सुपरिचित लेखक और इतिहासकार। रवींद्र भारती विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में प्रोफेसर। अद्यतन पुस्तक :‘आधुनिक भारत का ऐतिहासिक यथार्थ’।

गांधी का विरोध आज बढ़ता ही जा रहा है। साथ ही उनके प्रति आकर्षण भी खत्म नहीं हो रहा है। कुल मिलाकर स्थिति यह है कि उनकी आलोचना करने वाले भी उनकी महानता को स्वीकार करते हैं।

गांधी के यथार्थ को समझने के लिए एक सूत्र यह हो सकता है जो जे. कृष्णमूर्ति ने दिया है। कृष्णमूर्ति ने कहा था कि अगर आप ईर्ष्या से भरे हैं, आपमें प्रतियोगिता की भावना है और आपमें हिंसा भरी हुई है तो यह एक तथ्य (सत्य) है। आपको अहिंसावादी होना चाहिए, दूसरों के साथ मिलजुल कर रहना चाहिए आदि आदि नॉन फैक्ट (आदर्श) है। क्या सत्य को स्वीकार नहीं करके आदर्श को प्रतिष्ठित करने का संकल्प  लेकर गांधी चले, जो एक असंभव संभावना के अतिरिक्त कुछ नहीं था?

कहा जाता है कि सुकरात भी सही थे और उनको दंडित करने वाले भी सही थे।

इतिहास के लॉजिक को दो तरह से समझा जाता है- एक तात्कालिक ऐतिहासिक संदर्भ में और दूसरा विराट ऐतिहासिक संदर्भ में। एक चलताऊ उदाहरण ऐसा भी दिया जा सकता है। क्या मुगलेआज़म का अकबर एक कनीज़ को हिंदुस्तान की मलिका बनाने के लिए तैयार न होकर गलत कर रहा था? हां, क्योंकि वह मुहब्बत के खिलाफ था। लेकिन मुहब्बत का सम्मान करने वाला और अपने पुत्र को एक कनीज़ को मलिका मान लेने वाला क्या हिंदुस्तान का बादशाह बना रह पाता? अशोक ने जब धम्म का आदर्श रखा तो वह बहुत महान काम कर रहा था, लेकिन इससे मौर्य साम्राज्य के पतन का मार्ग प्रशस्त नहीं हुआ?

राजनीति में नीति वहीं तक सही है, जिससे राज (शक्ति तंत्र) चल सके। चाणक्य से लेकर मेकियावेली तक यही कहने के लिए आज एक आदर्श के रूप में याद किए जाते हैं।

गांधी के बारे में उनकी हत्या के पूर्व एक अमरीकी पत्रकार ने अपनी डायरी में दर्ज किया था कि जिस राह पर गांधी चल रहे हैं, उसमें उनको मरना होगा। वह इतिहास की धारा के विरुद्ध जा रहे हैं।

दरअसल गांधी के बारे में बात करने के लिए हमें कुछ बातों को ध्यान में रखना पड़ेगा। पहली बात : गांधी के आदर्श और उनके राजनीतिक उद्देश्य के बीच एक विरोधाभास है, जिसे राष्ट्रीय आंदोलन के एक विशेष आख्यान में गौण कर दिया गया। गांधी अपने प्रयोगों के बारे में कहते और मानते थे कि वे सत्य के प्रयोग थे, लेकिन वे आदर्श के सत्य के प्रयोग थे, जिसे एक खास ऐतिहासिक संदर्भ में उभरते हुए मध्यवर्ग ने समर्थन दिया। इस समर्थन के पीछे मूल कारण यह था कि उभरते हुए भारतीय पूंजीवाद और मध्यवर्ग की आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए राष्ट्रवाद का एक ऐसा रूप चाहिए था जो भारतीय समाज को बोल्शेविकों की हिंसक क्रांति की राह पर न ले जाए। हिंसा से सबको डर था।

गांधी के उत्थान के वर्ष (1919 के अंतिम महीने से  1920 के अंत तक) जिस तरह से उनके पक्ष में लोग आए, वह एक रोचक कहानी है। यह बहुत तकलीफ देने वाला तथ्य है कि गांधी ने इस देश में मुसलमानों को ‘इस्लाम खतरे में’ की भावना से जोड़ दिया। भारतीय मुसलमान भारतीय हिंदुओं की तरह राष्ट्रीय होकर नहीं सोचते थे, लेकिन खिलाफत के दौर में उनके इस्लामीपन को एक राजनीतिक रूप मिला। अब भारत में मुसलमानों का एक अपना हित था जो उनको राजनीतिक बनाने में सहायक सिद्ध हुआ।

गांधी ने इस धार्मिक उन्माद से सने आंदोलन को हिंदूमुसलमान की एकता के लिए समर्थन दिया, इसमें संदेह नहीं। उनका एक गहरा विश्वास था कि सभी धर्म तात्विक रूप से शांतिप्रिय होते हैं और दो धार्मिक समूहों के बीच सद्भाव स्वाभाविक है। यह एक विश्वास था, जिससे गांधी कभी नहीं डिगे। अंत तक भी जब उनके विश्वास को खंडित करने के तमाम तथ्य उपलब्ध थे, उन्होंने इस विश्वास को नहीं खोया।

गांधी की सफलता और असफलता दोनों के मूल में यही विश्वास है। इसी ने गांधी को शक्ति दी, उन्हें देव तुल्य बनाया और इसी ने उन्हें शक्तिहीन और लाचार भी बनाया।

एक स्थापना यह हो सकती है कि गांधी के इस विश्वास पर जनता का विश्वास हमेशा बना रहा। जनता ने गांधी को नहीं छोड़ा। वे अंत तक महात्मा, देवता और दुनिया से ऊपर उठे हुए माने जाते रहे।

दिक्कत थी राजनीति, जिसके लॉजिक ने गांधी की शक्ति को पूंजीवादी और मध्यवर्गीय राष्ट्रीय विचारधारा के लिए इस्तेमाल किया। मार्क्सवादी मानवेंद्रनाथ राय, आर पी दत्त ने गांधी को एक ऐसी बूर्जुआ शक्ति के नायक के रूप में देखा, जो असली भारतीय क्रांति में बाधा थी। यह सबको पता है, लेकिन बहुत प्रबुद्ध और समर्पित गांधीवादी भी 30 के दशक की शुरुआत से ही यह बात कहते आ रहे थे कि गांधी के पीछे चलने वाली शक्तियां गांधी का इस्तेमाल अपने हित में कर रही हैं, इसका उल्लेख कम ही किया जाता है। इस संदर्भ में विशेष रूप से उल्लेखनीय निर्मल कुमार बोस की चिट्ठियां हैं, जो उन्होंने गांधी जी को 1934 के पहले से लिखनी शुरू की थीं।

देखा जाए तो गांधी एक क्रांति के लिए दूसरी क्रांति के विरुद्ध खड़े थे। वे बोल्शेविज्म से भारत को बचा रहे थे, यह वे बार-बार खुद कह ही रहे थे। भारत की जिस क्रांति के साथ वे थे वह एक आदर्श था (नॉन फैक्ट)। इसमें पूंजीपति, मुसलमान, हिंदू, शिक्षित समुदाय, दीन-हीन, यहां तक कि अंग्रेज, सबके प्रति उनके मन में सद्भाव था। वे सबको समझाने के लिए त्याग का आदर्श रख रहे थे। यह काम वे जिस राजनीतिक संगठन कांग्रेस के साथ मिलकर कर रहे थे उस दल में फैक्ट (जो है) को लेकर चलने वाले लोग अधिक थे। इस बात की अनदेखी नहीं की जा सकती। कम से कम 1934 से 1948 के बीच के कांग्रेस में जो राष्ट्रीय नेतृत्व था, उसकी बागडोर सरदार पटेल के हाथ में थी। वे यथार्थवादी थे, आदर्शवादी नहीं थे। कांग्रेस गांधी को तभी तक मानती थी, जब तक वे सहायक होते थे।

यथार्थवादी राष्ट्रीय नेतृत्व से लेकर समाजवादी और साम्यवादी लोगों तक सबको पता था कि इस देश की जनता को आंदोलन के लिए प्रस्तुत करने के लिए यदि सबसे अधिक शक्ति किसी अस्त्र में है तो वह सिर्फ गांधी है। अगर यह अस्त्र नहीं रहा तो राजनीति कैसी? गांधी के बिना जनता आंदोलन के लिए नहीं उतरेगी। जनता गांधी के कहे बिना नहीं उतरेगी, यह सुभाष चंद्र बोस को भी पता था। इसलिए वे कांग्रेस से निकलने के बाद भी गांधी के प्रति अपनी आलोचना में उनकी इस ताकत को समझते थे। यह एक महत्वपूर्ण सूत्र है कि गांधी की राजनीतिक दृष्टि के आलोचक रवींद्रनाथ टैगोर थे, अरबिंद घोष थे, सुभाष चंद्र बोस थे। एम एन राय तो थे ही। बंगाल की ओर से गांधी के समर्थन में थे घनश्यामदास बिड़ला, बिधान चंद्र राय और प्रफुल्ल चंद्र घोष जैसे नेता। चित्तरंजन दास से लेकर श्यामा प्रसाद मुखर्जी तक सभी गांधी की ताकत को समझते थे, इसलिए वे उनसे संवाद में रहे।

गांधी की ताकत रही है जनता पर उनका जादुई प्रभाव। लेकिन इस प्रभाव का उपयोग तभी हो सकता था जब संगठन हो। गांधी संगठन के साथ रहे। कांग्रेस की ताकत के बिना गांधी राजनीतिक रूप से प्रभावशाली भूमिका का निर्वहन नहीं कर पाते, ऐसा कहना युक्तिसंगत होगा।

गांधी की राजनीतिक शक्ति का परीक्षण काल 1940 से 1942 के बीच का समय है। इस दौरान विश्व एक दूसरी ओर मुड़ गया। गांधी के आदर्श उस समय निरर्थक लगने लगे और कांग्रेस पार्टी ने उनकी अहिंसा की नीति को एकदम परे हटा दिया। कांग्रेस अध्यक्ष मौलाना आजाद की टिप्पणियां इस संदर्भ में अविश्वसनीय सी प्रतीत होंगी, जिसमें उन्होंने सीधे-सीधे गांधी की नीति को मानने से इंकार किया है।

गांधी को जब सुभाष चंद्र बोस और उनके साथियों ने 1936 से 39 के बीच और खासतौर से 1938-39 में राजनीतिक चुनौती दी तो गांधी के राजनीतिक रूप की सीमा स्पष्ट हो गई। 1942 की अगस्त क्रांति की शुरुआत के बाद गांधी की राजनीतिक भूमिका सिकुड़ने लगी, क्योंकि उसके बाद जनता की भूमिका भी राजनीतिक प्रक्रिया में कम हुई। गांधी अब शक्तिशाली और सम्मानित उपदेष्टा थे, राजनीति के केंद्र में नहीं थे।

गांधी के इस राजनीति के केंद्र से खिसकने की बात करने का अर्थ यह बिलकुल नहीं है कि वे अप्रासंगिक हो गए। उसके बाद जब जब जनता को राजनीति से जोड़ने की मुहिम चलाई गई, हर समय गांधी का नाम लेना जरूरी रहा है। 1980 से पहले जितने जनता केंद्रित आंदोलन हुए, सबमें गांधी ही प्रेरणा पुरुष स्वीकारे गए।

गांधी दरअसल संस्कृति पुरुष हैं। उनका अहिंसक राजनीतिक संस्करण देश के शक्तिशाली वर्ग के मनोनुकूल रहा है। गांधी ने जनता की शक्तिशाली भूमिका को फिशर के साथ बातचीत में स्वीकार किया है। उन्होंने हिंदू-मुसलमान के संघर्ष के समय 1946 में कुछ ऐसी बातें कही हैं, जिसकी ओर ध्यान दिलाया जाना चाहिए। वे एक बहुत ही हिंसक और आग से गुजरने की प्रक्रिया की बात करते हैं। एक विद्वान ने उन्हें उद्धृत करते हुए लिखा है कि गांधी को लगा था कि भारत को एक रक्त क्रांति से गुजरना होगा। उसमें तप कर, गुजर कर  असली भारत निकलेगा।

गांधी तीव्र प्रयोगों की जरूरतों को समझ रहे थे। वे अंतिम दिनों में एक दूसरी तरह की क्रांति की बातें कर रहे थे। संभवतः वे राममनोहर लोहिया जैसे युवाओं से जुड़कर इस क्रांति के लिए प्रयास की बातें सोच रहे होंगे, ऐसा अनुमान लगाना संभव है।

गांधी को यह सुयोग जीवन ने नहीं दिया। लेकिन एक महान व्यक्ति मृत्यु के बाद और भी महत्वपूर्ण हो उठता है। गांधी का ‘आफ्टर लाइफ’ उनकी उपस्थिति के वगैर एक आदर्श का प्रतीक बन सकता है। गांधी भारतीय साभ्यतिक चरित्र को जिस तरह से लेने की ओर बढ़े थे उसमें युद्ध, टकराव और ‘पहचान’ के लिए स्थान नहीं था। वे अहिंसा को प्रेम का ही दूसरा रूप बनाना चाहते थे। मिट्टी और पानी की तरह संस्कृति को वे एक ऐसी चीज समझते थे जो घुल जाए। ढेला मिट्टी का हिस्सा है। उसका एक अपना रूप है, लेकिन वह मिट्टी में मिल सकता है। पानी की बूंद भी अलग है वैसे तो, लेकिन नदी या समुद्र से अलग होकर भी उसमें मिल जाना उसका स्वभाव है। पहाड़ का टुकड़ा होकर भी पत्थर पहाड़ में नहीं मिलता। वह अलग हो जाता है। गांधी मनुष्य को ढेला समझते थे, जबकि इतिहास ने मनुष्य को पत्थर बनाने की कोशिश की है।

मनुष्य की अपनी वैयक्तिकता है, उसकी अपनी पहचान है और वह किसी नैतिक शक्ति से नहीं, अपनी भौतिकता और बुद्धि से चालित है, यही इतिहास की शिक्षा है। इतिहास की स्मृति लोक स्मृति में व्याप्त उस भावना को ठीक से पकड़ नहीं पाती, वह किसी कारण को पकड़ना चाहती है जिसके आधार पर किसी बुद्ध, किसी महात्मा, कवि या दार्शनिक की जनप्रियता को समझा सकती है।

गांधी की राजनीतिक दृष्टि को विद्वान लोग इसी तरह से समझते हैं, मानो वे भी किसी राजनेता की तरह भारतीयों को अंग्रेजों के विरुद्ध संगठित कर रहे हों। गांधी दर्शन राजसत्ता को हथियाने का कोई राजनीतिक दर्शन था ही नहीं। वे मनुष्य के मिट्टी-पानी स्वभाव को जगाने की कोशिश में लगातार लगे रहे। मनुष्य के भीतर यह मिट्टी-पानी भाव जगाना शायद किसी एक मनुष्य के लिए संभव नहीं था। वह तो बस यही चेतावनी दे सकते थे कि शैतानी सभ्यता से सावधान रहो! गांधी का संदेश गांधी के बाद एक पावन संदेश बना रहेगा। जरूरत है, इस संदेश को उनके राजनीतिक रूप तक ही सीमित न रखा जाए। गांधी सचमुच उस महात्मा की तरह थे, जिसे जब किसी ने मारा तो उनके आखिरी शब्द थे- तुम भी वही हो! अपने शत्रु से भी घृणा नहीं कर सके। क्या मिट्टी दूसरी मिट्टी से मिलने से इनकार कर सकती है? क्या पानी दूसरे पानी से मिलने से इनकार करता है? मनुष्य इस तरह क्यों नहीं मिलता? मनुष्यता ही सिखा सकती है- गीत गाया पत्थरों ने…!

पत्थर गीत नहीं गाते, वे टकराते हैं। पर कुछ लोग सोचते हैं कि टकराव नहीं प्रेम ही सबके मूल में है। गांधी ऐसे ही थे। प्रेम पथ पर चलने वालों के वे चिर संगी होंगे। इतिहास उन्हें राजनीतिक रूप में गलत ही सिद्ध करेगा। फिर भी वे अंततः सुकरात की तरह बने रहेंगे।

 

 

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