे रहें, क्या पहनें, क्या न पहनें, इस रूप में यह खतरा सिर पर है।

() भारत जैसे देश में इस हिंसक-आक्रामक संस्कृति का हल गांधीवाद में है, यह कहना एक तरह का सरलीकरण है।इसे शायद यूं कहा जा सकता है कि इस देश को उसकी स्वाभाविक गति में लाना ही उपाय हो सकता है।आर्थिक-सामाजिक विषमता पर लगातार चोट ही वह उपाय है, जिसके प्रति कोई बड़ा दल गंभीर नहीं है! इस संघर्ष में गांधीवाद भी अपने गैर-जड़ीभूत रूप में एक साधन बन सकता है।शासन की बंदूक और तोप से, उसकी हिंसक आक्रामकता से लोकतांत्रिक-अहिंसक संघर्षों के माध्यम से ही लड़ा जा सकता है।अग्निवीर के नाम पर जो योजना सरकार ने चलाई है, उसके विरुद्ध हिंसक संघर्ष तुरंत ठंडा हो गया।सरकार की नीति ने विजय पाई, जबकि किसानों और शाहीनबाग की औरतों ने अपने अहिंसक लोकतंत्रिक संघर्ष में काफी हद तक सफलता पाई है।मुझे उम्मीद है कि आगामी वर्षों में ये संघर्ष और तीव्र होंगे।

३४, नवभारत टाइम्स अपार्टमेण्ट, मयूर विहार, फेज, दिल्ली११००९१  मो. ९८१०८९२१९८

संपर्क प्रस्तुतिकर्ता :​हाउस नं. ४१//, बी.एल नं. ०६, पोस्ट कांकीनाड़ा, जिला उत्तर २४ परगना, पश्चिम बंगाल७४३१२६ मो.८४५०००५१४३