अरबीभाषा के कई प्रकाशनों और न्यूयार्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट, द गार्जियन आदि के लिए नियमित लिखने वाली मोना एल्तहावी एक प्रमुख अमेरिकी आप्रवासी लेखिका और पत्रकार हैं।स्त्री अधिकारों की एक प्रबल समर्थक।इनकी रचनाओं में अरब संसार में स्त्री के स्थान और स्थिति का बयान है।इस कोशिश के लिए 2011 में इन्हें न केवल कैद किया गया, बल्कि शारीरिक प्रताड़ना और यौन हमलों का भी शिकार होना पड़ा।इसके बाद एल्तहावी ने व्हाइ डू दे हेट अस : द रियल वार ऑन वुमेन इज इन द मिडिल ईस्ट’  एक आलेख लिखा।इसमें उन्होंने मुखर होकर दलील दी कि सामाजिक और लैंगिक क्रांति के बगैर पश्चिमी एशिया में किसी भी तरह की प्रगति या विकास संभव नहीं।कुछ समय पूर्व  अंग्रेजी पत्र द कारवांकी सहायक संपादिका सुरभि कंगा ने मोना एल्तहावी से बाचतीच की। प्रस्तुत है अनूदित अंश। अनुवाद : उपमा ऋचा

सुरभि कंगा : अपनी किताब में आपने Traumatized into feminism का प्रयोग किया है। यह क्या है?

मोना एल्तहावी : मैं इसका इस्तेमाल सऊदी अरब की ज़मीन पर अपने फेमिनिज़्म की दुनिया में दाखिल होने की सूरत बयान करने के लिए करती हूँ।असल में मैं मिस्र में जन्मी थी, पर जब मैं सात साल की थी, मेरा ख़ानदान यूके चला गया।मेरे अम्मी-अब्बू मेडिसन में पी-एच.डी. कर रहे थे।सरकार ने उन्हें इसके लिए स्कॉलरशिप दी थी।लिहाज़ा हम वहां चले गए।मैं एक निहायत ही फेमिनिस्ट घर में पली-बढ़ी।मैं एक ऐसे घर में पली-बढ़ी, जहां मेरे अम्मी-अब्बू ने मुझे समझाया कि दुनिया की सबसे ज़रूरी चीज़ है- मेरी और मेरे भाई-बहनों की पढ़ाई-लिखाई।लेकिन फिर हम सऊदी अरब आए, जहां मैंने इस्लाम के नाम पर औरतजात से नफ़रत की बदतर तस्वीर देखी।यह वह इस्लाम नहीं था, जिसके साथ मैं बड़ी हुई थी।मेरे अम्मी-अब्बू ने हमें कभी नहीं सिखाया कि इस्लाम का मतलब औरतों को पाप की चलती-फिरती मूरत समझना होता है, पर सऊदी अरब में मैंने जो देखा, या मैं जो देख रही थी, वह यही था।मैं इसपर यकीन नहीं कर सकी और बहुत गहरे अवसाद में चली गई।ये मेरे जब्त से बाहर की बात थी।बेशक मैं ‘फेमिनिस्ट’ लफ्ज को जानने से पहले ही ‘फेमिनिस्ट’ बन चुकी थी।

मुझे ये लफ्ज उस यूनिवर्सिटी की दहलीज के भीतर मिला था, जिसमें मैंने दो साल के लिए दाख़िला लिया था।अब यह तो जाहिर सी बात है कि सऊदी अरब में विमेन एंड जेण्डर स्टडीज से ताल्लुक रखने वाले प्रोग्राम नहीं हैं।इत्तेफाकन यूनिवर्सिटी के किसी बगावती तेवर वाले प्रोफेसर या लाइब्रेरियन ने बुकशेल्फ में फेमिनिस्ट किताबें और जर्नाल रख दिए थे, जो मेरे हाथ लग गए और उन्होंने मेरे दिमाग को तबाह होने से बचा लिया।उन्हीं किताबों में मुझे यह लफ्ज मिला, जिसे मैं जाने कब से जी रही थी- औरतों को पाप की चलती-फिरती मूरत समझने के खिलाफ एक बगावत, एक ना-इत्तेफाकी और एक आवाज!

लेखक का काम है कि वह समाज को उन चीज़ों के बारे में बताए, जो उसे नहीं मालूम| औरतों की जो लड़ाई हमने शरीर पर फोकस कर रखी है, उसे दिमागी क्रांति के बगैर नहीं जीता जा सकता| कई बार मैं सोचती हूं कि अगर मैं एक बेटी की माँ होती, तो क्या करती! क्या मैं वो तमाम सबक भूल जाती, जो एक औरत को रटा दिए जाते हैं? क्या मैं उसे खिलाफ़त सिखा पाती? पितृसत्ता से लड़ाई मुश्किल है, लेकिन पितृसत्ता से लड़ाई का मतलब मर्दों से नफ़रत करना नहीं है| इस लड़ाई का मतलब है कि औरत अपनी ज़िंदगी के बारे में इस तरह बात करना सीख ले कि उसकी ज़िंदगी उसके लिए सबसे मानीखेज चीज़ है|

सुरभि कंगा : पैनल डिस्कशन के दौरान आपने कहा था कि यूके जिस नजरिए से अरब देशों को देखता है, वह निहायत ही हिप्पोक्रेटिकल है।साथ ही साथ आपने यह भी कहा था कि भारत और पाकिस्तान में आपसी रिश्ते का जो अक्स झलकता है, उसमें बहुत कुछ छिपा हुआ सा है, मानो एक गुप्त अंतर्धारा…

मोना एल्तहावी : देखें,  मिडिल ईस्ट और नॉर्थ अफ्रीका के लोग, खासतौर पर मुस्लिम लोगों को अक्सर मजहबी सनकों के साथ जोड़कर देखा जाता है, मानो हम दिन भर केवल तसबीह फेरना या जाकर आईएसआईएस और ऊरशीह में शामिल हो जाना चाहते हैं।वे यह कहकर हमारी तरफ उंगली उठाते हैं कि यहां मिडिल ईस्ट में सब कुछ मजहब के मुताबिक होता है।ठीक है, लेकिन उनका क्या जो दुनिया के सबसे ताकतवर मुल्क के प्रेसीडेंट बनने की दौड़ में दौड़ रहे हैं और बात कर रहे हैं कि ‘गॉड’ किसके टैक्स प्लान का सपोर्ट करेंगे या एक स्त्री की देह को अपने वश में रखने के बारे में, या मेरे हक के बारे में अपनी देह के साथ क्या करना चाहती हूँ, खासतौर पर बच्चों को जन्म देने के बारे में? मेरे लिए यह ज्यादा खतरनाक है।

मैंने भारत और पाकिस्तान को मिडिल ईस्ट और नॉर्थ अफ्रीका के साथ जोड़ा, क्योंकि मैं अक्सर कहती हूँ कि मिडिल ईस्ट की हुकूमत और हुक्मरानों ने अवाम के लिए इज़राइल को अफीम की तरह इस्तेमाल किया।जर्मन दार्शनिक और अर्थशास्त्री कार्ल मार्क्स ने मजहब को अफीम कहा था और मैं कहती हूँ कि इज़राइल वस्तुतः मिडिल ईस्ट और नॉर्थ अफ्रीका का अफीम है, क्योंकि हमारे हुक्मरान इसका इस्तेमाल मुल्क के भीतर अपने हाथों होने वाले गुनाहों से अवाम का ध्यान हटाने के लिए करते रहेंगे।

इस पर एक नौजवान ने मुझसे कहा कि पाकिस्तान के बारे में भी यह बात सौ-फीसद सही है।भारत-पाकिस्तान जैसे मुल्क जिन्हें अपने पड़ौसी मुल्क के साथ दिक्कतें बनी रहती हैं, वे इसे बढ़ा देते हैं।विदेशी दुश्मन, विदेशी खतरे की बात में अवाम को उलझा देने के लिए इसे बड़ा बनाते चले जाते हैं।इससे अवाम से अपनी बात मनवाना, उसको चुप रखना और हुकूमत से यह सवाल करने की हिम्मत को तोड़ना आसान हो जाता है कि उसने लोगों के लिए क्या किया।भारत में भी मजहब और सियासत का मसला है।मैं इस खयाल को दूर करना चाहती हूँ कि मजहब और सियासत का इस्तेमाल केवल मिडिल ईस्ट और नॉर्थ अफ्रीका में होता है।

सुरभि कंगा : आप अक्सर इस्लाम के उन जड़सूत्रों की आलोचना करती हैं, जो किन्हीं लोगों के द्वारा औरतों को दबाने के लिए प्रयोग किए जाते हैं।आप इस तथ्य के बारे में क्या कहेंगी कि दुनिया भर में इस्लाम की इसी प्रकार की आलोचना का प्रयोग मुसलमानों को बदनाम करने के लिए किया जाता है?

मोना एल्तहावी : इस्लामोफ़ोबिया और ज़ेनोफ़ोबिया से मुझे कोई लेना-देना नहीं है।मेरे लिए औरतें सबसे पहले आती हैं।मैं ब्लैक फैमिनिस्टस की टीचिंग्स की मुरीद हूँ।मसलन बेल हुक्स और आड्रे लोर्डे।हैरत में डाल देने वाली ये ब्लैक फैमिनिस्ट हमेशा से कहती आई हैं कि औरतों की लड़ाई दो चीज़ों से है : रेसिज़्म और सेक्सिज़्म।मैं ये दोनों लड़ाई लड़ रही हूँ और एक को दूसरे पर हावी नहीं होने देती।2011 में जब मुझ पर हमले हुए या अगले साल जब एक रेसिस्ट विज्ञापन पर स्प्रे पेंटिंग कर देने के लिए मुझे न्यूयार्क में गिरफ्तार कर लिया गया, तब सोशल मीडिया के जरिए लोग मुझसे जुड़े और उस लड़ाई को रिप्रिजेंट करने के लिए आगे आए जो मैं लड़ रही हूँ।

सुरभि कंगा

लेखिका और पत्रकार।द कारवांअंग्रेजी पत्र से जुड़ीं।

उपमा ऋचा

लेखिका और अनुवादक। मल्टीमीडिया एडीटर वागर्थ ।