युवा आदिवासी लेखिका, स्वतंत्र पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता।
मैं पेड़ पर टंगी हुई हूँ।मेरा गला मेरे ही पीले दुपट्टे से बंधा हुआ है।मेरी गुथी हुई चोटी झूल रही है।बालों में कुसुम तेल की गंध है।मेरी जीभ बाहर निकली हुई है।आंखें खुली हैं।मौत के बाद भी जाने किस शून्य में वे अटकी हुई हैं।ठंडे हाथ लटक रहे हैं।दोनों पैर फैले हुए हैं।हवा में झूल रहे हैं।देह तो माटी में चली जाएगी पर रूह का क्या होगा? अपनी लाश को देखकर मैं यही सोच रही हूँ।सुबह होते ही चील-कौवे मंडरा रहे हैं।वे पेड़ की डालियों पर आकर बैठ गए हैं।अपने रिश्तेदारों को भी बुला रहे हैं।उनके लिए एक बड़ा मांस का टुकड़ा पेड़ पर लटक रहा है।उन्हें देखती हुई सोचती हूँ, आदमी और इनमें फर्क क्या है? ये भी इंसानी देह को मांस का टुकड़ा समझते हैं।पर ये चील-कौवे-गिद्ध आदमी से बेहतर हैं।ये जिंदा इंसान को मांस का लोथड़ा नहीं समझते।ये किसी की रूह का गला नहीं घोंटते।किसी का बलात्कार नहीं करते।उसे पेड़ पर इस तरह नहीं टांग जाते।स्त्री को इंसान समझना और खुद भी इंसान हो जाना तो दूर की बात है, आदमी को इनकी तरह होने में भी बहुत वक्त लगेगा।
उजाला होते ही लोगों की भीड़ जुटने लगी।चारों तरफ एक ही सवाल है।किसकी लड़की है? अरे! कोई आदिवासी लड़की है! रात क्या हुआ? किसने यह सब किया? कोई दीकू तो नहीं था? क्या उसका किसी के साथ चक्कर चल रहा था? हजार तरह के सवाल उनके मन में थे।बहुत देर बाद इसी हो-हल्ला के बीच पुलिस आई।मेरी देह पेड़ से उतार ली गई।पोस्टमार्टम के लिए पास वाले शहर भेज दी गई।पेड़ के नीचे जमी भीड़ भी छंट गई।दूर-दूर तक मेरी लाश की जो चर्चा थी, वह भी थम गई।अब चारों तरफ सन्नाटा है।उस सन्नाटे में अब भी हवा बहती है।कोई पेड़ की डाली एक दूसरे से टकराकर चर्रर्र…चर्रर्र… करती है।और मैं उस पेड़ पर लटकी फिर से झूलने लगती हूँ।
कौन सी जगह है? कोई स्टेशन है ‘बिसरा स्टेशन’।झारखंड से ओड़िशा जाने के रास्ते में वह स्टेशन है।रेल-लाइन के किनारे-किनारे जंगल है।सारंडा जंगल पास है।इनके बीच ही छोटे-छोटे गांव हैं।अधिकांश गांव रात के आठ बजे के बाद चुपचाप सो जाते हैं।तब जंगल गाने लगता है।फिर सुबह चार बजे मुर्गे के बांगने पर गांव उठ जाते हैं।पर उनसे पहले गाय-बैल उठते हैं।पुआल खाते हुए उनके गले की घंटी टुन..टुन..टुन..बजती है।उसी की आवाज सुनकर धीरे-धीरे पूरा गांव आंख मलता है।
उस रात जिस ट्रेन से हम बिसरा स्टेशन पहुंचे थे उसमें बहुत भीड़ नहीं थी।जेनरल बोगी में हम बैठे हुए थे।ट्रेन जैसे ही बिसरा स्टेशन पहुंची, वहां मेरे साथ आए पांच लोग उतर गए।एक ने मुझे भी उतरने को कहा।मैं समझी बाहर ठंडी हवा में शायद थोड़ी देर सुस्ताने के लिए उतरे हैं।पर अचानक एक ने मेरा मुंह बंद कर दिया।सब मिलकर मुझे झाड़ी की तरफ खींचने लगे।मैं झटपटाने लगी।उनका हाथ मुंह से हटाकर मैं जोर से चिल्लाना चाहती थी कि तभी ट्रेन चलने लगी और ट्रेन की आवाज के नीचे मेरी दबी-दबी आवाज दबकर रह गई।कौन थे वे पांचों? और मेरे क्या लगते थे? हुंह! और कौन होंगे?
सब मेरे ही तो सगे–संबंधी थे।वही लड़के जो मेरे ही इलाके में घुमा–फिरा करते थे।अक्सर मंगर बाजार में टकरा जाते थे मुझसे।और वह लड़का जिसने मेरा मुंह बंद किया था, जो मुझे खींचते हुए झाड़ी की तरफ ले गया था, वह तो मेरे चाचा का लड़का था ‘सोमरा’।गांव में वैसे लोग उसे ‘सोमरा’ कहते थे लेकिन जब से शहर से लौटा था ‘समर’ हो गया था।
‘क्या रे लड़की! देखते ही देखते डिंगडिंगा कर बड़ी हो रही हो?’ शहर से लौटकर गांव आने पर सोमरा ने चपाकल के पास मुझे पानी भरते देखकर एक दिन कहा।
‘अच्छा! मैं डिंगडिंगाकर बड़ी हो रही हूँ? और तुम? तुम तो शहर जाकर मोटे हो गए हो।मोटका कहीं के!’ मैंने उसे चिढ़ाते हुए कहा।
‘अच्छा! मैं मोटका हूँ?’ कहो तो जरा फिर से।कहते हुए उसने मेरी चोटी पकड़ ली।मैंने माथे पर पानी से भरा डेकची रखा था।उसके इस तरह चोटी खींचने से पानी छलक गया और मेरा पूरा कपड़ा पानी से भीग गया।पानी कपड़े के भीतर ही भीतर सिर से उतरता हुआ सीने से होकर गुजरने लगा और मेरे बदन में सिहरन-सी होने लगी।मैं जल्दी-जल्दी उससे पिंड छुड़ाकर घर की ओर भागी।
चाचा का घर हमारे घर के सामने ही था।उनके घर का दरवाजा और हमारे घर का दरवाजा एक ही आंगन में खुलता था।उनके घर का दरवाजा लंबे बरामदे के बीच था।दरवाजे के बगल में बरामदे के पास ही धान कूटने की ढेकी थी।हमलोग अपने घर का धान भी उनके ही घर जाकर कूटते थे।स्कूल से लौटकर मुझे उसके घर की ढेकी में ही धान कूटना होता था।कभी-कभी सोमरा ढेकी की आवाज सुनकर आ जाता था।और ढेकी में धान कूटते वक्त मेरा हाथ बंटाता था।वह ढेकी धांगता और मैं भूसे से भरा चावल ढेकी से निकालती।फिर उसे पछुरकर साफ करती।हर दिन ढेकी में धान कूटकर, चावल साफ कर, भात रींध कर स्कूल जाना होता था।
‘भात रींधना ठीक से सीख लो तब न अच्छे घर में तुम्हारी शादी होगी, जहां तुम्हें ढेकी में धान न कूटना पड़े।’ ढेकी खूंदते हुए वह कहता।
‘मुझे नहीं करनी शादी।तुम्हें करनी है तो करो।मुझसे पहले तो तुम्हारी ही होगी शादी।वैसे भी बुढ़ा रहे हो।‘ मैं इतना कहती कि ‘अच्छा मैं बुढ़ा रहा हूं?’ कहता हुआ वह मेरी चोटी खींचता।
एक शाम हम साथ ढेकी में धान कूट रहे थे।बिजली नहीं थी।बरामदे में एक छोटी खिड़की थी।उसकी हल्की रोशनी में एक दूसरे का चेहरा दिखता था।वह काम करने के साथ-साथ ऐसे ही अपनी बातों से मुझे तंग कर रहा था।तभी अचानक उसने मेरा हाथ पकड़ लिया। ‘रेशमा तुम बहुत सुंदर हो’ पास खींचते हुए बोला।मैं अपनी तारीफ सुनकर लजा गई।किसी पुरुष ने इतने करीब आकर पहली बार इस तरह मेरी तारीफ की थी।मैंने हाथ छुड़ाने की कोशिश की।तभी उसने झटके से मुझे खींचा और मैं उसकी बांहों में समाती चली गई।उसके सीने में मेरा सिर था।उसकी धड़कनें बढ़ रही थी।उसकी सांसे गर्म होने लगी।उसकी सांस की लहक मेरी सांसों तक पहुंच रही थी।मुझे लगा दोनों के बीच हंसी-मजाक में कुछ सिझने लगा है।धान कूटते-कूटते हम दोनों सिर्फं भात नहीं रांध रहे थे, कुछ और भी हम दोनों के बीच सीझ रहा था।एक झटके में हाथ छुड़ाकर मैं चावल समेटकर भाग गई।पर सांसों की वह लहक देर तक मन को पिघलाती रही।अब जब भी उससे बात होती, मैं शर्माने लगती।पता नहीं क्यों मन पंक्षी की तरह कहीं उड़ने लगता।हम बार-बार पास आने का अवसर ढूंढने लगते।रोज सुबह-शाम ढेकी में धान कूटते और काम करते-करते एक दूसरे को धीरे से छूते।जाने क्या था उस छुअन में? एक रात बरामदे के खाट पर मैं भात रींधने के बाद थककर सो गई।जाने कब वह मेरे पास आकर लेट गया, पता ही न चला।पुरुष देह की तेज गंध और मजबूत, गठीले बदन का बंधन।कहां फिर छूटना हो पाता है? कब हमने हदें पार की पता ही नहीं चला।
कुछ माह बीता तो एक दिन मुझे पता चला कि मैं पेट से हूँ।मैंने यह बात सोमरा को बताई।उसने कहा ‘किसी से कहना नहीं।मैं कोई उपाय करूंगा।’ मैं उसकी बात मान गई।एक दिन आधी रात उल्टियां होने लगी तो रात मां ने उठकर मुझे संभाला।उसे मालूम हो गया कि मैं पेट से हूँ।मैंने देखा कि वह डर गई है।थोड़ी चिंतित भी है।उसने पूछा- ‘रेशमा! केकर छउवा हिके?’ (रेशमा! किसका बच्चा है?) मैंने उसे कुछ कहा नहीं, चुपचाप अपने कमरे में चली गई।रात मां सो रही थी।तभी सोमरा ने खिड़की के पास आकर कहा, ‘रेशमा, कुछ कपड़े ले लो, हम राउरकेला (ओड़िशा) जाने वाले हैं।’ मैंने एक छोटा बैग संभाल लिया।सिर पर एक दुपट्टा पीले रंग का ओढ़ लिया।घर से बाहर निकली तो देखा कि चार लड़के उसके साथ और हैं।मैंने पूछा ‘ई मन काले जाथाएं?’ (ये लोग क्यों जा रहे हैं?) उसने कहा, ‘अरे! रात का समय है।किसी तरह की कोई परेशानी हुई तो ये सब काम आएंगे।’ मैंने गहरी सांस खींची और उनके साथ चल पड़ी।
पहले तो हम पहाड़ के किनारे–किनारे चले।अंधेरे में एक तालाब गुजरा पास से, धुंधला सा।पानी में अंधेरे का चेहरा थोड़ा चमक रहा था।मुझे याद आया, उसे बाबा ने गांव के लोगों की मदद से बनवाया था।हमलोग स्कूल की छुट्टियों में वहां मछली मारते थे।मैंने तैरना भी उसी तालाब में सीखा था।वह पीछे छूट रहा था।पक्के रास्ते अभी बने नहीं थे।रास्ता पथरीला था।पहाड़ होकर जाने पर कुछ देर बाद पक्की सड़क पर निकल सकते थे।
थकान हो रही थी लेकिन इसी रास्ते से कोई रास्ता निकलेगा, यह सोचकर मन की बेचैनी शांत भी होती थी।थोड़ी देर में पक्की सड़क दिखने लगी थी।कच्चा रास्ता छोड़कर पक्की सड़क पर हम आ गए थे।स्टेशन की ओर जाने वाला रात का अंतिम ऑटो मिल गया था।समय पर हम स्टेशन पहुंच गए।स्टेशन में राउरकेला (ओड़िशा) जाने वाली ट्रेन मिल गई।हम सब ट्रेन में चढ़ गए।लग रहा था कि राउरकेला पहुंचकर सबकुछ ठीक हो जाएगा।एक बार इस समस्या से छुटकारा मिले तो फिर से पढ़ाई शुरू करूंगी।यही सोचती हुई मैं उनके पीछे-पीछे चली जा रही थी।पर मुझे जरा सी भी भनक नहीं थी कि वह यात्रा मेरे जीवन की अंतिम यात्रा होगी।उन सबने पहले से ही बलात्कार की योजना बना रखी थी।उस रात बलात्कार के बाद उन्होंने मुझे पेड़ पर टांग दिया।मेरी लाश बिसरा स्टेशन से कुछ दूर एक पेड़ पर सुबह तक टंगी रही।और देह से निकलकर उसी पेड़ पर बैठी मैं देखती रही सारा तमाशा।आदमी उजाले में क्या होता है और अंधेरे में क्या?
उम्र ही क्या थी मेरी अभी।महज सोलह साल।दुबली-पतली, छरहरी सी।मैं स्कूल जाने से पहले अक्सर खुद को आईने में देखती थी।मेरे कमरे में एक छोटा आईना था।मेरा कमरा? ओह! वह मेरा कमरा नहीं था, सबका कमरा था।अपना कमरा कहां होता है? गांव-घर में श्रम करती एक स्त्री के लिए पूरा घर होता है।खटते रहने के लिए पूरा खेत होता है।पूरे घर में दिन भर वह यहां से वहां भटकती रहती है।पर थोड़ी देर आराम करने के लिए उसका अपना कमरा जैसा कुछ होता नहीं।थककर वह बरामदे में बिछी खाट पर लुढ़क जाती है या जमीन पर बिछी चटाई पर पसर जाती है।कमरे में सोती है तो कोई न कोई किसी न किसी काम से कमरे में घुसता रहता है।कभी छोटा भाई, कभी बड़ा भाई, कभी मां, कभी पड़ोस की काकी, कभी काकी की छोटी लड़की।सबके लिए दरवाजा खुला रहता है घर का।और ताला तो गांव में कोई लगाता भी नहीं।स्त्री को इन सबके बीच बेफिक्री के साथ सोने की आदत डालनी पड़ती है।शायद वह कभी भी पूरी नींद सो नहीं पाती।वह हमेशा चौकन्नी होकर सोती है या जीवनभर आधी नींद में होती है।मौत ही उसकी सबसे गहरी नींद होती है और उसकी कब्र ही उसका अपना कमरा, जहां उसे कोई परेशान नहीं कर पाता।या जीवन भर रोज-रोज वह जो थोड़ा-थोड़ा मरती है, उसी के भीतर उसका असल विश्राम होता है।
तो मेरे घर में जो एक आईना था, उसका एक किनारा टूटा हुआ था।उस आधे आईने में ही खुद को देखती थी मैं।थोड़ा इतराती भी थी कि आंखें मेरी सच में सुंदर थीं।आंखों में हमेशा गहरा काजल भरती थी।घर भर में एक मेरा ही रंग साफ था।इसका भी गुमान था मुझे।गांव में भी सांवले रंग वाली लड़कियों को कोई बहुत पूछता नहीं, साफ रंग हुआ तो गांव भर में चर्चा।बाल काले, घने और लंबे थे।गांव में कुसुम का तेल लगा-लगाकर मेरे बाल घने और काले हो गए थे।गांव की स्त्रियां मेरी मां से कहते नहीं थकतीं थीं ‘तोर छोड़ी तो मुरूक सुंदराही रे रेशमा केर आयो।’ (रेशमा की मां तुम्हारी लड़की बहुत सुंदर है रे।)
मां चाहती थी कि मैं खूब पढूं।पढ़-लिख कर कोई अच्छी सी नौकरी करूं।मगर अभी आठवीं क्लास में ही थी कि सोमरा के साथ उस रात संबंध बन गया।वह उम्र में मुझसे बड़ा था।यही कोई २५ साल का होगा।वह गांव से बाहर रहता था।कुछ समय पहले ही गुजरात से काम कर लौटा था।बड़े शहर की बड़ी बातें।उसका आकर्षण भी बहुत।रिश्ते में हम भाई-बहन थे।पर ये सारे रिश्ते तो समाज के बनाए हुए हैं।है तो वह पुरुष ही।
‘गांव में लोगों को भोज खिला-पिलाकर हम शहर में बस जाएं तो फिर कौन पूछता है कि हम रिश्ते में क्या लगते हैं? सब मामला रफा-दफा करने के लिए एक खस्सी ही तो लगता है गांव में’, यह सब कहकर उसने मुझे तस्सली दी थी।शादी से पहले बच्चा होना कोई नई बात नहीं है गांव में।बच्चे के जन्म लेने के बाद भी शादियां होती हैं आदिवासी इलाकों में।पर हमारा गोत्र एक था और रिश्ते में हम भाई-बहन थे।समाज के लिए एक गोत्र में विवाह वर्जित है और अपराध भी।कई मामलों में तो एक गोत्र में विवाह को भी खान-पान के बाद सुलझाया गया है।लेकिन इतने निकट संबंध को समाज कभी स्वीकार नहीं करेगा।मैं यह जानती थी।विवाह के पहले संबंध तो नई बात नहीं थी।लेकिन अपने ही लोगों द्वारा सामूहिक बलात्कार तो नई घटना थी।सचमुच गांव-समाज बदल रहा था।
मैं देख रही थी कि मृत्यु के बाद इस देह का होता क्या है? पोस्टमार्टम के बाद बोरे की तरह मेरी देह सिल दी गई।दूसरे दिन अखबार में मेरी तस्वीर छपी।बात आग की तरह चारों तरफ फैल गई।गांव में मेरे घरवालों तक भी बात पहुंची।मैंने समझा था कि घर में कोहराम मच जाएगा।घर वाले मिलकर बलात्कारियों को सजा दिलाकर ही रहेंगे।पर ऐसा कुछ होता हुआ दिखाई नहीं पड़ा
।मेरे बाबा फफक-फफक कर रोए और खुद को बहुत कोसा कि उनकी ही गलती से मेरा यह हाल हुआ।मां भी बुरी तरह रोई।न जाने कितने दिनों तक उन्होंने कुछ खाया-पीया भी नहीं।भाई मेरे बहुत दुखी थे।पूरा घर श्मशान की तरह हो गया था।
चूल्हा कुछ दिन तक जला नहीं।खाली डेकची उबड़ा रहा कई दिनों तक।बकरियों को किसी ने जंगल में छोड़ा नहीं पत्ते खाने के लिए।पड़ोसी आकर अपनी बकरियों के साथ उन्हें ले गए जंगल।मेरी प्यारी बकरियां भी कुछ उदास दिखीं।सब दुखी थे घर पर।मैंने देखा, सब दुखी जरूर थे पर हर कोई इस बात को दबा देना चाहता था।
कुछ दिन के शोक के बाद बाबा दबी जुबान में कह रहे थे ‘घर-दुआर केर बात हिके।इके बाहरे गुठियाएक केर कोनो जरूरत नाखे।जे होई गेलक से होई गेलक।छोड़ी हमर बेस नी रहे तो के का करबाएं?’ (घर दुआर की बात है।इसे बाहर बात करने की जरूरत नहीं है।जो चला गया सो चला गया।लड़की ही हमारी ठीक नहीं थी तो कोई क्या कर सकता है?) बाबा ने सारे मामले पर चुप्पी साध ली।मां मुझे न्याय दिलाने के लिए लड़ना चाहती थी।बलात्कारियों को सजा दिलाना चाहती थी।लेकिन उसे याद आया कि इस घर में उसकी खुद की कोई कीमत नहीं।घर पति का, खेत पति का, संपत्ति पति की, शक्ति पति की, निर्णय पति का।और बेटी का बलात्कारी भी तो पति के भाई का लड़का और उसी की मित्र मंडली।इस घर में, इस खेत में वह आजीवन खटने के लिए तो है लेकिन कोई निर्णय लेने, हक मांगने, न्याय चाहने और अन्याय के खिलाफ कुछ बोल सकने के लिए नहीं है।
मां को याद आया कि आठवीं क्लास के बाद ही तो उसका विवाह हो गया था।मां बताती थी कि वह शादी करना नहीं चाहती थी लेकिन बाबा ही पीछे पड़ गए थे।कहते थे ‘बियाह नी होलक उ छोड़ी से तो मोंय मोईर जामू।’ (उस लड़की से शादी न हुई तो मैं मर जाऊंगा।) सब झूठ।कहां मरे? मरे तो नहीं, लेकिन अंततः शादी कर के ही दम लिया।
शादी के बाद मां की पढ़ाई छूट गई।कच्ची उम्र में ही एक लड़के को जन्म दिया उसने।दूसरी बार एक लड़की को।तीसरी बार फिर एक लड़की हुई।वह लड़की मैं थी ‘रेशमा’।मेरे बाद भी बच्चे जनती ही रही वह।एक बच्चा तो जन्म के बाद ही मर गया।दूसरे बच्चे के बाद ही बाबा का दारू पीकर घर आना शुरू हो गया।अब वह मां से सीधे बात नहीं करते थे।हरदम लात-घूसे चलाते।उन्हें लगता था कि इतने बच्चों के बाद वह भागकर जाएगी कहां? एक दिन मां बच्चा लेकर सचमुच पहाड़ों के उस पार भाग गई।सोचा, वह फिर कभी पति के घर वापस नहीं आएगी।लेकिन सगे-संबंधियों ने उसे समझाया ‘शदियल छोड़ी केर घर दुआर कहां? मरद केर घर ही उकर घर हिके।जा घूरबे अपन घर।’ (विवाहित लड़की का घर कहां होता है? पति का घर ही उसका घर है।जाओ, अपने घर वापस लौटो।) मां मन मसोस कर गांव लौट आई।फिर उसी आदमी के साथ जीवन जीने के लिए, जो दिन रात उस पर हाथ चलाता था।
विवाह के बाद भी उसके दूसरी औरतों के साथ संबंध थे।मां यह जानती थी पर चुप रहती थी। ‘बोलकर होगा भी क्या?’ यही सोचती थी।वे अक्सर नशे में आते और मां के कमरे में चले जाते।दरवाजा ‘धड़ाक’ की आवाज के साथ बंद कर लेते।कभी–कभी तो मां के कमरे से चीखने की आवाज भी सुनाई पड़ती थी।
एक सुबह मां उठी तो मैंने उसके गाल पर दांत के निशान देखे।वह घाव सा हो गया था।मां उस पर मलहम लगा रही थी।मैंने पूछा ‘कैसे हुआ?’ तो बोली ‘होगा क्या? साला! कुत्ता जात होता है मरद।पगलाने लगता है तो काट लेता है।’ मैंने कुछ कहा नहीं।उस दिन जाना कि विवाह के बाद भी घर के भीतर बलात्कार होते हैं।मां घर के भीतर और मैं घर के बाहर एक दिन बलात्कार के शिकार होंगे, यह तो नहीं सोचा था।बदलते समय में आदिवासी गांव-समाज भी इससे बचा हुआ नहीं है।
गांव-समाज के भीतर यूं तो हर समस्या के समाधान के लिए पुरुष बैठक करते हैं।पर इस बार वे इस पर बातचीत करने के लिए नहीं बैठे।कुछ लोग कह रहे थे ‘छोड़ी बेस नी रहे।अब घर के भीतर केर बात हिके, उके बाहरे गुठियाएक से का फायदा? जे होवेक वाला रहे से होई गेलेक।मोरल छोड़ी तो घुईर के आवी नहीं।बात बढ़ाएक से अपने गांव-समाज के बदनामी हुई।’ (लड़की ही ठीक नहीं थी।अब घर के भीतर की बात है।उसे बाहर बात करने से क्या फायदा? जो होने को था, वह हो चुका।मर चुकी लड़की तो लौटकर आएगी नहीं।बात बढ़ाने से गांव समाज की बदनामी हो जाएगी।) यह बात कहकर सबने चुप्पी साध ली।
उधर घटना के बाद से ही सोमरा फरार था।बड़े शहरों में वह छिपकर रहता था।पर मैंने देखा, वह आधी रात को कभी-कभी गांव आता है।रात-रात दोस्तों से मिलता है।परिवार से भी और फिर उजाला होते ही गायब हो जाता है।जानने वाले सब चुप रहते हैं।वे बाकी लोग जो बलात्कार में शामिल थे, वे कुछ दिन तो गायब रहे पर जैसे ही मामला ठंडा हुआ वे निकल आए बाहर और अब हाट-बाजार में घूमते-फिरते नजर आते हैं।अब कोई उस घटना का जिक्र भी नहीं करता।सारा मामला रफा-दफा हो गया।इस तरह उन लड़कों के साथ-साथ मेरे घर और पूरे गांव-समाज की इज्जत बच गई।
ट्रेन अब भी चलती है उसी तरह।बिसरा स्टेशन से होकर गुजरती है।वह पेड़ अब भी उसी तरह खड़ा है।मेरे सगे-संबंधी अक्सर उसी ट्रेन से राउरकेला जाते हैं।सब किसी बुरे सपने की तरह मुझे भूल चुके हैं।पर मैं आज भी उसी पेड़ पर टंगी हुई हूँ।देह तो दफन हो गई, पर रूह का क्या? रूह अब भी वहीं है।उसी बिसरा स्टेशन पर।न्याय का इंतजार करते हुए।अपनी मुक्ति की राह देखते हुए।
संपर्क : सी/ओ मनोज प्रवीण लकड़ा, म्युनिसिपल स्कूल के बग़ल में, ओल्ड एच.बी रोड, खोरहटोली, कोकर, रांची, झारखंड ८३४००१ मो. ७२५०९६०६१८
Paintings by : Abrar Ahmed
बहुत सीधी-सादी सरल कहानी अत्यंत गंभीर गहन बात कह जाती है। और चिंतन के कितने आयाम पीछे छोड़ जाती है । कितनी विचित्र बात है न कि सभ्यता के चिह्नों ने आदिवासी दुनिया पर भी विकृतियों के भद्दे दाग छोड़ दिए हैं। पढ़ा करते हैं कि आदिवासी समाज में स्त्रियां सुरक्षित हैं उनके अधिकार सुरक्षित हैं लेकिन यह कहानी पढ़ने के बाद मन भीतर तक से दहल गया। आदिवासी समाज में स्त्री पुरुष जीवन के उन्मुक्त संबंधों में इस तरह की गिरावट सभ्यता पर फिर से चिंतन करने की मांग करती है। मैं हमेशा ‘सभ्य’ शब्द को स+भय यानी भय सहित मानती हूं, मेरे यह विचार तथाकथित सभ्य समाज में व्याप्त इन विकृतियों को देखकर ही बनी है। रेशमा की आत्मा के संवादों ने
कहानी के मर्म, आदिवासी समाज के बदलते स्वरूप को बहुत ही बेहतर ढंग से व्यक्त किया है।
दीदी आपने सच्ची घटना को बहुत ही ईमानदार पूर्वक उजागर किया है।
पहली बार एक मृत पीड़िता के नजरिये से सबकुछ देखना समझना और बयान करना बहुत प्रभावी रहा, मन में बहुत गहरे उतरता चला गया। आदिवासी समाज में इस तरह का विचार विचलन देखने को मिल रहा है और यह बहुत दुखदायी लगता है। आदिवासी समाज की आदिवासियत दरक रही है।
लेखिका को इस मर्मस्पर्शी कहानी की प्रस्तुति के लिए बहुत धन्यवाद एवं भविष्य के लिए ढेर सारी शुभकामनाएँ! 🙏🏽💐
बहुत ही बेहतरीन कहानी
तुम्हारी सोच और शब्दों को सलाम । रेशमा और उसकी माँ के ज़रिये महिला की बेबसी इस पुरुष प्रधान समाज में बख़ूबी उकेरी तुमने । महिला को मनुष्य मानना ही शायद समाज में सबसे बड़ी चुनौती है वरना वो सिर्फ़ ‘महिला’ ही मानी जाएगी .. और पुरुष सबकुछ ।
आदिवासी समाज का सटीक चित्रण
वाकई अब हमारे आदिवासियों को भी बाहरी हवा लग चुकी है।