सुपरिचित कहानीकार और पत्रकार। कहानी संग्रह ‘दक्खिन टोला’। संप्रति ‘हिन्दुस्तान’ रांची में समाचार संपादक।

कम की दवाई है बेटा, अधिक की दवाई नहीं।
सुबह के साढ़े नौ बजे नहीं कि महेसर हलवाई की आवाज गूंज जाती। आवाज भी इतनी तेज कि पूरा रामरेखा घाट जान जाता कि महेसर हलवाई के रामजानकी हिंदू होटल में काम करनेवाला लड़का नन्हका दाल में नमक डालने जा रहा है। नमक डालने वाले नन्हका को भी मानो इसी चेतावनी का इंतजार रहता। वह चूल्हा के पास जाकर रुकता, हाथ में नमक लेता, महेसर हलवाई की ओर देखता और जैसे ही वह अपनी चेतावनी पूरी करता वैसे ही दाल में नमक डाल देता। पता नहीं महेसर हलवाई यह चेतावनी कब से और क्यों दे रहा है। उसके होटल में खाना खाने आनेवाले लोगों को न तो कभी दाल में नमक ज्यादा लगी और न ही सब्जी में मिर्च। करीब 16 साल का नन्हका तो जैसे सब्जी बनाने का उस्ताद ही है। यह उस्तादी उसे महेसर हलवाई ने ही सिखाई है। आठ साल का था नन्हका जब उसके पिता ने उसे महेसर के हवाले किया था। बाबू ने महेसर से कहा था- तुम्हारे पास रहेगा तो कम से कम दोनों समय खाना तो खाएगा। गांव में रहेगा तो भूखो मर जाएगा।
तब उसका अच्छा सा नाम हुआ करता था- राजेश। लेकिन महेसर हलवाई ने उसे एक नया नाम दिया- नन्हक। नन्हक कुछ ही दिनों में नन्हका हो गया। शुरू में उसे नया नाम कुछ ठीक नहीं लगा, लेकिन बाद में वह अपना पुराना नाम भूल गया। पहले बाबू कुछ-कुछ समय पर बक्सर आ भी जाता था- पता नहीं उससे मिलने या महेसर हलवाई से पैसे लेने। लेकिन एक साल के बाद ही अचानक उसका आना बंद हो गया। फिर एक दिन माँ आई और बताया कि बाबू कलकत्ता चला गया- अपनी तीन जवान बेटियों को उसके सिर पर छोड़कर। माँ कभी-कभार आती, महेसर से पैसे लेती और चली जाती। पांच साल से वह भी नहीं आई। गांव से गंगास्नान करने आए एक बूढ़े आदमी ने बताया कि वह भी गांव छोड़कर कहीं चली गई। अपनी बेटियों के साथ। उसके बाद से नन्हका अकेला है। धीरे-धीरे वह अपनी माँ और बाबू का चेहरा भूलने लगा है। बहनों का चेहरा तो वह बहुत पहले ही भूल चुका है।
रामरेखा घाट की सीढ़ियां शुरू होने के ठीक पहले जहां रंग-बिरंगे धागे गूंथनेवाले बैठते थे वहीं था- रामजानकी हिंदू होटल। एकदम सड़क के किनारे। टीन की छत, टीन का दरवाजा और दरवाजे से सटे मिट्टी के बने दो बड़े चूल्हे। अंदर छोटी-सी जगह में पांच टेबुल और दस बेंच। इसके बाद एक छोटी-सी चौकी होती जिस पर महेसर हलवाई अपने गल्ले के साथ बैठता। कर्मचारी के नाम पर दो लोग- एक नन्हका जो खाना बनाने से लेकर खाना खिलाने तक का काम करता। दूसरी सिधेसरी जो बरतन धोती। सिधेसरी महेसर हलवाई के साथ-साथ नन्हका की भी चाची थी। वह महेसर के साथ होटल आती और उसके साथ ही घर चली जाती। होटल नन्हका के लिए काम करने की जगह था तो रहने के लिए घर भी था।
होटल से एकदम सटा हुआ था बरगद का एक विशाल पेड़। पेड़ इतना घना और छायादार कि छत की जरूरत नहीं। उसकी छाया में हवा इतनी ठंडी लगती कि बिजली का पंखा फेल। पूरी गरमी इस बरगद के पेड़ के नीचे मजमा लगता। दूर-दराज के लोग सुबह में गंगा स्नान करते और नाथ बाबा के मंदिर में जाकर पूजा-पाठ करते। तब तक सूरज सिर पर चढ़ आता। लोग आकर बरगद की छाया में बैठते और महेसर की तेल में छानी हुई गुड़ की सोंधी जलेबी खाते। टह-टह कत्थई रंग की तेलही जलेबियां जिनसे गुड़ का सीरा टपकता रहता। बक्सर में तो अब यह कहावत चल पड़ी थी- जिसने महेसर हलवाई की छानी हुई गुड़ की जलेबियां नहीं खाईं, वह गंगा क्या नहाया। जब तक जलेबी से लोगों का मन भरता, नन्हका दाल-भात और आलू-बैगन की सब्जी तैयार कर लेता। साथ में भुजिया, पापड़ और अचार भी। लोग प्रेम से खाते, बरगद के पेड़ के नीचे एक नींद खींचते और जैसे ही सूरज का ताप कम होता, अपने गांव की ओर निकल जाते।
पर्व-त्योहार के मौके पर तो जितनी भीड़ नाथ बाबा के मंदिर पर होती उससे ज्यादा भीड़ बरगद के पेड़ के नीचे होती। इस भीड़ का फायदा तरह-तरह के लोग उठाते। इसी बरगद के नीचे कहीं बंदर का खेल चलता, तो कोई मरदाना ताकत बढ़ानेवाली जड़ी-बूटियां बेचता। कभी-कभी छोटे-मोटे जादू का खेल दिखाकर लोगों को रिझानेवाले मदारी भी जुटते। शहर भर के लौंडे-लपाड़े भी इसी पेड़ के नीचे जुटते और गांव से आई जवान लड़कियों को देखते रहते। मौका देखकर वे लड़कियों की देह में रगड़ा-रगड़ी करते और किसी ने विरोध किया तो तुरंत मारामारी करने पर उतारू हो जाते। कई बार मोबाइल फोन से लड़कियों की फोटो खींचते और वीडियो भी बनाते। मोबाइल पर जोर से गाना बजाते- हमरी गांव वाली गोरिया जब जवान होई, हो मइया तब हमरो गंगा स्नान होई।
मेला के मौके पर वहां खड़े सिपाही भी इस तरह के दृश्यों का मजा लेते। कोई शिकायत करता तो उल्टे हँसकर कहते- अरे, इन लड़कियों को भी यही अच्छा लगता है। तब तो बार-बार आती हैं। इतनी सती सावित्री हैं तो नहीं आए घाट पर। कई बार नन्हका को भी इन लड़कियों पर गुस्सा आता- क्यों आती हैं यहां अपनी बेइज्जती कराने। पिछले साल ही तो इन लौंडे-लपाड़ों ने एक लड़की को उठा लिया था। तीन दिन बाद यहां से तीन कोस दूर मिली थी। उसकी इस कदर दुर्दशा हुई थी कि जी भी नहीं पाई बेचारी। तीन दिन तक अस्पताल में भर्ती रही और इसके बाद मर गई। फिर भी लड़कियां अपने मां-बाप के साथ गंगा नहाने चली आती हैं। मेला-ठेला का आकर्षण ही ऐसा है। गांव में तो इन बेचारियों के देखने के लिए कुछ भी नहीं होता। तब उस समय उसे मेला-ठेला या गंगा नहान की परंपरा बनानेवालों पर गुस्सा आता। अरे गांव में भी तो नदियां बहती हैं। ठोरा है, सोन है, धरमावती है। पर्व-त्योहार के मौके पर उन नदियों में स्नान का रिवाज क्यों नहीं बनाया। वहीं मेला क्यों नहीं लगता? सारा पुण्य प्रताप गंगा में ही स्नान करने पर क्यों मिलता है। एक बार उसने महेसर हलवाई से भी पूछा- सब मेला गंगाजी के किनारे ही काहे लगता है। हमारे गांव में ठोरा नदी बहती है। ठोरा में नहान मेला काहे नहीं लगता है?
इस पर महेसर बिगड़ गया- पगला गया है क्या रे ससुरा? अरे गोड़ लाग गंगा मइया के। एही गंगा मइया के प्रताप से हम जैसे लोगों की रोजी-रोटी चलती है। अरे एही घाट पर भगवान रामचंदरजी भी नहाए थे। इसीलिए तो नाम है- रामरेखा घाट। गंगाजी में नहाने की बात तो दूर, एक बार इनका दरसन भी कर लो तो सारे पाप दूर हो जाते हैं। आगे से ऐसी बात मत करना।
महेसर दिल का भला आदमी था। लेकिन वह कर भी क्या सकता था। एक बार उसने बरगद के नीचे बैठकर बदमाशी कर रहे कुछ लौंडे-लपाड़ों को समझाने की कोशिश की। लेकिन यह कोशिश बहुत मंहगी पड़ी। शाम होते-होते उन लोगों ने उसके छोटे से होटल का नक्शा बदल दिया। कई बेंच तोड़ डाले। टेबुल उठाकर बाहर फेंक दिया। प्लेटें इतनी तोड़ी कि महेसर रोने लगा। इसके बाद महेसर ने कभी टोका-टोकी नहीं की। उसने नन्हका को भी कह रखा था कि वह भी इन लौंडे-लपाड़ों से बात नहीं करेगा। पता नहीं उसकी कौन सी बात उनलोगों को बुरी लग जाए।
रात के नौ बजे महेसर हलवाई दिन भर का हिसाब-किताब करने के बाद भांग का एक बड़ा सा गोला निगलता, दो प्लेट जलेबी खाता और इसके बाद सिधेसरी चाची के साथ घर की राह लेता। नन्हका होटल के ही दो टेबुल को जोड़कर उस पर चादर बिछाता और पसर जाता। दिन भर की थकान ऐसी होती कि उस पर लेटते ही सो जाता। होटल और गंगा घाट के अलावा उसने बक्सर में और कुछ नहीं देखा। एक बार उसने एक फिल्म देखी थी- दुल्हा गंगा पार के। लेकिन उसके बाद कभी सिनेमा हॉल की ओर जाने की उसकी इच्छा ही नहीं हुई। महेसर कई बार कहता- अरे कभी-कभी शहर में टहल-घूम आओ। मन बदल जाएगा। लेकिन उसकी कहीं आने-जाने की इच्छा ही नहीं होती।
उस दिन गंगा दशहरा का पर्व था। रामरेखा घाट पर लोगों का रेला उमड़ा था। महेसर के होटल में भी जमकर भीड़ हुई। बरगद के पेड़ के नीचे तो कहीं पांव रखने की भी जगह नहीं थी। नन्हका पूरे दिन नाचता रहा। कभी इस कोना तो कभी उस कोना। पांच बार तो भात पकाना पड़ा। रात के दस बजे जब महेसर घर जाने के लिए निकला तो उसने चैन की सांस ली। होटल में बचे भात, दाल और आलू-बैगन की सब्जी मिजाज से खाई और सोने के लिए टेबुल पर लेट गया। लेटते ही आंखें बंद होने लगी। अचानक हल्की सी आवाज हुई और उसकी आंख खुल गई। लगा किसी ने होटल में लगे टीन का दरवाजा खोला हो। हल्की से खड़खड़ाहट और फिर शांत।
नन्हका की समझ में नहीं आया कि क्या हुआ। उसने उठकर बत्ती जलाई। कहीं कुछ नहीं। हां, होटल में लगा टीन का दरवाजा थोड़ा सा खुला था। नन्हका ने आसपास देखा- कहीं कोई कुत्ता तो नहीं घुसा? वह जोर से चिल्लाया- दुर… दुर…। लेकिन कोई चिड़िया-चुरूंग तक नहीं। उसे लगा शायद उसी ने दरवाजा खुला छोड़ दिया है और तेज हवा से दरवाजा खड़खड़ाया होगा। उसने दरवाजे को फिर से खींचकर बंद किया, बत्ती बुझाई और वापस टेबुल पर लेट गया। आंख बंद हुई ही थी कि फिर सरसराहट की आवाज। ऐसा लगा जैसे किसी ने बेंच सरकाया हो।
इस बार नन्हका डरा। कोई चोर? उसे भूत-प्रेत से कभी डर नहीं लगा। एकदम छोटी उम्र से अकेले रहने की आदत ने कभी उसके अंदर भूत को लेकर डर को आने ही नहीं दिया। लेकिन चोर से उसे बहुत डर लगता था। उसने सुन रखा था कि चोरों के पास चाकू और बंदूक तक होती है। वे तो सीधे आदमी की जान ले लेते हैं। उसने सांस रोक कर आवाज की थाह लेने की कोशिश की। फिर सरसराहट की आवाज। जैसे कोई रेंगा हो। इस बार उसका कलेजा जोर से धड़का और उसने झट से उठकर बत्ती जला दी। इस बार बत्ती की रोशनी में उसने जो देखा उससे उसके होश फाख्ता हो गए। डर के मारे उसकी पूरी देह कांपने लगी, हलक सूखने लगा और आवाज जैसे गले के अंदर ही कहीं फंस गई। लड़की… अकेली… और इतनी रात गए उसके होटल में।
वह दरवाजे से सटाकर रखी हुई बेंच के नीचे पड़ी थी। अपने दोनों हाथों को दोनों घुटनों के बीच फंसाए हुए। अपने सिर को सीने में और घुटनों को पेट से सटाकर उसने अपने कद को उतना छोटा कर लिया था जितना कर सकती थी। गहरा सांवला रंग, भरी-पूरी देह, अस्त-व्यस्त बाल और खौफ व बेचारगी से भरी आंखें। उसकी आंखें देखकर नन्हका को उस बाछी की याद आ गई जिसको जबरन खींचकर उसकी माँ से दूर ले जाया जाता है ताकि वह ज्यादा दूध नहीं पी सके। पसीने से पूरी देह भींगी हुई। लोहार की धौंकनी की तरह फूल पिचक रहा सीना। सलवार समीज जरूर गुलाबी रंग के रहे होंगे लेकिन अभी एकदम माटी के रंग के। जरूर माटी में कहीं लोटकर आई है। नन्हका को महेसर हलवाई की बात याद आई- रात-बिरात गंगा किनारे मत जाना बेटा। इनरासन की परियां गंगा नहाने आती हैं। उस समय कोई मरद दिखाई पड़ जाए तो उसे लेकर उड़ जाती हैं। उसके बाद मरद की तो केवल लहास ही मिलती है।
तो क्या इनरासन की परी उसके होटल में घुस आई है? उसने भीतर से खुद को मजबूत किया, अपने बिस्तरे से नीचे उतरा और हाथ के इशारे से उसे बेंच के नीचे से बाहर आने को कहा। वह बाहर निकलकर आई। एकदम सहमी और घबराई हुई। अचानक पता नहीं क्या हुआ कि उसने लपककर नन्हका के पांव पकड़ लिए और जोर-जोर से रोने लगी।
नन्हका घबराया। रामरेखा घाट के रास्ते पर देर रात तक लोग चलते रहते हैं। किसी ने होटल के भीतर से लड़की के रोने की आवाज सुन ली तो? उसने जल्दी से अपनी हथेली से उसका मुंह बंद किया। पता नहीं उस लड़की ने क्या समझा। वह जोर-जोर से छटपटाने लगी और बाहर की ओर भागी। नन्हका ने लपककर उसे पकड़ने की कोशिश की और दोनों बांहों में जकड़ लिया। लगा जैसे पूरी दुनिया घूम रही हो और उसके पांव के नाखून से लेकर सिर के बाल तक कांपने लगे। जैसे वह पिघल रहा हो। अंदर से कुछ बह रहा हो। पहली बार उसने किसी स्त्री का स्पर्श महसूस किया था। तभी उस लड़की ने फिर से छटपटाकर भागने की कोशिश की और नन्हका ने उसे पीछे की तरफ खींचा। अचानक उसकी पकड़ कमजोर हुई और वह लड़की नाचकर नीचे गिर पड़ी। नन्हका ने धीरे से कहा- ‘पागल हो का? इस तरह चिचियाती हुई बाहर भागोगी? मरवाओगी का हमको? कौन हो तुम? होटल के भीतर काहे आई हो?’
लेकिन कुछ भी जवाब देने की जगह वह लड़की रोती रही। हालांकि इस बार उसकी आवाज कम थी। नन्हका ने उसे बगल की बेंच पर बैठने का इशारा किया। लेकिन लड़की ने दोनों हाथ जो़ड़ लिए- ‘बस रात भर के लिए सरन दे दो। भोर होने से पहले चल जाएंगे।’
‘कौन हो तुम? कहां घर है?’ नन्हका ने पास में रखे जग से एक गिलास में पानी भरा और लड़की की ओर बढ़ाया। लड़की ने झपटकर पानी पकड़ा और एक सांस में गिलास खाली। इसके बाद बेंच पर बैठी और धीरे से कहा- ‘चकरहसी गांव है हमारा। गंगा दसहरा में परिवार के साथ आए थे।’
‘अच्छा तो? परिवार कहां है तुम्हारा?’
‘हमारे गांव का लखन मिसिर है न? सुदामा मिसिर का बेटा। कहता था कि हमसे प्रेम करता है। हमसे शादी करेगा। वही परिवार से बिलगा दिया। कहा कि चलो सिनेमा दिखाते हैं। शाम तक गांव पहुंचा देंगे।’
‘फिर?’ नन्हका जान गया कि इसके साथ क्या हुआ होगा। लेकिन पता नहीं क्यों उसने उससे पूछा।
‘हरामी है, साला, सुअर का जना। सिनेमा हॉल में अपने चार-पांच दोस्त को लेकर आ गया। सब मेरे साथ…।’ कहकर एक बार फिर वह रोने लगी।
नन्हका ने दिन की बची गुड़ वाली जलेबी को एक प्लेट में रखा और उसकी ओर बढ़ाया- ‘इसको खा लो। भूख लगी होगी।’
उसने जलेबी का एक टुकड़ा काटा और फिर धीरे से कहा- ‘सब मेरे साथ गंदा काम करना चाहता था।’ कहते हुए वह फिर मुंह खोलकर जोर-जोर से रोने लगी।
‘किसी तरह सिनेमा खत्म होते भीड़ में हम भागे। सब बहुत पीछा किया। बहुत देर तक हम नाथ बाबा के मंदिर के पीछे छिपे थे। तुम्हारे होटल का दरवाजा थोड़ा सा खुला दिखा तो किसी तरह घुस गये। उ सब इधरे हमको खोज रहा होगा। हम एकदम भोरे चले जाएंगे। थोड़ी देर के लिए सरन दे दो।’
‘तुम आराम से बैठो। कोई इधर नहीं आएगा। लेकिन पौ फटने के पहले निकल जाना। इ रास्ता भोर होते ही चालू हो जाता है।’
वह अब आराम से बैठ गई। शायद उसे नन्हका पर भरोसा हो गया। उसने आंख उठाकर पूरे होटल को अपनी नजरों से नापा। इसके बाद उसने नन्हका को देखा। वह अपने बिस्तर पर जाकर बैठ गया था। लड़की उठी और एकदम से नन्हका के पास आकर खड़ी हो गई। इतने पास कि उसका पेट नन्हका के घुटनों से सट गया। नन्हका का दिल जोर से धड़का। उसने अपने सूखे होठों पर जीभ फिराए और थूक घोंटने की कोशिश की। लड़की ने धीरे से कहा- ‘होटल में खाली जलेबी बची है। बड़ी भूख लगी है।’
नन्हका मानो नींद से जागा। वह अपने बिस्तर से कूदा- ‘खाना तो एकदम नहीं बचा है। आज गंगा दसहरा था न। इतना आलम आया कि जो बनाया सब खत्म हो गया।’
लड़की वहीं बेंच पर बैठ गई। उसने अपने माथे पर झुक आए बाल हटाए और धीरे से कहा- ‘कोई बात नहीं। इज्जत बच गई, यही बहुत है। कुछ हो गया रहता तो यहीं गंगाजी में कूद के मर जाते।’
नन्हका ने कुछ नहीं कहा। मौका-बेमौका कुछ बनाने के लिए होटल में एक स्टोव हमेशा रहता था। उसने उसे जलाया- ‘खिचड़ी खाओगी? एकदम तुरंत बन जाएगी। मेरे हाथ की खिचड़ी खाओगी तो कहोगी।’ कहते हुए उसने स्टोव पर बरतन चढ़ाया।
‘अभी तो जो मिल जाएगा वही खा लेंगे।’ कहती हुई लड़की ने आराम से पालथी मार ली। नन्हका ने हँसकर कहा- ‘थोड़ा हाथ-मुंह धो लो। माटी में अइसन सनी हो कि लग रहा है कि होली खेलकर आई हो।’
‘नाम का है तुम्हारा?’ लड़की ने अपने चेहरे पर पानी का झोंका मारते हुए पूछा।
‘नन्हक…….नहीं….. नन्हका।’
खिलखिलाकर हँसी लड़की- ‘इ का? बुतरूओं वाला नाम रखे हो? देखने से भी बच्चा लगते हो। हमसे तो उमर में छोटे ही होगे।’
‘हां। होटल में काम करने वालों का नाम ऐसा ही होता है।’ नन्हका ने हँसती हुई लड़की को देखा। सच में इनरासन की परी है। हँसती है तो कितनी सुंदर लगती है। कोई भी आदमी इसकी हँसी में भुलाकर इसके साथ चला जाए। पता नहीं कैसे आदमी थे वे सब जो इसके साथ गंदा काम करना चाहते थे। इसको तो बस हँसते हुए देखते रहने का मन करता है।
‘और तुम्हारा का नाम है?’ नन्हका ने पूछा।
‘मं… नहीं, तुमको नाम नहीं बताएंगे दादा। होटलवाले हो। दस लोगों के साथ मिलते-बतियाते हो। कहीं तुमने किसी को बता दिया तो? हम तो ऐसे ही बदनाम हो जाएंगे।’ फिर थोड़ी देर रुकी। उसने गौर से नन्हका को देखा और फिर आवाज को नीची करते हुए पूछा- ‘तुम कौन जात हो?’
‘पासवान थे पहले तो। लेकिन अब तो मेरी जात हलवाई की हो गई है।’ कहते हुए नन्हका जोर से हँसा।
‘वैसे मेरे मालिक ने मुझको किसी को भी जात बताने से मना किया है। जात का पता चल जाए तो कई लोग होटल में आकर खाना बंद कर देंगे।’ नन्हका ने स्टोव से खिचड़ी का बरतन उतारा।
उसकी इस बात पर लड़की जोर से हँसी और उसके पास आकर कहा- ‘तुम अच्छे आदमी हो। देखने में भी और सुभाव में भी। जात से का फरक पड़ता है। वो तो बराम्हन का बेटा है जो मेरे साथ गलत काम करना चाहता था। एक बात कहूं। तुम्हारी औरत को जरा भी कष्ट नहीं होगा। तुम रोज बढ़िया-बढ़िया खाना बनाकर उसको खिलाओगे।’
नन्हका ने अपना सिर झुका लिया। उसने तो कभी इसके बारे में सोचा भी नहीं। वह सोचे भी तो क्या फर्क पड़ता है। उसने खिचड़ी एक प्लेट में परोसा आौर लड़की की ओर बढ़ा दिया।
‘चुप काहे हो गए? सरमा गए का?’ लड़की ने प्लेट उसके हाथ से लिया और खाने में जुट गई। गरमागरम खिचड़ी उसने चुटकी में साफ कर दी। नन्हका ने उसकी तरफ देखा- ‘बस इतनी ही थी। पेट भरा कि नहीं?’
‘कोई बात नहीं, चैन मिल गया। अब तो यह सोचना है कि घर जाकर क्या कहेंगे। साला गांव में कोहराम मचा होगा कि यादव की बेटी भाग गई।’ नन्हका कुछ कहने के लिए मुड़ा लेकिन उसका मुंह खुला रह गया। लड़की निश्चिंत भाव से उसके बिस्तर पर लेट गई थी। नन्हका दूसरे बेंच पर लेट गया। उसने लड़की की तरफ करवट बदली और पूछा- ‘हर साल गंगा दसहरा पर आती हो तुम?’
लेकिन उधर से कोई जवाब नहीं आया। वह पूरी तरह नींद में थी। नन्हका मुस्कराया। ऊपर दीवार पर टंगी घड़ी की ओर देखा। रात के एक बज रहे हैं। इसे चार बजे के पहले बस स्टैंड के लिए निकलना होगा। उसके बाद जाने में मुश्किल होगी। उसे जगकर इंतजार करना चाहिए। तभी तीन बजे तक इसे जगा पाएगा। वह बेंच पर बैठे-बैठे चुपचाप लड़की का चेहरा देख रहा था। काश कि यह सचमुच इनरासन की परी होती। उसे लेकर भाग जाती तो कितना अच्छा होता। भले बाद में उसकी लहास मिलती, कोई दुख नहीं। वैसे भी उसकी जिंदगी का क्या मोल। तभी लड़की ने अपनी करवट बदली। उसके सीने पर से कपड़ा हटा और नन्हका का मन जैसे कांप गया। उसने जल्दी से अपनी नजर हटा ली। लेकिन कुछ ही देर के बाद आंखें खुद उस तरफ मुड़ जातीं। इसी तरह इनरासन की परियां मरदों को अपने वश में करती होंगी।
अचानक जोर की आवाज हुई। लगा जैसे किसी ने टीन का दरवाजा पीटा हो। उसने घूमकर लड़की की तरफ देखा। वह गहरी नींद में थी। नन्हका का दिल जोर से धड़का। कहीं वही लौंडे-लपाड़े तो नहीं आ गए। वह सहमते हुए उठा और कांपती हुई आवाज में कहा- ‘कौन है बाहर?’
कोई आवाज नहीं। एकदम सन्नाटा। मन हुआ कि दरवाजा खोलकर देखे। लेकिन कहीं लौंडे-लपाड़े अंदर घुस आए तो? नहीं, दरवाजा नहीं खोलना चाहिए। चाहे कुछ भी हो जाए। दोनों घुटनों में हाथ फंसाए चुपचाप वह दरवाजे की ओर देखता रहा। लेकिन फिर एकदम सन्नाटा। शायद कोई जानवर होगा, उसने मन में सोचा। उसने घूमकर लड़की की ओर देखा। वह सोती हुई मुस्करा रही थी। शायद कोई सपना देख रही थी। तभी उसकी नजर घड़ी पर गई। ढाई बज रहे हैं। अब जगा देना चाहिए। पता नहीं इसके गांव की पहली बस कितने बजे जाती है। वह लड़की के पास गया। लेकिन जगाए कैसे? वह तो उसका नाम भी नहीं जानता। अचानक लड़की ने फिर करवट बदली और उसका हाथ नन्हका के सीने पर आ गया। ओह, कितना मुलायम और गर्म है इसका हाथ। उसने उसकी हथेलियों को अपने हाथ में थामा और उसकी आंखें जैसे बंद होने लगीं। लगा जैसे उसका बदन एकदम हल्का हो गया है और वह हवा में उड़ रहा हो। उसने लड़की के हाथ को हल्के से दबाया। उसे बहुत अच्छा लगा। जैसे उसके हाथों में फोम का गद्दा हो। उसने फिर दबाया। उसकी सांस तेज होने लगी। हलक सूखने लगा। उसकी इच्छा हुई कि वह वहीं लड़की की बगल में लेट जाए। एकदम उससे सटकर। वह लड़की के और करीब आया। उसकी हथेली को एक बार फिर पूरी ताकत से दबाया तभी लड़की ने आंखें खोल दीं। इस बार उसकी आंखों में हैरत और खौफ के भाव थे। नन्हका को लगा जैसे किसी ने उसके ऊपर घड़े का सारा पानी उड़ेल दिया हो। जैसे वह बीच बाजार में नंगा हो गया हो। उसने अपनी आंखें नीची कर ली और धीरे से कहा- ‘अब उठ जाओ। एकदम भोरे वाली बस पकड़नी होगी।’
लड़की के चेहरे का तनाव अचानक गायब हो गया। उसने घड़ी की तरफ देखा। ‘अरे! तीन बजने वाला है। चार बजे की पहली बस है।’
नन्हका ने सिर हिलाया। लड़की ने धीरे से कहा- ‘मुझे बस स्टैंड छोड़ दोगे न? अभी अंधेरा है। मुझे जाने में बहुत डर लगेगा।’
नन्हका ने फिर से अपना सिर हिला दिया। कुछ ही देर के बाद दोनों होटल से निकलकर बस स्टैंड के रास्ते में थे। रास्ता एकदम सन्नाटे में डूबा हुआ। जा रही रात अपना भयावह रूप दिखाने की कोशिश में थी। आकाश में तारे झिलमिला रहे थे। गंगा के पानी को छूकर आने वाली ठंडी हवा जब बदन को छूती तो नन्हका सिहर जाता। लेकिन उससे भी ज्यादा सिहरन होती जब चलते हुए कभी लड़की के हाथ उसके हाथ से सट जाते। अचानक लड़की ने उसका कंधा पकड़ा- ‘कुछ बोलते काहे नहीं? एकदम चुप-चुप चल रहे हो?’
क्या बोले नन्हका? अपना घर रहता तो उससे कहता कि वह उसके पास रह जाए। उसने लड़की का चेहरा देखा और धीरे से कहा- ‘बस पर तो बैठा देंगे लेकिन मन में चिंता रहेगी कि तुम ठीक से पहुंची कि नहीं।’
खिलखिलाई लड़की- ‘अरे, तुम तो एकदम अपने की तरह बात करते हो? रात भर में इतना अपनापा हो गया मुझसे?’ नन्हका ने उसे हँसते हुए देखा। इस इनरासन की परी से वह क्या कहे। कैसे सबूत दे?
बस पर लड़की को बैठाने के बाद नन्हका ने गौर से उसका चेहरा देखा। एक बार फिर मन किया कि उसकी बगल में बैठ जाए और कभी नहीं हटे। लेकिन यह कैसे संभव था। बस स्टार्ट हुई और वह उतरने को हुआ तभी लड़की ने उसका हाथ पकड़ लिया- ‘तुम बहुत बढ़िया आदमी हो। एकदम गंगाजी के पानी की तरह। किसी देवता की तरह। तुम्हारा एहसान नहीं उतार सकती। जब भी गंगा स्नान के लिए आऊंगी तो तुमसे जरूर मिलूंगी।’
नन्हका ने जल्दी से उससे हाथ छुड़ाया और बस से उतर गया। अगर वह कुछ देर और रुकता तो रो देता। बस से उतरकर तेज कदमों से बाहर की तरफ भागा। मन हुआ कि घूमकर एक बार बस की तरफ देखे। लड़की को उसने एकदम खिड़की के पास बैठाया है। वह जरूर उसे ही देख रही होगी। वह पलटने को था तभी मन ने रोका- नहीं, घूमकर मत देखना। इनरासन की परी साथ लेकर चली जाएगी। फिर तुम्हारी लहास ही मिलेगी। अभी तो महेसर हलवाई का पूरा होटल संभालना है। नन्हका ने सामने पड़े ईंट के टुकड़े को जोर से ठोकर मारी। टुकड़ा उड़ता हुआ एक तरफ चला गया। पता नहीं, उस ईंट के टुकड़े में ऐसा क्या था कि नन्हका उसे फिर से उठाने के लिए उसके पीछे दौड़ पड़ा।
संपर्क सूत्र : फ्लैट नं. 301, निरंजन अपार्टमेंट, आकाशवाणी मार्ग, खाजपुरा, बेली रोड, पटना, (बिहार) मो.9934994603
गजब की कहानी! मासूमियत और इंसानियत पर भरोसा जगाने वाली। कहानीकार व पत्रिका दोनों को खूब सारी बधाई!
कथ्य ,भाव और प्रवाह की दृष्टि से बेजोड़ कहानी
बहुत ही भावात्मक कहानी। एकदम से दिल में उतरने वाली इनरासन की परी। आभारी हूं वागर्थ का जिसके माध्यम से ऐसी कहानी पढ़ने को मिला।
बहुत उम्दा रचना। ढेर सारी बधाई।
दाद देता हूँ कहानीकार को । कितनी सरल भाषा और मासूमियत के साथ एक सशक्त कहानी की रचना हुई है। लेखक वधाई के पात्र हैं।