युवा आदिवासी लेखिका, स्वतंत्र पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता।

 

‘तुम्हारे पति के साथ मेरे संबंध थे।’ मैना ने कहा।

‘हां, उन्होंने मुझे बताया था।’ सुरजमुनी ने कहा।

वह कुछ देर चुप रही। फिर धीरे से बोली ‘शुरू में बहुत दुख हुआ। लगा, मेरा विश्वास उन्होंने तोड़ दिया है। और तुमने भी। तुम दोनों पर ही बहुत गुस्सा आया। फिर कुछ महसूस हुआ और सारा दुख चला गया।’ उसकी आंखों में आंसू थे।

कुछ देर दोनों चुप रहीं।

‘वह आदमी अच्छा है। उन्होंने कभी मेरा अपमान नहीं किया। फिर एक दिन तुम आई उनके जीवन में। इस तरह तुम मेरे जीवन में भी आ गई। तुम मुझे अच्छी लगने लगी। तुमने भी मेरा कभी अपमान नहीं किया। यह सब देखकर मेरा सारा दुख गायब हो गया।’ सुरजमुनी ने आंसू पोछते हुए कहा।

‘एक बात कहूं तुमसे?’ उसने आगे कहा।

‘क्या?’ मैना की आंखें नीची थीं। उसने उसकी तरफ सिर उठाकर पूछा।

‘शादी के बाद भी हम साथ कभी सोए नहीं। उन्होंने मुझसे शादी की है। इसलिए मेरा अधिकार है उन पर। इसी अधिकार भाव के कारण दुख हुआ था।’ सुरजमुनि ने धीरे-धीरे कहा।

‘तुम्हारे रिश्ते किस तरह थे फिर उनके साथ?’ मैना ने पूछा।

‘वह पिता की तरह रहे। समाज के लिए पति थे।’ थोड़ा रुक कर सुरजमुनी ने कहा। फिर कहती ही चली गई।

‘शादी कर के जब इस घर आई थी, तब हमारे पास छोटा सा कमरा था। छोटी सी रसोई। उसी से सटा एक छोटा बाथरूम। बस इतनी ही जगह थी। इतनी सी जगह में एक कोना उनका था। एक कोना मेरा। एक ही छत के नीचे लंबे समय तक हम ऐसे ही रहे। साथ रहे, पर दोनों अकेले रहे। संबंध में नहीं रहे कभी।’

‘क्यों?’ मैना ने पूछा।

‘वह मेरी गरीबी, मेरा दुख देखकर किसी तरह मेरी मदद करना चाहते थे। पर समाज में लोग रिश्ते का नाम पूछते। पूछते कि किस हैसियत से मेरी मदद कर रहे हैं? तो एक दिन सादगी से शादी कर मुझे अपने घर ले आए।’ 

‘क्या तुम उसे चाहती थी? तुमने उनसे कुछ कहा?’

‘क्या बोलती? आदमी अच्छा है। दो जून की रोटी खिला सकता है। एक छत है। दारू-वारू पीता नहीं है। मेरे बाबा निश्चिंत थे कि दारू पीकर मार-पीट तो नहीं करेगा।’

आह भरकर उसने आगे कहा, ‘मां गुजर गई थी। बाबा दारू की भट्ठी में हमेशा बैठे रहते थे। भाई-बहन सब भटक रहे थे इधर-उधर। चाचा के लड़कों ने सारी जमीनें हड़प ली थीं हमारी। तब वे हमारे साथ खड़े हुए।

‘प्रेम था?’

प्रेम में होने के लिए आजादी चाहिए। जिसकी मां मर गई हो, तंगी से जूझती, ठोकरें खाती एक डरी हुई लड़की इस समाज में कितनी आजाद हो सकती है? शादी के बाद भी बहुत दिनों तक हमारे बीच बात नहीं हुई। हम किस विषय पर बात करते? हम दो अलग तरह के इंसान थे। विवाह के बाद भी एक छत के नीचे बिस्तर पर हम अपनेअपने छोर पर सोते थे। कई दिनों बाद उन्होंने एक दिन कहा कि वह मुझे पत्नी की तरह नहीं देख पा रहे हैं। पर उन्हें मुझसे स्नेह बहुत है।

‘फिर वे तुम्हें किस तरह देखते थे?’ मैना ने पूछा।

‘बेटी की तरह। बहुत दिनों तक परेशान रही यह सुनकर। फिर विवाह क्यों किया मुझसे? एक यही सवाल घूमता रहा दिमाग में कई दिनों तक। धीरे-धीरे मुझे रसोई घर से प्रेम होने लगा। कमरे में एक टीवी थी। मैं टीवी देखती रहती थी। खुश रहती थी। मैंने अपनी खुशी खोज ली थी घर के अंदर ही। कभी-कभी रात घर लौटकर वह खाना नहीं खाते थे। तब दुख होता था। वह चुपचाप सो जाते थे। मैं भी बिस्तर के दूसरे कोने में सो जाती थी।’ सुरजमुनी ने आगे कहा।

‘तुमने उनसे कभी कुछ कहा क्यों नहीं?’

‘मैं उनसे क्या कहती? निर्णय तो मरद ही लेते हैं। ऐसा सुनते-देखते हुए हम बड़े हुए थे। मैंने भी स्वीकार लिया कि यही जीवन है। यही घर है। कहां जाना है? अब तो यहीं रहना है।

‘पर अचानक सबकुछ बदल गया। हम धीरे-धीरे बात करने लगे। साथ हँसने लगे। अपनी-अपनी भावनाएं साझा करने लगे। धीरे-धीरे दोस्त हो गए। यह वही समय था, जब तुम उनके जीवन में आई। और तुम नई बहस लेकर आई। मेरी इच्छाओं, मेरे सपनों की बहस। यह नई बात थी। तुम्हारे कारण वह पिता से दोस्त की तरह पहली बार लगे।’

सुरजमुनी आगे बोलती ही रही, ‘जब दोस्त होने लगे तब हम अपनी बातें, सपने साझा करने लगे। मुझे पहली बार वे समझ में आए। उन्होंने भी पहली बार मुझे ध्यान से सुना। हम अक्सर तुम्हारी बातें करते थे। यह सबकुछ मेरे लिए नया अनुभव था। मैं पहली बार तुम्हारी तरह होना चाहती थी। घर से बाहर निकलकर यात्रा करना चाहती थी।’

फिर कुछ रुक कर आगे सुरजमुनी ने कहा,  ‘यह घर तो है पति का। पर मुझे मायका ही लगता है। जीवन में एक साथी का इंतजार है। पिछले कुछ समय से हम कानूनी तौर पर अलग हैं। यह एक नया मुहर है।’

‘पहले अलग होने का क्यों नहीं सोचा?’ मैना ने पूछा।

‘बंधे रहने की आदत पीढ़ी दर पीढ़ी औरतों की रही है। खुद को आजाद करने के बारे सोचना क्या इतना आसान है?’

‘फिर से शादी करोगी?’ मैना ने पूछा।

‘हां। समाज की बनाई संस्था से लड़ने के लिए एक स्त्री को बहुत ताकत चाहिए। तुममें वह ताकत है। मुझमें नहीं है। पर इस बार देखूंगी कि फिर से पिता न मिले। मिले तो कोई साथी मिले, जो साथ-साथ खिले।’

फिर सुरजमुनी ने मैना से पूछा, ‘तुमने खुद के बारे क्या सोचा है? क्या उनसे विवाह करोगी?’

‘नहीं। मैं खुश हूँ अपने आप से। तुम दोनों से जुड़कर भी। उनका हाल-चाल देखने आती रहूंगी। मुझे मेरी आजादी सबसे ज्यादा पसंद है। अपना स्पेस भी।’ मैना ने एक लंबी सांस लेकर कहा।

‘तुम्हारा क्या होगा? उम्र बीत जाएगी तब किसी का साथ तो चाहिए होगा? लोग ऐसा ही कहते हैं।’ सुरजमुनी ने चिंता जताते हुए कहा।

‘देखो, साथ तो हम सबका हमेशा रहेगा। समाज की संस्थाओं के बिना भी। और एक स्त्री को बुढ़ापे में पुरुष ही संभालेगा, यह बात कितनी भ्रामक है। बुढ़ापे में भी स्त्री ही पुरुष को संभालती है।’ मैना ने कहा।

आह! यह कितना सच है। वे तो बुढ़ापे में भी अखबार पढ़ते रहेंगे, धूप सकेंगे, टीवी देखेंगे, खाना खाकर आराम करेंगे, कहीं टहलकर आएंगे। बुढ़ापे में भी एक औरत उनकी सारी चीजों के लिए चिंता करती रहती है। खुद न कर सके तो एक और लड़की रखनी पड़ती है, जो इन सब बातों का खयाल रखे।यह कहते हुए सुरजमुनी हो..हो.. कर हँसने लगी। इस तरह मैंने कभी भी नहीं सोचा। हँसते हुए उसने कहा।

‘हम उम्र बीत जाने के बाद भी तीनों एक दूसरे के साथ खड़े रह सकते हैं।’ मैना ने कहा।

सुरजमुनी ने कुछ कहा नहीं। बस मैना को ताकती रही। कुछ देर बाद मैना ने अपना बैग संभालते हुए उससे कहा, ‘अच्छा, अब मैं चलती हूँ।’ 

‘आती रहना मिलने। उनसे भी एक रिश्ता है तुम्हारा, एक रिश्ता मेरे साथ भी है। उस नाते से आना।’ सुरजमुनी ने कहा।

मैना घर से निकल गई। दरवाजे तक उसे छोड़ने के लिए सुरजमुनी आई और उसका हाथ थाम लिया।

‘हम सब साथ हैं। नाम और संस्था से रिश्ता नहीं बनता। समझौता होता है। रिश्ते पानी की तरह हमारे जीवन में जरूरी होते हैं। हम इसी तरह मिलेंगे।’ मैना ने सुरजमुनी से कहा। सुरजमुनी आत्मविश्वास से भरकर मुस्कुराने लगी। उसकी आंखों में चमक थी।

पता नहीं कैसे पर अचानक बारिश शुरू हो गई। सुरजमुनी दरवाजे पर खड़ी होकर सड़क के उस पार मैना को जाते हुए देखती रही। मैना ने उसे जब पलटकर देखा तब वह बारिश में भीगते हुए भी दरवाज़े पर उसी तरह खड़ी थी। बारिश में भीगते हुए मैना का मन भी भीग रहा था। पर इस बातचीत के बाद उसका मन बहुत हल्का हो गया था। उसका दिल सुरजमुनि के लिए भी प्रेम से भरा था।

दूसरे दिन सूरज से मैना की मुलाकात हुई। मिलते ही सूरज ने कहा, ‘कल तुम उससे मिली?;

‘हां’ मैना ने कहा।

‘क्या बात हुई?’ सूरज ने पूछा।

‘यही कि रिश्ता हवा-पानी की तरह हमारे जीवन में जरूरी होता है। रिश्तों से हम ज्यादा इंसान बनते हैं। उसी रिश्ते से हम जुड़े रहेंगे।’ मैना ने कहा।

‘उसे तुम्हारी फिक्र होती है।’ सूरज ने कहा।

‘हम सबको एक दूसरे की फिक्र होती है। इस रिश्ते की यही सुंदरता है।’ मैना ने कहा। फिर कुछ रुक कर फिर बोली, ‘तुमने खुद के बारे आगे क्या सोचा है?’

‘मैं बहुत दिनों से अपनी पसंद का कोई काम शुरू करना चाहता था। वह काम करूंगा। मेरी खुशी तुम दोनों को ही आजाद और बढ़ते हुए देखने में थी। प्रेम ऐसा ही होता है। देखो, सूरजमुनी जीवन में पहली बार यात्राओं पर जा रही है। कभी कश्मीर तो कभी पुरी। पहाड़ और समुद्र एक साथ देख रही है। एक साथी चाहती है जो बस साथी की तरह हो। मैं खुश हूँ उसे इस तरह देखकर। तुम्हारी भी अपनी दुनिया है। हम तीनों अलग-अलग होते हुए भी जुड़े हुए हैं और सब एक दूसरे की खुशी चाहते हैं। यह अद्भुत रिश्ता है। इसे किसी नाम की जरूरत नहीं है।’

‘विवाह न करने के मेरे निर्णय से तुम आहत हो?’

‘नहीं। पुरुष की बनाई व्यवस्था में विवाह से एक स्त्री थोड़ा सुरक्षित महसूस कर सकती है। पर यह व्यवस्था अंततः उसकी हर तरह की मुक्ति के खिलाफ ही होती है। तुम्हें वैसा ही जीना चाहिए, जैसा जीना चाहती हो।’

फिर उसने आगे कहा, ‘हम कैसे अपनी-अपनी कहानी लेकर मिले थे। और एक दूसरे की कहानी के साथ खड़े रहे। फिर हमने एक दूसरे को खिलते हुए देखा। कितना आसान था विवाह के नाम पर, रिश्ते के नाम पर एक-दूसरे को नीचा दिखाना और आपस में लड़ना। हमने उससे आगे जाकर एक दूसरे को स्वीकार किया। शायद यही हमारी ताकत है।’

कुछ देर तक मैना और सूरज दोनों चुप रहे।

जरूरी नहीं है कि जो कहानी हम बचपन में फिल्मों में देखते हैं, हमारी कहानी, हमारे रिश्ते भी ऐसे ही हों। कहानी का अंत भी वैसा ही हो। कहानी अलग भी हो सकती है। कहानी का अंत भी अलग हो सकता है। हम तीनों की कहानी ऐसी ही है।

मैं पहले स्त्रियों के सपनों, उनकी चाहतों के बारे कम जानता था। जीवन में मां के बाद सुरजमुनी को ही देखा। फिर तुम्हें देखा। स्त्रियां दोस्त कभी रही नहीं। तुम दोनों ने ही मेरी धारणा, मेरा जीवन बदला है। एक पुरुष समझता है कि वह सबकुछ जानता है। पर देखो, हम बहुत सारी बातें नहीं जानते। कोई भी इस समाज में सबकुछ जानने का दावा नहीं कर सकता। हम एक पक्ष या बहुत थोड़ा अपनी परवरिश और परिवेश के हिसाब से जान सकते हैं। पर सबकुछ नहीं जानते। एक पुरुष का निरंतर सीखना, किसी भी चीज को बिना कोई नाम दिए उसे स्वीकार करना, यही एक बात उसे बेहतर इंसान बना सकती है। तभी वह स्त्री का भी इंसान की तरह सम्मान कर सकता है।’ सूरज कहीं गहरे डूब कर धीरे-धीरे कहता जा रहा था।

‘क्या इसलिए हमारे रिश्ते का कभी कोई नाम नहीं रहा?’ मैना ने कहा।

‘हां। नाम चिपकाने से हम इंसान से ज्यादा उस नाम से चिपके रहते हैं। फिर एक दिन इंसान से ज्यादा उस नाम को बचाने के लिए जद्दोजहद करते हैं। उसी नाम के लिए, उसी संस्था के लिए रिश्ते की हत्या करते हैं। रिश्ता इंसानों की इंसानियत से बनता है, संस्थाओं से नहीं। संस्थाएं रह जाती हैं, इंसानियत मर जाती है। हमसे संस्था छूट गई, पर रिश्ता बचा रहा।’

‘हां। यह सच है।’ मैना ने कहा।

‘तुमने आगे क्या सोचा है?’ सूरज ने मैना से पूछा।

‘मैं तुम दोनों से ही मिलने आती रहूंगी। मेरे पास तुम दोनों के ही सुंदर रिश्ते हैं। हम सब एक दूसरे के साथ खड़े हैं। सुख-दुख हर परिस्थिति में।’ यह कह कर मैना चुप हो गई। बहुत देर तक सन्नाटा पसरा रहा।

फिर सूरज ने धीरे से कहा, ‘तुम्हारे लिए मेरा प्रेम कभी कम नहीं होगा। जहां भी रहना खुश रहना।’

‘तुम्हें स्वस्थ और खुश देखना, सुरजमुनी को आजाद और सशक्त देखना ही मेरा प्रेम है।’ मैना ने कहा।

‘अब मुझे चलना चाहिए।’ चाय का अंतिम घूंट पीकर मैना चलने को तैयार हुई। उसने सूरज से विदा लिया। सूरज उसका बैग उठाकर आधी दूर तक उसे छोड़ने गया। फिर उसे जाता हुआ देखता रहा।

मैना यह सोचती हुई लौट रही थी कि इस जीवन में ऐसे रिश्तों का नाम क्या है? फिर उसने मन ही मन खुद से कहा ‘धरती पर मौजूद हर चीज, हर रिश्ते का नाम इंसान ही तय करता है। पर इन नामों से आगे यह धरती सुंदर रिश्तों से भरी हुई है। यहां हर चीज आपस में गुंथी हुई है। हर चीज का दूसरी चीजों के साथ एक अनाम-सा रिश्ता है। उन्हीं रिश्तों से वह बनी है। बिना किसी नाम के मानवीय रिश्ते भी सुंदर हो सकते हैं। अगर हम उसे उसी तरह स्वीकार करते हैं, जैसा वे हैं।’

यह सोचते हुए उसने ऑटो वाले को आवाज दी। एक ऑटो सामने आकर रुका। फिर धीरे-धीरे आगे चल पड़ा।

 

संपर्क :द्वारा मनोज प्रवीण लकड़ा, म्युनिसिपल स्कूल के बग़ल में, ओल्ड एच.बी रोड, खोरहटोली, कोकर, रांची, झारखंड 834001  मो. 7250960618

Paintings by : Kamal Koria