ह्यूस्टन, अमेरिका की प्रवासी कथाकार एवं कवयित्री। पांच कहानी संग्रह और एक उपन्यास प्रकाशित। ह्यूस्टन सेंट थामस यूनिवर्सिटी में फिजिक्स की प्राध्यापिका। ‘विश्व हिंदी न्यास’, अमेरिका के निदेशक मंडल की सदस्य।अद्यतन पुस्तक ‘मेरी चयनित कहानियां’।

‘पाप क्या है?’

‘अपनी आवश्यकता से अधिक लेना।’

‘क्या अधिक लेना?’

‘कुछ भी।… कुछ भी। अन्न, वस्त्र, हवा, पानी, धूप- वह सबकुछ जो जीवन के लिए आवश्यक है।’1

‘क्या ये नहीं जानते?’ सिहू के भोले मन में अगला प्रश्न उभरा। सामने से गुजर रही मर्सिडीज की तरफ़ इशारा करते हुए उसने बोनिता से पूछा।

‘जानते ही होंगे।’ उदास हो आई बोनिता ने सिहू को अपने और करीब खींच लिया।

ग्रोसरी स्टोर बंद होने को था। इंटरकाम पर लगातार हो रही घोषणा के साथ ही वे बाहर निकल आए थे। पैदल चलते हुए वाक-वे क्रास कर रहे थे।

पार्किंग लॉट अब भी कारों से भरा पड़ा था। छोटी-बड़ी कारों से मोटे कोट, मफ़लर, टोपियों- दस्तानों और भारी जूतों में लदे-फंदे लोग अब भी मॉल में इधर-उधर आ-जा रहे थे। बड़े-बड़े थैलों में सामानों से लदे कारों की तरफ तेजी से वापस लौटते लोग।

बर्फ गिरनी शुरू हो चुकी थी।

बोनिता और सिहू भी तेज कदमों से, लगभग भागते हुए से चल रहे थे। बोनिता और सिहू के सिर की बांस की टोपी उन्हें बर्फ से बचाए हुए थी। गले में झूलती रंग-बिरंगी मालाएं, शरीर पर इकहरा लबादा और उनकी टोपी उन्हें नेटिव अमेरिकन घोषित कर रहे थे।

रोजमेरी रिजर्वेशन यहां से बहुत दूर नहीं था। रोजमेरी रिजर्वेशन, जो उन्हें सरकार की तरफ से दिया गया और जहां बोनिता और सिहू जैसे दो-तीन सौ नेटिव अमेरिकनों के टिपी हैं। टिपी यानी बांस और मिट्टी से बने शक्वाकार तंबू जैसे छोटे- बड़े घर। बोनिता के टिपी की दीवारों में कई दरारें हैं, जिन्हें बंद करने के लिए उसने अपने कपड़े ठूंस दिए हैं। ठंडी हवा और बर्फ से कुछ बचाव तो हो ही जाता है।

जब तक बोनिता और सिहू अपने टिपी तक पहुंचे रात हो गई थी।

टिपी में आखिरी लकड़ी का कुंदा था जिसे बोनिता बहुत समय से बचाए हुए है। दिनभर वह अपनी दस साला बेटी सिहू के साथ ग्रोसरी स्टोर के एक कोने में बैठी रही। अपने को गर्म रखने के लिए।

रोजमेरी रिजर्वेशन का पूरा इलाका बंजर है। पानी भी अधिक नहीं मिलता। सारे रिजर्वेशन एरिया ऐसे ही हैं। शहर से दूर, आम लोगों से दूर, एक किनारे कहीं बसे हुए। बड़ी मुश्किल से कुछ मकई, शकरकंद आदि उगा पाई बोनिता, जो पूरी सर्दियाँ काटने के लिए पर्याप्त नहीं। बोनिता जानती है कि सिहू को स्कूल जाना चाहिए। स्वयंसेवी संस्थाएं हैं जो उनके इलाके में आती हैं, उनकी सहायता के लिए। कभी फूड पैकेट, प्रोपेन सिलिंडर, वस्त्र आदि लेकर, कभी बच्चों को स्कूल जाने के लिए प्रोत्साहित करने। मिल्क पाउडर बांटने के लिए।

 

वे सबको अंग्रेजी बोलना सिखाते हैं। ईसाई बना देते हैं। बोनिता ईसाई नहीं बनना चाहती। उसकी बेटी सिहू अभी भी स्कूल नहीं जाती। जाती तो कम से कम चौथी कक्षा में होती। बोनिता उसे अपने कबीले की कहानियां सुनाती है। अपनी भाषा-बोली सिखाती है और अपनी लिपी भी। उसे पता है कि अब नावाहो भाषा के सिवा अन्य भाषाओं को बोलने, लिखने-पढ़ने वाले बहुत कम लोग रह गए हैं। नावाहो नेशन2 ही एक जगह है जहां अब भी उनकी चलती है, वरना बाकी तो…

टिपी का लकड़ी का दरवाजा बंद करना उनकी आवश्यकता थी और अंदर का अंधेरा उन्हें रोकता था।

‘हम आज क्या खाएंगे?’ अंदर घुसते हुए सिहू पूछ रही थी।

बोनिता को याद आया, उसके पास कुछ शकरकंद अब भी हैं।

‘शकरकंद खा सकते हैं।’

‘उसके लिए स्टोव जलाना होगा। प्रोपेन तो नहीं है।’ दस साला सिहू ने सयानेपन से कहा।

‘लकड़ी जला लेते हैं। उस पर पक जाएगा।’

आज की रात तो बीत जाएगी। बोनिता ने सोचा। कल का कल देखेंगे।

उन दोनों ने अंधेरे में मिलकर माचिस की तीलियां जलाईं। सूखी लकड़ी का कुंदा धधक उठा। टिपी के अंदर अब रोशनी थी। वे दरवाजा बंद कर सकते थे। बाहर का पता देने के लिए दीवारों की सूराखें काफी थीं।

‘तुमने कहा था कि वे जब आए थे तो उनको हमने यह खिलाया था।’

‘और भी बहुत कुछ। आलू, टर्की…’

सिहू यह कहानी बार-बार सुनती है। हर बार कोई नया सिरा पकड़ में आता है। मां कहीं से भी शुरू कर सकती है और बीच में चुप हो जाती है। फिर नहीं बोलती। तब तक… तब तक वह सुनती है। आज भी सुनेगी।

‘तब क्या! तब सारी जमीन अपनी थी। यह देश अपना था। हम इस तरह एक कोने में नहीं रहते थे। तब सब खेती करते थे। मां धरती देती थी। बहुत लोग थे हम। बड़े-बड़े टिपी थे हमारे। कोई कमी नहीं थी।’

‘कहां चले गए सब?’ सिहू ने कुरेदा।

‘जाएंगे कहां। मर गए।’

‘मर गए?’

‘हां। सब।’

‘कैसे?’

‘वे अपने साथ बीमारी लेकर आए। उनके आने से पहले हमें पता भी नहीं था कि चेचक क्या होता है। हम साठ करोड़ थे तब। यह सारी जमीन अपनी, सब खुशहाल। आज छह करोड़ हो कर रह गए।’

धीमे प्रकाश में बोनिता की आंखों में आंसू झिलमिलाने लगे। ऐसा ही होता है। हर बार। मां रो देती है और सिहू चुप हो जाती है।

तेज हवाएं अपने साथ ब़र्फ का तूफान ले आई थी। सिहू ने दरार से झांका।

‘ब़र्फ का पहाड़ टिपी से भी ऊंचा हो गया। कल दरवाजा नहीं खुलेगा।’

‘अंदर गर्म है हम अभी। सो जाओ।’

सिहू के अंदर डर भर रहा था। कल दरवाजा न खुला तो? प्रोपेन नहीं है। लकड़ी और नहीं है। टिपी ठंडा हो गया तो यहीं मर जाएंगे हम और किसी को पता भी नहीं चलेगा। कैसे सो सकती है वह।

‘तुम तो कहती थी, लड़ाई हुई थी। उनके पास बंदूक थी। हम तीर-धनुष से लड़ते थे इसलिए हार गए।’

‘लड़ाई तो हुई ही थी। बाद में। जब उन्होंने हमारी जमीन हथियाई, हमें हमारे खेत-खलिहान, घर से बाहर किया… तब हुई।’

‘अब तो सब तरफ वे ही हैं। सबकुछ उनका।’

‘हां, अब तो हम हैं ही नहीं जैसे।’

बोनिता फिर चुप हो गई।

माँ-बेटी जलती लकड़ी को देखने लगीं जो तेजी से खत्म हो रही थी और रात दो पहर भी नहीं बीती थी।

‘हम भी नावाहो नेशन में क्यों नहीं रहते?’ सिहू के मन में अगला प्रश्न उभरा।

‘नहीं रह सकते। नावाहो नेशन में उनका समझौता हुआ था। वहां हम कैसे जाएंगे।’

सिहू चुप।

सब मिल जाते तो वे हार जाते। सिहू सोचती रही। वे धीरे-धीरे आए होंगे। हमारे मेहमान। बिना दिन तारीख बतलाए, आ गए एक दिन। हमने उन्हें खिलाया, उनकी आवभगत की। रहने की जगह दी। अतिथि थे वे।

वे आए और रह गए। हमारे देश, हमारे घर में।

हमारे लिए दुनिया से जाने की तारीख तय करने आए थे, कौन जानता था! आज भी कर रहे हैं। कौन जाने आज की रात आखिरी हो हमारी। सिहू को रोना आने लगा ।

वह बोनिता के पास दुबक गई।

हमने तो ज्यादा नहीं लिया कुछ भी। कोई पाप नहीं किया। तब भी हमीं कष्ट पा रहे हैं। हमने तो बस दिया। उन्हें देना ही पाप था। मां नहीं मानती। अब भी वही पुरानी बातें समझाती है। सिहू सोचती रही और सोचते-सोचते सो गई।

बर्फ का तूफान तीन दिनों तक चला। फिर वे आए… ब़र्फ हटाने वाले। एक-एक टिपी के दरवाजे पर की ब़र्फ हटाते, खटखटाते, खोल कर देखते।

फिर कहीं दर्ज हुआ। रोजमेरी रिजर्वेशन में दो स्त्रियों- बोनिता और सिहू की ठंड से मौत हो गई। यह मौसम की पहली बर्फबारी थी।

सांझ ढले, नौकरी से घर लौटते हुए आमेय को पोस्ट आफिस में रुकना पड़ा था। उसके नाम आई चिट्ठियों का पैकेट इतना बड़ा हो गया था कि उसके लेटर बाक्स में अंट नहीं रहा था। कल उसे नोटिस मिली। वह हैरान था। जंक मेल- विज्ञापनों से भरे- आते ही रहते हैं। उनसे इतनी असुविधा तो कभी नहीं हुई। वह बिना लिफाफा खोले उन्हें फेंकने का अभ्यस्त हो चुका है।

पोस्ट-आफिस से उसने चुपचाप बंडल उठाया था और घर आकर दम लिया था। कोट और टोपी पर रूई के फाहों जैसी बर्फ चिपकी हुई।

फिर कपड़े बदले, फ्रिज में रखा सैंडविच गर्म किया, कॉफी का एक प्याला बनाया। लिविंग रूम का टीवी ऑन किया और सोफे पर जा बैठा। फायर प्लेस में आग जल रही थी। कमरा पूरी तरह गर्म हो चुका था।

सामने कॉफी टेबल पर पैकेट खुला पड़ा था। पूरा टबल भर गया, बड़े-बड़े पैकेटों, लिफाफों से।

आखिर इतने पत्र कहां से आ गए!

शहर के पॉश इलाके में अपने सुविधापूर्ण, गर्म घर में चिट्ठियां खोलते आमेय की नजर पत्र के शीर्षक पर ठहर गई- ‘उनके पास प्रोपेन नहीं था’।

नाम बदल गए थे इस पत्र में। वही दर्दनाक कहानी थी। अलग तरीके से लिखी गई नेटिव अमेरिकन के नाम पर, ऐसे रिजर्वेशन्स में रह रहे लोगों की सहायता करने की अपील वाली, उनके लिए डोनेशन मांगने वाली यह दसवीं चिट्ठी थी।

वह ऐसे तीन संगठनों को डोनेशन भेज चुका था और उनकी चिट्ठियां अब हर महीने आती थीं। हर चिट्ठी का सार-संक्षेप वही- विदाउट युअर हेल्प वी कैन नाट हेल्प देम। (तुम्हारी सहायता के बिना हम उनकी सहायता नहीं कर सकते)

फिर अमेरिका के इतिहास का हवाला, उनके साथ हुए अन्याय की कहानी, इंडियन एक्ट- जो तब बना, जब मानवाधिकार आयोग अस्तित्व में भी नहीं आया था। वगैरह वगैरह…

उसने सारी चिट्ठियों पर एक सरसरी नजर डाली। आधे से अधिक चिट्ठियां ऐसे ही अनुदान मांगने वालों की। चिल्ड्रेन्स हॉस्पीटल, सेव द फारेस्ट, फूड बैंक, एनिमल प्रोटेक्शन, क्रिश्चियन कम्यूनिटी, प्रोटेक्ट इजरायल, मदर मेरी प्रेयर सोसायटी, हेल्प अवर आर्मी, रेडक्रास सोसायटी।

किसी लिफाफे में कुछ बर्थ डे कार्ड, किसी में नोट पैड, कैलेंडर, मोजे, पेन और नेमिंग लेबेल… मोतियों की माला- क्रास के लाकेट वाली। किसी पर कुछ सेंट चिपके हुए। सबका संदेश बस एक- वी हैव गिफ्ट फार यू। सेव सम सेंट्स टू हेल्प अदर्स। (हमारे पास उपहार हैं आपके लिए। कुछ सेंट्स दूसरों की सहायता करने के लिए बचाएं।) फिर पत्र कि कम से कम पांच डालर या कि दस डालर भेजें। क्रेडिट कार्ड का कालम अलग, चेक का अलग।

पचीस/पचास/पचहत्तर डालर भेजें तो आपको यह काफी मग मुफ्त में भेजेंगे हम। या कि यह टोट बैग, शर्ट, जैकेट…

एक अंतहीन सिलसिला बन चुका था। हर बार कुछ और नए नाम…

आमेय का दिमाग भन्ना गया।

हर बार जब उसने कहीं भी अनुदान राशि भेजी, इस निर्देश के साथ भेजी कि उसका पता वे औरों को न बेचें, वरना वह अनुदान भेजना बंद कर देगा। वह जानता है कि नाम-पते बेचना भी इनकी कमाई का एक माध्यम है।

वे बेच रहे हैं। अब भी।

उंगली पकड़ाई थी, बांह तक पहुंच गए!

तंग आ चुका है वह।

उसने एक सरसरी दृष्टि अपने सामने फैले पत्रों पर डाली। ढेर काफी बड़ा हो चुका था। कई लिफाफे अब भी खोले जाने की प्रतीक्षा में थे।

नहीं चाहिए उसे।

पता नहीं क्या, कितना उन तक पहुंचता है। कुछ पहुंचता भी है क्या?

यूं भी वह अपने डोनेशन की सीमा तय कर चुका है और संस्थाओं के नाम भी।

बस, बहुत हो गया…

वह उठा। सारे पत्र उठाए और ट्रैश कैन में डाल दिए।

 

  • अमेरिकी जनजातीय कहावत।
  • नवाहों नेशन अमेरिका में एकमात्र वह क्षेत्र है जहां नेटिव अमेरिकन का शासन चलता है और अमेरिका सरकार ने उसे मान्यता दे रखी है। अधिकांश जनजातियां आज भी रिजर्वेशन में रह रही हैं।