रंगकर्मी, चित्रकार, लेखक एवं अनुवादक। विभिन्न पत्रिकाओं में रचनाएं एवं आलेख प्रकाशित। पुस्तक बाल पत्रिका नंदन की कहानियों का मूल्यांकनप्रकाशित।

वैश्वीकरण के दौर में महानगरों की भूमिका बढ़ चुकी है। महानगरीकरण एक घटना भर नहीं है, बल्कि एक जीवंत बहुआयामी प्रक्रिया है। अब कई नगर महानगर बन चुके हैं। महानगरों का नाम सुनते ही हमारे मन में गगनचुंबी इमारतें, चौड़ी सड़कों और फ्लाई ओवरों के जाल, बड़े अस्पताल, बड़े स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, मॉल-मल्टीप्लेक्स, मल्टीनेशनल कंपनियों के दफ्तर, आईटी सेक्टर के चित्र उभर आते हैं। यही वजह है कि लोग रोजगार, व्यापार, अच्छी शिक्षा, अच्छी चिकित्सा, उन्नत परिवहन और बेहतर जीवन की उम्मीद में लगातार महानगरों की ओर आते हैं। वे इस दुनिया में कुछ पाते हैं तो बहुत कुछ खो भी देते हैं।

महानगरों की चकाचौंध के पीछे उसका एक विध्वंसकारी रूप भी है जो आज की गंभीर चुनौतियों में से एक है। महानगरों के विकास के साथ प्राकृतिक संसाधनों का लगातार दोहन किया जा रहा है, पेड़-पौधे काटे जा रहे हैं, जंगल सिकुड़ते जा रहे हैं, जलाशयों को सुखा कर निर्माण किए जा रहे हैं और पृथ्वी की ऊपरी परत क्षतिग्रस्त होती जा रही है। उदाहरण के तौर पर आज बेंगलुरु का लगभग 93% हिस्सा कंक्रीट हो चुका है। हर महानगर में ही जल संकट है और प्रदूषण बढ़ रहा है।

महानगरीकरण ने एक तरफ धार्मिक और जातिगत कट्टरता, लिंग भेद कुछ हद तक कम किया है तो दूसरी तरफ विषमता की खाइयों को गहरा किया है। इन दिनों के महानगरीकरण ने नए-नए ढंग सुलभ कराए हैं, पर वह किसानों, श्रमिकों और छोटे व्यापारियों का आत्मबल कमजोर भी कर रहा है।

अक्सर महानगर में बेहद सुंदर, भव्य और तनी हुई इमारतों के पीछे गरीबों की कराहती बस्तियां दिखाई देती हैं।

हाल में तेजी से बढ़े महानगरीकरण ने मानवीय सरोकारों को कम कर लोगों को सामाजिकता से विमुख किया है, उन्हें अपने फ्लैट तक सीमित कर दिया है। जावेद नासिर लिखते हैं- ‘दोस्तों तुमसे गुज़ारिश है यहां मत आओ, इन बड़े शहरों में तन्हाई भी मर जाती है’।

हम देखते हैं कि एक तरफ जहां वैश्वीकरण एवं बाजारवाद के दौर में महानगरीकरण है, वहीं दूसरी तरफ अव्यवस्थित एवं अनियोजित महानगरीकरण विध्वंस का सूचक भी है। यही कारण है हमें गांव-कस्बों और छोटे शहरों से एक दिलचस्प पलायन देखने को मिलता है। जबकि महानगरों में रहने वाले कई बड़े रईस शुद्ध आबोहवा की तलाश में शहरों से दूर फार्म हाउस बना लेते हैं। महानगरों में इन दशकों में जो नई स्थितियां पैदा हुई हैं, उनपर चर्चा जरूरी है। इसलिए ‘महानगर : ऐश्वर्य और विध्वंस’ विषय पर कई वरिष्ठ लेखक और चिंतक कुछ प्रश्नों पर अपने विचार और चिंताएं लेकर आए हैं। इनपर सोचा जाना चाहिए।

सवाल

(1)महानगर किसी भी देश में व्यापक विषमता के सबसे प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। आज के महानगरीकरण का भारतीय जीवन पर क्या असर पड़ रहा है?

(2)महानगरों में नागरिक समाज का यथार्थ क्या है, इसके जीवन मूल्यों में पहले से कैसे परिवर्तन आए हैं?

(3)क्या महानगरों में सामाजिक-लैंगिक खाइयां बढ़ रही हैं? महानगर के लोगों में महानगरीयता के गुणों का अभाव क्यों है?

(4)क्या महानगर से फिर छोटे शहरों या गांवों की ओर पलायन बढ़ा है, कैसे लोगों का पलायन है? पलायन कहां हो रहा है और क्यों हो रहा है?

(5)महानगर अपने चारों तरफ फैली बस्तियों, छोटे नगरों और गांवों का कैसा दबाव झेल रहे हैं?

(6)महानगर में आप लंबे समय से रह रहे हैं, आप इसके ऐश्वर्य और संकट को देखकर खुद क्या अनुभव करते हैं? यदि महानगर के वर्तमान संकट पर केंद्रित कोई भारतीय या विदेशी उपन्यास आपके ध्यान में हो तो उसके बारे में भी जानने की उत्सुकता रहेगी।

 

हर महानगर में कई कस्बे और गांव हैं

राजेश जोशी
सुप्रसिद्ध हिंदी कवि। प्रतिष्ठित राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित। अद्यतन कविता संग्रह उल्लंघन

मैं किसी महानगर का निवासी कभी नहीं रहा। मेरे अनुभव महानगरों में समय-समय पर जाने और कुछ वक्त बिताने से बने हैं। महानगरों में रह रहे दोस्तों के साथ घूमने और उनके किस्सों को सुनने से बने हैं। महानगरों के बारे में कुछ अनुभव कुछ किताबों को पढ़ने से बने हैं।

यह बात बहुत हद तक सही है कि किसी भी वर्गीय समाज के अंतर्विरोधों को जानने और उसकी जटिलताओं को उनकी आत्यंतिकता में समझने के लिए मझौले शहरों या कस्बों के बनिस्बत महानगर को समझना ज्यादा जरूरी है। महानगर में पूंजीवाद के सबसे आक्रामक और सबसे ज्यादा चालाक चरित्र को बेहतर ढंग से जाना और समझा जा सकता है। शायद बिना महानगर के जीवन को देखे और जाने पूंजीवाद के वर्तमान चरित्र को समझना अगर नामुमकिन नहीं तो बहुत कठिन तो है ही।

भारत में जो चार महानगर गिनाए जाते हैं, उनके चरित्र बहुत अलग-अलग हैं। कोलकता और चेन्नई एक भाषायी जातीय संस्कृति की पहचान लिए हुए हैं। उनमें अन्य भाषा भाषी लोग भी रहते हैं, लेकिन उनमें वर्चस्व एक भाषायी जातीय संस्कृति का ही है। इसलिए इन महानगरों का स्वरूप भिन्न है। भाषाओं या संस्कृतियों की बहुलता को यहां बहुत नहीं देखा जा सकता। सिर्फ मुंबई एक ऐसा महानगर है जिसे हम कास्मोपोलेटिकल कह सकते हैं। हालांकि यहां भी मराठी भाषाई जाति का वर्चस्व बना हुआ है। दिल्ली का चरित्र किसी भाषा, संस्कृति या जातीयता से नहीं जुड़ा है। वह देश की राजधानी है। उसमें अस्थायी रूप से अपने काम के लिए आने जाने वालों का एक बड़ा प्रतिशत बना रहता है।

मुझे कभी-कभी लगता है कि हमारे महानगर अधिक जनसंख्या और अपने क्षेत्रफल के फैलाव के कारण बने महानगर हैं। उनका वास्तविक स्वरूप बहुत हद तक महानगरीय नहीं है। नगरीकरण के इतिहास को जरा टटोलें तो हम पाएंगे कि पहले राजधानी नगर अलग बसाए जाते थे। लेकिन वर्तमान में सभी महानगर एक साथ ही राजधानी नगर भी हैं और औद्योगिक और व्यावसायिक नगर भी। इसलिए हमारे महानगरों की संरचना काफी उलझी हुई है। इन महानगरों की बाहरी शक्ल महानगर जैसी है, लेकिन इनके अंदर धंसते ही पता चलता है कि एक ही महानगर में कई मझोले शहर, कई कस्बे यहां तक कि कई छोटे-छोटे गांव भी दिखाई दे सकते हैं। भारतीय महानगर का स्वरूप यूरोपीय महानगर से बहुत भिन्न है।

नई प्रौद्योगिकी और नई अर्थनीति के बाद सारी दुनिया में तेजी से परिवर्तन हुए हैं। प्रौद्योगिकी ने नगरों की गति को बहुत तेज कर दिया है। जीवन की रफ्तार बहुत तेज हो गई है। पहिए वाली घड़ियां अब डिजिटल हो गई हैं। इन परिवर्तनों ने हमारे जीवन को बहुत दूर तक प्रभावित किया है। हमारे रहन-सहन और हमारे व्यवहार को बदला है। अब हम अपनी याददाश्त या स्मृति के भरोसे नहीं, गूगल या स्मार्ट फोन के सहारे अपनी जानकारियों को उंगली घुमाते ही प्राप्त कर लेते हैं। ऑटोमोबाइल के क्षेत्र में हुए विस्फोट ने पुरानी सड़कों पर यातायात को असंभव कर दिया है। हर शहर में लाखों की संख्या में पेड़ काटे जा रहे हैं और सड़कों को चौड़ा किया जा रहा है। एक के ऊपर एक फ्लाई ओवर बन रहे हैं। यानी अब सिर्फ भवन ही बहुमंजिला नहीं हैं, सड़कें भी कई मंजिला हो चुकी हैं। कई नगर नए महानगर बनते जा रहे हैं। आई.टी.इंडस्ट्री ने कुछ नए महानगरों को पैदा कर दिया है। हैदराबाद, बेंगलुरु और कुछ हद तक पुणे नए महानगरों के रूप में आकार लेते दिख रहे हैं। कई मझोले शहर भी दिनोंदिन फैल रहे हैं। नए और बड़े उद्योगों के कारण नहीं, नए बाजार ने शहरों का आयतन बढ़ा दिया है। वित्त पूंजी ने उस इंडस्ट्री को लगभग खत्म सा कर दिया है, जिसमें हजारों लोग एक ही जगह काम करते थे। अब एक ही इंडस्ट्री में होने वाले कामों की अलग-अलग यूनिट अलग-अलग जगहों पर काम कर रही हैं। अब ताना अलग है और बाना अलग है। इन परिवर्तनों के चलते मजदूर यूनियनों के पुराने आंदोलन इतिहास बन चुके हैं। श्रमिक संघों का स्वरूप ही नहीं प्रबंधन का स्वरूप भी बदल गया है।

मानवीय संबंध बदल रहे हैं। उनमें गर्मजोशी छीज रही है। आर्थिक संस्तरों के बीच खाई अधिक चौड़ी हो गई है। लैंगिक खाइयां बढ़ी नहीं, शायद कम हुई हैं। स्त्रियां आर्थिक रूप से ज्यादा स्वावलंबी हुई हैं। उनमें शिक्षा का प्रतिशत बहुत तेजी से बढ़ा है। स्त्रियों पर होने वाले अत्याचारों का बढ़ना इस बात का भी प्रमाण है कि पुरुष के हाथ से समाज की सत्ता फिसल रही है। पुरुष पंचायतें ज्यादा क्रूर और बौखलाई हुई हैं। स्त्रियों पर होने वाले अत्याचार उसकी बौखलाहट को बताते हैं।

महानगरों के आसपास के कस्बे और गांव धीरे-धीरे महानगर में समाते चले जा रहे हैं। महानगर एक ऐसा दैत्याकार मुंह है जिसमें आसपास का सारा जीवन तेजी से समाता जा रहा है। आसपास के कस्बों और गांवों का अपना चरित्र लगभग नष्ट हो गया है। वे शहरी माल के बाजार बन चुके हैं। उनके अपने कामधंधे लगभग चौपट हो चुके हैं। गांवों से शहरों की ओर होने वाला पलायन गड़बड़ा गया है। अब तो आसपास के गांव ही शहर द्वारा लील लिए जा रहे हैं। गांव या आसपास फैली बस्तियों का दबाव महानगरों पर नहीं हो रहा है, उल्टे आसपास की बस्तियां ही महानगरों के दबाव में दम तोड़ रही हैं।

मैं महानगर का निवासी नहीं रहा। महानगरों पर अनेक उपन्यास लिखे गए हैं। ज्यादातर उपन्यास दूसरी भाषाओं में ही अधिक हैं। कोलकाता पर बांग्ला में अनेक उपन्यास लिखे गए यहां तक कि गुन्थरग्रास का उपन्यास भी कोलकाता पर मिलता है। दिल्ली पर खुशवंत सिंह सहित अनेक लेखकों की कृतियां याद की जा सकती हैं। मुबंई पर हाल में विजय कुमार के संस्मरणों की एक किताब ‘शहर जो खो गया’ आई है। मराठी में ‘बंबई दिनांक’ जैसे उपन्यास याद किए जा सकते हैं।

11 निराला नगर, भदभदा रोड, भोपाल-462003 मो.9424579277

 

 

2050: शहरों में आबादी

विश्व के अनेक हिस्सों में जनसंख्या में तेजी से वृद्धि हो रही है। 1800 में विश्व की पूरी आबादी का केवल 2 प्रतिशत भाग शहरों में रहता था। 1900 में विश्व की कुल आबादी का केवल 15 प्रतिशत शहरों में रहता था। 20वीं शताब्दी में इस स्थिति में व्यापक परिवर्तन आया और शहरी आबादी की संख्या अप्रत्याशित रूप से बढ़ने लगी। 1950 में विश्व की जनसंख्या का 70 प्रतिशत लोग यानी लगभग एक तिहाई शहरों में रह रहे थे। 2014 में विश्व की कुल आबादी के 54 प्रतिशत लोग शहरों में रहते थे। उम्मीद की जाती है कि 2050 तक 72 प्रतिशत आबादी शहरों में रहने लगेगी। शहरों की संख्या भी काफी बढ़ने लगी है। इस समय 34 शहर ऐसे हैं जहां की आबादी 10 मिलियन या उससे अधिक है। ऐसे शहरों की संख्या जहां की आबादी दस लाख से अधिक है वह 80 से बढ़कर 533 हो चुकी है। तीव्र गति से बढ़ रहे वैश्विक शहरीकरण ने भारी आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभाव विश्व पर डाला है।

 

महानगर जीवन भी क्या है!

हरीश त्रिवेदी
दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में पूर्वप्रोफेसर। शिकागो और लंदन विश्वविद्यालयों में अतिथि प्रोफेसर। अंग्रेजीहिंदी दोनों में लिखते हैं। प्रमुख पुस्तकें :‘द नेशन एक्रास द वर्ल्ड’, ‘पोस्टकोलोनियल ट्रांसलेशनआदि।

(1)स्पष्ट है कि महानगरों में अमीरों और गरीबों के बीच का अंतर कहीं अधिक है और साफ दिखता है। छोटे शहरों में बहुत से लोग गरीब तो यहां से भी ज्यादा हैं, पर वहां इतने अमीर लोग नहीं हैं, और वे उतने अधिक अमीर भी नहीं हैं, जितने कि महानगरों के अमीर। इस विषमता का एक पक्ष यह भी है कि महानगरों में अमीर गरीब अगल-बगल रहते हैं, क्योंकि वे परस्पर आश्रित हैं। बड़े घरों का काम कैसे चलेगा अगर पास ही के घरौंदों में रहने वाले आकर उनका खाना नहीं बनाएंगे, झाड़ू-पोंछा नहीं करेंगे, ड्राइवरी नहीं करेंगे? और अगर नहीं करेंगे तो वे खुद अपना पेट कैसे पालेंगे?

इसका एक ही उपाय है जो पचास साल पहले जब पहली बार इंग्लैंड गया तो मैंने वहां देखा। वह यह है कि (आज के हमारे कुछ खोखले नारे में) सचमुच ही सबका विकास हो, और शारीरिक श्रम करने वालों को भी उसी तरह का पैसा मिले जो मानसिक या तकनीकी काम करने वालों को। मुझे शुरू में तो यह जानकार बड़ा धक्का लगा कि जितनी तनख्वाह वहां के यूनिवर्सिटी के लेक्चरर को मिलती थी उससे कुछ ज्यादा ही एक रोल्स-रॉयस गाड़ी के ड्राइवर को! वहां सभी अपना खाना खुद पकाते हैं, बर्तन मांजते हैं, पैंट-कमीज़ धोते-सुखाते हैं, झाड़ू लगाते हैं- बड़ी-बड़ी तनख्वाहें पाकर उस पूंजीवादी व्यवस्था में भी। अवश्य ही यहां भी यही होगा, भले ही अभी दो-तीन पीढ़ी का समय और लगे। वह सुबह कभी तो आएगी – और जल्दी ही।

(2)और (3)महानगर के जीवन-मूल्य अवश्य ही वे नहीं हैं जो छोटे शहरों के हैं, पर याद रखें कि छोटे शहरों के संकुचित जीवन-मूल्य क्या हैं। और फिर गांवों के मूल्य क्या थे यह सोच कर अधिक भाव-विभोर न हो जाइए। वहां खुला नाच था सामंतवाद का और घोर जातिवाद का, जो मैंने भी अपने बचपन में पचास के दशक में साक्षात देखा है। वहां लाठी और भैंस का सीधा संबंध था। महानगरों में कुछ ओढ़ी हुई ही सही, सभ्यता और शालीनता की झीनी-सी परत तो है, जिसके कारण छोटी-सी असहमति भी सीधे जूतम-पैजार पर तो नहीं उतर आती।

इसी तरह यह तो सोचना ही गलत है कि पुरुषों और स्त्रियों के बीच का अंतर महानगरों में बढ़ा है। स्कूल के बाद भी पढ़ने वाली और पढ़ कर काम-काजी और कमाऊ बनने वाली स्त्रियों का अनुपात महानगरों में कहीं अधिक है। जिसे सरकारी और तत्सम भाषा में स्त्री सशक्तिकरण कहते हैं उसका हर महानगर में आप पग-पग पर प्रमाण पा सकते हैं। दो-तीन दशक पहले तक हिंदी में एक शब्द नहीं आया था, क्योंकि तबतक हमारे समाज में वह शख्सियत ही नहीं आई थी, और वह है मैडम! कितने दफ्तरों में, बैंकों में, अन्य संस्थाओं में हम सब का साबका रोज ही किसी न किसी मैडम से होता है और इन स्त्रियों की सशक्त और सक्षम उपस्थिति और उनके प्रति हम सबका भी कुछ अधिक संयत और अनुशासित व्यवहार हमारी नई महानागरिकता की एक खुशनुमा पहचान नहीं है तो क्या है? सत्यजित राय की फिल्म महानगर (1963) में एक विवाहित स्त्री का नौकरी करने घर से निकलना अपवाद था और लोकापवाद था; अब वह सामान्य और सर्वमान्य हो गया है।

(4)यह किसकी बात हो रही है? कोविद के दौरान बड़े शहरों से हताशा में वापस गांव जाते हुए कुछ इने-गिने लोगों की ही न? बाद में समाचार आया कि इनमें से कई को तो उनको गांवों में दाखिल ही नहीं होने दिया गया कि वे शहर से लाई महामारी वहां भी न फैला दें, और बाकी बहुतेरे भी जल्दी ही अपने बड़े शहरों के ठिकानों में लौट आए जहां राहत की और इलाज की सरकारी या गैर-सरकारी व्यवस्था गांवों या छोटे शहरों के मुकाबले कई गुना बेहतर थी। महानगरों में लोग उनकी भी मदद करते हैं जिनको वे स्वयं नहीं जानते। यदि संबंध निर्वैयक्तिक हो जाते हैं तो सद्भावना और सहायता भी उसी प्रकार निर्वैयक्तिक होती जाती है और व्यक्ति-निरपेक्ष ही नहीं, धर्म-निरपेक्ष और भाषा- या प्रांत-निरपेक्ष भी हो जाती है। इस सामूहिकता में अपने और पराए का भेद मिट जाता है।

(5)ऐसा दबाव स्वाभाविक है। किसी महानगर के आस-पास बसे गांव या कस्बे पहले तो महानगरों को ओछी दृष्टि से देखते हैं कि वे कितने विकृत और भ्रष्ट हैं और फिर ईर्ष्या जागती है और वे भी महानगर में ही शामिल हो जाना चाहते हैं। दिल्ली में जो एनसीआर या नेशनल कैपिटल रीजन बना है यह ऐसे ही तो बना है, जिसमें अब नोएडा भी शामिल है, गुड़गांव भी और फरीदाबाद भी, और हर तीन-चार मील पर कोई पुराना गांव समाहित है।

बचपन में हम लोगों को एक कविता पढ़ाई जाती थी, ‘अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है, क्यों न उसे सबका मन चाहे।’ गांधी जी की उक्ति दोहराई जाती थी कि भारत तो अपने गांवों में बसता है, और पंत जी के अनुसार भारत माता ग्राम-वासिनी थी, भले ही उसका आंचल मैला था और वह स्वयं प्रसन्न न होकर उदासिनी थी। फिर फणीश्वर नाथ रेणु का पंत जी से लिए शीर्षक वाला आपस में ही बंटा हुआ गांव आया, और फिर गांव के प्रति हमारे आदर्शवादी मायामोह का सब तरह से पर्दाफाश करने वाला ‘राग दरबारी’ आया जिसका अंत पलायन संगीत से होता है कि गांव से भागो! अब तो यह हालत है कि गांवों और छोटे शहरों में रहने वाले शायद अधिकांश लोगों की दृष्टि में – ‘महानगर जीवन भी क्या है, क्यों न इसे सबका मन चाहे।’

(6)दिल्ली की मौजूदा आबादी में बहुतेरे तो जन्मना महानागरिक हैं और उन्हें इसका आभास भी नहीं है कि महानगरीय जीवन के अलावा कोई और भी जीवन होता है। मैं स्वयं दिल्ली आया बाईस साल की उम्र में 1969 में, यानी पचपन साल पहले।  तब मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में प्राध्यापक था और वह छोड़ कर मैं यहां सेंट स्टीफेंस कॉलेज में उसी पद पर नियुक्त होकर आ गया। जरूर सोचा होगा कि कहीं बेहतर जा रहा हूँ।

वैसे जब मैं पंद्रह वर्ष की उम्र में इलाहाबाद पहुंचा था तो उस नगर ने मुझे जितना मुग्ध किया था वह बाद में दिल्ली ने भी नहीं किया। इलाहाबाद मेरा पहला महानगर था। वहां आने के पहले मैंने बाराबंकी से आठवां पास किया था, उन्नाव से हाई स्कूल, और फिर ग्यारहवीं कक्षा में हरदोई में पढ़ रहा था जब मेरे पिता जी का भाग्यवश इलाहाबाद तबादला हो गया। उस शहर का अपना ही ठाठ था। तो मैं जब दिल्ली आया तो सुदामा की भांति ‘रह्यो चकि सों बसुधा अभिरामा’ वाला मेरा हाल नहीं था। यहां की कई चीजें मुझे अच्छी लगीं तो काफी कुछ अखरीं भी। फिर दो ही साल बाद मैं पीएच. डी. करने ब्रिटेन चला गया तो मेरा महानगर का मानक लंदन बन गया, और फिर क्रमशः अन्य यात्राओं के बाद उसमें न्यूयॉर्क, शिकागो, टोरंटो, पैरिस, रोम, सिडनी, टोक्यो और बेझिंग इत्यादि भी जुड़ते चले गए। तो दिल्ली के महानगरत्व से न तो मैं अधिक त्रस्त रहा हूँ और न अधिक अभिभूत ही।

1950 और 1960 के दशकों में हिंदी साहित्य में महानगर का संत्रास विषय पर कुछ वैसी ही चर्चा चलती थी जो अब शायद ‘स्त्री विमर्श’ और ‘दलित विमर्श’ पर चलती है। उसी दशक में हिंदी के अनेक लेखक इलाहाबाद, लखनऊ, बनारस और आगरा जैसे अपने-अपने उप-महानगरों को छोड़ कर दिल्ली आए और यह विस्थापन और मूल्य-विस्खलन उनके लेखन का, और ‘नई कहानी’ आंदोलन का भी, एक महत्वपूर्ण और मार्मिक अंग बना, दिल्ली की संगति-विसंगति से मेरी साहित्यिक पहचान करवाने वाले लेखकों में कुछ तो यहीं के पले-बसे थे जैसे निर्मल वर्मा, भीष्म साहनी और महेंद्र भल्ला, पर अनेक बाहर से भी आए लेखक थे जिनसे मेरा तादात्म्य कुछ अधिक हुआ। इनमें थे रघुवीर सहाय, जिनकी एक पुस्तक का हृदयभेदी शीर्षक ही था ‘दिल्ली मेरा परदेस’, और थे राजेंद्र यादव, मोहन राकेश और कमलेश्वर।

इन सब में कमलेश्वर की दो कहानियां मुझे विशेष याद रह गई हैं। एक थी ‘खोई हुई दिशाएँ’, जिसका शीर्षक ही बताता है कि इस महानगर में आकर इसका नायक सभी अर्थों में दिग्भ्रांत हो गया है। दूसरी थी ‘दिल्ली में एक मौत’, जो और भी मार्मिक है, क्योंकि उसमें नायक जाड़े की एक सुबह भर रजाई में दुबका हुआ सोचता रहता है कि पास के ही एक व्यक्ति जो नहीं रहे हैं उनकी शव-यात्रा में जाए या पड़ा रहे। पर अंततः जब जाता है तो वह पाता है कि उसके आस-पड़ोस के सभी लोग वहां पहले से ही पहुंच गए हैं। महानगर इतना निर्मम या निर्वैयक्तिक भी नहीं है जितना शुरू में लग सकता है।

कुछ यही मेरा भी अनुभव रहा है इस निबहुर देस में, जहां आकर कोई वापस नहीं जाता, जाता है तो फिर ऊपर ही जाता है। यहां भी पक्के दोस्त बने, यहां भी कुछ दगेबाज निकले। यहां शुरू में दो-दो घंटे के इंतजार के बाद लबालब भरी आने वाली डीटीसी बसों के युग में जीवन अत्यंत संघर्षमय रहा, और सदा विलंबित-मंथर गति से सरकने वाला इलाहाबाद जैसे वापस पुकारता रहा:

‘क्या करना है ऐसे शहर में रहकर जिसमें
खाल उतर जाती है दिन की…
बेचारा मिमियाता दिन शाम होने तक
अपने आप जिबहखाने तक आ जाता है।
-गुलज़ार

पर फिर रास्ते सहल होते गए और गाड़ी चल निकली। यहां के साहित्य और संस्कृति के क्रियाकलाप और लगभग नित्यप्रति होने वाली अकादमिक गतिविधियां इतनी अधिक और विविध हैं कि छोटी जगहों में तो उनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। अनेक प्रकार के विशाल पुस्तकालय हैं, संस्थाएं हैं, सुविधाएं हैं, और इतने ऊंचे पाए के अनेकानेक परिचित और मित्र हैं, सभी भांति-भांति की प्रतिभा के धनी और हँसमुख आत्मीयता से मुखातिब, कि फासलों की वजह से मिलना भले मुश्किल हो पर जब भी कोई मिल जाता है (या पुरबिया बोली में कहें तो भेंटा जाता है) और पांच-दस मिनट ही सही कुछ दिल-लगी और कुछ दिल्लगी हो जाती है तो तबीयत हरी हो जाती है।

लगता है (मीर के शब्दों में) कि दिल्ली तो एक शहर है आलम में इन्तिखाब! यहां रहने वाले मेरे जैसों का यदि कोई महानगरीय ऐश्वर्य है तो बस यही साहित्यिक संपदा है, यह बिरादरी है।

डी 203, विदिशा अपार्टमेंट्स, 79, इंद्रप्रस्थ एक्स्टेंशन, दिल्ली110092  मो.9818355433

 

 

 शहर में सहानुभूति के लिए जगह नहीं है

‘जब शहरों में आबादी के बढ़ने को ध्यान में रखकर कोई योजना नहीं बनाई जाती है तो घर और जमीन की कीमतें बढ़ जाती हैं, जिससे अलग-अलग अमीर इलाकों और गरीब बस्तियों का निर्माण होता है। एक बहुत ही असमान समाज उत्पन्न होता है और असमानता साफ-साफ दिखाई देती है। असमानता हमारे पड़ोस में होती है। इसका अर्थ होता है वहां सहानुभूति के लिए कोई जगह नहीं होती और पूरे समाज का विकास नहीं हो पाता।

        जैक फाइनगन, संयुक्त राष्ट्र में शहरी योजना विशेषज्ञ

 

क्या महानगरीकरण ने विकास के नाम पर गंदी बस्तियों को जन्म दिया है

जितेंद्र भाटिया
वरिष्ठ कथाकार, अनुवादक और विचारक। प्रमुख कृतियां : सदी के प्रश्न’, ‘इक्कीसवीं सदी की लड़ाइयां,’ ‘कांक्रीट के जंगल में गुम होते शहर’  (आत्मकथात्मक संस्मरण)

बचपन में चार-पांच वर्षों को छोड़कर मेरी सारी जिंदगी शहरों में गुजरी है और पिछले साठ-सत्तर सालों में इन शहरों को मैंने धीरे-धीरे बदलते भी देखा है। सरकार ने कई वर्ष पहले देश में ‘स्मार्ट शहरों’ की सूची बनाई थी, जिसका प्रचारित उद्देश्य यह था कि ये सब शहर कालांतर में चुस्त-दुरुस्त, यानी एक जैसे यांत्रिक और स्वचालित हो जाएं-नए समाज के मॉडल शहर सिंगापुर की तरह! कालांतर में इस ‘स्मार्ट शहरों’ की योजना का क्या हुआ, कोई नहीं जानता और सरकार द्वारा प्रचारित तमाम दूसरी लफ्फाजी भरी योजनाओं की तरह आज यह प्रस्ताव भी ठंडे-बस्ते की अंधेरी गुफाओं में विलीन हो चुका है।

अलबत्ता तथाकथित ‘स्मार्ट’ ही नहीं, देश के तमाम शहरों में एक परिवर्तन जरूर आया है कि झुग्गी-बस्तियों से कुछ हटकर हर शहर में एक छोटा-मोटा ‘केंद्रीय शहर’ या ‘डाउन-टाउन’ दिखाई देने लगा है, जहां दो-तीन आधुनिक इमारतें, उनमें चमचमाती चार-छह दुकानें और एक अदद ‘मॉल’ का होना अवश्यंभावी है। इस मॉल का नक्शा या ‘ब्लू-प्रिंट’ किसी सिंगापुर से लौटे महत्वाकांक्षी बिल्डर द्वारा बनाया दिखता है और इसके भीतर की दुकानें, इसके स्वचालित ‘एलिवाटर’, इसका ‘़फूड कोर्ट’ और सबसे ऊंची मंजिल पर इसके ‘मल्टीप्लेक्स’ सब इस कदर एक जैसे लगते हैं कि एक ‘मॉल’ देख चुकने के बाद दूसरे को देखने की आवश्यकता नहीं होती। यहां शहर की संपन्न मलाईदार ‘क्रीमी लेयर’ के बाशिंदे आपको आरामदेह कुर्सियों पर सिनेमा देखते, पांच सौ में खरीदा बाल्टी भर ‘पॉपकॉर्न’ चबाते या दो सौ रुपये की कॉफी सुड़कते नज़र आ जाएंगे। लेकिन इसके अलावा इन्हें देखने वालों की अथाह भीड़ भी होगी। छुट्टी वाले दिन इसके वातानुकूलित गलियारों में लोगों का इतना बड़ा समंदर दिखेगा कि आपके लिए कदम आगे बढ़ाना भी मुश्किल हो जाएगा। अलबत्ता कुछ ‘मॉल’ के दरवाजों पर आपको वर्दीधारी सिपाही भी मिल जाएंगे, लोगों की मशीन और आंखों से ‘स्कैनिंग’ करते और मैले-कुचैले वालों को दुतकार कर वापस भेजते हुए। लेकिन इसके बावजूद अपने रविवार के सबसे अच्छे कपड़ों में वर्दीधारी को चकमा देने में कामयाब, आदिवासी लड़के-लड़कियों के बड़े गिरोह, अपने लिबास और रंगों से अलग से पहचाने जाने वाले निम्न-वर्गीय राशिद-मोमिन-रोशनारा-हामिद-इफ्तेखार के जत्थे और गांव की ऊब से छूटे पग्गड़धारी आपको उत्साह के साथ एक मंजिल से दूसरी और फिर वहां से बेसमेंट और दुकानों के गलियारों तक चक्कर लगाते दिखाई दे जाएंगे। ये सब इस मॉल के बाजार का हिस्सा या दूर-दूर तक इसके संभावित ग्राहक नहीं, बल्कि गालिब के शब्दों में ‘बाज़ार से गुज़रा हूँ, खरीददार नहीं हूँ’ वाले लोग हैं जो छुट्टी के दिन मन बहलाने, यार-दोस्तों से मिलने या अपनी उमस भरी कोठरियों से निजात पाने या एयरकंडीशनिंग का लुत्फ उठाने के लिए यहां आए हैं और जो पैरोल पर चंद घंटे यहां गुजारने के बाद चुपचाप अपने-अपने कैदखानों में वापस लौट जाएंगे।

क्या यही हमारा वह ‘स्मार्ट सिटी’ है, या कि दूर से झिलमिलाता वह सपना जिसे नजदीक आने पर एक ‘एयर कंडीशंड दोजख’ कहना अधिक मुनासिब होगा?

विषमता आज भारतीय जीवन के हर पहलू में समा चुकी है और इसका सबसे भयावह चेहरा हमें शहरों में मिलता है, जहां सारी सुविधाएं और सहूलियतें एक बारीक से एक प्रतिशत से कम वाले अति संपन्न वर्ग के लिए हैं और शेष निन्यानवे प्रतिशत उसके खिदमदगार हैं जो उनके भीतर रहते हुए भी उसकी तमाम नियामतों से महरूम हैं।

महानगरों के मुख्य स्टेशनों पर बाहर से आने वाली ‘अनरिसर्व्ड’ गाड़ियों में जो खलकत यहां हर रोज उतरती है, उसमें एक बड़ा भाग उन लोगों का होता है जो काम की तलाश में यहां आए हैं। यह दर्शाता है कि वे जहां से आए हैं, वहां काम नहीं है। लेकिन इससे भी बड़ी चिंता यह है कि इस भीड़ में अधिकतर हिस्सा उन परिवारों का होता है जिनमें पुरुषों के अलावा स्त्रियां, बच्चे और उनके साथ ढेर सारी गठरियां और भांडे-असबाब होते हैं। यानी ये सब लौटने के लिए नहीं, बल्कि यहां बसने के लिए आए हैं- अपनी ज़मीन, अपने पुराने रिश्तों, अपनी संस्कृति और अपना सब कुछ छोड़कर। खेती अलाभकारी हो चुकी है, जमीन बंजर और गांव के आसपास कोई रोजगार की संभावना भी नहीं बची है। देश में गरीबी का यह कदाचित सबसे ज्वलंत मसला है। गांव से शहर के इस महाप्रयाण को रोकने का एकमात्र रास्ता यह है कि अपने मूल स्थान पर इन्हें जीविका या जिंदा रहने का कोई उपाय मिले। अपना सबकुछ छोड़कर शहर का रुख करना आसान नहीं होता- ये अंतिम विकल्प की तलाश में यहां आने पर मजबूर हुए हैं।

एक जमाना था जब ये गांव आत्मनिर्भर थे। किसान खेती करते थे और उनकी फसल उनके और उनके परिवार के जीवन-यापन का संतोषजनक जरिया होती थी। जो खेती नहीं करते थे, उन्हें भी गांव हलों की मरम्मत, पानी की नालियों और पाइपों की देखभाल या ट्यूबवेलों, पानी के पंपों के रखरखाव की शक्ल में मिस्त्री, बढ़ई या लोहार का रोजगार देता था। गांव से किसान के पलायन ने सिर्फ खेती को नुक्सान नहीं पहुंचाया, बल्कि उसपर आश्रित इन सारे कारीगरों को भी सड़क पर ला खड़ा किया।

‘स्मार्ट सिटी’ के प्रणेता आपको बतलाएंगे कि एक आदर्श शहर में आवास और दफ्तर के बीच की दूरी बहुत नहीं होनी चाहिए। लेकिन इन ‘टाउन प्लैनर्स’ की आवास और दफ्तर की परिभाषा वी टी स्टेशन पर गठरियां लेकर उतरने वालों की परिभाषा से बहुत अलग है। मुंबई में हीरानंदानी और दूसरे नामी-गिरामी बिल्डरों ने पवई और ठाणे जैसे इलाकों में आवास और दफ्तरों की जो मिली-जुली बहुमंजिला इमारतें खड़ी की हैं, वहां के दो-दो चार-चार करोड़ों वाले फ्लैटों में मोटी तनख्वाह पाने वाले एग्ज़ीक्यूटिव या धनवान व्यापारी ही रह सकते हैं। लेकिन ये धनवान बाशिंदे इस पर भी आत्मनिर्भर नहीं हैं। इन आलीशान घरों में काम करने वाली नौकरानियां, आया, झाडू लगाने वाले, चौकीदार और ड्राइवर इन इमारतों के इर्दगिर्द बसी गंदी झुग्गियों से आते हैं, जहां न पानी-बिजली की माकूल व्यवस्था है, न मल-प्रवाह का कोई पक्का इंतजाम, न शौचालय और न ही दीवारों पर चिपके ‘स्वच्छ भारत’ के पोस्टरों से आगे सफाई की कोई परिकल्पना! ये अनधिकृत झुग्गियां किसी की जिम्मेदारी नहीं है, गो कि इनका समूचा अस्तित्व इन इमारतों और झुग्गीवासियों की पारस्परिक जरूरत पर टिका है। ऐसे में सवाल पूछा जा सकता है कि इन फ्लैटों से करोड़ों कमाने वाले बिल्डरों ने इस आधुनिक कॉलोनी को बसाकर क्या सचमुच शहर के विकास में योगदान दिया है या कि इनका नाम इन गलीज बस्तियों को जन्म देने वाले असामाजिक तत्वों और माफियाओं के साथ लिया जाना चाहिए?

हमारे शहरों की यह दुरभिसंधि दहला देने वाली है, लेकिन इसका समाधान इस कॉरपोरेट जगत, समाजसेवियों और सरकारों में से किसी के पास नजर नहीं आता।

दशकों पहले राज कपूर ने फिल्म ‘श्री चार सौ बीस’ और फिर उसी के लेखक, पत्रकार-फिल्मकार ख्वाजा अहमद अब्बास ने अपनी फिल्म ‘शहर और सपना’ में इन महानगरों की संरचना, यहां के काले धन और यहां के आवास को लेकर कई असुविधाजनक सवाल उठाए थे, जिनमें से अधिकांश आज भी अनुत्तरित हैं और शहरों में बेहिसाब लोगों का आना तथा आने के बाद किसी छत की तलाश में पाइपों के भीतर, स्टेशनों के प्लेटफार्म और फुटपाथों पर दिन गुजारना उसी तरह जारी है। गांव में खेती नष्ट हो रही है और शहर अपनी क्षमता से कहीं अधिक आबादी के वजन में फटने को हैं- ऐसे में जरूरतमंद आखिर जाए तो जाए कहां?

बिल्डिंगों में दड़बे फिट करने की यह संस्कृति सिंगापुर से हांगकांग और वहां से आगे मुंबई से आगे अब देश के छोटे-छोटे शहरों तक अपना साम्राज्य फैला चुकी है। दर्जनों ‘स्मार्ट सिटी’ घोषित किए जा चुके हैं जो अपने भीतर इन गंदी झुग्गियों को समेटे अब एक जैसे निर्जीव कंक्रीट और कचरे के बेजान जंगलों में तब्दील होने के इंतजार में हैं। चेक लेखक इवान क्लीमा का उपन्यास ‘लव एंड गार्बेज’ इसी समस्या के इर्दगिर्द घूमता है। मेरी अपनी पुस्तक ‘कंक्रीट के जंगल में गुम होते शहर’ नष्ट होते शहरों की इस समस्या के कई पहलुओं को छूती है! लेकिन किताबों में इस विकराल समस्या का हल ढूंढना खामखयाली होगी, ऐसा मेरा मानना है!

602 गेटवे प्लाज़ा, हीरानंदानी गार्डन्स, पवई, मुंबई400076 मो. 8169449650

 

 

शहरगांव विभाजन चरम पर है

आज दुनिया के गरीब देशों में सबसे महत्वपूर्ण वर्ग संघर्ष श्रम और पूंजी के बीच नहीं है। न ही यह विदेशी और राष्ट्रीय हितों के बीच है। यह ग्रामीण लोगों और शहरी लोगों के बीच है। ग्रामीण क्षेत्र में गरीबी अधिक होती है और संभावनाओं से भरी प्रगति के निम्न लागत वाले स्रोत होते हैं। लेकिन शहरी क्षेत्र में संगठन, शक्ति और मुखरता अधिक होती है। इसलिए शहरी लोग ग्रामीण क्षेत्रों पर विजय पाने में सफल रहते हैं।

माइकल लिप्टन, ‘अर्बन बायस थ्योरीके लेखक

 

महानगरीय विस्तार में मनुष्य के आत्मजगत का विलोप हो रहा है

विजय कुमार
कविआलोचकनिबंधकारअनुवादक। कविता व आलोचना की अब तक नौ पुस्तकें प्रकाशित। अद्यतन पुस्तक एडवर्ड सईद : जनबौद्धिक की भूमिका’ (विचार)

(1)इतिहास की जहां तक स्मृति है, दुनिया भर में ज्यादातर आबादी गांवों में ही जीवन निर्वाह करती रही है। मनुष्यता के इतिहास में कभी भी 20 लाख से अधिक की आबादी के शहर नहीं थे। 19वीं सदी तक दुनिया की केवल 8% आबादी शहरों में रहती थी। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के अनुसार 2030 तक दुनिया की कुल 60% आबादी शहरों में रहने लगेगी।

शहरीकरण का अर्थ कृषि आधारित सभ्यता का औद्योगिक सभ्यता में रूपांतरण है। आज भारत में 50 करोड़ से अधिक की आबादी शहरों में रह रही है और प्रतिवर्ष इसमें दो प्रतिशत की वृद्धि हो रही है। विश्व बैंक कहता है कि इस दशक के अंत तक हमारी 63 करोड़ आबादी शहरी हो जाएगी। मौजूदा समय में गांव के उजड़ने और शहरीकरण की प्रक्रिया को नीति निर्माता विकास की एक अनिवार्य स्थिति मान चुके हैं। मुंबई 2 करोड़ 50 लाख की आबादी वाला महानगर है। दिल्ली की आबादी एक करोड़ 60 लाख और कोलकाता की आबादी एक करोड़ 40 लाख है। इन आंकड़ों के पीछे का समाजशास्त्र एक विवेचना चाहता है।

औद्योगीकरण और शहरीकरण की इन प्रक्रियाओं ने आर्थिक, प्रौद्योगिकी और पर्यावरण के क्षेत्र में अभूतपूर्व परिवर्तनों को जन्म दिया है। बड़े शहरों का सीमेंट के जंगलों में तब्दील होते जाना, आसपास के कस्बों और गांवों के इलाकों को लीलते जाना,  दूर-दूर तक उपनगरों का विस्तार, निरंतर बढ़ती हुई आबादी, भीड़भाड़, जन संकुल सार्वजनिक स्थल, प्रकृति का उजड़ना, पर्यावरण और वनस्पति का विनाश, जल और वायु प्रदूषण, परिवहन साधनों पर बढ़ता हुआ दबाव, भू संपदा का निरंतर संकुचन, आवास की भारी कमी, असंगठित श्रम शक्ति के लिए जीवन यापन की नारकीय स्थितियां, फैलती हुई झुग्गियां, पेय जल, स्वास्थ्य और बुनियादी सुविधाओं के संकट आदि आदि तमाम स्थितियां हमारे आधुनिकता बोध में भीषण सामाजिक विषमताओं और विरोधाभासों की गवाही दे रही हैं।

उल्लेखनीय है कि शहर केवल एक भू-दृश्य नहीं होता। उसकी भौगोलिक काया भले ही उसकी विशाल इमारतों, बाजार, सड़कों, चौराहों, भारी यातायात, फ्लाई ओवरों, शॉपिंग मॉल, वातानुकूलित भव्य कार्यालयों, मिलों-कारखानों से निर्मित होती हो, पर उस शहर का जो अंतर जगत और उसका समय होता है वह उसकी इस सारी पदार्थमयता के बीच से दिखाई देता रहता है। नागरिक जीवन के सारे विरोधाभास, तनाव, श्रमशक्ति के बिखरे हुए रूप, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक बदहाली के तमाम दृश्य किसी पैबंद की तरह इस सारी भव्यता और चमक-दमक के बीच से झांकते रहते हैं। नगरीकरण की प्रक्रिया भले ही आधुनिकता और विकास के कुछ मिथकों को रचती हो, पर सभ्यता और समय के सारे अंतर्विरोध, जीवन स्थितियों की भयावह विषमताएं, सामाजिक असमानताएं, मनुष्य की कोई आरोपित सामूहिकता और उसके अकेले पड़ते जाने की कटु सचाइयां एक शहर के अर्थ को रचती हैं।

(2)नगरीकरण की प्रक्रिया को हमारे समय में सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक रूपांतरण का सबसे बड़ा ‘ड्राइविंग फोर्स’ या प्रेरकशक्ति   बताया जा रहा है। लेकिन कारपोरेट अर्थव्यवस्था और बाजार उन्मुख विकास की राह पर चलते हुए   जो समय और स्थितियां आज विकसित हो रही हैं उनमें मनुष्य तत्व लगभग उपेक्षित है। विकास योजनाओं के लाभ में हिस्सेदार बनना जनसंख्या के एक बड़े हिस्से के लिए अभी भी एक  सपना ही है।

मुंबई जैसे शहर की ढाई करोड़ की आबादी में शहर की 80% से अधिक  आबादी गंदी बस्तियों, झुग्गियों, चालों में रहने को मजबूर है। ये रिहाइशें शहर की इस आधी आबादी को, शहर के कुल इलाके की 12.85 प्रतिशत जमीन पर खपा लेती हैं। प्रतिवर्ष चार प्रतिशत अतिरिक्त लोग इन शहरों की गरीब बस्तियों में शरण लेने पहुंच जाते हैं। नारकीय स्थितियों में बिना आवश्यक आधारभूत नागरिक सुविधाओं के, बिना पेयजल, बिजली, साफ सफाई, ड्रेनेज, शौचालयों, सड़कों, सुरक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के लाखों लोग झुग्गी-झोंपड़ियों में रह रहे हैं।  फुटपाथों पर रैन बसेरा करने वालों की तो एक अलग  कहानी है।

मुंबई की धारावी जैसी गंदी बस्ती में, जिसे एशिया का सबसे बड़ा ‘स्लम’ कहा जाता है, करीब 10 लाख लोग 2.1 वर्ग किलोमीटर इलाके में रहे हैं। एक जानकारी के अनुसार धारावी में प्रति एकड़ जमीन पर करीब 18 हजार लोग रहते हैं। 10  बाई 10 फुट की अंधकार, सीलन और बदबू भरी तंग कोठरियों में, जिन्हें मुंबई की भाषा में ‘खोली’ कहा जाता है, वहां एक-एक ‘खोली’ में दर्जनों लोगों का परिवार एक साथ रहता दिखाई देता है। पतली-पतली गलियां, खुले गटर, बदबू, कीचड़, दुर्गंध, सार्वजनिक नलों पर पानी भरने के लिए लंबी-लंबी कतारें, अभाव  और बदहाली का जीवन, छोटे-छोटे कमरों में चलते कुटीर उद्योग, ये अनधिकृत उत्पादन इकाइयां और उनमें लगी हुई असंगठित श्रम शक्ति और इस सबको घेरता हुआ तमाम तरह की आपराधिक और असामाजिक गतिविधियों वाला दादाओं, गुंडों, माफियाओं का एक खतरनाक संसार है।

धारावी जैसी बस्ती विकासशील अर्थव्यवस्था वाले देश के एक सबसे अधिक आधुनिक कहे जाने वाले शहर में विकास के मिथक के नीचे पसरे हुए एक नारकीय तलघर की सचाई का बयान करती है।

अपनी जड़ों से उन्मूलित, बेहाल, असंगठित और सस्ते में अपना श्रम बेच कर किसी तरह से गुजर बसर करने वाली तलछट का जीवन जीती, देश के विभिन्न हिस्सों से आई प्रवासी श्रमिकों  की यह आबादी सालों साल महानगर की इन गंदी बस्तियों में जीती रहती है। औपनिवेशिक  काल में ये गरीब बस्तियां जिस खाली पड़ी हुई दलदली और उपेक्षित जमीन पर आबाद हुई थीं,  उस  जमीन की कीमत इस बाजार अर्थव्यवस्था में बढ़ती गई है। निर्धन आबादी वाले वे भू-खंड  आज विकास के शक्ति पुरुषों और मुनाफाखोरों की आंख की किरकिरी बन गए हैं। बड़े-बड़े भवन निर्माता राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों, पुलिस और माफिया के साथ साठ-गांठ रच कर किसी तरह इन स्लम बस्तियों को खाली करवा देने की  जुगत में लगे रहते हैं। और फिर उन खाली जमीनों पर साधन संपन्न लोगों के लिए शानदार इमारतें खड़ी होती जाती हैं। इसे हम आधुनिक  प्रबंधकीय भाषा में जमीन का ‘रिडेवलपमेंट’ कह रहे हैं।

उत्पादन स्थलों का केंद्रीकरण, गांव में कृषि सभ्यता का उजड़ना, ग्रामीण आबादी का रोजगार के लिए शहरों की ओर पलायन और शहरी संरचनाओं में संसाधनों की कमी विकास के किसी भी समावेशी नीतिगत संकल्पना के लिए एक चुनौती है।

बहुत सारे विषमताग्रस्त रूप आज  जिस तरह हमारे समय में बन रहे हैं, उसमें समाज के विभिन्न वर्ग जिन शक्लों में एक दूसरे के साथ उपस्थित हैं, आय के वितरण और जीवन जीने  की स्थितियों के बीच जो भीषण  खाइयां हैं, वर्ग समूहों की एक दूसरे के साथ जिस तरह की सहभागिता और व्यवहार के ढांचे बन रहे हैं, उनमें  व्याप्त असमानता, तनाव, मतभेद, टकराहट के ये तमाम मसले, ये सारे संदर्भ हमारे समय में एक महानगरीय यथार्थ को रचते हैं।

लेकिन नगरीकरण की इस प्रक्रिया में शक्ति का हमारा तंत्र शहर को सभ्यता, विकास और प्रगति के  नैरेटिव के मोहक रूपों में प्रस्तुत करता रहता है। गांव से शहरों की ओर आबादी का आगमन उच्च उत्पादकता और एक समग्र आर्थिक विकास से जुडी हुई किसी अनिवार्य सचाई के रूप में माना जाता है। इस बात की अनदेखी की जाती है कि शहर की संरचना एक ऑर्गेनिक  यूनिट है, जिसमें विभिन्न तत्व समाहित हैं और इन विषम तत्वों की सहवर्तिता के जो जटिल रूप बनते चले जाते हैं, वे विकास की पूर्व निर्धारित संकल्पनाओं और तयशुदा आयोजनाओं द्वारा नहीं संभाले जा सकते।

(3)असंतुलित शहरी विकास अधिकाधिक सामाजिक विभेदों को जन्म देता है। यह कहा जाना चाहिए कि भारत में निर्धनता का शहरीकरण हुआ है। शहर जैसे-जैसे फैलते गए हैं उनके भीतर वर्गों के बीच के तमाम अंतराल भी बढ़ते गए हैं। ये अंतराल आमदनी के स्तर, कामकाज की स्थितियों, रहन-सहन, नागरिक सुविधाओं, स्वास्थ्य और शिक्षा के अवसरों और जीवन यापन की गरिमा के बीच बढ़ते गए हैं।

मुंबई जैसे शहर का, जिसे देश की आर्थिक राजधानी कहा जाता है, सकल राष्ट्रीय आय में  33% योगदान है और देश का 40% विदेश व्यापार इस महानगर से होता है, लेकिन इसी मुंबई में शहर की आबादी का 20% हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे का जीवन यापन करता है। हम इस तथ्य से शहर में पनपती वर्गीय विषमताओं का अनुमान लगा सकते हैं कि मुंबई जैसे भारत के अति आधुनिक कहे जाने वाले शहर में आबादी के लगभग 10% हिस्से में प्रति व्यक्ति औसत आय 551 रुपये प्रति माह से भी कम है, जबकि शहर में प्रति व्यक्ति औसत आय 65,000 रु. प्रति माह बताई गई है। इस शहर में एक तरफ गगनचुंबी इमारतें, अरबपतियों के आवास,  महंगी कारें, शेयर मार्केट में रोज करोड़ों के वारे-न्यारे, पंच तारा होटलों, फैशनेबल माल और क्लबों की रौनक है तो दूसरी तरफ झुग्गियों का नरक है।

गांव से विस्थापित होकर आने वाले लाखों लोग अल्पसाधनों, बेरोजगारी, शोषण के कुचक्र और व्यवस्था के दमन को झेलते हैं। लेकिन कमोबेश यह स्थिति दूसरे महानगरों की भी है। ज्यादातर बड़े शहरों की संरचनाएं  इन शहरों के अनियंत्रित विस्तार को झेलने में चरमरा रही हैं। इन जीवन स्थितियों के मानवीय जीवन में सामाजिक और मनोवैज्ञानिक प्रभाव क्या पड़ रहे हैं वह एक अलग से चर्चा का विषय है।

(4)और (5)यह कहा जाना चाहिए कि परिवर्तन की प्रक्रिया अवश्यंभावी है। आजीविका के लिए ग्रामीण इलाकों से विस्थापित होकर शहरों की ओर पलायन करने की स्थिति कोई नई नहीं है। पिछली सदी में 30 के दशक में, भारी मंदी के दौर में, बड़ी संख्या में आबादी का जीवन यापन के अवसरों की खोज में शहरों की ओर पलायन हुआ।

दूसरे महायुद्ध के दौरान औद्योगीकरण के समय में बड़ी संख्या में आबादी शहरों की ओर आई। इसी तरह 90 के दशक में उदारीकरण के साथ करोड़ों लोग बड़े शहरों की ओर आए हैं। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, बेंगलुरु जैसे शहरों का अनियंत्रित विस्तार इसका उदाहरण है। लेकिन आज के शहरों में मनुष्य के ‘एलियनेशन’ की प्रक्रिया की एक नई शक्ल है।  वह पिछले  दौर के निर्वासन से अलग है। विनिर्माण और सेवा क्षेत्र के विकास के साथ शहरों पर जनसंख्या का दबाव और अधिक बढ़ा है।

लेकिन अधिकांश निर्धन जनता इस नई शहरी अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में उभरते रोजगार के लाभ उठाने में सक्षम नहीं है, क्योंकि आर्थिक क्षेत्र की संरचना में आए नए बदलाव, रोजगार के अवसरों में  कमी, अकुशल कर्मियों और शिक्षा स्तर के बीच की असंगति ने हमारे समय की सबसे बड़ी विडंबनाओं को जन्म दिया है। इस असंगति ने शोषण की नई स्थितियों और असंगठित श्रम को भी बढ़ावा दिया है। शहरों की उत्पादकता में असंगठित क्षेत्र में कार्य कर रहे श्रमिकों को न्यूनतम मजदूरी अधिनियम या कारखाना अधिनियम जैसे कानून का लाभ नहीं मिल पाता। ये विस्थापित श्रमिक ठेकेदार के यहां अल्प मजदूरी पर अपना श्रम बेचने को विवश हैं।

असंगठित  और अनौपचारिक श्रम शक्ति के लिए उचित सामाजिक सुरक्षा का अभाव एक नया सच है। प्रवासन संबंधी समस्या का अर्थशास्त्र के साथ सामाजिक सांस्कृतिक पक्ष भी है। इस तथाकथित विकासशील अर्थव्यवस्था की गतिशीलता श्रमिक वर्ग के मनोजगत के आंतरिक निर्वासन से जुड़ी हुई है।

मुंबई जैसे शहर का उदाहरण लें तो पिछली सदी में इस शहर के औद्योगिक विकास के साथ प्रवासी श्रमिकों के लिए सूती वस्त्र मिलों और कारखानों में रोजगार के नए अवसर पैदा हुए थे। प्रवासी श्रमिकों के तब अपने संगठन भी बने और उनके बीच उस दौर में एक सामुदायिक  चेतना का विकास हुआ। परदेस में श्रमिकों का एक नई तरह का सांस्कृतिक जगत भी विकसित हुआ था। राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन में इस मजदूर चेतना की एक बड़ी भूमिका थी। लेकिन 90 के दशक के बाद मिलों, कारखानों वाले विनिर्माण उद्योगों का विघटन हुआ। अर्थ जगत में उत्पादन के बजाय सेवा क्षेत्र प्रमुख होता गया। वित्त सेवाओं, सूचना प्रौद्योगिकी और संचार की आर्थिक गतिविधियों में केवल प्रशिक्षित कर्मियों के लिए अवसर पैदा हुए।

सवाल उठता है, उस अकुशल विस्थापित श्रम शक्ति के लिए हमारे शहरों में नई परिस्थितियों में कैसा वातावरण  बना  है? इन साधनहीन, अशिक्षित बेरोजगार लोगों  की भी तो अपनी आकांक्षाएं और स्वप्न हैं। वे अब कहां खप सकते हैं? अच्छी या बुरी जैसी भी नौकरी या काम धंधा मिले, इन्हें गुजारा तो इन्हीं शहरों में करना है। लौटने की तो अब कोई राह नहीं है। इन शहरों में सारी आपाधापी और जद्दोजहद के बीच उनके सामने दो ही संभावनाएं हैं -या तो वे विकास की इस प्रक्रिया में कालांतर में एक नए मध्य वर्ग में रूपांतरित हो जाएंगे या फिर अभाव, हिंसा और अपराध के ऐसे तलघर में खो जाएंगे जहां बुनियादी मानवीय गुणों के बचे रहने की कम संभावनाएं होती हैं।

एक विस्थापित मनुष्य के लिए अपने पुरखों की जमीन, खेत-खलिहान, पुश्तैनी कारीगरी, अपने पहाड़ और नदियां, ताल-तलैया, ऋतु और पर्व, लोक विश्वास और अनुष्ठानों वाली वह सामुदायिक जीवन शैली तब एक रूमानी स्मृति से अधिक नहीं रह जाती। वे गांव  भी अब उस तरह के कहां बच पा रहे।

आर्थिक उदारीकरण के बाद आज हमारे यहां जो शहरीकरण हो रहा है उसमें  ग्रामीण आबादी के शहरों की ओर इस प्रस्थान को विकास का सूचक माना जाए या 21वीं सदी में पूंजी की एक नई अवस्था और सामाजिक आर्थिक ढांचे में  क्षरण की वजह से शहर की ओर खदेड़  दिए  गए एक निरुपाय मनुष्य का एक नई तरह का विस्थापन? यह समाजशास्त्रीय अध्ययन का विषय हो सकता है कि स्मृतिहीन शहरी विस्तार में आज मनुष्य के आत्मजगत के विलोप, उसके  केवल एक संख्या में बदल कर रह जाने, उसके ‘एलियनेशन’ या ‘अजनबीपन’ के ये नए रूप पिछली सदी के बेगानेपन से किस हद तक अलग हैं।

(6)मुझे शहरी जीवन के उस अप्रतिम विचारक वाल्टर बेंजामिन का कथन याद आ रहा है कि सभ्यता के हर नए सोपान में बर्बरता की कुछ कहानियां छिपी हुई हैं। यह कहना होगा कि विकास एक मायावी शब्द है। महानगर के बहुस्तरीय यथार्थ, उसमें  व्याप्त अमानवीयकरण की स्थितियों,  विषमताओं, विभेदों और मनुष्य के निर्वासन की कथा कहने वाले हमारे कितने ही चर्चित उपन्यासों के नाम याद आ रहे हैं- भाऊ पाध्ये का उपन्यास ‘वैतागवाड़ी’, किरण नगरकर का ‘रावन एंड इडी’, जयंत दलवी का ‘महिम ची खाड़ी’ या जगदंबा प्रसाद दीक्षित का उपन्यास ‘मुर्दाघर’।

लेकिन शहरी जीवन की विषमताओं का पहला बड़ा चितेरा तो चार्ल्स डिकेंस को ही कहा जाएगा। उनके उपन्यासों में चित्रित 19वीं सदी का वह इंग्लैंड, वहां तेजी से होता हुआ औद्योगीकरण और शहरीकरण, सामाजिक संरचना में आते बदलाव, अमीरों और गरीबों के बीच बढ़ती हुई खाई, कल-कारखानों में लगे हुए मजदूरों की भयावह स्थितियां, उनकी बस्तियों का नरक- उपन्यास में आए उस यथार्थ को क्या हम कभी भूल सकते हैं?

डिकेंस का उपन्यास ‘ओलिवर ट्विस्ट’ शहरी निर्धनों की दुरवस्था की एक महागाथा है। वहां श्रमिकों के कार्यस्थल एक प्रकार के उनके यातनागृह हैं। कमर तोड़ देने वाला  श्रम,  काम के लंबे घंटे और अमानवीय व्यवहार। इस उपन्यास में बाल श्रमिकों की स्थिति, मजदूरी की जगहों पर इन बच्चों के भावात्मक और शारीरिक शोषण, उनके चारों ओर हिंसा, भूख और अपराध जगत की घेराबंदी के दिल हिला देने वाले चित्र हैं। यह 19वीं सदी का इंग्लैंड है, जिसमें तीव्र औद्योगीकरण और शहरीकरण ने श्रमिकों के विस्थापन और उनकी नारकीय बस्तियों को जन्म दिया है। अमानवीयकरण की एक ऐसी प्रक्रिया शोषण और अत्याचार को न्याय संगत ठहराती है।

औद्योगीकरण और शहरीकरण के साथ आए इस अमानवीयकरण और मनुष्य के निर्वासन की ये तमाम प्रक्रियाएं हमारे समय में आकर और अधिक सूक्ष्म और जटिल हुई हैं।

302, महावीर रचना, सेक्टर15 सीबीडी बेलापुर, नवी मुंबई 400614  मो. 9820370825

 

 

शहर हैं बढ़ती गर्मी के द्वीप

विगत कुछ वर्षों में शहरी ताप द्वीप चिंता के बड़े कारण बन गए हैं। शहरी ताप द्वीप तब बनता है जब औद्योगिक क्षेत्र ताप को सोख लेता है और उसे ठंडा नहीं होने देता। ग्रामीण क्षेत्रों में पहुँचने वाली सौर ऊर्जा मिट्टी और पौधे में विद्यमान पानी को वाष्पित करती है और उसका ताप कम हो जाता है, जबकि शहरों में पौधे और खुली मिट्टी ज्यादा नहीं होती। इसकी वजह से सौर ऊर्जा को मकान और डामर सोखते हैं, जिससे जमीन की सतह पर अधिक तापमान बढ़ जाता है। वाहन, कारखाने तथा घरों, ऑफिसों एवं कारखानों में लगाए गए शीत-ताप नियंत्रित करने वाले यंत्र अधिक ताप पैदा करते हैं।

एचएस पार्क, भौगोलिक पर्यावरणविद

 

महानगर में नागरिक समाज गहरे संकट से गुजर रहा है

भगवानदास मोरवाल
हिंदी के वरिष्ठ और लोकप्रिङ्म कथाकार। उपन्ङ्मास काला पहाड़के लिए विशेष रूप से चर्चित। अद्यतन उपन्यास काँस

(1)यह सही है कि हमारे महानगरों में विषमताएं सबसे अधिक फैली हैं, विशेषकर पिछले तीन दशकों में, जबसे आर्थिक उदारीकरण ने अपने पैर पसारे हैं। जैसे-जैसे शहरी नागरिक आर्थिक रूप से संपन्न और समृद्ध होता गया, वह उतना ही संवेदनहीन और मशीनी भी होता गया। सच यह है कि महानगरीकरण के चलते भारतीय जीवन से सामाजिकता का तेजी से क्षरण होता गया, जिसका परिणाम यह हुआ कि महानगरों में रहने वाला व्यक्ति जरूरत से अधिक स्वार्थी होता चला गया। आपसी सौहार्द केवल कुछ अवसरों पर नजर आता है।

सबसे खतरनाक तो व्यक्ति का तेजी से सांप्रदायिक होना है। यदि आप महानगर की बहुमंजिला हाउसिंग सोसाइटीज की संस्कृति का समाजशास्त्रीय अध्ययन करेंगे तो आपको ऐसी चौंकाने वाली प्रवृत्तियां दिखाई देंगी, जिन्होंने नागरिक समाज और जीवन मूल्यों की परिभाषा ही पलट दी है। बहुमंजिला हाउसिंग सोसाइटीज की पूरी संस्कृति अब मिली-जुली नहीं, बल्कि सांप्रदायिक हो चुकी है। जिस तेजी से महानगरीकरण बढ़ा है, उसी तेजी से शहरी भारतीय जीवन का सामाजिक-सांस्कृतिक स्वरूप भी बदला है। इसे उन हाउसिंग सोसाइटीज के रूप में देखा जा सकता जिनका समावेशी जीवन एकदम जाति और धर्म में बंट चुका है।

(2)यह अपने आपमें बड़ा रोचक प्रश्न है कि महानगरों में नागरिक समाज का यथार्थ क्या है? दरअसल, हमें महानगरीय नागरिक समाज को गहरे से समझने की जरूरत है। जिस नागरिक समाज से हमारा आशय है, वह समाज कई वर्गों में बंटा हुआ है। एक तरफ बहुमंजिला नागरिक समाज है, तो दूसरी तरफ साधारण जीवन-यापन करने वाला वह निम्नवर्गीय समाज है जो आज भी अपमान और उपेक्षा का शिकार है।

इसके अलावा एक समाज वह है जो कभी महानगरों की सीमा से बाहर था और उसे ग्रामीण-अर्धशहरी समाज कह सकते हैं। जब तक इस समाज का शहरीकरण नहीं हुआ था, तब तक एक हद तक इनके जीवन-मूल्य और सामाजिकता बची हुई थी। लेकिन जिस तेजी से इन क्षेत्रों की उपजाऊ जमीन ऊंचे दामों में बिकने लगी, ये भी बहुमंजिला नागरिक मानसिकता का एक हिस्सा बन गए और किसान पूरी तरह व्यवसायी में बदल गया। इस तरह इन तीनों समाज या कहिए वर्गों में वैचारिक और सामाजिक टकराव किसी-न-किसी रूप में देखने को मिलता रहता है। जहां तक जीवन-मूल्यों की बात है, वे आज सभी वर्गों के बदल चुके हैं।

आर्थिक संपन्नता ने महानगरीय नागरिक समाज की प्राथमिकताएं ही बदल दी हैं। उनके सरोकार बदल दिए हैं। अब उनकी प्राथमिकताओं में साहित्य और कला का तेजी से स्पेस कम हुआ है। लेकिन हां, इन तीनों महानगरीय नागरिक समाज की बड़ी विशेषता यह है कि सांप्रदायिक धुर्वीकरण के सबसे बड़े हथियार बन चुके हैं।

(3)यहां एक बड़ा सवाल यह है कि महानगर के लोगों के महानगरीय गुण क्या हों? मेरी दृष्टि में यह गुण है सांस्कृतिक और सामाजिक नागरिक चेतना। इधर कुछ दशकों और वर्षों से एक नए नागरिक समाज का उदय हुआ है, जिसे सिविल सोसाइटी यानी नागरिक संगठन कहते हैं। एक समय इस संगठन की समाज में बड़ी भूमिका होती थी, लेकिन पिछले एक दशक में इनकी भूमिका भी लगभग बदल चुकी है। आज इनकी भूमिका बड़ी-बड़ी एनजीओ बनाकर समाज में एक ठसक पैदा करने की रही है। ये नरक मसीहाई नागरिक संगठन सिवाय हाथों में जलती हुई मोमबत्तियां थामने वाले दस्तों के कुछ नहीं है। एक तरह से ये भी व्यवस्था के पक्षकार होकर रह गए हैं। जिस बढ़ती सामाजिक-लैंगिक खाई को पाटने में इनकी भूमिका होनी चाहिए, अब ये भी इसके मात्र दर्शक बनकर रह गए हैं। महानगरीयता के जिन गुणों का अभाव तेजी से बदला है, वह है इनके सरोकारहीन होने के साथ-साथ इनके दायित्व बोध में कमी का होना।

(4)दरअसल, सबसे अधिक जिस विषय पर बहस होनी चाहिए, वही सबसे अधिक उपेक्षित है अर्थात पलायन। अस्सी के दशक में आर्थिक असुरक्षा के चलते जिस तरह गांव-देहातों से शहरों की ओर पलायन हुआ, दूसरे शब्दों में कहें तो जो भगदड़ मची, उसके फलस्वरूप एक बड़ी आबादी शहरी नागरिकों में तब्दील हो गई। लेकिन हमें जो महानगर से छोटे शहरों या गांवों की ओर पलायन दिखाई दे रहा है, वह वास्तव में पलायन नहीं है। वह महानगरों और बड़े शहरों का विस्तार है।

एक बात और, बड़े हद तक अब यह पलायन थमा है। कारण यह है कि जिन प्रौद्योगिक सुविधाओं से गांव-देहात वंचित थे, वे अब आसानी से उन्हें प्राप्त होने लगी है। जिस तेजी से महानगरों का विस्तार हो रहा है, उसके चलते गांव-देहातों से इसलिए रुका है कि महानगरों का जो चित्र हमारी स्मृतियों और कल्पना में उभरते हैं, वे नब्बे के दशक तक के हैं। बदलते महानगरों के स्वरूपों का यह पलायन स्थायी की अपेक्षा अस्थायी रह गया है। मजदूर वर्ग अब शहरों में स्थाई रूप से रहने के बजाय कमाया हुआ धन अपने गांव-देहातों में ले जाने लगा है।

बीसवीं सदी के दूसरे दशक में करोना ने गांव-देहातों से आए मजदूर और खेतिहर वर्ग की सोच पूरी तरह बदल दी। कोरोना में जिस तरह की मुश्किलों का सामना इन वर्गों  को करना पड़ा, उससे महानगरीय और शहरी जीवन से न केवल इन्हें वितृष्णा होने लगी, बल्कि उनका मोहभंग भी हुआ है। कारण इसका यह है कि उसे यह बात अच्छी तरह समझ में आ गई कि शहर रोजगार या मात्र जीवन-यापन के लिए तो ठीक है, लेकिन यहां आकर अपने जीवन में वह बदलाव नहीं ला सकता, जिसके लिए महानगर या बड़े शहरों के सपने दिखाए जाते हैं।

(5)आज सबसे बड़ी चुनौती यही सामाजिक-लैंगिक असमानता और स्थानीय सांस्कृतिक वर्चस्व के बीच बढ़ती खाई है। इसका बड़ा कुरूप चेहरा हमें तब दिखाई देता है जब आर्थिक रूप से संपन्न किसी यूरोपीय या विकसित देश का प्रधानमंत्री या राष्ट्र्पति इस देश का भ्रमण करता है। हम देखते हैं कि उनके सत्कार में एक ऐसी झूठी भारतीयता का दिखावा किया जाता है, जिसकी कोई जरूरत नहीं होती। जिन रास्तों से ये विदेशी मेहमान गुजरते हैं, उन रास्तों के किनारे बसी बस्तियों को ढांप दिया जाता है। दरअसल, ऐसा हमारी लचर नीतियों और योजनाओं के चलते हुआ है। ये बस्तियां चूंकि भारतीय राजनीति के लिए एक बड़ा वोट बैंक है, इसलिए जानबूझ कर उनके पुनर्वास की ठोस योजनाएं नहीं बनाई जातीं। आसपास स्थायी और पुराने गांवों की स्थिति भी इसी तरह की है। बिजली, पानी, सीवरेज जैसी बुनयादी सुविधाएं पूरी तरह न तो योजनाबद्ध तरीके से बसाई गई कॉलोनी और हाउसिंग सोसाइटीज को मिल पाती हैं, न अव्यवस्थित रूप से फैली बस्तियों और आसपास के गांवों को मिल पाती हैं। इसका सबसे बड़ा दबाव प्राकृतिक संसाधनों, जैसे पानी पर पड़ रहा है।

(6) यह सही है कि मैं लंबे समय से देश की राजधानी में रह रहा हूँ और मेरे देखते-देखते इस महानगर ने जो रूप धारण किया है, मैं उसका गवाह रहा हूँ। 1984 के सिख विरोधी दंगों तक दिल्ली के उन्हीं आसपास के गांवों की जमीन जिसका कोई मोल नहीं था, आज सोने के भाव में बिक रही है। मुझे याद है इसी दौरान जिस उपनगर, जिसे आज द्वारका कहा जाता है, उसके पास पालम गांव की बहुत बड़ी पंचायती भूमि को बीस सूत्रीय कार्यक्रम के तहत गांव के दलितों और स्थानीय लोगों के लिए बांट दिया गया था। इसे सालों तक हरिजन बस्ती के नाम से जाना जाता था। परंतु जब इस द्वारका (जिसका नाम पहले पप्पनकलां था) उपनगर को बसाने की योजना बनी, तो इस हरिजन बस्ती की किस्मत बदल गई। आज स्थिति यह है कि इसका नाम एक शहीद के नाम पर रामफल चौक तो कर ही दिया, बल्कि इसका ऐश्वर्य और वैभव देखते ही बनता है। इसे देखकर उत्तर भारत में प्रचलित, वह भी दिल्ली के आसपास यह कहावत याद आती है कि आज समाज में दो चीजों के ही भाव बढ़े हैं-एक जमीन की और दूसरा कमीन की। यह कहावत सुनने में भले ही कुछ-कुछ अश्लील लगती हो, लेकिन यह वास्तविकता है कि आज जमीन और दुर्जन की कीमत सबसे अधिक बढ़ी है।

मेरी नजर में अभी तक ऐसा कोई उपन्यास नहीं आया है जिसे हम महानगर के वर्तमान संकट का प्रतिनिधि उपन्यास कहें। हां, महानगरीय जीवन के नाम पर कुछ मध्यवर्गीय उपन्यास अवश्य लिखे गए हैं। अभी ऐसे उपन्यास का हमें इंतजार है।

डब्ल्यू जेड745जी, दादा देव रोड, बाटा चौक के करीब, पालम, नई दिल्ली110045मो.9971817173

 

 

भारत की 40.76 प्रतिशत आबादी शहरों में होगी

आजादी के बाद भारत में मिश्रित अर्थव्यवस्था अपनाने के फलस्वरूप शहरीकरण की प्रक्रिया तेजी से बढ़ने लगी। इसकी वजह से निजी क्षेत्र के विकास को बढ़ावा मिला। 1901 में हुई जनगणना के अनुसार भारत में शहरी क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की जनसंख्या 11.4 प्रतिशत थी, जो 2001 की जनगणना के समय बढ़कर 28.53 प्रतिशत हो गई थी और विश्व बैंक के आकलन के अनुसार 2017 में वह 34 प्रतिशत थी। संयुक्त राष्ट्र के एक सर्वेक्षण के अनुसार उम्मीद की जा रही है कि 2023 तक भारत की 40.76 प्रतिशत आबादी शहरों में रहने लगेगी।

हिंदुस्तान टाइम्स

 

महानगरों में अब दक्षिणपंथ और भूमंडलीय सोच के बीच तनाव उभर रहा है

विनोद शाही
वरिष्ठ आलोचक और नाटककार। आलोचना की लगभग तीस पुस्तकें। अद्यतन पुस्तक संस्कृति और राजनीति

(1)वाल्टर बेंजामिन ने महानगरों की आलोकित गगन-चुंबी इमारतों को देखते हुए लक्ष्य किया कि वे जितनी अधिक चकाचौंध पैदा करती हैं, उतना ही हमें आसपास के परिदृश्य के प्रति अंधा बनाती हैं। इस बात को एक अन्य अर्थ में भी समझा जा सकता है। महानगरों की समृद्धि का अनुपात जितना बढ़ता जाता है, उसके हाशिए उसी अनुपात में सर्वाधिक दरिद्र झोपड़ियों से भरते जाते हैं।

वजह साफ है। महानगरों पर जितना धन बरसता है, वहां रहना उतना ही महंगा होता जाता है। सामान्य आय में किसी तरह गुजर-बसर करने वालों को सिर छिपाने के लिए, महानगरों के ‘सबर्व’ में अपना ठौर-ठिकाना ढूंढ़ना पड़ता है।

इस अर्थ में महानगर अपनी एक बड़ी आबादी के ‘हाशिया-उन्मुख’ आंतरिक विस्थापन की वजह हो जाते हैं। महानगर उन्हें थोड़ा अधिक धन, थोड़े बेहतर व्यावसायिक या कारोबारी अवसर तो देते हैं, पर उन्हें एक लंबे अरसे तक दौड़-भाग में फंसाए रहते हैं। अपने ठिकानों और गंतव्य स्थलों तक पहुंचने के लिए उन्हें यात्राओं में धक्के खाते रहने की जरूरत पड़ती है।

श्रम के मोर्चे पर विषमता, महानगरीय समाज को कहीं अधिक विभाजित करती है। नौकरियों और अवसरों की असमानता की वजह से संगठित क्षेत्र की तुलना में, श्रम के असंगठित क्षेत्र का फैलाव, असीमित रूप में लगातार होता रहता है। इससे असुरक्षा का माहौल बना रहता है। यह असुरक्षा जितनी गहन होती है, माफिया को उसका उतना ही फायदा होता है।

पहचान के संकट के लिहाज से महानगरीय विषमताएं, उन लोगों के लिए जानलेवा हो जाती हैं जो परंपरा में ही अपनी जड़ों को खोजा करते हैं। पहचान लोगों को अपने जैसे या अपने से भिन्न लोगों के साथ रिश्ते बनाने में मदद करती है। सामाजिक पहचान गहरा कर जब सांस्कृतिक पहचान बनती है, तो उसमें लोग अपनी आत्मा को खोजने लगते हैं। पर महानगर लोगों को अपनी विषम स्थितियों के मुताबिक, अधिक विषम पहचान देते हैं, जिससे आत्म-हीनता का भाव गहराता जाता है।

महानगरों में पहचान के विषम होने का संबंध महत्वाकांक्षा, प्रतिस्पर्धा और सत्ता की सियासत से होता है। तो लोग अपनी विविध पहचानों को साथ लिए घूमने और जीने लगते है। इससे वे भीतर अनेक टुकड़ों में बंटा हुआ महसूस करने लगते हैं। अक्सर वे अनेक क्षेत्रों में दूसरों से पिछड़ जाने से उपजी हीनता – कुंठा, हिंसा और आत्मघात की प्रवृत्तियों की शक्ल लेने लगती है।

महानगर कुछ खास तरह के लोगों की पहचान को ब्रांड बनाकर ‘ग्लेमराइज’ भी करते हैं। इससे लोगों के पास उनका अपना कोई प्रामाणिक व्यक्तित्व नहीं बचता, जिसे जीकर वे खुद को पा सकते हों।

लेकिन आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विषमताओं का यह जो महानगरीय संसार है, वह लोगों को अपने परंपरागत अंतर्विरोधों और विरासत में पाई विषमताओं से उबरने का मौका भी देता है। जाति, लिंग, नस्ल, भाषा, धर्म और कौमों से संबंध रखने वाली विषमताओं का जो परंपरागत संसार है, वह महानगरों में अपने लिये बहुत कम ‘स्पेस’ पाता है। जहां वह होता भी है, उसकी जगह लगातार सिकुड़ती रहती है। इसके अच्छे बुरे दोनों तरह के नतीजे निकलते हैं।

अच्छी बात यह है कि हम एक जाति-लिंग विहीन चेतना को हासिल करने की ओर आगे बढ़ते हैं। बुरे नतीजे तब निकलते हैं, जब लोग इस कारण अपनी जड़ों से उखड़ने की पीड़ा से बचने के लिए अपनी परंपरागत पहचान से अधिक जोर से चिपकते हैं। तो उनकी इन पहचानों का राजनीतिकरण होने लगता है। धार्मिक पहचान का संप्रदायीकरण होने लगता है और असुरक्षित जन-समूहों को दंगों की तरफ धकेलना आसान हो जाता है।

भारत के महानगरों में इन प्रवृत्तियों के अलावा, विषमता का एक अलग मंजर देखने को भी मिल सकता है। असंगठित श्रमिकों की स्थिति अनेक बार शक्तिशाली लोगों के ‘आर्थिक उपनिवेश’ वाली भी हो जाती है। अशिक्षा, अधिकार चेतना का अभाव और श्रमिक राजनीति के संकीर्ण सरोकार, इस तरह के औपनिवेशीकरण को बनाए रखने में मदद करते हैं। इससे उनके शोषण के हालात, अनेक स्थितियों में, अमानवीय तक हो जाते हैं। जैसा कि हमने कोरोना काल में साफ साफ देखा ही है।

लेकिन भारत की तीव्र आर्थिक प्रगति का आधार होने से हमारे महानगर, ‘स्टार्ट अप’ के लिए जिस तरह के नए अवसर खोलते हैं, उसे हम इस विषम परिदृश्य का एक सकारात्मक पहलू कह सकते हैं।

(2)वैश्विक परिदृश्य की बात करें तो महानगरों का नागरिक यथार्थ उत्तरोत्तर अधिकाधिक बहुराष्ट्रीय होता जाता है। बड़े ‘कॉस्मोपोलिटिन्ज़’ के नागरिकों की एक मुख्यधारा होती है, जिसका संबंध उसी के अपने राष्ट्र से होता है। हालांकि वे अमूमन ‘राष्ट्रीय’ और ‘बहुराष्ट्रीय’ पहचान वाले जन-समूहों में विभाजित दिखाई देते हैं। राष्ट्रवादी विचारधारा के नव-उभार वाले दौर में ये महानगर अब दक्षिण-पंथ और भूमंडलीकरण की सोच के बीच तनाव की स्थिति के रूबरू हो रहे हैं। ‘पहली दुनिया’ के महानगर लगातार विविधता-बहुलता और सहभागिता की संस्कृतियों के बीच रिश्तों के जटिल होते जाने के साक्षी हो रहे हैं। लगभग सभी महानगरों में अपने देश के नागरिक, अपने यहां के ‘मूल निवासियों’ और विविध ‘सबाल्टर्न’-जनसमूहों के साथ अपने रिश्तों की बार-बार पड़ताल करने की स्थिति में आ गए हैं। प्रजातांत्रिक व्यवस्थाओं में इन जनसमूहों की भागीदारी एवं प्रतिनिधित्व के बढ़ने से नागरिकता का मूल-स्वरूप बदल रहा है।

भारत के महानगरों में नागरिकों का यथार्थ, ‘कॉस्मोपोलिटिन्ज़’ की तरह उतना विविध-बहुल नहीं है। बहुत कम महानगर हैं, जो विश्व-नगर होने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। मुंबई, दिल्ली या कोलकाता के अलावा बेंगलुरु, गुरुग्राम, नोएडा आदि में उतर आए ‘साईबर हब्स’ ने हमारे यहां भी ‘वैश्विक नागरिक यथार्थ’ के नए समीकरण जड़ें पकड़ने लगे हैं।

इससे लोगों के दृष्टिकोण में अंतर आना स्वाभाविक है। मध्यम दर्जे के बड़े नगरों की तुलना में भारत के महानगर अपनी नागरिक-संरचना में थोड़े अधिक प्रजातांत्रिक दिखाई देते हैं। विविधता-बहुलता वाले हालात, अलग तरह की उदारता एवं सहनशीलता की मांग करते हैं। पर महानगरों में नौकरियों की संभावनाएं अधिक होने से कभी-कभार वहां क्षेत्रीय राजनीति की दखल बढ़ती भी दिखाई देती है। क्षेत्रीय आधार पर नौकरियों में आरक्षण की मांग के उठने से नागरिकों के सम्यक प्रजातांत्रिकीकरण को ठेस पहुंची है। इससे हमारे महानगरों के विश्व-नगर होने की संभावना थोड़ी शिथिल पड़ जाती है।

लेकिन जहां तक हमारे नागरिक यथार्थ के सामान्य चरित्र का सवाल है, वह ‘भारत’ और ‘इंडिया’ के नागरिक होने के बीच विभाजित है। राजसत्ता की कुंजी ‘भारत’ के नागरिकों के हाथ में अधिक दिखाई देती है और आर्थिक प्रगति की कुंजी ‘इंडिया’ के नागरिकों की सांसाधनिक तिजोरियों में अधिक लगती है।

जहां तक हमारे लोगों के ‘भारत का नागरिक’ होने का मसला है, संविधान और राष्ट्र के प्रति निष्ठा की तुलना में, क्षेत्र-विशेष और जाति के प्रति निष्ठा की भूमिका अधिक दिखाई देती है। इससे नागरिकता की सिद्धि ‘परोक्ष’ हो जाती है। हमारे महानगर भी अपने नागरिकों के इस सामान्य चरित्र का एक हद तक ही अतिक्रमण कर पाते हैं।

(3)पहली बात तो यही गौर-तलब है कि भारत के ग्रामीण और बनवासी लोगों के लिए किसी महानगर में जाना ऐसा ही है, जैसे कोई ‘परदेस’ जा रहा हो।

दूसरी बात यह है कि हमारे महानगरों की कुल आबादी का आधे से अधिक हिस्सा उन लोगों का होता है, जो वहां मेहनत-मजदूरी करने या किसी नौकरी-रोजगार की तलाश में वहां आते हैं।

तीसरी बात यह है कि जिन्हें हम महानगरों की पैदाइश कहते हैं, उसका एक बड़ा हिस्सा उन लोगों का होता है, जो महानगरों के लगातार होते जाते क्षेत्र-विस्तार के कारण ‘बाहर वालों’ की तरह ‘भीतर प्रविष्ट’ हो गए लोग होते हैं।

चौथी बात, भारत के महानगरों के पास अपनी एक समृद्ध परंपरागत विरासत और इतिहास की है। भारत के परंपरागत महानगर आजादी मिलने के बाद, और खास तौर पर अब, यानी 1990 के आसपास होने वाले उदारीकरण की वजह से ही, अपने मौजूदा रूप को पा सके हैं। दिल्ली की अंतर्कथा में इंद्रप्रस्थ या मुगलों की मौजूदगी हो या मुंबई में मराठों और पारसियों की, महानगर कोई हो, सब में जरा कुरेदते ही, अतीत और मध्यकालीन  समयों की बेशुमार तहें निकलती चली आएंगी।

ऐसे में आज जब हम अपने यहां ‘महानगरीयता’ का बहुत अलग तरह का रूप देखते हैं, तो समस्या पैदा हो जाती है। वह मौजूदा दौर के महानगरों के वैश्विक रूपों से पिछड़ी हुई लगती है। पर हमारे जो नए ‘साइबर हब्ज़’ हैं, उनके असर में हमारे बेंगलुरु और गुरुग्राम जैसे महानगर किसी भी अन्य विश्व-नगर जैसे लगने लगे हैं। पर वहां उस थोड़े से अति-विकसित नगर-खंड देखकर लगता है, जैसे आप गलती से न्यूयार्क, टोकियो या बीजिंग के किसी ‘पॉश मार्केट-प्लेस’ में चले आए हैं। इस अजनबीपन को दूर होने में अभी काफी वक्त लगेगा।

(4)हमारे महानगरों से छोटे शहरों अथवा गांवों की ओर लोगों के पलायन के बीच-बीच में कुछ खास दौर आते हैं। यह कोई स्थायी प्रक्रिया नहीं है। इस संदर्भ में इतना ही कहा जा सकता है कि दोनों ओर से आवाजाही न केवल बढ़ी है, उसमें विविधता भी दिखाई देती है।

भारत में महानगरों से लोगों के महा-पलायन के अस्थाई दौर का संबंध कोरोना-काल से है। उस दौर ने हमारे महानगरों के लोगों को संभाल पाने की क्षमता की पोल खोल कर रख दी थी। लेकिन हालात बदलते ही लोगों की फिर से वापसी हो गई। इसकी वजह विकास के अन्य विकल्पों के अभाव की स्थिति है। अन्यत्र खोजने पर भी वैसा काम-धंधा नहीं मिलता।

लेकिन इसके बावजूद बहुत से लोग हैं, जो महानगरों से कहीं बाहर की ओर रुख कर रहे हैं। उसके कारण दूसरे हैं।

महानगरों पर अतिरिक्त दबाव पड़ रहा है, जिसके लिए जरूरी ‘इन्फ्रा-स्ट्रक्चर’ के लिए गुंजायश कम हो रही है। संसाधनों पर भी दबाव बढ़ रहा है। जैसे बेंगलुरु में जल-आपूर्त्ति का संकट है। प्रदूषण भी खतरनाक स्तर तक पहुंच रहा है। इससे महानगरों से बाहर विकास की नई संभावनाओं को तलाशा जा रहा है।

कंप्यूटर क्रांति ने कारोबार के एक बड़े हिस्से को ‘ऑनलाइन’ बना दिया है। ‘वर्क फ्रॉम होम’ का चलन बढ़ रहा है। महानगरों में महंगे ऑफिस लेकर काम करने वाली बड़ी कंपनियां छोटे शहरों से ‘ऑनलाइन’ काम करने वालों की खोज रही हैं। उनके ऑफिस छोटे होते जा रहे हैं। साफ आबो-हवा और कुदरती परिवेश में रह कर काम करने की संभावनाओं को खोजा जा रहा है।

इससे महानगरों पर अनावश्यक दबाव कम हो सकता है, पर इसे वहां से होने वाले लोगों के पलायन का नाम नहीं दिया जा सकता। उसके बजाए, वह विकास की वैकल्पिक संभावनाओं की तलाश का मामला अधिक है।

(5)महानगरों के आसपास के कस्बे और गांव अपेक्षाकृत अधिक तनाव और बिखराव की प्रक्रिया से जूझते दिखाई  देते हैं। वहां से अधिक बड़ी संख्या में लोग-बाग नए अवसरों की तलाश में महानगरों की ओर भागते दिखाई देते हैं। बढ़ते ट्रैफिक और प्रदूषण के कारण परंपरागत खेती-बाड़ी दबाव में आ जाती है।

महानगरों से बहुत से लोग निजी और व्यावसायिक ‘फार्म हाउस’ बनाने के लिए इन्हीं की ओर रुख करते हैं। इन इलाकों के परंपरागत व्यवसाय, खास तौर पर शिक्षा और स्वास्थ्य सेक्टर, अपने पिछड़ेपन के कारण अधिक दबाव में आ जाता है। इन कस्बों और गांवों के थोड़े समृद्ध लोग अपने बच्चों का भविष्य महानगरों में अधिक देखने लगते हैं। एक और फर्क भी पड़ता है। जिन थोड़े से लोगों को विकास का अवसर मिल जाता है, उनके कारण गरीब अमीर की खाई बढ़ने लगती है। इसका असर संबंधों और सामाजिक मूल्यों के संदर्भ में थोड़ा नकारात्मक होने लगता है।

लेकिन कुछ के लिए यह स्थिति उम्मीद जगाने वाली होती है। इस वजह से संतुलन और समरसता को बनाए बचाए रखने के प्रयास भी अधिक सक्रियता के साथ, समांतर रूप में, होने लगते हैं।

(6)मैं पंजाब के एक ग्रामीण महाविद्यालय से बतौर प्राचार्य सेवानिवृत्त होने के बाद, अपनी बेटी के पास कुछ समय के लिए अमेरिका चला गया। फिर 2015 में गुरुग्राम आ गया। मेरा बेटा यहां एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में है। जब यहां अपना घर खरीदने की कवायद शुरू हुई, तब समझ में आया कि महानगर में सिर छिपाने लायक जगह बनाने का मतलब है, जीवन भर के करीब सारे संसाधनों और बचत का होम। लेकिन जब सब हो गया, लगा कि यहां जीवन अधिक व्यवस्थित और सुविधाजनक है।

‘साइबर हब’ में जाकर लगता था, न्यूयार्क का एक छोटा टुकड़ा काट कर यहां रख दिया गया है। ‘ऑनलाइन शॉपिंग’ इतने सुचारु रूप में व्यवस्थित मिली कि बाहर जाना बहुत कम हो गया। लेकिन जैसे ही सर्दियां शुरू हुईं, आसपास के गांवों के खेतों में जलाई जाने वाली ‘पराली’ का धुआं इतनी मात्रा में हवा में ठहर गया कि सांस लेना कठिन हो गया। दिल्ली एन सी आर का ट्रैफिक भी इतना अधिक है कि इधर प्रदूषण करीब-करीब एक स्थायी समस्या बन गया है। यहां आते ही साल भर में मेरा अस्थमा बिगड़ गया। रोजाना दो-तीन ‘पफ’ लिए बिना अब काम नहीं चलता। तो अक्सर मन में आता है किसी पहाड़ी इलाके में चला जाए। पर अब जीवन में इतनी ऊर्जा नहीं बची है कि इस तरह के नए-नए प्रयोग कर लिए जाएं।

वैसे यह जो महानगर का जीवन है, उसके कुछ ऐसे फायदे भी हैं, जो अन्यत्र संभव नहीं। पासपोर्ट पर वीजा लगवाना हो, या देश-विदेश में कहीं भी हवाई जहाज से जाना हो, तो लगता है, सब आस-पड़ोस में जाने जैसा है। उसके लिए बहुत तैयारी नहीं करनी पड़ती। इधर की समाजसेवी संस्थाएं भी खूब सरगर्म दिखाई देती हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की इस क्षेत्र में सीमित दिलचस्पी के बावजूद लगता है कि आप यहां किसी तरह का काम अपेक्षाकृत आसानी से निभा सकते हैं।

दिल्ली के एक महानगर की तरह विस्तार की तीव्रता का अनुमान आप इस बात से ही लगा सकते हैं कि आसपास के गुरुग्राम, नोएडा, फरीदाबाद और गाजियाबाद जैसे शहर अब उसके एन सी आर यानी सीमांत की तरह उसी का हिस्सा हो गए हैं।

यह दिल्ली, इस तरह की दिल्ली एक दिन में नहीं बनी। विभाजन के बाद बहुत से लोग पाकिस्तान से उजड़कर इधर आ गए। बाद में पंजाब ने जब खालिस्तान आंदोलन का दौर देखा, तब भी बसों से निकाल निकाल कर मारे जाने से बचने के लिए, बहुत से हिंदू परिवार इधर आ गए। देश की राजधानी होने की वजह से भी वह स्वाभाविक रूप में चारों तरफ फैलती रही।

दिल्ली के इस विस्तार की कथा के वह जो पांचवे-छठे-सातवें दशक वाला अध्याय है, उस पर मैंने जगदीश चंद्र का एक उपन्यास पढ़ा था – ‘कबहूं न छाड़े खेत’। तो जब मैं खुद इधर आया, उस उपन्यास के बहुत से वृत्तांत, नई शक्ल लेकर अनेक दफा मेरे सामने अलग अर्थ में हाजिर होते रहे। एक उपन्यास और जीवन के बीच यह जो जीवंत किस्म की आपसदारी है, इसे मैं इतनी शिद्दत से शायद ही कभी महसूस कर पाता, अगर इधर न आया होता।

563 पालम विहार, गुरुग्राम122017  मो.9814658098

 

 

पर्यावरणीय विपदाएं बढ़ेंगी

जुलाई 2013 में संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक मामला विभाग द्वारा जारी एक रिपोर्ट में यह चेतावनी दी गई थी कि 2050 तक खाद्य पदार्थों में 70 प्रतिशत की वृद्धि करनी होगी, खासकर उन देशों को ध्यान में रखते हुए जहाँ पर्यावरणीय परिस्थितियों की वजह से खाद्य सामग्री की भारी कमी है। संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञों के अनुसार शहरी क्षेत्रों की बढ़ती आबादी के फलस्वरूप बुनियादी स्वच्छता पद्धतियों तथा स्वास्थ्य की स्थिति पर आने वाले समय में भारी दबाव पड़ेगा और मानवीय एवं पर्यावरणीय आपदाओं की संभावना बहुत बढ़ जाएगी।

तामार ऑबेर, पर्यावरणविद

 

महानगर में मानव-मूल्यों का स्थान कम होता जाएगा

हितेंद्र पटेल
सुपरिचित लेखक और इतिहासकार। रवींद्र भारती विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में प्रोफेसर। अद्यतन पुस्तक :‘आधुनिक भारत का ऐतिहासिक यथार्थ

(1)जैसे एक्स रे द्वारा हम पूरे शरीर की अवस्था का अनुमान कर सकते हैं वैसे ही हमारे महानगर को देखकर देश में क्या चल रहा है इसका अनुमान लगाया जा सकता है। कम से कम कोलकाता महानगर के बारे में हम निश्चित कह सकते हैं कि इसको देखकर हम इस क्षेत्र और कुछ हद तक पूरे देश की स्थिति का अंदाजा लगा सकते हैं।

यह एक सच है कि हमारे देश में व्यापक विषमता के दर्शन महानगरों में होते रहे हैं। इस बंगाल में लाखों लोग भूख से दम तोड़ने लगे तो उन्होंने कलकत्ता की सड़कों पर इस आशा में शरण लेने की कोशिश की कि उनके प्रति थोड़ी करुणा महानगर के समृद्ध लोगों में होगी और वे उन्हें भूख से मरने से बचा लेंगे। ऐसा नहीं हुआ। लोग सड़कों पर दम तोड़ते रहे और समृद्ध लोग सामान्य जीवन जीते रहे। भगवतीचरण वर्मा ने अपने एक उपन्यास में एक मार्मिक वर्णन किया है, जिसमें भद्रलोक की बेटी का विवाह धूमधाम से हो रहा है और पिछवाड़े में हजारों लोग भोज के बाद के बचे हुए जूठन को खाकर भूख से तड़पते अपने परिवार को लेकर कुत्तों के साथ प्रतियोगिता कर रहे हैं।

इस महानगर में समृद्ध लोग दरिद्रों के प्रति इतने निर्मम हो सकते हैं तो अन्य महानगरों के बारे में क्या कहा जाए! यह सच है।

महानगर के विकास का इतिहास अगर आप देखेंगे तो पाएंगे कि महानगर में उच्च मध्यवर्ग और नौकरीशुदा लोगों के परिवार के अलावा बड़ी संख्या ऐसे लोगों की होती है जो उच्च और मध्य वर्ग की सेवा के लिए होते हैं। वे अपने श्रम से महानगर को चलाते हैं। ऐसे श्रम करने वाले लोग महानगर के ऐसे इलाकों में रहते हैं जहां सबसे कम सुविधाएं सरकार देती है। एक बार ‘सिटी ऑफ जॉय’ को देखने के बाद मैंने कोलकाता के उन हिस्सों को देखने की कोशिश की जिनके जीवन को इस फिल्म में जानवरों की तरह जीते हुए दिखलाया था। ईमानदारी से कहूं तो मुझे लगा था कि इस महानगर में एक बहुत बड़ी जनसंख्या बहुत ही अमानवीय परिस्थितियों में जीती है।

महानगरों में तीव्र शहरीकरण के कारण जो विषमता बढ़ती है उसे समझने के लिए आपको दिल्ली के विस्तार को देखना यथेष्ठ होगा। जो श्रम करने वाले लोग हैं उनकी बस्तियों में जाकर देख लीजिए।

(2)पार्थ चटर्जी ने एक किताब में लिखा है कि कोलकाता महानगर में शहर का विस्तार ईस्टर्न बाई पास में जिस तरह से हुआ है उसके फलस्वरूप गरीब स्त्रियों के लिए तो काम था, क्योंकि वे तेजी से बन रहे बहुमंजिली इमारतों में घरेलू काम कर सकती थी, लेकिन अधिकतर पुरुषों के लिए काम नहीं था। वे एक ही काम के योग्य थे। वे बस राजनीति के लिए नेताओं के लिए उपयोगी फौज में भर्ती हो सकते थे! जिन जिन जगहों में तेजी से बहुमंजिली इमारतें बनी हैं वहां नागरिक समाज के बाहर एक बड़ी संख्या बेरोजगार लोगों की है जो गरीब हैं, बेरोजगार हैं और वे किसी भी हिंसक भीड़ का हिस्सा बनने के लिए तैयार हैं। स्थिति के बारे में यही कह सकता हूँ कि जीवन मूल्यों के बारे में सोचने की बात महानगरों की चिंता का विषय अब रहा ही नहीं।

(3)महानगर एक एबनॉर्मल समाज का निर्माण कर रहा है। सिर्फ वही लोग सामान्य जीवन जी पा रहे हैं जो आर्थिक रूप से समृद्ध हैं। जो असुरक्षित हैं वे दबाव में जीते हैं।

महानगर बड़े सपने दिखलाता है, यह सच है। यहां मौके भी मिला करते हैं, यह भी सच है, लेकिन ये मौके इतने कम होते हैं और इतने अधिक लोग महानगरों के प्रांतिक इलाकों में खड़े हो जाते हैं कि स्थिति भयावह हो जाती है। जूट मिल के इलाकों, टेंगरा के इलाके और रेलवे और खाल (गंदे नाले) के किनारे-किनारे जीने वाले लोगों के जीवन पर जो कुछ लिखा हुआ उपलब्ध है उसे पढ़कर कोई भी संवेदनशील व्यक्ति दहल जाए।

महानगरीय महानता के गुण पूरी तरह से कोलकाता में अगर समाप्त नहीं हुए हैं तो इसका थोड़ा श्रेय यहां के साहित्य को देना होगा जो यहां के लोगों में थोड़ी ही सही मानवीयता को बचाने की भावना को महत्व देता है।

दिल्ली से तुलना करने से यह बात समझ में आ जाएगी।

लैंगिक खाई महानगरों में इतनी बढ़ गई है कि अब तो मुझे लगता है कि परिवार संस्था पर ही खतरा बढ़ गया है। महानगर स्त्रियों के प्रति कितना निर्मम होता जा रहा है इसको समझने के लिए कोई भी जॉब मार्केट में असुरक्षा के बीच जीती लाखों स्त्रियों के बारे में जानकारी ले सकता है।

निश्चित रूप से महानगरों में महिलाओं पर दबाव बढ़ा है। अब वे पुरुषों के क्षेत्र में उनसे प्रतियोगिता में भी हैं और स्त्री होने की मर्यादा से भी मनोवैज्ञानिक रूप से बंधी हुई हैं। यह हर स्तर पर है, लेकिन विशेष रूप से हाशिए के समाज में स्त्रियां बहुत अधिक परेशानी में हैं। उनके समाज के पुरुष उनके प्रति अधिक सहानुभूति रख सकें इसके लिए बहुत कुछ करने की जरूरत है। एक उदाहरण दे रहा हूँ। एक मुसलमान परिवार की एक लड़की सिर्फ अपनी पढ़ाई-लिखाई के लिए किस तरह से संघर्ष करती है उसके बारे में जब इंटरव्यू देखा तो विश्वास नहीं कर पाया। बाद में वह लड़की हमलोगों से मिली तो पाया कि लड़की ने एकदम सही-सही सबकुछ बतलाया था। उसके परिवार के सबलोग अच्छे भले थे। पति भी ठीक-ठाक था, लेकिन महानगर के परिवेश में कैसे एक लड़की दबाव झेलती हुई संघर्ष कर रही है वह समझने की चीज है।

आपको याद हो सत्यजित रे की एक फिल्म है ‘महानगर’, जिसमें विस्थापित परिवार की स्त्री कैसे नौकरी करने के लिए मजबूर भी है और उसके कारण घर और बाहर परेशान भी। अंत में पति से थोड़ा समर्थन पाकर वह जी उठती है। इस फिल्म की नायिका सी भाग्यवान वास्तविक महानगर की कम वास्तविक स्त्री ही होती है। अखबार ऐसी स्त्री के जीवन की घटनाओं से भरे रहते हैं।

स्त्री और पुरुष आपस में एक दूसरे के प्रति थोड़े अधिक उदार हो सकें इसकी सुविधा न तो महानगर का परिवेश देता है और न ही हमारा समाज। और महानगर में समाज अब बच भी कितना गया है!

महिला संगठनों की भूमिका और सकारात्मक हो सके तो बहुत अच्छा हो। बहुत सारे परिवार टूटने से बच जाएं और बहुत सारी स्त्रियों को मदद मिले।

(4)मेरी जानकारी में महानगर से छोटे शहरों या गांवों में पलायन हो रहा है, यह ठीक नहीं है। विदेश में समृद्ध लोग अपने बच्चों को भेजने के लिए मरे जा रहे हैं, लेकिन बाकी लोग महानगर में ही मरने खपने के लिए विवश हैं। कुछ लोग नौकरी की तलाश में दूसरे बड़े शहरों में चले जा रहे हैं, जैसे कोलकाता से दिल्ली, बेंगलुरु या हैदराबाद जा रहे हैं, पर यह संख्या सीमित है। हां, गरीब महानगर में रहने वाले परिवार से कोई कमाने के लिए गुजरात या महाराष्ट्र या दुबई जाते हैं, ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं। देखा जाए तो हर बड़ा महानगर अपना एक हिंटरलैंड बनाता जाता है और उसे बाहर की तरफ ठेलता रहता है। बाहरी हिस्सों में भी अगर कोई पॉश लोकालिटी बनती है तो वहां भी गरीब के लिए स्थान न्यूनतम होता है। बहुत ही क्रूरतापूर्वक महानगरों में गरीब को बाहर की तरफ धकेला जाता है। पार्थ चटर्जी की बात को यहां फिर से दोहराऊंगा और कहूंगा कि महानगरों में जिस तरह से शहरीकरण की प्रक्रिया चल रही है उससे लाखों बेरोजगार मर्द हिंसक राजनीतिक भीड़ का हिस्सा बनाए जा रहे हैं।

(5)दबाव दोनों ओर से होना चाहिए था, लेकिन अब तक महानगर पर आसपास के छोटे नगरों और गांवों का दबाव उस तरह से बना नहीं, क्योंकि इन इलाकों के लोगों में खुद ही अपनी जमीन जगह को बेचकर किसी तरह बड़े बनने की भयंकर भूख पैदा की गई। हर बड़े शहर के आसपास के इलाके महानगरों द्वारा लील लिए गए, वहां की खेती-बाड़ी सब खत्म हुई और कहीं कहीं तो कूड़ा का भंडार वहां बना जहां कभी खेती होती थी!

(6)अभी स्थिति की भयावहता का पूरा अनुमान लोगों को नहीं हुआ है। साहित्य अभी भी इस दिशा में उतना गया नहीं है। किताबें लिखी गई हैं, लेकिन कम। जल्द ही सैकड़ों किताबें आनी चाहिए। रनेंद्र की एक किताब है गायब होता देश, उसका स्मरण हो रहा है। यह रांची जैसे शहर पर केंद्रित है जिसमें कैसे आदिवासियों का देश छिनता जा रहा है उसको दिखलाने का प्रयास किया गया है। बांग्ला में कुछ किताबें हैं।

पर उदाहरण देने के बजाए मैं यह कहना चाहूंगा कि यह पूंजीवाद के साथ जुड़ी परिघटना है। औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप श्रमिक वर्ग के जीवन में सुधार नहीं हुआ था। इसपर एंगेल्स ने बहुत ही अच्छी किताब लिखी थी। इस पुस्तक की एक भूमिका एरिक हॉब्स बाम ने लिखी थी। उसे पढ़ना चाहिए। महानगर पूंजीवाद के तांडव का स्थल है। इसमें मानव मूल्यों के लिए स्थान समय के साथ कम ही होता जाएगा। हर्बर्ट मार्कूज ने साठ साल पहले चेताया था कि आधुनिक आदमी वन डायमेंशनल मैन बन चुका है। कौन सुनता है। टॉलस्टाय में मास्को के बारे में कभी कहा था कि मास्को जैसे बड़े शहर में बीस बरस बाद भी आप समझ नहीं सकते कि आप मर चुके हैं। इधर के उपन्यास मैंने अधिक नहीं पढ़े हैं। लेकिन इस आधुनिकता और पूंजीवादी व्यवस्था का हश्र यह होगा यह किसी को भी लगना चाहिए।

अब तो बस प्रार्थना कर सकता हूँ कि समाज चेते और ऐसे शुभ विचार आए कि प्रकृति के दोहन से एक सुखी संसार की रचना नहीं हो सकती। प्रकृति से तादात्म बिठाना जरूरी है। इस शुभ विचार को बल मिले यह एक प्रार्थना भर कर सकता हूँ।

प्रथम तल, आयशिकी अपार्टमेंट, बोरोपोल के निकट, बैरकपुर, 36/71 ओल्ड कोलकाता रोड, कोलकाता700123 मो.9836450033

 

 

जीवन की गुणवत्ता प्रभावित होगी

संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि 2050 तक विकासशील देशों का लगभग 64 प्रतिशत और विकसित दुनिया का 86 प्रतिशत भाग शहरीकृत हो जाएगा। अनुमान है कि इससे अधिकांश शहरी निवासियों के लिए आवास हेतु भूमि में कृत्रिम कमी पैदा होगी, पीने के पानी का अभाव होगा, खेल के मैदान उपलब्ध नहीं होंगे। शहरी आबादी  2050 तक अनुमानतः 3 अरब हो जाएगी, वह अधिकांशतः अफ्रीका एवं एशिया में होगी। लंबी अवधि में शहरीकरण से जीवन की गुणवत्ता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।

परिचर्चा में संक्षिप्त टिप्पणियां : प्रस्तुति : अवधेश प्रसाद सिंह

संपर्क :​ एचएल. 34, बीएल.नं.13, आर्यसमाज, कांकीनारा, 24 परगना (उत्तर), पिन: 743126, (पश्चिम बंगाल) / मो. 9330392663