जगन्नाथ दुबे
युवा आलोचक। विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में आलोचनात्मक लेख प्रकाशित। संप्रति असिस्टेंट प्रोफेसर।

विजयदेव नारायण साही
(1924-1982) तीसरा सप्तक के कवि और बहुआयामी प्रतिभा से संपन्न। नई कविता की जमीन और उसके मूल्यांकन के प्रतिमान तैयार करने वालों में एक प्रमुख नाम। आचार्य नरेंद्र देव की प्रेरणा से समाजवादी आंदोलन तथा श्रमिक आंदोलन में सक्रिय हिस्सेदारी। मछलीघर’, ‘साखीप्रमुख कविता पुस्तकें। जायसीपुस्तक भी बड़े पैमाने पर चर्चित।

 

हिंदी के प्रतिष्ठित कवि-आलोचक विजयदेव नारायण साही का यह जन्म-शताब्दी वर्ष है। एक कवि के रूप में उन्होंने हिंदी कविता के परिसर को व्यापकता प्रदान की, तो आलोचक के रूप में अनेक ऐसे लेख लिखे जिनसे हिंदी साहित्य और समाज को नई दिशा मिली। जन आंदोलनों में अपनी सक्रिय भागीदारी से उन्होंने हिंदी के व्यापक लोकवृत्त को प्रभावित किया, भक्तिकालीन कवि मलिक मुहम्मद जायसी पर लिखी गई उनकी किताब ‘जायसी’ जायसी को एक कवि के रूप में पढ़ने का प्रस्ताव रखती है। जायसी के कवि व्यक्तित्व पर चढ़े सूफीवाद के मुलम्मे को उतारते हुए उन्होंने विशुद्ध कवि के रूप में जायसी का मूल्यांकन प्रस्तुत किया। एक आलोचक के रूप में बहुत कुछ ऐसा लिखा, जिससे हिंदी आलोचना समृद्ध हुई। ‘लघु मानव के बहाने हिंदी कविता पर एक बहस’ उनका ऐसा है लेख है जिसने हिंदी आलोचना में नई कविता संबंधी बहस को एक नया प्रस्थान दिया। विजयदेव नारायण साही एक ऐसे कवि-आलोचक हैं जिनके बिना स्वातंत्र्योत्तर हिंदी साहित्य पर कोई भी बात अधूरी है। उनके जन्मशती वर्ष में ‘वागर्थ’ पत्रिका की परिचर्चा में यहां लेखकों के विचार प्रस्तुत हैं।

सवाल
(1)एक कवि के रूप में विजयदेव नारायण साही को आप किस रूप में देखते हैं? नई कविता के वृत्त में उनका क्या स्थान है?
(2)साही का निबंध ‘लघु मानव के बहाने हिंदी कविता पर एक बहस’ हिंदी आलोचना की बहसधर्मी परंपरा का एक मजबूत उदहारण है। इस निबंध के आधार पर साही की आलोचना दृष्टि पर आपका क्या अभिमत है?
(3)साही ने ‘कविता : आस्था के पच्चीस शील’ नामक लेख में जिन पच्चीस शीलों को दर्ज किया है, ये या इस तरह की सूक्तियां हिंदी कविता और आलोचना के लिए कैसा आधार तैयार करती हैं?
(4)साही की सामाजिक-राजनीतिक दृष्टि जिन वैचारिक आधारों पर निर्मित हुई है, उनकी आज के भारतीय समाज और राजनीति में क्या भूमिका है?
(5)साही का कवि उनके आलोचक को और उनका आलोचक कवि को प्रभावित करता है या नहीं? करता है तो किस रूप में, नहीं करता है तो इसके पीछे क्या कारण है?
(6)हिंदी आलोचना में जब जायसी को सूफी कवि सिद्ध करने की कोशिशें हो रही थीं, विजयदेव नारायण साही ने उन्हें एक कवि के रूप में पढ़ने का प्रस्ताव रखा था। उनकी किताब ‘जायसी’ हिंदी आलोचना में कृति और कृतिकार के मूल्यांकन का एक प्रतिमान स्थापित करती है। साही ने जायसी का सूफी कवि की जगह विशद्ध साहित्यिक दृष्टि से मूल्यांकन किया, इसपर आपके क्या विचार हैं?
(7)साही की मार्क्सवादी आलोचना को लेकर जो दृष्टि है, उसे आप किस रूप में देखते हैं? वे श्रमिक आंदोलन के एक नेता और साहित्यकार दोनों रूप में सक्रिय थे। साहित्य और राजनीति के संबंध पर उनके विचारों पर आप क्या कहना चाहेंगे?

 

 

 

 

नंदकिशोर आचार्य
सुप्रसिद्ध साहित्यकार। सोलह कविता संग्रह, नौ नाटक, सात आलोचना की पुस्तकें। अद्यतन कविता संग्रह वक्त खुद मर्ज है जो

बदलते समय के काव्यबोध का आग्रह

विजयदेव नारायण साही के लिए साहित्य का- और इसलिए स्वाभाविक ही सभी साहित्यिक विधाओं और अन्य कला रूपों का- प्रयोजन है ‘बारंबार बदलते हुए समय में मनुष्य को परिभाषित करना।’ जाहिर है कि इस बदलते हुए समय को समझे बिना उसमें अवस्थित मनुष्य के आत्मबोध और नियति को भी नहीं समझा जा सकता। इस बदलते हुए समय की अनुभूति और बोध पुराने काव्य रूपों और भाषा के माध्यम से नहीं हो सकता। इसके लिए नई काव्य भाषा और काव्य रूपों अर्थात काव्य प्रक्रिया की जरूरत पेश आती है, जिसकी खोज करनी होती है क्योंकि बने बनाए ढांचे, उसकी अनुभूति का माध्यम हो सकने के लिए पर्याप्त नहीं रहते।

दरअसल, साहित्यिक या नई काव्यगत प्रक्रियाओं की खोज का आग्रह इस बदलते हुए समय में अवस्थित मनुष्य के आत्म, स्थिति और नियति के बोध की आवश्यकता को महसूस करने के कारण पैदा होता है। इस तरह देखा जाए तो सभी साहित्यिक और कला रूपों के आंदोलन इसी खोज की विविध प्रक्रियाएं होते हैं, जिन्हें अक्सर प्रयोगवाद कहकर खारिज कर दिया जाता है। प्रत्येक प्रयोग एक खोज की प्रक्रिया है, जो कभी सफल होता है, तो कभी असफल भी। लेकिन वह असफलता प्रयोग को व्यर्थ नहीं कर देती, क्योंकि उसी में दूसरे प्रयोग की संभावना अंतर्निहित होती है।

कविता की बात करें तो नई कविता का आंदोलन भी साही द्वारा प्रस्तावित प्रयोजन ‘बारंबार बदलते हुए समय’ और उसमें अवस्थित ‘मनुष्य को परिभाषित’ करने की प्रक्रिया है। पुराने रूपों को दोहराते रहने से इस प्रयोजन की सफलता और कविता की सार्थकता संभव नहीं हो सकती। अपना प्रथम कविता संग्रह ‘मछलीघर’ अज्ञेय को समर्पित करते हुए साही ने लिखा था : अज्ञेय को- जिन्होंने कविता को एक बार फिर संभव किया। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक युग में कविता को पुन:पुनः संभव करना होता है।

लेकिन, यह खोज कविता या अन्य साहित्यिक विधाएं और कला-रूप भी अपनी प्रक्रियागत खोज के माध्यम से करते हैं। ज्ञान-विज्ञान के सभी रूप अपने-अपने माध्यम और प्रक्रिया से यह खोज करते हैं और वह खोज एक समग्र खोज का अंग होते हुए भी अपनी प्रक्रिया के कारण वैशिष्ट्य भी अर्जित करती है। कविता भी अपनी ही प्रक्रिया से प्रतिविशिष्ट ‘मनुष्य की परिभाषा’ बरामद करने की कोशिश करती है। इसे ही साहित्यिक आलोचना में ‘रचना की स्वायत्तता’ कहा जाता है।

यह खोज कवि मानस के माध्यम से संभव होती है, इसलिए प्रत्येक कवि अपनी अनुभूति की प्रामाणिकता अर्जित करने की प्रक्रिया में ही अपना सत्य अर्थात मनुष्य की नई परिभाषा का बोध कर सकता है। जाहिर है कविता होने के कारण यह बोध अनुभूत्यात्मक होता है, प्रत्ययात्मक नहीं। साही इसीलिए अपनी काव्य प्रक्रिया को किसी दार्शनिक अथवा राजनैतिक आर्थिक विचार-दर्शनों से बाधित नहीं होने देते- उस राजनैतिक विचारधारा से भी नहीं, जिसके लिए व्यक्तिशः वह स्वयं जीवन भर सक्रिय रहे।

साही का कवि इसीलिए अपने लिए निरंतर एक विशिष्ट काव्य भाषा और रूप की खोज में संलग्न रहता है। उनकी कविताएं इस बात का विश्वसनीय प्रमाण हैं कि उन्हें किसी अन्य कवि के साथ कोष्ठबद्ध नहीं किया जा सकता- उनके घनिष्ठ मित्रों, सहयोगियों और वैचारिक सहकर्मियों के साथ भी; उन अज्ञेय के साथ भी, जिन्हें वह हिंदी कविता को पुन: संभव करने का श्रेय देते हैं। दरअसल, हिंदी की अधिकांश आलोचना ‘घुड़दौड़ सिंड्रोम’ से ग्रसित है। इसीलिए, वह सदैव रचनाकारों के स्थान-निर्धारण में लगी रहती है। ऐसे सवालों पर मुझे सदैव लोठार लुत्जे की टिप्पणी याद आ जाती है कि साहित्य कोई घुड़दौड़ नहीं होता कि उसमें हम सदैव यह पता करते रहें कि किस घोड़े ने प्रथम या कौन-सा स्थान हासिल किया। देखना यह होता है कि किस लेखक की सृजनात्मकता ने अपना वैशिष्ट्य अर्जित किया है। इस कथन की साही की व्याख्या यह होगी कि क्या किसी रचना या रचनाकार ने मनुष्य की नई परिभाषा का कोई, छोटा-सा ही सही, नया आयाम उद्घाटित किया है, कोई अछूता कोना देखा जा सकना संभव हुआ है। इसकी प्रामाणिकता का अंदाज इस बात से हो सकता है कि क्या उस रचना में शब्द की कोई नई अर्थछटा, कोई नई संभावना उद्धाटित हो सकी है। हो सकता है कि उस नई अर्थछटा के बावजूद उससे बरामद होते विचार से आप सहमत न भी हों। इसी संदर्भ में नीत्शे के बारे में साही की इस टिप्पणी को समझा जा सकता है जिसमें वह उसके विचार-दर्शन को जला देने लायक समझते हुए भी उसकी पुस्तक सदैव अपने झोले में रखने का आग्रह करते हैं- उसके काव्य गुण के कारण।

आलोचक साही इसीलिए जायसी जैसे कवि की उस समझ को अनुचित और गैर-साहित्यिक मानते हैं, जो उन्हें या किसी अन्य रचनाकार की भी किसी धर्म, दर्शन अथवा राजनैतिक विचारधारा के चौखट में व्याख्या करने का आग्रह करती है। यदि जायसी की कविता को सूफी दर्शन के एक दृष्टांत की तरह समझा जाता है तो इसका तात्पर्य कविता की अपनी प्रक्रिया की अवहेलना करना है। साही के लिए, जैसा इसी टिप्पणी में पहले भी कहा गया है, कविता की अपनी प्रक्रिया ही उसका अपना सत्य बरामद करने की स्वायत्त प्रक्रिया है। उसे किसी काव्य-बाह्य व्याख्या की जरूरत पेश नहीं आनी चाहिए। यदि जायसी सूफी नहीं होते तो क्या उनकी कविता मूल्यहीन हो जाती। वह कवि थे, सूफी दर्शन के प्रचारक नहीं। साही का आग्रह, वस्तुतः, उनके इसी कवि को उद्घाटित करने का आग्रह है।

इसलिए यहां इस बात की ओर भी अपेक्षित ध्यान दिया जाना चाहिए कि अपने प्रसिद्ध लेख ‘लघु मानव के बहाने हिंदी कविता पर एक बहस’ में साही हिंदुस्तान की जिंदगी के जिस रिद्म की बात करते हैं, उसे ‘कालिदासीय लय’ की संज्ञा देते हैं (और हमारे समय में उसकी अभिव्यक्ति महात्मा गांधी में पाते हैं), क्योंकि वह किसी भारतीय दर्शन के माध्यम से नहीं पाई गई, बल्कि कालिदास उसे अपनी काव्य प्रक्रिया में बरामद करते हैं। तात्पर्य यह कि साही का आलोचना-विवेक किन्हीं दार्शनिक या विचारधारात्मक प्रक्रियाओं और निष्कर्षों के बजाय काव्य प्रक्रिया को महत्व देता है।

लेकिन दिक्कत यह है कि इसके लिए स्वयं आलोचना को कवि दृष्टि से संपन्न होना होगा, जबकि हमारी अधिकांश आलोचना भ्रमवश अपने पूर्व निर्धारित निष्कर्षों के आधार पर साहित्य की व्याख्या और मूल्यांकन का आग्रह करती है। साही, इसीलिए, नई कविता के विशिष्ट एवं प्रमुख हस्ताक्षर होते हुए भी नई कविता के प्रतिमानों के बजाय कविता के नए प्रतिमानों की बात करते हैं। उल्लेखनीय है कि स्वयं डॉ. नामवर सिंह की प्रसिद्ध आलोचना पुस्तक ‘कविता के नए प्रतिमान’ का नामकरण साही के प्रसिद्ध निबंध ‘शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट’ से लिया गया है, जिसमें वह शमशेर जैसे कवियो को समझने के लिए नई कविता नहीं, बल्कि कविता के नए प्रतिमान खोजने की आवश्यकता बताते हैं।

इसलिए इस बात में अब कोई संदेह नहीं रहना चाहिए कि साही के कवि और आलोचक में कोई द्वैत नहीं है- आलोचना और रचना की प्रक्रिया भिन्न अवश्य होती हैं, लेकिन उनमें तत्त्वत: एक अद्वैत बना रहता है, क्योंकि दोनों का प्रयोजन अंतत: बदलते हुए समय में मनुष्य को परिभाषित करना होता है। साही के अनुसार दोनों की सार्थकता इसी प्रयोजन की साधना हो पाने में है।

सुथारों की बड़ी गुवाड़, बीकानेर- 334005 मो.9413381045

 

 

 

 

 

 

गोपेश्वर सिंह
चर्चित आलोचक और शिक्षाविद।वरिष्ठ आलोचना पुस्तक आलोचना के परिसर। दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के पूर्वप्रोफेसर और अध्यक्ष। 

सौंदर्यदृष्टि और संवेदना का विस्तार साही का प्रमुख लक्ष्य था

(1)विजयदेव नारायण साही का व्यक्तित्व बहुआयामी है। वे कवि , आलोचक, समाज चिंतक और समाजवादी आंदोलन के नेता और विचारक हैं। वे एक साथ अनेक मोर्चों पर सक्रिय थे। उनकी तरह के लेखक तब कम थे। फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ की तरह उनका भी एक पैर साहित्य में और दूसरा राजनीति में था। राजनीति में सघन सक्रियता के बावजूद 1950 के बाद की कविता और आलोचना में उन्होंने हस्तक्षेपकारी भूमिका निभाई।

साही जितने अच्छे कवि थे, उतने ही बड़े आलोचक थे। दोनों विधाओं में उन्होंने उपनी मौलिक छाप छोड़ी। लेकिन मुझे कई बार लगता है कि उनके कवि पर उनका आलोचक हावी है। कविता से अधिक उनके आलोचना कर्म की चर्चा होती है, जबकि वे ‘नई कविता’ के महत्वपूर्ण कवि हैं। कवि रूप में उनके पहले काव्य संग्रह ‘मछलीघर’ की तुलना में उनके दूसरे संग्रह ‘साखी’ की कविताएं पाठक अधिक पसंद करते हैं। इसका कारण यह है कि ‘साखी’ की कविताएं अधिक संप्रेषणीय हैं।

‘मछलीघर’ की कविताओं के बारे में किसी आलोचक ने कहा था कि साही की कविताएं जितना सामने से बोलती हैं, उससे अधिक ओट से बोलती हैं। अपनी कविताओं के बारे में स्वयं साही ने कहा है कि उनमें ‘आंतरिक एकालाप’ है। आंतरिक एकालाप का यह गुण उन्हें ‘नई कविता’ के अन्य कवियों से भिन्न करता है। उनकी कविताओं में ज़माने के मन में उठने वाला व्याकुल हाहाकार है, जन-मन में उठाने वाले जरूरी सवाल हैं।  ‘साखी’ में अपने समय में कबीर को जैसे जीवित कर दिया हो उन्होंने। अशोक वाजपेयी ने ‘साखी’ की कविताओं को ठीक ही ‘ईमान की साखी’ कहा है।

नई कविता का वृत्त साही के बिना पूरा नहीं होता। प्रगतिशीलता का सामानांतर लोक रचकर वे हिंदी कविता को नया चेहरा देते हैं।

(2) ‘लघु मानव के बहाने हिंदी कविता पर एक बहस’ न सिर्फ साही की, बल्कि हिंदी आलोचना की एक बड़ी उपलब्धि है। अपने इस प्रबंधात्मक निबंध के जरिए साही ने छायावाद, उत्तर-छायावाद और नई कविता पर नए ढंग से विचार किया है। इस निबंध से छायावाद और नई कविता को समझने की नई दृष्टि मिलती है। छायावाद को साही ने ‘सत्याग्रह युग’ कहा और गांधी को हिंदुस्तान की जिंदगी की लय। छायावाद की यह व्याख्या रामविलास शर्मा और नामवर सिंह की  छायावाद संबंधी व्याख्या से भिन्न है और देश काल के अधिक निकट है। उन्होंने बच्चन आदि की कविता को ‘छायावाद का शेषांश’ कहा। इसी के साथ उन्होंने यह भी कहा कि छायावाद ‘महामानव’ की कविता है, जबकि नई कविता ‘लघु मानव’ यानी सहज मनुष्य की कविता है। इस निबंध में उन्होंने यह भी कहा कि मनुष्य की कोई भी परिभाषा अंततः सहज मनुष्य की परिभाषा है। साही ने नई कविता के प्रतिमानों की जगह कविता के नए प्रतिमानों की बात की। कविता के जब नए प्रतिमानों की बात होगी तो नई कविता की जमीन तैयार होगी। इस तरह साही ने नई कविता की प्रस्तावना लिखी।

(3) ‘तीसरा सप्तक’ के कवि के रूप में उन्होंने जिन पच्चीस शील की चर्चा की है, वे सभी महत्वपूर्ण हैं। कवियों और कविता के सुधी पाठकों को उनपर विचार करना चाहिए लेकिन मैं विशेष रूप से तीन की ओर हिंदी कविता के प्रेमियों का ध्यान आकृष्ट करना चाहूंगा। चौथे शील में वे कहते हैं : नितांत अव्यावहारिक होना नितांत ईमानदार अक्लमंदी का लक्षण है। समाज में सब तो नहीं, पर काफी लोग ऐसे होने चाहिए। जिस समाज में नितांत अव्यावहारिक कोई नहीं रह जाता, वह समाज रसातल को चला जाता है। यह कथन मुझे बहुत प्रिय है। इधर के वर्षों में समाज और राजनीति में व्यावहारिक लोगों की संख्या का बढ़ना चिंता की बात तो है ही, कविता और आलोचना में भी व्यावहारिक लोगों की संख्या जिस तेजी से बढ़ी है, वह कविता के हित में नहीं है। कवियों और आलोचकों की एक जमात ऐसी जमात आई है जो अपने कवियों पर किताबें निकाल रही है और समीक्षा के नाम पर अभिनंदन पत्र लिख रही है। ऐसी स्थिति में साही के इस कथन की प्रासंगिकता बढ़ जाती है।

आठवां शील भी ध्यान आकृष्ट करता है :  कविता को राजनीति में नहीं घुसना चाहिए। क्योंकि इससे कविता का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा, राजनीति के अनिष्ट की संभावना है। यह बात वह कवि-आलोचक कर रहा है जो समाजवादी आंदोलन का जमीनी कार्यकर्त्ता था, साही ने अपनी कविता को तात्कालिक राजनीति में नहीं घुसने दिया। उनकी कविता गहरे अर्थों में राजनीतिक आशय की कविता है लेकिन उसे आप राजनीतिक कविता नहीं कह सकते हैं। इस अर्थ में वे नई कविता में अलग से दिखाई पड़ते हैं।

पच्चीसवां शील है: अवज्ञा परमो धर्म: कवि को अपनी परंपरा का बोध तो होना चाहिए, लेकिन उसमें उसकी अवज्ञा का साहस और विवेक भी होना चाहिए।

(4)आज की राजनीति के लिए उनकी दृष्टि अव्यावहारिक है। यह मूल्यहीन राजनीति का दौर है। साही की दृष्टि के पीछे आजादी के आंदोलन और समाजवादी आंदोलन से निकले सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक मूल्य थे। अमीर- गरीब में अधिक फासला न हो, सबकी शिक्षा एक समान हो, राज-काज भारतीय भाषाओं में चले, बड़े उद्योगों की जगह लघु और कुटीर उद्योग को प्राथमिकता मिले, आदि आदि। समाजवाद के नाम पर आज जो राजनीति हो रही है उसका कोई संबंध साहीकालीन सामाजिक- राजनीतिक मूल्य से नहीं है। अब सारे  राजनीतिक दल धर्म और  जाति की गोलबंदी तक सीमित हैं।

(5)साही को ‘बहस करता हुआ आदमी’ कहा जाता है। उनकी कविता और आलोचना प्रश्न उठाने का काम बहुत बेबाकी से करती है। जब प्रश्न उठेंगे तो बहस होगी। बहस लोकतंत्र की बुनियाद में है। उनकी कविता और आलोचना में गहरे राजनीतिक आशय भरे पड़े हैं। उनकी कविता और आलोचना में कोई फांक नहीं है। ‘मछलीघर’ में उनकी एक कविता है-  ‘लाक्षागृह’। इस कविता में महाभारत की स्मृति है, लेकिन असत्य पर सत्य की विजय का जो नैरेटीव है उसे एक नई जिज्ञासा के साथ साही भिन्न अर्थ दे देते हैं :

होती आई है, आगे भी
हर बार सत्य की जय होगी।
वे मदोन्मत्त
कुछ जली अस्थियों के भ्रम में
उत्सव करते हैं क्षणभंगुर – वे हैं असत्य।
हम अभय-सिद्ध
जो अब भी अडिग सुरक्षित हैं
इस वन में बैठे हँसते हैं – हम धवल सत्य।
लेकिन राजन
कल लाक्षागृह के भीतर जो शव पड़े मिले
वे किसके थे!

(6)जिसे आप ‘विशुद्ध साहित्यिक’ दृष्टि कह रहे हैं, वह असल में साही की सामाजिक और मानवीय दृष्टि है। उनकी आलोचना में सामान्य मनुष्य, जिसे वे ‘सहज मनुष्य’ कहते हैं, केंद्र में है। वे मानते थे कि साहित्य का काम ‘सहज मनुष्य’ को परिभाषित करना है। जायसी को पढ़ते हुए ‘सहज मनुष्य’ वाली यही कसौटी उनके सामने है। कविता को किसी मतवाद के सहारे देखने के वे कायल नहीं थे। वे मानते थे: ‘अच्छे साहित्य के अस्वादन के लिए विचारधारा से सहमत होना जरूरी नहीं है’। जायसी सोलहवीं सदी के कवि हैं लेकिन साही  ने उनका आधुनिक पाठ तैयार किया, उन्हें बीसवीं सदी का कवि कहा। क्यों कहा? उनका कहना है कि जायसी  एक ‘आत्म-सजग’ कवि हैं। उन्हें अपने कवि होने पर गुमान है। सूफी मतानुयायी मानकर उनकी कविता के महत्व का सही मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। सूफीवाद की जिस चादर से जायसी का कवि ढंका हुआ है, उसे वे हटाते हैं और निखालिस कविता की जमीन पर खड़ा करते हैं। भक्ति काल के सभी कवियों की प्राथमिक घोषणा भक्त कहलाने की है, कविता उनके लिए माध्यम भर है। जायसी गर्व से अपने कवि होने की घोषणा करते हैं:
मुहम्मद कवि जो प्रेम का ना तन रकत ना माँसु।
जेइं मुँह देखा तेइं हंसा सुना तो आए आँसु ॥

यह ‘आत्मसजग’ स्वर जायसी का है। उन्हें किसी मतवाद के भीतर देखना उनके कवि के महत्व को कम करना है। साही जायसी में  ‘स्वाधीन चिंतन’ के साथ ‘प्रखर बौद्धिक चेतना’ के लक्षण देखते हैं। यही स्वाधीन चिंतन उन्हें आधुनिक युग में ला खड़ा करता है। जायसी के यहां जो प्रेम है, वह किसी मतवाद के आग्रह से मुक्त है। वह ‘मानुस प्रेम’ है- ‘मानुस प्रेम भयो बैकुंठी’। रचनात्मक आलोचना की ऐसी पुस्तक उस काल के किसी आलोचक के पास नहीं है। हिंदी आलोचना की यह उपलब्धि है।

(7)साही को सत्यप्रकाश मिश्र ने ‘कुजात मार्क्सवादी’ कहा है। साही जायसी को ‘कुजात सूफी’ कहते हैं। साही के साथी और नेता राम मनोहर लोहिया अपने को ‘कुजात गांधीवादी’ कहते थे। यह ‘कुजातपन’ क्या है? कुजात वह है जो कुछ नया रचने के लिए अपनी वैचारिक लाइन का अतिक्रमण करता है। निराला का बिल्लेसुर ब्राह्मण है लेकिन ‘कुजात ब्राह्मण’ है, वह जो काम करता है वह ब्राह्मणोचित नहीं है। कुछ वैसा ही। सूफीवाद हो, मार्क्सवाद हो या गांधीवाद हो सबकी सीमाओं का जो अतिक्रमण करे और नया रचने का जो साहस करे, वह कुजात हुआ। ध्यान रखना चाहिए कि समाजवादी आंदोलन के जो बड़े नेता थे, मसलन नरेंद्रदेव, जय प्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया, सब मूल रूप से मार्क्सवादी थे। उन्होंने मार्क्सवाद का भारतीय संस्करण तैयार किया। उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन और महात्मा गांधी से अपने को जोड़ा और समाज को बदलने की आधार भूमि तैयार की। साही इसी धारा के साहित्यिक संस्करण है। ये सभी लोग भारतीय कम्युनिस्टों की तरह बोल्शेविक क्रांति का सपना नहीं देखते थे। ये सभी ‘वर्ग’ को मानते थे और मानते थे कि वर्गहीन समाज बनना चाहिए लेकिन उनका रास्ता ‘सत्याग्रह’ और ‘सिविल नाफरमानी’ का था। इन सबका विश्वास लोकतांत्रिक समाजवाद में था।

साही ने अपने ऐतिहासिक महत्व के निबंध  ‘मार्क्सवादी समीक्षा की कम्युनिस्ट परिणति’ में मार्क्स और एंजेल की साहित्य दृष्टि और सौंदर्य दृष्टि की तारीफ की है, लेकिन बाद में प्लेखानोव और दूसरे मार्क्सवादी चिंतकों ने उसे पार्टी लाइन की साहित्य दृष्टि बनाने की जो कोशिश की है, उसकी उन्होंने आलोचना की है। साही ने लिखा है : ‘जिस तरह आज राजनीति से साहित्य को अलग रखने का नारा लगाने वाले मध्यवर्गीय कलाकार प्रतिक्रियावादी हैं, उसी तरह राजनीति की तानाशाही में कैद करके समस्त साहित्य को पार्टी का अस्त्र मात्र घोषित करने वाले कला के दुश्मन हैं। मार्क्स साहित्य को इन दोनों संकुचित दृष्टिकोणों से अलग समझता है। वह साहित्य को केवल पार्टी नहीं, पूरे वर्ग की सांस्कृतिक प्रयास की उत्पत्ति मानता है।’

साही साहित्य और राजनीति दोनों जगह समान रूप से सक्रिय थे। लेकिन वे कम्युनिस्टों की तरह साहित्य में राजनीति और राजनीति में साहित्य की बात करने वालों में नहीं थे। मेरा मानना है कि वे साहित्य के जरिए हमारी सौंदर्य दृष्टि और संवेदना का विस्तार करना चाहते थे।

ए – 408, अरुणिमा पैलेस, सेक्टर- 4, वसुंधरा,गाज़ियाबाद- 201012 (यू.पी.)  मो. 8826723389

 

 

 

 

 

 

सदानंद साही
वरिष्ठ कवि, आलोचक और लोक साहित्य के विद्वान। साखीपत्रिका के संपादक। रैदास के पदों का काव्यांतरण हाल में प्रकाशित। बनारस हिंदू विश्वविद्याल के हिंदी विभाग के पूर्वप्रोफेसर और अध्यक्ष।

कबीर चौरा मुहल्ले के लेखक हैं विजयदेव नारायण साही

विजयदेव नारायण साही ने भले अपना जीवन इलाहाबाद में बिताया हो, वे मूलत: कबीर चौरा मुहल्ले के कवि-नेता थे। कबीर चौरा उनके जीवन और लेखन से अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है। लगता है जैसे वे कबीर चौरा से बाहर गए ही नहीं। उनकी कविता का ताना-बाना प्राय: उन्हीं शब्दों से बनता है, जो कबीर की कविता के टकसाल में गढ़े गए हैं- सत्य, साहस और संवाद। वे हमेशा इन्हीं शब्दों के ठीहे पर टेक लेते हैं, चलते हैं या फिर बहस करते हैं। कबीर की शब्दावली और भंगिमा हर जगह मौजूद रहती है। ‘तीसरा सप्तक’ से लेकर ‘मछलीघर’ से होते हुए ‘साखी’ तक की कविताएं इसकी पुष्टि करती हैं।

तीसरा सप्तक में उनकी छोटी सी कविता है- ‘बड़ा मुंह छोटी बात’। इसमें वे उमर खैमाम से बहस करते हुए ‘बहुजन हिताय’ को मौज और मृत्यु के बरक्स रख देते हैं। उनकी कविता में बुद्ध का बहुजन हिताय कबीर चौरा मुहल्ले से होते हुए पहुंचता है। उनकी कविताएं ‘साहसी अकेले’ की पुकार की तरह आती हैं जो बहुजन हिताय से जुड़ने की बेचैनी लिए रहती हैं। ‘न जाने कौन कोई एक/ कुएं में गिर गया है’, इस न जाने कौन के कुएं में गिर जाने से कवि विजय देव नारायण साही की बेचैनी कबीर की बेचैनी की याद दिलाती है- ‘दुखियादास कबीर है जागे औ रोए’। इस जागने और रोने में ही कविता अपनी सार्थकता तलाशती है।
हां, हमने माना कि एक जिंदगी हमने
गलत परिणामों को सिद्ध करने में गुजार दी।
अब हमें नई शुरुआत के लिए
नए सिरे से गुमनामी चाहिए।
भरी सभा में एक ही सवाल है-
मेरे साथ कौन आता है?

इन पंक्तियों को पढ़ते हुए बुद्ध और कबीर के बिलकुल नए संस्करण गांधी की अनुगूंज सुनाई देती है। इसमें बहस केवल दूसरे से नहीं बल्कि खुद से करते हुए कवि की उपस्थिति दर्ज होती है। साही की कविता में निरंतर संवाद करता हुआ आदमी मौजूद है- जो सत्य के ठीहे पर बैठा हुआ है। यह एहसास होने के बाद कि जिसे हम सच समझे बैठे थे वह गलत था, एक क्षण नहीं लगता उसे छोड़कर आगे बढ़ जाने में। जाहिर है, छोड़कर आगे बढ़ जाने के लिए- अकेले पड़ जाने के गहन एहसास के बावजूद- बढ़ जाने के लिए एक अकूत साहस की दरकार होती है। यह साहस साही के यहां कबीर चौरा मुहल्ले से आती है। अपनी बहुचर्चित- बहुउद्धृत कविता ‘प्रार्थना : गुरु कबीर दास के लिए’ में साही इसकी घोषणा करते नजर आते हैं-
दो तो ऐसी निरीहता दो
कि इस दहाड़ते आतंक के बीच
फटकार कर सच बोल सकूँ
और इसकी चिंता न हो
कि इस बहुमुखी युद्ध में
मेरे सच का इस्तेमाल
कौन अपने पक्ष में करेगा।

सच का इस्तेमाल हमारे स्वयं के विरुद्ध हो सकता है। यह जानते हुए भी फटकार कर सच बोलने की जिद कवि ही कर सकता है- ऐसा कवि जो कबीर चौरा मुहल्ले का नागरिक हो। यह नागरिकता ही कवि विजयदेव नारायण साही को वह विवेक देती है- वह कालिदास और कबीर या कबीर और तुलसीदास के बीच होने वाले संवाद को सुन पाता है। वहीं से कवि वह आत्मविश्वास अर्जित करता है जो यह आसूदगी देता है- जाओगे जहां तक लख्ते जिगर आवाज हमारी जाएगी! साही की कविता में मौजूद कबीर की प्रतिध्वनियां उन्हें नई कविता के अन्य कवियों से विशिष्ट बनाती हैं।

‘लघु मानव के बहाने हिंदी कविता पर एक बहस’ साही के उन निबंधों में है जिन्हें उनके आलोचक की आधारशिला कह सकते हैं। तीसरे दशक की हिंदी कविता में एक तरह का युगांत घटित होता है। इसे अनेक तरह के द्वंद्वों में देखा गया है। साही ने अपने निबंध में द्वंद्वों के बीच मौजूद नैरंतर्य के झीने प्रवाह को देखने और परिभाषित करने की कोशिश की है।

तीसरे दशक में जड़-चेतन, जीव-ईश्वर, भौतिकवाद- अध्यात्मवाद, मार्क्सवाद-गांधीवाद, भारतीय संस्कृति-पाश्चात्य संस्कृति, हिंसा-अहिंसा, प्रेम-क्रांति, हृदय-बुद्धि, प्रेयसी-प्रिय, गति-गंतव्य, अंत:सत्य-बाह्य सत्य, विज्ञान-नैतिकता, मंगल वासना- प्लेटोनिज्म, यथार्थ-आदर्श, लघु-महत आदि नाना प्रकार की द्वंद्वात्मक शब्दावली या विचारावली को देश के पूरे मानस को उद्वेलित करते देखा जा सकता है। यहां साही साहित्य को सिर्फ साहित्य नहीं, बल्कि विस्तृत साहित्येतर सामाजिक संदर्भों में देखने और व्याख्यायित करने का प्रस्ताव करते हैं। उनकी आलोचना दृष्टि परंपरा को पुनरावृत्ति के रूप में देखे जाने की प्रवृत्ति का प्रत्याख्यान करते हुए ‘परिवर्तन’ और वैपरीत्य में देखने का प्रस्ताव करती है।

उपर्युक्त निबंध में साही केवल यह स्थापना नहीं देते कि ‘बारंबार मनुष्य को बदलते हुए देश-काल में परिभाषित करना साहित्य की जिम्मेदारी है’, बल्कि वे इस जिम्मेदारी का निर्वाह करते हुए दिखाई देते हैं। इस निबंध में ही नहीं अपने अन्य आलोचनात्मक निबंधों में भी साही गांधी की तरह अंतर्ध्वनित होते हुए सत्य को पकड़ते हैं और प्रसाद को कवि न मानने वाले अज्ञेय को स्वयं प्रसाद की परंपरा में पाते हैं।

आस्था के पच्चीस शील की सूक्तियों को पढ़ते हुए, बरबस नामवर सिंह के हाशिए के नोट्स ध्यान में आते हैं जो उन्होंने ‘वाद विवाद संवाद’ पुस्तक के अंत में संकलित किए हैं।

‘शील’ शब्द का प्रयोग सहज ही बुद्ध की याद दिलाता है- ऊपर से ‘आर्य सत्य दुख है’ की शील में गिनती इसे पुष्ट करती है।

साही ने पच्चीस शीलों की चर्चा अपनी कविता की आस्था के संदर्भ में की है, पर ऐसा लगता है कि वे इन पच्चीस शीलों को कविता के विकास के रूप में भी देख रहे थे। अंतिम शील ‘अवज्ञा परमो धर्म:’ की प्रतिज्ञा या जिद कवि-लेखक-आलोचक को प्रश्नाकुल बनाती है। यह प्रश्नाकुलता ही वह विवेक देती है जिससे परिवर्तन की पहचान ही नहीं परिवर्तन घटित भी होता है।

मुझे नहीं लगता कि आज के भारतीय समाज या राजनीति में किसी भी वैचारिकता के लिए कोई जगह है। आज समाज-राजनीति जहां और जिस दशा में पहुंची है, उसे देखकर विद्यापति की पंक्ति या आती है- ‘माधव हम परिणाम निरासा’। लकिन जैसा कि साही अपने आलोचनात्मक विमर्श में यूटोपिया और उसकी सामाजिक भूमिका का सवाल उठाते हैं, उसी तर्ज पर कहा जा सकता है कि साही ने अपने समय-समाज-परंपरा से टकराते हुए जो वैचारिकता उपलब्ध की, वह भले आज की स्थिति में यूटोपियन जान पड़े, लेकिन आज इस पथराए समय को पिघलाने और मानवीय बनाने में साही की विचार दृष्टि बहुत उपयोगी हो सकती है। संवादधर्मिता, सत्य के लिए आग्रह, अकेले पड़ जाने के बावजूद सामूहिकता में आस्था, साहस और निर्भयता-यही साही की विचार दृष्टि के गुण सूत्र हैं- जरूरी और प्रासंगिक भी।

यदि कवि-आलोचक बुनियादी तौर पर ईमानदार है तो उसके दोनों रूपों में एक अंतर्प्रवाह मौजूद रहता है। साही की कविता और आलोचना में यह अंतर्प्रवाह है। अवज्ञा, अस्वीकार और सच का साहस साही की कविता और आलोचना दोनों में मौजूद हैं।

साही के जायसी-संबंधी मूल्यांकन का मैं न केवल प्रशंसक रहा हूँ, बल्कि जायसी पर लिखते-बोलते हुए मैंने साही द्वारा सुझाई प्रविधि से जायसी और उनके पद्मावत को पढ़ने की कोशिश की है। इसलिए जायसी का साहित्यिक मूल्यांकन सर्वथा उचित है। खेद है कि जायसी के मूल्यांकन, खास तौर से पद्मावत जैसे महाकाव्य के मूल्यांकन की जो प्रविधि साही ने दी- हमने अन्य मध्यकालीन महाकाव्यों के मूल्यांकन में उसका प्रयोग नहीं किया। निस्संदेह पद्मावत एक साहित्यिक कृति है और इसे उसी रूप में पढ़ा जाना चाहिए।

विजयदेव नारायण साही को मैं कबीर कुल का लेखक मानता हूँ। इसका एक अर्थ यह है कि वे एक सकर्मक लेखक हैं। लेखक की इस सकर्मकता को अनिवार्यत: श्रेष्ठता की सार्वभौम कसौटी नहीं बना सकते और न बनाना चाहिए, लेकिन एक सच्चे लेखक की सामाजिक जीवन में सक्रियता भले लेखक के हित में न हो, लेकिन यह वृहत्तर समाज के हित में है। मैं विजयदेव नारायण साही की सामाजिक सक्रियता को उनकी ‘बहुजन हिताय’ वाली प्रतिश्रुति का हिस्सा मानता हूँ। जहां तक मार्क्सवादी आलोचना को लेकर उनकी दृष्टि है, उसपर फिलहाल कुछ नहीं कहना चाहता।

साखी, एच 1/2 वी.डी.ए. फ्लैट, नरिया, बी.एच.यू. वाराणसी-221005 मो. 9450091420

 

 

 

 

 

 

विनोद तिवारी
सुपरिचित आलोचक। पक्षधरपत्रिका के संपादक और दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर।

साही के कवि और आलोचक के बीच एक प्रीतिकर होड़ है

(1)विजयदेव नारायण साही नई कविता के एक महत्वपूर्ण कवि हैं। नई कविता के ‘काव्य’ और ‘काव्यशास्त्र’ दोनों के निर्माण में उनकी भूमिका अग्रणी और मूल्यवान है। साही ने ‘मनुष्य’ के इतिहास, संघर्ष और नियति को संस्कृति के बनने, घुलनशील होने की प्रक्रिया और क्रम में विवेचित करने का प्रयत्न किया। उनकी पुस्तक ‘जायसी’ इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। साही की खुद की कविताएं इसी क्रिया-प्रतिक्रिया की कविताएं हैं। वे देशकालातीत मनुष्य के अस्तित्व को अस्वीकार करती हैं।

साही आचार्य रामचंद्र शुक्ल की तरह कविता में अध्यात्मवाद को नकारते हैं। याद करें एक कवि के रूप में ‘तीसरा सप्तक’ में उनके द्वारा व्यक्त इक्कीसवां शील। साही जब यह कहते हैं, ‘मनुष्य को बदलते हुए देश-काल में बारंबार परिभाषित करना साहित्य की जिम्मेदारी है’ तो स्पष्ट है कि यह किसी तरह के ‘रूढ़िवाद’ ‘भाववाद’ और आध्यात्मवाद की बात नहीं है। साही अपनी कविताओं में ‘भाववादी’ ‘अध्यात्मवादी’ होने से बच जाते हैं। जबकि अनेक स्थलों पर छायावाद में प्रसाद, प्रयोगवाद में अज्ञेय और उत्तर-छायावाद में बच्चन आदि अपने को इससे बचा नहीं पाते। मार्क्स ने भी तो ‘नए प्रकार के सामाजिक उत्पादन’ के लिए ‘नए मनुष्य’ की बात कही है।

इसलिए नई कविता के बहाने साही के यहां जिस ‘लघु मनाव’ की बहस मिलती है, वह निश्चित तौर पर ‘सर्वहारा’ का समानार्थी नहीं है। वह उस ‘नए मनुष्य’ की परिभाषा में आता है जिसे ‘सहज मनुष्य’ कहा जा रहा है। सर्वहारा से उसकी तुलना करते हुए नई कविता पर अस्तित्ववादी निष्कर्ष देना मार्क्स की नहीं बल्कि मार्क्सवाद की परिधि प्रतीत होती है। इससे शिकायत मुक्तिबोध की भी रही है। अतः ‘लघु मनाव’ वह सामान्य सहज मनुष्य है जो समाज की ही एक इकाई है, जो अपने समय की सामाजिक-राजनीतिक वास्तविकताओं से आलोड़ित-विलोड़ित भी है और उससे मुक्ति की राह पाने के लिए बेचैन है। इसलिए वह देशकाल से विच्छिन्न नहीं, देशकाल-बिद्ध है। साही की कविताएं स्वयं इसकी गवाही देती हैं।

(2)नई कविता का एक संदर्भ ‘मनुष्य’ के अस्तित्व और संकट का संदर्भ है। साही मनुष्य को बारंबार परिभाषित करते रहना साहित्य का जरूरी काम मानते हैं। वह प्रतिबद्धता को किसी तरह के अलंकरण की वस्तु नहीं मानते थे। नई कविता में जिस ‘मनुष्य’, ‘सहज मनुष्य’ अथवा ‘लघु मनाव’ की धारणा सामने आती है, साही की कविताओं और काव्य चिंतन के जरिए इसे समझने की कोशिश की जाए। ईश्वर के बाद मनुष्य दर्शन, विज्ञान और साहित्य का प्रारंभ से ही विषय रहा है। तीनों ने मनुष्य को अपने-अपने ढंग से समझने और बरतने के प्रयत्न किए हैं।

विज्ञान जहां मनुष्य के भौतिक कल्याण की चेष्टा है, दर्शन उसकी आध्यात्मिक उपलब्धि का विचार। साहित्य इन दोनों – भौतिक और आध्यात्मिक सीमाओं और उपलब्धियों में इतिहास तथा सभ्यता के परिवर्तन और विकास-संदर्भ में मनुष्य की रचना करता है। यह संदर्भ आधुनिकता का है। ‘नई कविता’ ने आधुनिकता के इस संदर्भ से जिस नए ‘मनुष्य’ की परिभाषा गढ़ने-बनाने के जो प्रयत्न किए, वे वैचारिक होने के साथ-साथ बहसतलब हैं। साही ‘मनुष्य’ की जगह ‘सहज मनुष्य’ की धारणा पेश करते हैं और उसे ‘लघुमानव’ नाम देते हैं। साही ‘संपूर्ण मनुष्य’, ‘अतिमानव’ या ‘महामानव’ (सुपर मैन) की संकल्पना को नकारते हैं। उनका मानना है कि मनुष्य की हर परिभाषा ‘सहज मनुष्य’ की परिभाषा है। उनकी नजर में मनुष्य जय और पराजय का, उपलब्धि और संभावना का अद्भुत मिश्रण होता है। साहित्य उसको संपूर्णता में पकड़ने की कोशिश भी करे तो भी वह पकड़ में नहीं आ सकता। पकड़ में आता हुआ प्रतीत होकर भी वह कुछ न कुछ छूट जाता है। संपूर्णता में न पाने की यह विवशता और असमर्थता सहज मनुष्य की सीमा भी है और पीड़ा भी।

(3)साही ने ‘तीसरा सप्तक’ के अपने वक्तव्य में 25 शील गिनाए थे। इनमें से कुछ तो बहुत चर्चित हुए। मसलन, आठवां शील में वह कहते हैं कि ‘कविता को राजनीति में नहीं घुसना चाहिए। क्योंकि इससे कविता का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा पर राजनीति के अनिष्ट की संभावना है।’ हालांकि, अपने एक निबंध ‘राजनीति और साहित्य’ में अपनी इस बात को वह पलट देते हैं।

इक्कीसवां शील कविता संबंधी उनके दृष्टिकोण को स्पष्ट करता है। इसमें साही आचार्य रामचंद्र शुक्ल की तरह कविता में अध्यात्म को नकारते हैं। बाकी वह लोहिया के गांधीवादी समाजवाद के प्रभाव में थे। इसलिए ‘अवज्ञा परमो धर्म:’ को अपनी काव्य-प्रकृति मानते थे। साही नई कविता के सात्यकि हैं। जहां कृष्ण की पूरी नारायणी सेना कौरवों के पक्ष में लड़ रही थी, सात्यकि इकलौते योद्धा थे, जिन्होंने महाभारत युद्ध में नीति का पक्ष लेते हुए पांडव पक्ष में युद्ध कर महान पराक्रम दिखाया। सात्यकि महायुद्ध में बचने वाले गिनती के योद्धाओं में से एक थे। साही अपनी कविताओं और उससे अधिक अपने आलोचनात्मक चिंतन में सात्यकि की तरह बचे रहेंगे।

(4) ‘समकालीनता’ और ‘संवादात्मकता’ साही की आलोचना के बीज पद हैं। दोनों के सहमेल से वह ‘साहित्य क्यों’ को व्याख्यायित करते चलते हैं। आप गौर से देखें तो साही के आलोचनात्मक लेखन में तर्क और बहस की तान ‘समकालीनता’ पर ही टूटती है। अतः सही मायने में आलोचना साही के लिए एक बहस थी। उनका मानना था कि बहस से ही संवाद का रास्ता बनता है और नतीजे तक पहुंचा जा सकता है। साही ने अपने समय के साहित्य और आलोचना को बहस के केंद्र में लाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। ‘परिमल’ बनाम ‘प्रगतिशील’ आंदोलन की बहसें छठवें दशक की हिंदी आलोचना के सैद्धांतिक निर्मिति की गवाह हैं। साही कुछ सिद्ध करने की नीयत से इतना नहीं बोलते, जितना इस नीयत से कि देखें इस बहस से क्या सिद्ध होता है। साही में एक निष्कंप निर्भीकता थी, अराजक होने के हद तक। फटकार कर सच बोलने का साहस था। साही के यहां कोई चोर दरवाजा नहीं था, न अपने लिए और न ही साहित्य के लिए। शायद यही कारण है कि साही को चुनौती और बहस बहुत प्रिय थे। जैसे उनकी बौद्धिक चेतना का द्वार ही चुनौती और बहस से खुलता हो। ‘परिमल’, ‘विवेचना’ कॉफी हाउस की बहसें, भाषण, व्याख्यान इसके उदाहरण हैं। उन्होंने अपने समय में मौजूद हर साहित्यिक, वैचारिक और राजनीतिक चुनौतियों को न केवल स्वीकार किया बल्कि अपनी सोच, चेतना, तैयारी, मेधा और कर्म सबके साथ उन चुनौतियों और बहसों की खराद पर बार-बार अपने को रवां किया, उन्हें तेजी और तीक्ष्णता प्रदान की। उनमें नया सौंदर्य, नए अर्थ भरे। इस अर्थ में उनका लेखन चोखे जिरह और उस जिरह के सहारे एक नई चमक और नए दृष्टिकोण के कारण विरोधियों को भी अपनी ओर आकर्षित करता है।

साही के एक लेख ‘राजनीति और साहित्य’ के गलत पाठ के आधार पर कुछ लोग यह निष्कर्ष निकालते हैं कि साही साहित्य से राजनीति को दूर रखने की वकालत करते हैं। पर वह लेख इस निष्कर्ष का लेख नहीं है, बल्कि किसी भी दलगत राजनीति की विचारधारा मात्र को ढोने वाले साहित्य को वह साहित्य नहीं मानते। अपने उसी लेख में वह एक तरफ कम्युनिस्ट पार्टी के विचार को वहन करने वाले साहित्य को नकारते हैं, वहीं ‘प्रतिक्रियावादी’ साहित्य की भी खबर लेते हैं- ‘जिस तरह आज राजनीति से साहित्य को अलग रखने का नारा लगाने वाले मध्यवर्गीय कलाकार प्रतिक्रियावादी हैं, उसी तरह राजनीति की तानाशाही में कैद करके समस्त साहित्य को पार्टी का अस्त्र मात्र घोषित करने वाले कला के दुश्मन हैं। मार्क्स साहित्य को इन दोनों संकुचित दृष्टिकोणों से अलग समझता है। वह साहित्य को केवल पार्टी नहीं, पूरे वर्ग के सांस्कृतिक प्रयास की उत्पत्ति मानता है। वह साहित्य को उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में परखता है, उसके उन आंतरिक नियमों की घोषणा करता है जिनसे आज तक वह नियमित होता आया है। और इन्हीं ऐतिहासिक नियमों के आधार पर वह नई संस्कृति के निर्माण का प्रयास करता है।’ अधकचरे मार्क्सवादी और साही के अंधभक्त दोनों को साही के इस बयान को एकबार फिर से देखने की जरूरत है। साही के स्नेहभाजन और प्रसिद्ध आलोचक सत्यप्रकाश मिश्र तो उन्हें ‘कुजात मार्क्सवादी’ कहते ही हैं।

(5)यह देखना दिलचस्प होगा कि विजयदेव नारायण साही के यहां कवि और आलोचक दोनों में एक प्रीतिकर होड़ है। पर कवि की तुलना में उनका आलोचक बीस पड़ता है। साही साहित्य में, सक्रिय बुद्धिजीवी के सामाजिक-राजनीतिक दायित्व का निर्वहन करने वाले एक बहुपठित और बहसधर्मी आलोचक हैं। आजादी के बाद भारतीयता और नागरिकता के विकास के मंसूबे के तहत जिस नए परिवेश और नए मनुष्य का निर्माण शुरू हुआ, साही उसी परिवेश की निर्मिति हैं। वह द्वितीय विश्वयुद्ध से उपजी शून्यता से शीतयुद्ध की कूटनीति के साथ-साथ भारत की आजादी से उपजे स्वप्न और स्वप्नभंग से लेकर इमरजेंसी के अलोकतांत्रिक चेहरे और मनःस्थिति  के प्रभाव में साहित्य और संस्कृति को जिस तरह से व्याख्यायित-विश्लेषित करते हैं, उसका महत्व हिंदी आलोचना में आज और अधिक मूल्यवान हो गया है।

(6)साही ऐसे आलोचक हैं जो साहित्य दृष्टि को धर्मनिरपेक्षता के परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित और परिभाषित करने की कोशिश करते हैं। इस संबंध में उनकी दो पुस्तकें ‘साहित्य क्यों’ और ‘जायसी’अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। ‘साहित्य क्यों’ में भी उनका लेख ‘धर्मनिरपेक्षता की खोज में हिंदी साहित्य और उसके पड़ोस पर एक दृष्टि’ में विशेष रूप से इसे देखा जा सकता है। आकाशवाणी इलाहाबाद की एक भेंटवार्ता में साही कहते हैं कि जायसी का अध्ययन मेरे लेखक होने और इस देश का नागरिक होने की समान रूप से निष्पत्ति है। जायसी ने मेरे सामने बहुत-सी बातें ऐसी रखीं, जो मेरे मानस के सवाल नहीं हैं – पूरे भारतीय मानस की दृष्टि से उन सवालों का महत्व है।

कहना न होगा कि साहित्य और धर्मनिरपेक्षता के रिश्ते पर साही भारतीयता और आधुनिकता के संदर्भों में ही विचार करते हैं। साही हिंदी के उन कुछ कवि-आलोचकों में शीर्ष पर हैं जिनके अध्ययन का दायरा बहुत व्यापक और समृद्ध था। उनके आलोचनात्मक लेखन और उसमें किए गए भाष्य और उससे निकाले गए अर्थ, तर्क प्रणाली में इसे देखा समझा जा सकता है। साही लोक की मनोभूमि से धर्म और धार्मिकता के उद्देश्य और फंक्शन को कुछ पदों, प्रतीकों और प्रयोग के जरिए समझाते हैं। इस विश्लेषण की प्रक्रिया में ही धर्मनिरपेक्षता के स्वरूप को वे स्पष्ट करते हैं। वह लिखते हैं- ‘जायसी पद्मावत के माध्यम से कोई वैकल्पिक अध्यात्म नहीं निकालना चाहते थे। वे केवल यह चाहते थे कि मिथकशास्त्र के जो धर्म और विश्वास के समर्थित रूप हैं, जिनके कारण ‘कंफ्रंटेशन’ होते हैं, उनको थोड़ा ढीला किया जाए और मिथकों को थोड़ा विनिमेय (इंटरचेंजेबल) बना दें, थोड़ा द्रव्य (फ्ल्युड) और थोड़ा तरल (लिक्विड) बना दें। मिथक किस स्तर पर तरल होते हैं, द्रव होते हैं? उत्तर है- लोकस्तर पर। क्लासिकल स्तर पर वे सख्त हो जाते हैं। शास्त्र द्वारा जो पुराण रचे गए हैं, उनमें एक अक्षर भी आप इधर से उधर नहीं बदल सकते। लोक-व्यवहार में जो पुराण चलता है, उसमें राम के साथ आप जो चाहे सो जोड़ दें। यहां तक कि गालियां भी राम से जोड़कर गाई जाती हैं। लोकभूमि की जो मिथकीय मनोरचना है, जो विश्वास है, वह धर्म के आधार पर कट्टरता या उग्रता नहीं पैदा करता। …मेरी दृष्टि में जायसी ने समाज के अंदर एकीकरण और संघटन के कंफ्रंटेशन को हटाने का जो एक स्वप्न देखा, वह केवल हिंदू-मुसलमान समाज की दृष्टि से नहीं, वह वस्तुपरक बनाम आत्मपरक, स्वप्न और यथार्थ, स्वप्न बनाम इतिहास – इन सभी स्तरों पर एक साथ झंकृत हुआ।

साही को पढ़ते हुए डॉ. राममनोहर लोहिया याद आते हैं, जो मिथकों, मिथकीय चरित्रों को इसी लोक-विश्वास और व्यवहार की मानस-भूमि से व्याख्यायित करते हैं। किसी पुरातन सनातनता के अर्थ में नहीं, न ही किसी धर्मांधता के अर्थ में, बल्कि सहज लोक की मनोभूमि पर। साही कहते हैं, ‘साहित्य में किसी विचारधारा या दार्शनिक सिद्धांत का वहन करना एक बात है और अपने युग की संपूर्ण चिंतनशीलता में उलझी हुई अनुभूति को आत्मसात करना दूसरी बात। यह आत्मस्थ चिंतनशीलता गंभीर साहित्य को एक बौद्धिक सघनता प्रदान करती है। …पद्मावत में अपने संपूर्ण प्रसार में यह चिंतनशीलता पूरी कथा में एक तरल विषाद-दृष्टि का सृजन करती है जिसमें मानवीय व्यापार के प्रति पीड़ा है, किंतु अवसाद नहीं है, हल्का वैराग्य है, लेकिन गहरी संसक्ति भी है, लेकिन स्पष्ट नैतिक विवेक भी है। यही वह सुगंध है जो फूल के मरने के बाद भी नहीं मरती।’

(7)साही कवि और आलोचक तो थे ही, सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ता भी थे। बुनकरों और मजदूरों की यूनियन बनाई थी। भदोही संसदीय सीट से चुनाव लड़ा था। उनके साथी और समाजवादी नेता मधु लिमये बताते हैं – 1967 के लोकसभा चुनाव में साही जी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के भदोही लोकसभा सीट से उम्मीदवार थे। मुझे याद है कि साही जी लोकसभा का चुनाव अत्यंत कम पैसों में, बहुत अच्छे ढंग से लड़े थे। चुनाव अभियान को उन्होंने जनजागरण और लोकशिक्षा के अभियान के रूप में बदल दिया। दुर्भाग्य से उन्हें चुनाव में सफलता नहीं मिली। डॉ. राममनोहर लोहिया जिस तरह से राजनीति में यह मानते थे कि ‘जोखिम की राजनीति करनी चाहिए, सहूलियत की नहीं’, साही का मानना था कि साहित्यकारों के लिए भी यह बात लागू होनी चाहिए।

साही से एकबार जब यह पूछा गया कि क्या एक राजनीतिक कार्यकर्ता व मजदूर नेता और शुद्ध बौद्धिक व अकादमिक में कोई पारस्परिक अंतर्विरोध आपको नजर आता है। साही का जवाब था – ‘नहीं, सारी बौद्धिक जिज्ञासा की तान यहीं टूटती है कि वैचारिक और व्यावहारिक आचरण में सामंजस्य कैसे स्थापित किया जाए। हर जागरूक बुद्धिजीवी को हमेशा इस खतरे से बचना चाहिए कि वह हाथी के दांत वाले मीनारों का जीवन बनकर न रह जाए। उनकी छवि ‘परिमल’ नामक संस्था के एक प्रखर प्रवक्ता और मार्क्सवाद के विरोधी आलोचक की बना दी गई है। यह उस समय की सांगठनिक और सांस्थानिक या दलीय जरूरत रही हो सकती है। परंतु साही मार्क्स और मार्क्सवाद के विरोधी नहीं थे, बल्कि मार्क्सवाद की परिधि और उसकी घेरेबंदी के आलोचक थे। मार्क्सवाद की उनकी पढ़त के कायल आचार्य नरेंद्रदेव थे। उनके समकालीन उन्हें कुजात मार्क्सवादी कहते थे। उम्मीद है, उनकी शताब्दी के अवसर पर, सही परिप्रेक्ष्य में, उनपर नए सिरे से विचार और बहस का सिलसिला शुरू होगा।

आज जब साहित्य, संस्कृति, राजनीति सभी जगहों पर स्वाधीनता और समानता से प्रेरित सामाजिक परिवर्तन की आवाजें कमजोर की गई हैं, विजयदेव नारायण साही को उनकी शताब्दी के अवसर पर याद करने का कोई अर्थ अगर होगा तो यही होगा। आज हम एक ऐसे समय में रह रहे हैं, जिसमें परमार्थ संप्रदाय में, नैतिकता पक्षपात में, संस्कृति सामूहिक अलगाव में, सामाजिकता हिंदू-मुस्लिम संघर्ष में और राजनीति निरंकुशता में निरंतर ढांचाबद्ध, संरचित और प्रचारित-प्रसारित होती जा रही है। कसौटी और पात्र दोनों ही अपना अर्थ गंवा चुके हैं। विजयदेव नारायण साही की एक किताब का नाम ही है ‘लोकतंत्र की कसौटियां’। आज लोकतंत्र की कसौटियां ही संदेहास्पद, निरुपाय और निस्तेज हुई हैं। उनको याद करना, लोकतंत्र के मूल्यों और मानों की चिंता करना है।

जब वे कहते हैं कि ‘मेरे लिए जनता की उठान का एक ही अर्थ है – ‘संकल्प-विकल्प की छूट और आचरण की सभ्यता’, तो उसकी जरूरत और उसके मानी आज और भी स्पष्ट और साफ तौर पर समझे जा सकते हैं।

सी-4/604, ऑलिव काउंटी, सेक्टर-5, वसुंधरा, गाजियाबाद – 201012 (उ. प्र.), मो. 9560236569

 

 

 

 

 

अनुज लुगुन
चर्चित कवि, कहानीकार और स्तंभ लेखक।  अद्यतन काव्य संग्रह ‘अघोषित उलगुलान’। संप्रतिदक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक।

मुखर अवज्ञा के साहित्यकार थे विजयदेव नारायण साही

विजयदेव नारायण साही की कविताएं जीवन की अनुभूति में हुए बदलाव की अभिव्यक्ति हैं। स्वतंत्र भारत में ‘जीवन की अनुभूति में बदलाव’ स्वाभाविक था। लेकिन यह अनुभूति आजादी की तारीख मिलने की वजह से निर्मित नहीं हुई, बल्कि यह समाज में अंतर्धारा की तरह मौजूद थी। यह औपनिवेशिक समय में ही उत्पादन के साधनों के बदलने से निर्मित होने लगी थी। प्रगतिवादी कविताओं ने उत्पादन के साधनों के बदलाव से होते सामाजिक संरचना के परिवर्तन को अपनी अभिव्यक्ति के केंद्र में रखा था। निस्संदेह यह पूंजीवाद के स्थापित होने का दौर था। निःसंदेह परिवर्तन की दिशाएं एक रेखीय नहीं होती हैं। पूंजीवादी उत्पादन की प्रणाली और विश्व जगत में पसरते साम्राज्यवाद ने केवल परंपरागत सामाजिक संरचना को ध्वस्त नहीं किया, बल्कि इसने अनुभूति की संरचना को भी ध्वस्त किया। इसने समाज और व्यक्ति के संबंध को खंडित करके उसे नई संरचना में ढाल दिया।

अब जितना बड़ा सत्य ‘समाज’ का था, उससे कम सत्य ‘व्यक्ति’ का नहीं था। इस व्यवस्था में व्यक्ति पुरानी जड़ता से शिथिल होकर अपनी वैयक्तिक इयत्ता रेखांकित कर सकता था। परंपरागत अनुभूति की संरचना की परख करते हुए परिवर्तित अनुभूति की संरचना को अभिव्यक्त करना किसी कवि की बड़ी चुनौती होती है। साही की कविताओं में इस चुनौती का स्वीकार है। साही परिवर्तित संवेदना की आंतरिकता को सूक्ष्मता से महसूस करने वाले कवि हैं।

परिवर्तित संवदेना की अभिव्यक्ति अज्ञेय के संपादन में प्रकाशित ‘तार सप्तक’ से ही देखने को मिलती है। ‘तार सप्तक’ में अज्ञेय ने मुख्यतया ‘परिवर्तित अनुभूति’ का ही संपादन किया है। यह परिवर्तन ‘व्यक्ति की इयत्ता’ को उभार रहा था। इस इयत्ता को उपेक्षित करके काव्य का सत्य अधूरा ही होता। अज्ञेय ने ‘व्यक्ति की इयत्ता’ का जो प्रश्न रेखांकित किया था वह आजादी के बाद नई कविता की आधारभूमि बना। यह ऐसा परिवर्तित सत्य था जो आत्मगत था लेकिन सामाजिक संरचना में आए बदलाव की उपज था। वह  सामाजिक संरचना में मौजूद विभाजन की सभी हिंसक प्रवृत्तियों के बावजूद समांतर रूप से मौजूद था।

साही की कविताएं इसी परिवर्तित अनुभूति को अपनी कविता में अभिव्यक्त करती हैं। इसमें व्यक्ति की इयत्ता का प्रश्न महत्वपूर्ण है। 1966  में प्रकाशित उनका काव्य संग्रह ‘मछलीघर’ इसका उदाहरण है। मछलीघर कविता में जो बिंब उभरता है, जो संघर्ष चित्रित हुआ है वह एक ऐसे व्यक्ति का है जो आत्मगत भावना, व्याकुल मन:स्थिति में अपनी जिजीविषा प्रकट करता है। इस प्रक्रिया में उसे ‘लघुता’ में अपनी ‘इयत्ता’ दिखाई देती है। उसकी बेचैनी ‘मछलीघर’ के शीशों को तोड़ नहीं सकती, वह विवश है। उसकी विवशता त्रासद है, क्योंकि वह सौंदर्य का कारक भी है और उपासक भी। मुझे साही की इस कविता में और अज्ञेय की कविता ‘सोन मछली’ में भाव साम्यता दिखाई देती है। ‘तृषा’ और ‘जिजीविषा’ दोनों की चिंता के केंद्र में है। अज्ञेय सोन मछली कविता में ‘रूप तृषा’ और ‘जिजीविषा’ कहते हैं। साही कहते हैं- ‘धीरे-धीरे इस ठंडे कांच की दीवार के सहारे/तृषाहीन आकर टिक जाओगे/परिशोधित।’

इन कविताओं में ‘आत्म’ की निर्मिति-परिवर्तित अनुभूति का ही परिणाम है। इसमें ‘अंतर्द्वंद्व’ स्वाभाविक है। यह सामाजिक यथार्थ का ही एक रूप है जो पूंजीवाद की उपज है। इस यथार्थ की आंतरिकता में निहित ‘आत्म’ से नई कविता के कवियों ने दर्शन निरूपित करने का प्रयास किया है। इसमें विजयदेव नारायण साही की कविताओं की विशेष भूमिका है। यह भी गौरतलब है कि परिवर्तित अनुभूति यदि ‘आत्म’ के स्तर पर है तो उसका सामाजिक आधार भी है (जिसे मुख्यतया प्रगतिवाद ने अभिव्यक्त किया) और उसकी वर्गीय जटिलताएं भी हैं। यानी एक ओर ‘व्यक्ति की इयत्ता’, दूसरी ओर ‘वर्गीय जटिलता’। नई कविता के कवियों में इन दोनों को केवल मुक्तिबोध ही साध पाए हैं।

साही अपने काव्य में वर्गीय जटिलता के सत्य से वाकिफ होते हुए भी उसे काव्यानुभूति का मुख्य विषय नहीं बना पाए। ‘इस नगरी में रात हुई’ कविता में वे कहते हैं- ‘धीरे-धीरे तल्ख अंधेरा फैल गया, खामोशी है/आओ खुसरो लौट चलें घर इस नगरी में रात हुई।’ कहा जा सकता है कि साही की कविता में व्यक्ति अपनी पीड़ा में छटपटाता तो है, उसे मुक्ति तो चाहिए लेकिन वह खुद की परिस्थितियों को पहचान कर संघर्ष के लिए लामबंद होते समूह का सदस्य नहीं है।

विजयदेव नारायण साही जी के ‘पच्चीस शील’ कविता, समाज, संस्कृति, राजनीति के साथ ही ‘आत्म’ की पड़ताल हैं। मुझे लगता है ये सतही पड़ताल हैं। इनमें उक्ति वैचित्र्य है। ये गहन चिंतन से उत्पन्न प्रतीत नहीं होते। इतना जरूर है कि साही जी के इन शीलों के माध्यम से नई कविता की ‘वैयक्तिकता’ को समझा जा सकता है। कहीं-कहीं नई कविता की मनोभूमि दिखती है। पहले शील में जब वे कहते हैं कि ‘मैं बहुत अक्लमंद हूँ’ तो ‘मैं’ का जोर सभी शीलों में ध्वनित होता रहता है। ये शील उनके अपने युग की साहित्यिक और साहित्येतर संदर्भों में रचित हैं।

साही के पच्चीस शीलों का संबंध साहित्य और राजनीति से भी है। आठवें शील में वे कहते हैं कि कविता को राजनीति में नहीं घुसना चाहिए, क्योंकि इससे कविता का तो कुछ नहीं लेकिन राजनीति के अनिष्ट की संभावना है। इसके ठीक बाद वे नौवें शील में कहते हैं कि शेली महान क्रांतिकारी कवि था, इसलिए उसको चाहता हूँ लेकिन उसके नेतृत्व में क्रांति नहीं चाहता। इन दोनों शीलों में वे कविता और कवि की ‘भावना’ को आधार बनाते हैं। ‘भावना’ क्रांति को व्यक्त कर सकती है, लेकिन क्रांति के लिए अंततः राजनैतिक नेतृत्व चाहिए। कविता क्रांति के लिए ऐतिहासिक भूमिका बना सकती है, लेकिन निर्णायक भूमिका राजनीति ही निभाएगी।

नौवें शील में साही कहते हैं कि तुलसीदास महान संत कवि थे, लेकिन वह संसद के चुनाव में खड़े हों तो उनको वोट नहीं करूंगा। ऐसा कहते हुए वे यह स्पष्ट नहीं करते कि कवि होने के कारण वे उन्हें वोट नहीं करेंगे, या तुलसीदास के विपक्ष में कबीर खड़े हैं इसलिए वे कबीर को वोट करेंगे, या उन्हें भी वोट नहीं करेंगे? ऐसे ही ग्यारहवें शील में कहते है कि कविता से समाज का उद्धार नहीं हो सकता। यदि सचमुच समाज का उद्धार करना चाहते हैं तो देश का प्रधानमंत्री बनने या बनाने की चेष्टा कीजिए।

कविता, कवि और राजनीति के संबंधों को सूक्तियों में निरूपित नहीं किया जा सकता है। इनके संबंध पर उनके कुछ विचारपरक लेख हैं। लेकिन मुझे लगता है ये संबंध बृहद विश्लेषण की मांग करते हैं। गहन सामाजिक-सांस्कृतिक मंथन के बाद ही इनके सत्य को उद्घाटित किया जा सकता है।

उनके पच्चीस शीलों में मुझे उनका अंतिम शील ही उपयुक्त लगता है। यह शील हर युग के लिए उपयोगी है- ‘अवज्ञा परमो धर्माः।’ आज्ञा पालन सृजन का शत्रु है, रचनात्मकता का विरोधी है। सामान्य व्यवहार में आज्ञा पालन का जो पारिवारिक संदर्भ उभरता है, आमतौर पर उसे ही देखा जाता है। लेकिन आज्ञा पालन के पीछे के ‘वर्चस्व’ की जटिल संरचना संस्थागत तौर पर काम करती है। शास्त्रों की आज्ञा, धर्म की आज्ञा, संस्थाओं की आज्ञा, विचारधारा की आज्ञा आदि-आदि। रचनात्मकता इस वर्चस्व को चुनौती देती है। इस चुनौती के बिना न संवेदना का विस्तार हो सकता है, न ही ज्ञान का। इतिहास में देखें तो स्पार्टाकस ने अवज्ञा की, सुकरात ने अवज्ञा की, कोपरनिकस ने अवज्ञा की, शंबूक ने अवज्ञा की, कबीर ने अवज्ञा की, मीरा ने अवज्ञा की। इतिहास को गति अवज्ञा से ही मिली है।

जायसी का मूल्यांकन विजयदेव नारायण साही की आलोचनात्मक उपलब्धि है। हिंदी आलोचना ने जायसी पर संप्रदाय और अध्यात्मवाद का जो घेरा डाला था उसे साही तोड़ते हैं। जायसी को केवल एक सूफी कवि के रूप में देखना उसके काव्य का संकीर्ण घेरा बनाना है। पूर्व के आलोचकों द्वारा जायसी को कई गद्दियों, अखाड़ों और संप्रदायों के अनुयायी की तरह देखने का जो प्रयास किया गया, उससे साही न केवल असहमत हैं बल्कि उसके खतरों से भी अवगत हैं। उनकी असहमति की वजहों को कुछ बिंदुओं में समझा जा सकता है –

  1. साही को इस बात की चिंता है कि जायसी को किसी मत या संप्रदाय का अनुयायी सिद्ध करने से उनके काव्य का सत्य, सौंदर्य और उसका अभिप्राय संकुचित हो जाएगा। 2. किसी मत का अनुयायी घोषित हो जाने पर उनके काव्य की दीर्घजीविता प्रभावित हो जाएगी। 3. जायसी का सांप्रदायिक उपयोग संभव है। 4. वे जायसी की स्वाधीन चेतना और प्रखर बौद्धिक चिंतन को उजागर करना चाहते हैं।

इन बिंदुओं के लिए जरूरी है कि जायसी के कवि रूप को प्रसारित किया जाए, जो उनका खुद का दावा है-
मुहमद कबि जो प्रेम का ना तन रकत न माँसु।
जेई मुँह देखा तेई हँसा सुना तो आए आँसु।

किसी कवि को किसी दार्शनिक मत या विचारधारा के चश्मे से देखना और उस कवि की कविता के रास्ते उसके दर्शन और विचारधारा को समझना दो अलग-अलग बातें हैं। साही को लगता है कि अब तक मतों की स्थापना के लिए आलोचना ने जायसी का पाठ किया गया है। उन्हें चिंता है कि जिस कवि को 16वीं और 19वीं सदी में कभी सूफी नहीं माना गया, उसी कवि को 20वीं सदी में तसव्वुफ या सूफी बनाने की होड़ क्यों है? साही को ऐसी मतवादी स्थापनाओं से असहमति है जो उपयोगितावादी तरीके से काव्य या कवि का मूल्यांकन करती हैं। वे साफ कहते हैं जायसी अगर सूफी हैं तो वे कुजात सूफी हैं, मठी या सरकारी सूफी नहीं।

साही को जायसी के जीवन और रचनाओं में स्वाधीन चेतना और प्रखर बौद्धिक क्षमता दिखाई देती है। इसे वे उनके काव्य की ऐसी मनोभूमि समझते हैं जिसे गद्दी या मत या संप्रदाय का अनुयायी बताकर नजरअंदाज किया जाता रहा है। जायसी को एक कवि के रूप में देखने की उनकी अपील जायसी की स्वाधीन चेतना को केंद्र में रखने की पहल है। उसके आलोक में उसके पाठ के दरवाजों को खोलना जरूरी है।

साही के चिंतन के दौर में सोवियतों के नेतृत्व में एक तरफ साम्यवाद की स्थापना के नाम पर सख्ती थी, तो दूसरी ओर अमेरिकी नेतृत्व में लोकतंत्र और व्यक्ति स्वतंत्रता के नाम पर पूंजीवादी मूल्यों की कथित उदारता था। दुनिया दो ध्रुवीय थी और लगभग पूरी दुनिया इनसे आक्रांत थी। कला, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में इनका प्रभाव पड़ा था। हिंदी साहित्य में लेखक संगठनों का दबदबा था। इसी वैचारिक माहौल के बीच साही जी ने अपने साहित्यिक चिंतन को अभिव्यक्त किया था। जहां साहित्यिक मूल्यों को विचारधारा के खास फ्रेम में (चाहे वह छायावादी आध्यात्मिकता हो, या प्रगतिवादी राजनैतिक वैचारिकी हो, या प्रयोगवादी दार्शनिकता) रखकर खंडित और परस्पर विरोधी नजरिए से विश्लेषित करने का प्रचलन बन गया था, वहां साही ने ऐसी अनुकरणमूलक रचनात्मकता और आलोचना से असहमति दर्ज की थी। उनके साहित्य में ‘लघु मानव’ का सिद्धांत इसी वैचारिक माहौल से आया। वे विखंडन में नहीं, बल्कि शृंखला में काव्य को समझने के अभ्यासी हैं।

साही की आलोचना दृष्टि तीक्ष्ण थी और वे बेबाकी से अपनी बात कहते थे। यह उनकी क्षमता और साहस का ही सूचक है। उन्होंने जायसी को एक कवि के रूप में समझने की वकालत की जबकि जायसी को खास सांप्रदायिक  दायरे में देखने का हिंदी समाज आदी हो चुका था और उसके लिए आलोचना के प्रतिमान भी विकसित किए जा चुके थे। उन्होंने उस दौर के लेखक सगठनों और प्रचलित साहित्यिक मान्यताओं से इतर जाकर साहित्यिक कृतियों को समझा।

उनकी किताब ‘छठवां दशक’ उनकी स्वायत्त वैचारिक दृष्टि और स्वायत्त साहित्यिक समझ का उदाहरण है। वे साहित्यिक कृतियों का पाठ साहित्य की जमीन छोड़कर नहीं करते, लेकिन उसकी पृष्ठभूमि में परिस्थितियों को नजरअंदाज नहीं करते। यदि वे जायसी को एक कवि के रूप में समझने की अपील करते हैं तो वे यह कहना नहीं भूलते कि मध्ययुग तलवारों और बाबाओं के वर्चस्व का युग था। वे साहित्य में ‘जन’ के महत्व को स्वीकारते हैं, लेकिन कम्युनिस्ट पार्टियों में प्रचलित ‘जन’ को संकीर्ण मानकर उससे एतराज करते हैं।

शमशेर की आलोचना में साही यह कहने से नहीं हिचकते कि शमशेर अपना वक्तव्य प्रगतिवाद के पक्ष में देते हैं लेकिन उनकी कविताएं प्रगतिवाद की कसौटी पर खरी नहीं उतरतीं। उनके आलोचनात्मक कथन से लगता है कि शमशेर रामविलास शर्मा और अज्ञेय दोनों को एक साथ साधते हैं। ‘मार्क्सवादी समीक्षा और उसकी कम्युनिस्ट परिणति’ शीर्षक लेख में वे पार्टीगत विचारधारा के वर्चस्व के कारण साहित्यालोचन की दुर्गति की तीखी आलोचना करते हैं।

राजनीतिक प्रभाव में लिखी जा रही आलोचना को उन्होंने राजनीति से भी ज्यादा अंध-श्रद्धा और अंध-विश्वास से युक्त माना है। दरअसल उन्होंने स्वायत्त आलोचना की सैद्धांतिकी प्रस्तुत करने का संघर्ष किया है। संभवतः इसलिए उन्हें ‘कुजात मार्क्सवादी’ भी कहा गया।

साही के ‘लघु मानव’ की अवधारणा साहित्यलोचन में सबसे ज्यादा चर्चित रही। ‘लघु मानव’ से साधारण मानव, छोटा मानव या आम जन आदि का अर्थ ध्वनित होता है। मानो यह ‘महान’ या ‘विराट’ होने का विलोम है। लेकिन साही ने इससे इतर लघु मानव को बृहद दार्शनिक और मूल्यों के संदर्भ में प्रस्तुत किया। उस दौर की आलोचना ने ‘लघु मानव’ को अपनी-अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के अनुसार साधने की कोशिश की थी। साही ने लघु मानव के बहाने साहित्य के आंतरिक सत्य को समझने की प्रस्तावना प्रस्तुत की। वे छायावाद से लेकर अज्ञेय तक के साहित्य का मूल्यांकन करने के क्रम में प्रवृत्तियों, शैलियों या विचारों की स्थूलता की जगह उस सूक्ष्मता को पकड़ने की कोशिश करते हैं जिन्हें आलोचना ने वैचारिक आग्रह-दुराग्रह से ढंक दिया था। वे पश्चिम के रोमांटिसिज्म और हिंदी के छायावाद के बीच परस्पर साम्यता और वैपरीत्य को रेखांकित करते हैं। प्रेमचंद और जयशंकर प्रसाद को अलग-अलग करके देखे जाने के प्रचलित नैरेटिव से अलग उन्हें दोनों की मनोभूमि एक दिखाई देती है।

साही साहित्य के विकास को विखंडन में न देखकर शृंखला में देखते हैं। वे छायावाद और नई कविता के बीच की कड़ियों को ढूंढ़ते हैं। यह कड़ी उन्हें बच्चन, भगवतीचरण वर्मा और दिनकर में दिखाई देती है। साही के लिए ‘लघु’ ‘महत्व’ की यात्रा का प्रस्थान है न कि बौनापन। समग्रत: देखा जाए तो वे शीतयुद्धकालीन विश्व और हिंदी के शीतयुद्ध के बीच साहित्यिक नैतिकता और मूल्यों की तलाश में चिंतनशील रहने वाले आलोचक हैं। उनसे यह दृष्टि तो मिलती ही है कि साहित्यिक धाराओं की ‘अंत:सलिला’ की सूक्ष्मता प्रचलित अवधारणाओं और स्थापित मान्यताओं से परखी नहीं जा सकती है, इसके लिए उनसे ‘अवज्ञा’ जरूरी है।

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शिव कुमार यादव
युवा आलोचक।नयी परंपरा की खोजऔर  युद्ध और स्त्रीआलोचना पुस्तकें। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्राध्यापन।

विजयदेव नारायण साही साहित्यिकता के एक बड़े पक्षधर थे

(1)विजयदेव नारायण साही ने जितना आलोचना को समृद्ध किया है उतना ही कविता को भी। यह अलग बात है कि उनके काव्य को कम महत्व दिया जाता है। यदि उनकी कविताओं में धार नहीं होती, नयापन नहीं होता तो अज्ञेय जैसा संपादक उन्हें तीसरे सप्तक में शामिल नहीं करता। तीसरे सप्तक में दिया गया उनका वक्तव्य एक घोषणा-पत्र है। इसमें उन्होंने अपने वक्तव्य को ‘पच्चीस शील’ में अभिव्यक्त किया है। ग्यारहवें शील में वे कहते हैं, ‘कविता से समाज का उद्धार नहीं हो सकता। यदि सचमुच समाज का उद्धार करना चाहते हैं तो देश का प्रधानमंत्री बनने या बनाने की चेष्टा कीजिए।’ वे 1966 के चुनाव में मिर्जापुर लोकसभा सीट से एक उम्मीदवार बने थे। ऐसे अनूठे साहित्यकार थे विजयदेव नारायण साही, जो जनता की लड़ाई जमीन पर उतरकर लड़ते थे, एसी में बैठकर नहीं।

विजयदेव नारायण साही की कविताएं चुप्पी के खिलाफ मुखरता का सौंदर्यशास्त्र रचती हैं। गौरतलब है कि उनके समकालीन कवि अज्ञेय जिस समय ‘मौन की मुखरता’ का सौंदर्यशास्त्र रच रहे थे और लिख रहे थे- ‘मौन भी अभिव्यंजना है। उतना ही कहो जितना तुम्हारा सच हो’, उसी समय विजयदेव नारायण साही चुप्पी तोड़ने की प्रार्थना कर रहे थे।

उनकी कविताएं संवादधर्मी हैं। वे स्वयं बोलती हैं और पाठक में भी बोलने का साहस पैदा करती हैं। वे लोकवर्ग के उत्थान के कवि हैं। वे मन और वाणी की पवित्रता के कवि हैं। ‘प्रार्थना गुरु कबीरदास के लिए’ शीर्षक कविता में यह बात है। ‘परम गुरु/दो तो ऐसी विनम्रता दो/ कि अंतहीन सहानुभूति की वाणी बोल सकूँ/ और यह अंतहीन सहानुभूति/पाखंड न लगे/ दो तो ऐसा कलेजा दो/कि अपमान, महत्वाकांक्षा और भूख की गांठों में मरोड़े हुए/ उन लोगों का माथा सहला सकूं/और इसका डर न लगे/फिर कोई हाथ ही काट खाएगा।/ दो तो ऐसी निरीहता दो/ कि इस दहाड़ते आतंक के बीच/फटकार कर सच बोल सकूँ/ और इसकी चिंता न हो/कि इस बहुमुखी युद्ध में/ मेरे सच का इस्तेमाल/ कौन अपने पक्ष में करेगा।/ यह भी न दो/ तो इतना ही दो/ कि बिना मरे चुप रह सकूँ।’

वास्तव में विजयदेव नारायण साही कबीर की परंपरा के कवि हैं। इनमें वही अक्खड़ता, बेबाकीपन और मस्तमौलापन है जो कबीर की कविताई में दिखाई पड़ता है। यदि सच न बोल पाऊं तो इतना साहस अवश्य देना कि बगैर मरे चुप रह सकूं, यह वही कवि लिख सकता है ‘जो घर जारै आपना सो चलै हमारे साथ’ को मानता हो।

विजयदेव नारायण साही की कविताओं में एक तरफ वैष्णवों की अहिंसा दिखाई पड़ती है तो दूसरी तरफ संतों का फक्कड़पन, एक तरफ छायावाद की प्रकृति चेतना दिखाई पड़ती है तो दूसरी तरफ प्रगतिवाद की लोकधर्मी चेतना, एक तरफ  प्रयोगवाद की प्रयोगधर्मिता दिखाई पड़ती है तो दूसरी तरफ नई कविता के नएपन को भी महसूस किया जा सकता है। इनकी कविताओं में एक तरफ समकालीन त्रासदी एवं विसंगतियों का चित्रण है तो दूसरी तरफ विमर्शों की दुनिया के दर्द को सहज ही समझा जा सकता है। विजयदेव नारायण साही एक बड़े आलोचक की तरह अपने समय के एक बड़े कवि भी थे, इसमें कोई संदेह नहीं है।

जहां तक नई कविता के वृत्त में उनके स्थान का प्रश्न है तो उनका नाम – मुक्तिबोध, शमशेर बहादुर सिंह, धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और केदारनाथ सिंह के साथ बहुत सम्मान के साथ लिया जाता है।

(2)विजयदेव नारायण साही मानवतावादी आलोचक हैं। उनकी आलोचना दृष्टि के केंद्र में मानव है और मनुष्यता है। ‘लघु मानव के बहाने हिंदी कविता पर एक बहस’ साही का एक बेहतरीन, बहसात्मक और अपूर्ण निबंध है। इसमें वे छायावाद को ‘सत्याग्रह’ का युग कहकर एक पूरे काव्यांदोलन को स्वराज आंदोलन के रूप में देखते हैं। वे गांधी को ‘अपराजेय संकल्प’ और नेहरू को ‘अपराजेय विवशता’ के रूप में रेखांकित करते हैं। गांधी को वे ‘हिंदुस्तान की जिंदगी की लय की अभिव्यक्ति’ मानते हैं तो छायावाद को महामानव की कविता के रूप में स्थापित करते हैं।

उन्होंने कहा है कि जिन राष्ट्रीय परिस्थितियों ने बंगाल में शरतचंद्र को जन्म दिया है, उन्हीं स्थितियों ने हिंदी में प्रेमचंद को। इसी आलेख में वे कहते हैं, “किसी कृतिकार या युग को समझना उसकी वंदना करने से ज्यादा बड़ा काम है। और सचमुच बड़ा लेखक, अगर उसमें कुछ भी दम है तो अभिनंदित होने से अधिक ‘समझा जाना’ पसंद करेगा। अभिनंदन की प्यास दिमाग़ी टुकड़ेपन की द्योतक है।”

उनका मानना है कि नई कविता सामान्य मनुष्य या ‘लघु मानव’ की कविता है। वे कहते हैं, मनुष्य की हर परिभाषा मूलतः ‘सहज मनुष्य’ की परिभाषा है। यही ‘सहज मनुष्य’ लघु मानव है जो नई कविता के केंद्र में है। वे लिखते हैं,  “छायावाद में उसका रूप लघु की महानता का है, तीसरे दशक में लघु की महिमा का है और उसके बाद की कविता में लघु के ‘महत्व’ का है।” वे प्रसाद को छायावाद के केंद्र में रखते हैं तो अज्ञेय को नई कविता के केंद्र में रखकर पूरी काव्य परंपरा का मूल्यांकन करते हैं। साहित्य, समाज, राजनीति, इतिहासबोध और कालबोध का ऐसा सम्मिश्रण कम बहसों में देखने को मिलता है। ‘लघु मानव के बहाने हिंदी कविता पर एक बहस’ असल में मनुष्यता की खोज है, जिसे वे मानव, महामानव, लघुमानव और साधारण मनुष्य या ‘सहज मनुष्य’ के रूप में स्थापित करते हैं।

(3) ‘आस्था के पच्चीस शील’ साही के काव्यात्मक और आलोचनात्मक मानदंड के आधार बिंदु हैं। इसमें उन्होंने अपने व्यक्तित्व, कृतित्व एवं अपनी रुचियों-अरुचियों के बारे में विस्तार से लिखा है। प्रथम तीन शील, पांचवां शील और चौदहवां शील ‘मैं’ शैली से आरंभ होते हैं। इनमें वे अपनी निजी वैचारिकी को अभिव्यक्त करते हैं। पच्चीस शील के माध्यम से उनके रचनात्मक विवेक को समझा जा सकता है, पर सबसे सहमत होना मुश्किल है। ‘आस्था के पच्चीस शील’ से हर कवि और आलोचक सहमत हो, ऐसा मानना उचित नहीं होगा।

हां, कुछ बिंदु ऐसे हैं जिनसे कुछ लेखक सहमत हो सकते हैं। जब वे कहते हैं, ‘कविता को राजनीति में नहीं घुसना चाहिए। क्योंकि इससे कविता का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा, राजनीति के अनिष्ट की संभावना है।’, ‘सार्थकता बराबर तप नहीं, शब्दाडंबर बराबर पाप।’, ‘अवज्ञा परमो धर्मः।’, ‘पचास से ऊपर वय हो जाना अपने-आप में अक्लमंदी का प्रमाण नहीं है।’ ऐसे कई वाक्य हैं जिनसे सहमत या असहमत होना स्वाभाविक है। ये बिंदु बहस की मांग करते हैं। इस तरह की सूक्तियां किसी नए कवि और आलोचक की वैचारिकी के निर्माण में कुछ हद तक सहायक हो सकती हैं पूर्णतः नहीं, क्योंकि जीवन, जगत, समाज और साहित्य को देखने का नजरिया सबका अलग-अलग होता है।

(4)विजयदेव नारायण साही आंदोलनकारी रचनाकार और बहसधर्मी व्यक्तित्व थे। वे नरेंद्र देव की प्रेरणा से समाजवादी आंदोलन में शामिल हुए थे, पर उन्होंने साहित्य के मूल्यांकन में राजनीतिक उपकरण का प्रयोग कभी नहीं किया। नरेंद्र देव मार्क्सवादी थे। उनका मार्क्सवाद लोकतंत्र के रंग में रंगा हुआ था। साही ने मार्क्सवाद के इसी रूप को ग्रहण किया और एक नए मानवतावाद की जमीन तैयार की। साही की वैचारिक, सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि का आधार मानवतावाद था। समाजवाद की स्थापना उसका अंतिम लक्ष्य था। वे राममनोहर लोहिया से प्रभावित हुए थे।

(5)कवि का आलोचक होना और आलोचक का कवि होना एक-दूसरे को प्रभावित करता है। आलोचक होने के लिए कवि और सहृदय होना बहुत आवश्यक है। वह भले कविता कम लिखता हो या न लिखता हो, कविता के बीज उसके अंतःकरण में सदैव मौजूद होते हैं, क्योंकि तभी वह कविता का मूल्यांकन ठीक-ठीक कर पाता है। आलोचना का विवेक और विवेक की आलोचना तभी संभव है जब आलोचक सहृदय हो और उसमें भी रचनात्मकता हो। कवि होने के लिए आलोचक होना बहुत जरूरी नहीं है, पर कविता का विवेक और विवेक की कविता तभी संभव है जब कवि आलोचक भी हो। विजयदेव नारायण साही दोनों रूपों में हमारे सामने प्रस्तुत होते हैं। इसलिए ‘लघु मानव के बहाने हिंदी कविता पर एक बहस’ उनके आलोचनात्मक विवेक और विवेक की आलोचना का ज्वलंत दस्तावेज है, जबकि ‘मछलीघर’ और ‘साखी’ नामक कविता संग्रह साही के ‘काव्यात्मक विवेक और विवेक की कविता’ के शानदार उदाहरण हैं।

(6)हिंदी आलोचना में जब जायसी को सूफी सिद्ध करने की कोशिश हो रही थी, तब साही ने उन्हें एक कवि के रूप में पढ़ने का प्रस्ताव रखा। उनकी किताब ‘जायसी’ हिंदी आलोचना में कृति और कृतिकार के मूल्यांकन का एक प्रतिमान स्थापित करती है। साही ने जायसी का सूफी की जगह विशुद्ध साहित्यिक दृष्टि से मूल्यांकन किया और उन्हें कुतुबन, मंझन इत्यादि कवियों की श्रेणी मे न रखकर कबीर, सूरदास और तुलसीदास की श्रेणी में रखने का आग्रह किया।

इसी पुस्तक में कबीरदास को पहला विधिवत कवि न मानते हुए वे जायसी को हिंदी साहित्य का पहला विधिवत कवि मानने की वकालत करते हैं जो अतार्किक और ऐतिहासिक भूल है। जायसी को स्थापित करने प्रयास में वे कबीर जैसे लोक और क्रांतिकारी कवि को खारिज कर देते हैं। असल में कबीर ही पहले विधिवत कवि हैं जिन्होंने कविता को एक वृहत्तर लोक से जोड़ा था और मानव मुक्ति के प्रश्न को साहित्य के केंद्र में ला दिया था।

साही लिखते हैं, “एक अर्थ में जायसी हिंदी के पहले विधिवत कवि हैं। मैं यह नहीं कहता कि कबीरदास ने कविता के द्वारा एक अत्यंत कठिन समय में अभिव्यक्ति की सार्थक और शक्तिशाली राह नहीं बनाई। कबीरदास के पथ-प्रदर्शन और क्षमता के बिना शायद जायसी के लिए पद्मावत को लिख पाना संभव न होता। परंतु कबीर अपनी प्रतिभा के सहारे भाषा को ठेल-ठेलकर आगे बढ़ते हैं। उनकी कविता में इस प्रयास के चिह्न बराबर दिखते हैं। लेकिन जायसी में पहली बार हिंदी का अवधी रूप, जिसे जायसी ने अपने काव्य-माध्यम के लिए चुना, समूचा-का-समूचा काव्यमय हो जाता है। कवि का प्रयास कहीं दिखता नहीं।”

साही जी दूसरा तर्क यह भी देते हैं, “कबीरदास श्रेष्ठ हैं, लेकिन विधिवत कवि भी हैं, ऐसा उनका दावा नहीं है। मूलतः वे संत हैं। कवि होना कबीरदास के लिए लक्ष्य नहीं था। वहीं जायसी ‘चिल्ला-चिल्लाकर’ अपने ‘कवि’ और ‘गुनी’ होने का दावा प्रस्तुत करते हैं। इसलिए वे हिंदी के पहले विधिवत कवि हैं।” वास्तव में साही जायसी को पहला विधिवत कवि सिद्ध करने के लिए जो तर्क देते हैं वे काफी नहीं है। साही का कबीर का मूल्यांकन हजारी प्रसाद द्विवेदी के मूल्यांकन के आगे फीका है। ऐसा साही जी ने क्यों लिखा, इसका उत्तर सत्रहवाँ शील पढ़ते हुए समझ में आ जाता है। इसमें वे लिखते हैं, ‘कवि की अमरता गलतफहमी पर निर्भर करती है। जिस कवि में गलत समझे जाने का जितना अधिक सामर्थ्य होता है वह उतना ही दीर्घ-जीवी होता है।’

(7)साही मार्क्सवादी आलोचना की कम्युनिस्ट परिणति की कठोर निंदा करते थे। वे साहित्य में राजनीति और राजनीति में साहित्य के पक्षधर नहीं थे। वे मानवतावादी आलोचक थे। उनकी आलोचना के केंद्र में साधारण मनुष्य था। वे समाजवादी आंदोलन के सक्रिय कार्यकर्ता थे, पर साहित्य चिंतन को पार्टी लाइन के अनुकूल ढालने का विरोध करते थे। साही का मार्क्सवाद लोकतंत्र की जमीन पर खड़ा था, इसमें कोई संदेह नहीं है। सत्य प्रकाश मिश्र ने इन्हें ‘कुजात मार्क्सवादी’ कहा है।

विजयदेव नारायण साही अपने युग की विसंगतियों पर करारा प्रहार करते थे। वे संसद से सड़क तक जनता के साथ लड़ने वाले साहित्यकार थे। यही कारण है कि ‘कांग्रेस शासन में तीन बार जेल गए। एक बार एक महीने मज़दूरों की हड़ताल के संबंध में, दूसरी बार तीन दिन गोलवलकर को काला झंडा दिखाने के अपराध में तो तीसरी बार तीन घंटे जवाहरलाल नेहरू की मोटर के सामने किसानों का प्रदर्शन करने के दुस्साहस पर।’ हिंदी में ऐसे साहित्यकार कम हुए हैं जो लोकहित के लिए अपने आप को न्योछावर करते हों। इन अर्थों में भी विजयदेव नारायण साही विशिष्ट कवि और आलोचक के रूप में हमारे सामने आते हैं।

साहि मानते थे, ‘बिना अपने को जोखिम में डाले न तो विचारों में क्रांति हो सकती है न आचरण में ही।’ उन्होंने कालीन-बुनकरों को संगठित कर उनकी यूनियन बनाई थी और वे उनकी लड़ाई लड़ते रहे। महिला कताईकारों के लिए भी संघर्ष किया और उन्हें उचित वेतन दिलवाया। कानून की पुस्तकें पढ़कर मजदूरों के केस वे हाई कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक लड़ते थे और जीतते थे। इस कार्य में उन्होंने अनेक कार्यकर्त्ताओं को भी प्रशिक्षित किया। वे श्रमिकों के एक बड़े नेता के रूप में भी हमारे सामने आते हैं।

कविता और राजनीति के संदर्भ में विजयदेव नारायण साही के विचार बिलकुल स्पष्ट थे। वे कहते हैं, ‘कविता को राजनीति में नहीं घुसना चाहिए। क्योंकि इससे कविता का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा, राजनीति के अनिष्ट की संभावना है।’

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