दस कहानी संकलन, ५ उपन्यास, एक कविता संकलन प्रकाशित तथा ४ कहानी संकलनों का संपादन।अद्यतन उपन्यास थोड़ी सी जमीन थोड़ा आसमान

‘साईबा! ओ साईबा!’ मछली की टोकरी सर से उतार कर वेंसी बरामदे में बैठी चिल्लाए जा रही थी। साहिबा को तेज गुस्सा आया। वह दर्जन भर बांगड़े (एक दरियाई मछली) को दोनों तरफ से चीर कर उनमें रेसियाद मसाला भर रही थी। लगभग घंटे भर से। उसके बाद उसे चर्च जाने के लिए तैयार होना है। 

मॉम सुबह की प्रार्थना के लिए अलसुबह चर्च गई हुई हैं। वह जाते हुए हिदायत दे गई हैं! आज रविवार है। दोपहर के खाने पर ग्रेसी आंटी सपरिवार आ रही हैं। कल उन्हें दुबई लौटना है।

सिरके वाले लाल मसाले से लिथड़ी हुई हथेलियां ले कर वह बरामदे में झुंझलाती हुई निकल आई थी- ‘आंटी! क्यों बोम मार रही हो! कल ही तो इतना सारा निसते (मछली) लिया! आज नहीं चाहिए, जाओ!’

‘हाय साईबा!’ वेंसी चेहरे से पसीना पोंछते हुए पीछे की ओर से अपनी कमर थामे उठने लगी थी- ‘अरे! तेरी माई ही ने तो कहा था, ताजा सुंगटा (झींगा) और खुबे (सीपिया) ले आऊँ, प्रांस बलचाओ बनाना है, खूब मोटे झींगे लाई हूँ, आज मेहमान आने वाले थे न?’

‘मॉम ने कहा था! अच्छा रख दो फिर…’ मछली की गंध पाकर घर की दो और पड़ोस की एक बिल्ली म्याऊं-म्याऊं करते आसपास मंडराने लगी थी। उन्हें भगाते हुए साहिबा प्लास्टिक का टोकरा सामने रख गई थी।

अजब मुसीबत है उसका नाम साहिबा भी! एक हिंदी फिल्म देख मॉम ने बड़े चाव से रखा था, मगर गोवा में सब आदतन साईबा कहकर  बुलाते हैं, अच्छे-भले नाम का कूड़ा करके रख दिया है! जब भी कोई उसे इस तरह से पुकारता है, वह चिढ़ जाती है। 

पैर पटकते हुए वह भीतर आती है। आज वह चर्च के लिए जरूर लेट हो जाएगी! अब तक न शैंपू कर सकी, न थ्रेडिंग हुई! नई वाली नीली ड्रेस पर एक बार आइरन भी फिराना है! रॉय घर में आने से पहले एक बार उससे चर्च में मिलना चाहता है। कह रहा था, एक कनफेशन करना है। गोड से नहीं, तुमसे! सुनकर तब से उसका दिल डरे कबूतर-सा कांप रहा। क्या कहेगा रॉय! दो दिन से यही सवाल उसके भीतर घूम-फिर कर आ रहा।

रॉय उसके बगल वाले वाड़ो (मुहल्ले) का है लड़का है। उम्र में उससे पांच-छह साल बड़ा। साथ खेल-कूदकर बड़े हुए। कुछ साल अपनी मौसी के पास मुंबई रहने चला गया था। जब लौटा, साहिबा चौदह साल की हो गई थी। उसे सालों बाद देख रॉय ठगा-सा खड़ा रह गया था। फिल्मी अंदाज में हकला कर कहा था, ‘स… स… सा…ई…बा!’ सहेलियों की तेज हँसी के बीच वह अपना गाउन घुटनों तक ऊपर समेटे डांस फ्लोर से भाग आई थी। उसके बाद से उसे देखते ही सब कोरस में हकलाने लगते, सा…ई…बा…

उस साल क्रिसमस से पहले चर्च की सफाई करते हुए दोपहर के एकांत में रॉय ने किसी समुद्री डाकू की तरह अचानक उसे सीने में जबरन खींच कर चूम लिया था! उसकी देह की तेज मर्दानी गंध से यकायक इस तरह घिरकर साहिबा को गश-सा आने लगा था। वह बेतरह डर गई थी।

आसपास के कमरों में लोग आ-जा रहे थे, जोर-जोर से बोल रहे थे और वह सुध-बुध खोई-सी उसकी बलिष्ठ वाहों में बंधी खड़ी रह गई थी। एकदम अवश, किसी लत्ते की डॉल की तरह! पीछे तेज पछाड़े मारते समंदर के किनारे दूर तक फैले काजू के जंगल में कोयल निरंतर कूक रही थी, बेलौस बहती समुद्र की नमकीन हवा में सूखी मछली और फेनी की तेज गंध फैली हुई थी। दोपहर का आकाश तेज धूप में सफेद दिख रहा था। धड़-धड़ होते दिल के बीच आसपास बोलते लोगों की आवाज उसे मधुमक्खियों की हल्की गुंजार की तरह सुनाई पड़ रही थी।

देर तक चूमने के बाद रॉय ने ही फिर उसे हल्के से धक्का दिया था- ‘अब जाओ भी! तुम्हारा तो मन ही नहीं भरता…’ उसके मीठे उलाहने से वह चौंक कर जागी थी और दौड़कर भाग निकली थी। तब तक उसके होंठ दहक कर काजू फल-से लाल हो गए थे। उसके कुंवारे जीवन का वह पहला चुंबन था और अब तक का आखिरी भी!

उस दिन वह घर आ कर देर तक तकिये में चेहरा धंसाए रोती रही थी, हालांकि एक मन सुबह के फूल-सा पंखुरी-पंखुरी खिला पड़ रहा था। खुद के लिए पहेली बन जाने का वह उसके जीवन का पहला दिन था! उस दिन बाथरूम में आईने में अपना सुर्ख चेहरा, भीगे पपोटे देखते हुए उसे पहली बार लगा था, वह सचमुच पागल हो रही है! अब तक तो बस उसके दोस्त ही उसे क्रेज़ी साईबा कह कर बुलाया करते थे। वह रोते हुए इस तरह ब्लश क्यों किए जा रही थी! उसके गाल जैसे दहक कर फट ही पड़ेंगे!  

उस दिन के बाद चाह कर भी वह अपना छोटा-सा रूमाल महीनों तक धो नहीं पाई थी। उसमें उसके पोछे हुए लिपस्टिक के दाग के साथ रॉय के पसीने की गंध थी जो धीरे-धीरे उड़कर भी उसके लिए थोड़ा रह गई थी। वह स्कूल जाती तो स्कूल बैग में वह रूमाल एक कोने में दुबका पड़ा रहता, रातों को सिरहाने में तकिये के नीचे तहाया रहता। एक सफेद कबूतर-सा वह नर्म रूमाल हर समय उसके आसपास, उसकी मुट्ठी में भींचा रहता। 

इसके बाद कई बार मौका देखकर रॉय उसकी ओर झपटा मगर वह छूट कर भाग निकली। वह पीछे से चिल्लाता, ‘कब से चार लफ्ज लिए फिर रहा, सुनो तो कह दूँ!’ मगर साहिबा रुकती नहीं। उसे देखते ही उसके कच्ची फली-से होंठ जल उठते और सांसें फूलने लगतीं।

उनके लाल खपड़ैल और नीले रंग के कॉटेज, जिसका नाम कभी उसके डाडा ने बड़े चाव से ‘ब्लू रेनबो’ रखा था, के पीछे छोटी-सी पहाड़ी के बाद सैकड़ों फीट तीखी उतार है जो सीधे काले पत्थरों के मीलों फैले बियाबान में उतर कर गरजते समंदर में नामालूम कहां खो जाती है। रोने-गाने या सपने देखने के लिए किशोरी साहिबा अकसर यहीं आ कर बैठती थी। यहां हवा, समंदर और दिगंत तक फैले आकाश के बीच दूर घाटियों में बजती चर्च की घंटियों के सिवा कुछ और नहीं होता। यहां उसे लगता है, वह कुदरत से मिलकर हमजमीन हो गई है, आकाश हो गई है।

इस घटना के बाद वह अधिक से अधिक समय यहीं बिताने लगी थी। अब न पहले की तरह वह हँसती-बोलती, न लोगों से मिलती-जुलती। दुबली भी हद हो गई थी। जोड़-जोड़ पर हड्डियां चमकने लगी थीं। उतरे चेहरे पर आंखें खूब उजली दिखतीं! बैठे-बैठे कभी आकाश को तकतीं, कभी जमीन को घूरतीं।

यह देखकर उसकी मां को चिंता हुई। उसकी नजर उतारी। चर्च से पादरी को बुला कर घर भर में मंत्र फूंके। जल का छिड़काव करवाया। पवित्र किताब का पाठ करवाया। पादरी ने उससे कनफेशन करने का आग्रह किया तो कनफेशन बॉक्स में बैठी-बैठी वह बस रोती रही। पादरी ने निष्कर्ष निकाला, किशोरी साहिबा के हृदय में पाप का प्रवेश हुआ है, वर्जित की इच्छा जगी है, वह उसकी आत्मा की शुद्धि के लिए परमात्मा से प्रार्थना करेंगे।

सुनकर साहिबा का दिल और बैठ गया। अब वह दूर से भी रॉय को देखती तो अपना रास्ता बदल लेती। कई बार रॉय गुस्से से मुट्ठियां भींच कर चीखता, ‘बेवकूफ लड़की! तुम्हें पता भी है, हमारी भाषा के चार सबसे खूबसूरत लफ्ज कौन-से हैं?’

उस साल ‘साओ जोआओ के’ त्योहार में एक दुर्घटना घटी! बारिश के शुरू-शुरू के दिन थे। रुक-रुक कर होती बारिश की झड़ी में गोवा ताजा हरियाली से नहा उठी थी। ‘साओ जोआओ’ का त्योहार आया तो हर साल की तरह उत्तरी गोवा के युवा उस साल भी उमंग से भर उठे।

इस दिन सभी नाच-गा कर सेंट जॉन को याद करते हैं। सेंट जॉन जिसने येसू का वपतिस्मा हजारों साल पहले जॉर्डन में किया था! कहते हैं, जब मदर मेरी ने अपने गर्भ से होने की खबर अपनी बहन एलिज़ाबेथ को सुनाया तो उसके गर्भ में पल रहे सेंट जॉन खुशी से उछल पड़े थे! उसी बात को याद करते हुए ईसाई समुदाय के लोग खुशी से नाचते-गाते हुए बारिश के पानी से लबालब भरे कुएं में छलांग लगाते हैं। यहां कुआं एलिज़ाबेथ की कोख का प्रतीक है जिसमें सब येसू के आने की खबर से खुश हो कर छलांग लगाते हैं।

उस दिन की शुरुआत हमेशा की तरह बेनाउलिम गांव के सेंट जॉन के चर्च में सुबह की प्रार्थना से हुई थी। फिर नौजवानो का टोला शराब के नशे में ‘विवा सान जोआओ’ चिल्लाते हुए घर-घर जाकर लोगों के कुओं में छलांग लगाने लगे थे। साथ ही वे हँसते-गाते हुए सबके दरवाजे पर जाते और फल और शराब की मांग करते। लोग उन्हें खुशी-खुशी दे भी रहे थे। इन सबकी तैयारी वे पहले से करके रखे हुए थे। दूसरी तरफ नदियों में बोट या केले के तने से बने प्लेटफॉर्म पर लोग झुंड बांधकर परेड करते हुए ‘मांडोस’ गा रहे थे! चारों तरफ गीत, हँसी और उमंग से सराबोर चेहरों को देखते हुए लग रहा था कि आसमान से पानी नहीं, शराब बरस रही है! हर कोई नशे में है, हर कोई झूम रहा है!

सुबह से मूसलाधार बारिश हो रही थी। हमेशा का शांत अरब सागर उफन रहा था। नदी-नाले भरकर एक हो गए थे, वे सड़कों पर उतरकर बह रहे थे। लग रहा था ग्रीष्म का सांवला-हरा गोवा पानी बन कर समंदर-सा नीला पड़ गया है, पारा-पारा चमक रहा है!मगर त्योहार के मतवालों को किसी बात की परवाह कहां! लोगों के  टोले सुबह से पी रहे थे और दल बांधकर बारी-बारी से सबके घर में जा कर उनके बारिश से ऊपर तक भरे कुओं में छलांग लगा रहे थे।


 इन सब में रॉय भी शामिल था। कुछ लड़कों के साथ जो उसने एक गहरे कुएं में छलांग लगाई तो देर तक बाहर नहीं आया। किसी का ध्यान उस तरफ गया तो सबने मिल कर उसे बाहर निकाला। काजू फेनी से गले तक भरा हुआ रॉय तब तक काफी पानी पी चुका था और बेहोश हो गया था। साहिबा ने उसे इस तरह पड़े देखा तो जोर से चीखते हुए खुद भी बेहोश हो गई। उसकी इस अजीब-सी हरकत से सभी चौंके और एक-दूसरे को आंखों ही आंखों में इशारे किए।

फिर तो कुछ दिन तक गांव में खूब चर्चे चले, कानाफूसियां हुईं। रिश्ते की औरतें दल बांधकर पूछताछ के लिए घर आ धमकीं!

इन बातों से घबरा कर पहले तो साईबा की मां ने उससे कड़ाई से पूछताछ की, एक-दो थप्पड़ लगाए और फिर उसके सामान बांध कर उसे उसके मौसी के घर मुंबई छोड़ आई। तय हुआ कि अब साहिबा अपनी आगे की पढ़ाई वहीं से पूरी करेगी।

इसके बाद जब भी किसी त्योहार या गर्मियों की छुट्टियों में वह अपने घर गोवा आती, उसे रॉय के अजब-गजब किस्से सुनाई पड़ते। इन दिनों वह अमुक के साथ पार्टियों में देखा जा रहा है या अमुक-अमुक के साथ घूम रहा है। सुनकर वह इन घटनाओं से उदासीन दिखने की कोशिश करती, मगर भीतर ही भीतर अधमरी हो जाती। बहुत सारा समय बीत गया था, मगर उसके भीतर वह अलस दुपहरी ठहर कर रह गई थी, जब रॉय ने किसी समुद्री डाकू की तरह उसे अपनी बांहों में खींच कर बलात चूम लिया था। उसका गुस्सा और नशा अब भी उसके भीतर जस का तस बना हुआ था। वह सालों तक दो एकदम विपरीत मगर समांतर चलती मनःस्थितियों में एक साथ होती आई थी। 

रॉय उसे दिखा-दिखा कर उसकी सहेलियों के साथ फ्लर्ट करता और वह चुपचाप देखती और समंदर के किनारे बैठ कर रोती। रॉय की वजह से गोवा उसके लिए जैसे पराई हो गई थी। अब वह आती तो बस लौट जाने के लिए। मगर लौटते हुए बार-बार मुड़कर देखना उसकी मजबूरी थी तो अकेली उम्मीद भी! इन सबके बीच उसे देखते ही हिकारत और गुस्से से भर कर पलट कर जाते हुए रॉय की उसने सिर्फ पीठ ही देखी थी, चेहरा कभी नहीं! और बस, यही उसकी कहानी की शायद सबसे बड़ी त्रासदी थी! जो उसने देखा नहीं था उसे समझना भी उसे अब तक नहीं आया था! वह मौन की भाषा नहीं जानती थी!

ग्रेजुएशन के बाद वह जब गोवा लौटी, सुना रॉय की नौकरी दुबई में लग गई है और वह जल्द वहां जाने वाला है। रॉय के परिवार के अधिकतर लोग दुबई में नौकरी करते थे। रॉय का जाना भी शुरू से एक तरह से तय था।

अब कल जब रॉय अपने परिवार के साथ दुबई जा रहा था, साहिबा की मां ने उन्हें सपरिवार खाने पर बुला लिया था। सालों पहले रॉय के पानी में डूबने और साईबा के बेहोश होने की उस घटना के बाद उनके परिवार में फिर से सब कुछ सामान्य हो गया था। रॉय की नित नई गर्ल फ्रेंड्स और साहिबा की मुकम्मल उदासीनता ने सबको आश्वस्त कर दिया था कि अब चिंता की कोई बात नहीं।

दरअसल दोनों परिवारों में रॉय या साहिबा को लेकर कोई समस्या नहीं थी। दोनों ही हर तरह से योग्य थे और सबको पसंद थे मगर असली दिक्कत उनकी जाति थी। जहां साहिबा ब्राह्मण ईसाई थी, वहीं रॉय मछुआरा समाज से आता था। इसलिए इन दोनों में रिश्ता लगभग असंभव था। कभी किसी ने साहिबा की मां या रॉय की मां को समझाने की कोशिश की, तो दोनों ने एक स्वर में कहा, ‘यह कभी मुमकिन नहीं!’ साहिबा की मां इस मामले में दो कदम आगे थी- ‘हमने भले अपना वर्तमान बदल लिया है, मगर अपना पूर्वज नहीं! याद रखना, आस्था बदली जा सकती है, खून नहीं! हम जो थे, वही रहेंगे! चाहे नाम कुछ भी हो, मज़हब कोई भी हो, रहेंगे हम ब्राह्मण!’ ऐसा कहते हुए उनका चेहरा सौ वाट के बल्ब की तरह चमकने लगता था।

उस दिन किसी तरह हाथ के काम खत्म करके साहिबा चर्च पहुंची तो रॉय उसे गेट पर ही मिल गया। एक छोटा-सा पैकेट उसके हाथ में थमाते हुए रॉय ने बस इतना ही कहा था, ‘यह मैं हूँ, इसे सहेजे रखना, कभी बिखरने मत देना! और हां! जो मैं अब तक करता रहा वह तुम कभी मत करना साहिबा! याद रखना, मैं लौटूंगा…’

घर लौट कर साहिबा ने वह छोटा-सा पैकेट खोला था, उसमें उसका पसंदीदा सेंट सनेल की बोतल थी। वह हैरत भरी खुशी से उसे हर तरफ से घुमा-घुमा कर देख रही थी, जब पीछे से उसकी मां आ गई थी और घबराहट में उसके हाथ से बोतल गिर कट टूट गई थी। पूरे कमरे में सुगंध का भभाका उठा था और साहिबा को गश-सा आ गया था।

दोपहर रॉय उनके घर अपने परिवार के साथ खाने आया तो पूरा घर महक रहा था। रॉय की मां ने इसके बाबद पूछा तो साहिबा की मां ने जो सुबह से साहिबा की हरकतों से खीजीं हुई थी, झल्लाते हुए बताया, साहिबा ने कोई सेंट की नई बोतल जमीन पर फेंक कर तोड़ डाली है।

सुनकर रॉय ने ठंडी नजर से साहिबा को देखा था। उस नजर का कोई जवाब साहिबा के पास नहीं था। वह बस आंखें झुकाए चुपचाप खड़ी रह गई थी। वह मौन न जाने किस भाषा में अनूदित हो कर रॉय तक पहुँचा था कि उसने जाते हुए एक बार भी मुड़ कर नहीं देखा था। उसकी पीठ साहिबा को किसी दुश्मन देश की सरहद पर खड़ी दीवार-सी लगी थी और वह अपने कमरे में आ कर बिस्तर पर ढह गई थी।

बहुत हिम्मत कर इसके बाद कई बार उसने रॉय को फोन लगाया था, मगर रॉय ने शायद उसका नंबर ब्लॉक कर रखा था, वह कैसे भी उस तक पहुंच नहीं पाई थी।

इसके छह महीने बाद रॉय ने गोवा लौट कर अपने एक दूर के रिश्तेदार की बेटी से शादी कर ली। साहिबा का पूरा परिवार इस शादी के जश्न में शामिल हुआ। बस साहिबा नहीं गई थी। संयोग से उसी दिन उसकी तबीयत खराब हो गई थी! जब सब खुशी से दमकते हुए रॉय की शादी में जाम उठा रहे थे, साहिबा अरब सागर की लहरें गिन रही थी। उन लहरों से अधिक खारा उसके आंसू थे, उसकी आंसुओं से तर जुबान यह बात  खुद से भी उस दिन नहीं कह पा रही थी। 

साहिबा इक्कीस साल की हो चुकी थी। जब उसकी शादी की बात घर में उठी, उसने साफ बता दिया, वह कभी शादी नहीं करेगी। वह नन बनना चाहती है। साहिबा इकलौती बेटी थी, सुनकर सब सकते में आ गए। उसे हर तरह से समझाया-बुझाया गया मगर कोई फायदा नहीं हुआ।

साहिबा नन बनकर कुछ महीने बाद नर्स का प्रशिक्षण लेने बंगलौर चली गई और प्रशिक्षण के बाद लौट कर चर्च से जुड़े एक समाजसेवी संस्थान में काम करने लगी। इस बीच अपनी इकलौती बेटी के वियोग में उसकी मां बीमार पड़ी और आखिरकार चल बसी। अपनी बेटी के लिए उनके सपने कुछ और थे। वह उसे एक दुल्हन के सफेद लिबास में देखना चाहती थी। इसके लिए उन्होंने वर्षों से तैयारी की थी, गहने बनाए थे, दहेज जुटाए थे।

मां को कब्र में लिटा कर साहिबा ने अपने कॉटेज ‘ब्लू रेनबो’ के गेट पर ताला लटकाया तो लगा सारा घर, समंदर, नारियल-काजू के जंगल बांह पसार कर उसे पुकार रहे हैं! चारों तरफ फैले मौन चीखों से भागते हुए उसके एक-एक कदम भारी हो उठे थे उस दिन। यह सफर उसके जीवन का सबसे मुश्किल सफर था जिसमें उसे अपने आप से दूर जाना था!

इसके बाद के जीवन में साहिबा के लिए सिर्फ सन्नाटा, अनुशासन और मर्यादा से जुड़े नियम-बंधन थे। मगर उसे इनसे या किसी व्यक्ति से कोई शिकायत नहीं थी। अपने लिए ऊंची-ऊंची दीवारों से घिरा यह सीमाबद्ध जीवन उसने खुद चुना था। मन की जिन भावनाओं ने अराजक होकर उसका सब कुछ तहस-नहस कर दिया था, अब उन्हें ही संजोकर वह अपने जीवन को एक सही आकार देना चाहती थी। जो फूल किसी के आस्ताने में पड़े-पड़े मुरझा जाते, उनका गुलदस्ता बनाकर उस परम पिता के चरणों में अर्पित कर देना चाहती थी जो किसी के प्रेम को लौटाता नहीं, आस्था को ठेस पहुंचने नहीं देता। यह एकनिष्ठ समर्पण उसे देने और दोगुना पाने के ऐश्वर्य से भर देता है। इसमें कोई लज्जा, अपमान, ग्लानि नहीं, बस स्वयं को उजाड़ कर देने का अंतहीन संतोष और वैभव है।

वह सुबह मुंह अंधेरे उठती है, नहा-धोकर पूजा-पाठ करती है, फिर अपनी संस्था से लगे विशाल चर्च के गार्डन में पानी देती है, वह विभिन्न काम करती है। इसके बाद, सारा दिन उसका बीमारों की देखभाल में बीतता है। वह अपनी अन्य साथियों के साथ बीमारों के घर या अस्पतालों में जाती है। वहां कभी उनकी तीमारदारी करती है, कभी उनके लिए प्रार्थना करती है तो कभी उन्हें व्हील चेयरों में बैठाकर बागान में घुमाने ले जाती है। उनसे बातें करते, उन्हें किस्से-कहानी सुनाते, उनके साथ प्रार्थना करते उसका सारा दिन जैसे पलक झपकते व्यतीत हो जाता है।

ननरी लौट कर नहाते, शाम की प्रार्थना करते और खाते-खाते उसे नींद आ घेरती है। फिर उसे कोई होश नहीं रहता। वह एकदम जैसे किसी गहरे कुएं में डूब जाती है। मगर अक्सर उसके कमरे में रहने वाली दूसरी नन मैकदलीन कहती है, गहरी नींद में कई बार साहिबा धीरे-धीरे रोती और बड़बड़ाती है।

उनकी ननरी एक पहाड़ी पर है जिसके ठीक नीचे ठाठे मारता हुआ समंदर है। यह समंदर अपनी ऊंची-ऊंची लहरों से इस छोटी-सी पहाड़ी को आठों प्रहर घेरे रहता है। ज्वार-भाटे के समय जैसे पूरी पहाड़ी ही डूबने लगती है। ऐसे में साहिबा जब अपनी बाल्कनी में खड़ी होती है तो हजारों लहरें उसकी ओर दौड़ आती हैं। ननरी की पुरानी, नमक खाई दीवारें समंदर के लगातार गर्जन और पछाड़ से रात-दिन थरथराती रहती हैं। यहां हर तरफ समंदर की बेलौस बहती हवा, समुद्री पंछियों की पुकार और सूखी मछली और काई की गंध से भरी अंतहीन दिशाएं हैं।

देर शाम जब सूरज डूब जाता है और अरब सागर के रक्तिम जल में किनारे की ओर लौटती नौकाओं की छायाएं कांपती हुई लंबी होने लगती हैं, साहिबा सेमिनरी की छत पर देर तक चुप खड़ी न देखती नज़रों से जाने क्या देखती रहती है। रह-रह कर बज उठते चर्च के घंटे जब शाम के सात बज जाने की घोषणा करते, वह थके कदमों से ननरी की सीढ़ियां उतर जाती। पीछे आसपास बिखरे पुराने खंडहरों और ढलान के जंगलों में बहती अलस हवा में चर्च के घंटे की उदास टंकार दूर तक गूंजती रहती।

साहिबा ने अपने गांव जाना लगभग छोड़ दिया था। जब भी गई, कभी जीवन और खूबसूरती से भरा उनका ब्लू कॉटेजका उजड़ा, वीरान रूप उसे बेतरह दुखी कर देता। वहां जाते ही पुरानी यादें, आवाजें, गंध उसे एकसाथ घेर लेतीं। जिधर देखती, बीते कल की कोई घटना, दृश्य जीवित होकर उसके सामने खड़े हो जाते। क्रिसमस की रोशनियों से नहाया उनका घर, आतेजाते मेहमान, कटलरीज़ की ठुनक के साथ सबकी बातें, हँसी

वह सब कुछ देखती-सुनती वहां से भाग आती। पीछे उसका किशोर मन उसे आवाज देता रह जाता।

गांव वालों से उसने कभी-कभार उड़ती-उड़ती सी खबर सुनी थी, रॉय बेतहाशा पीता है, उसकी नौकरी छूट गई, उसकी पत्नी अपने दो बच्चों के साथ उससे अलग हो गई…

जब भी वह ऐसी खबर सुनती, उस दिन उसकी प्रार्थना का समय लंबा खिंच जाता। वह रविवार को कनफेशन बॉक्स में देर तक बैठती और बिना कुछ कहे चुपचाप उठ आती।

वह किसी तरह अपने ईश्वर को बता नहीं पाती कि अलसुबह जब वह पवित्र ग्रंथ का पाठ करती है, अक्सर उसकी पंक्तियां उसके सर के ऊपर से गुजर जाती हैं। उसे प्रार्थना के स्वर सुनाई नहीं देते। उसके कानों में दूर गरजते समुद्र की आवाज सुनाई पड़ती है। जब गर्मियों की अलस दुपहरियों में कोयल निरंतर कूकती है, पलाश-सेमल के झड़े फूलों से गांव की कच्ची-पक्की सड़कें सुर्ख हो जाती हैं, जंगल में जगह-जगह भट्टियों में बनती फेनी की तेज गंध गरम हवा को बोझिल बनाती है, उसका जी चाहता है, वह सेमिनरी की ऊंची दीवारों को तोड़ कर काजू के सघन जंगलों में भाग जाए या समुद्र की पागल लहरों में डूब जाए। उसे अपनी देह से मछली की गंध आती, सीने में ज्वार टूटता रहता, नसों में जैसे शराब की नदी बहने लगती…

सफेद लिबास के भीतर उसकी अदृश्य फफोलो से भरी देह सुर्ख हुई रहती, उस पर नसों का महीन संजाल नीली नदियों-सा चमकता रहता! वह अक्सर सुनती, उसकी मौन प्रार्थनाओं के बीच पूरे चांद की रातों में उसके लहू का अराजक नमक चांद की तरफ दबे पांव भागता है…

खुद से खुद की इस अंतहीन लड़ाई में साहिबा अब बेतरह थकने लगी थी। इसमें उलझ कर वह जैसे कहीं की नहीं रह गई थी। न पांव तले जमीन थी, न सर पर आसमान! वह एकदम बेघर, दर बदर हो गई थी। सालों पहले जीवन में आई एक दोपहर और उसमें घटी एक घटना ने उसके आगे के पूरे जीवन को सिरे से बिखेर कर रख दिया था। दो अबाध्य होंठ और उसकी आग जैसी छुअन ने न सिर्फ उसकी देह को जलाया बल्कि आत्मा तक पर अमिट फफोले डाल दिए। उसने इच्छा, अनुराग और ग्लानि बोध के ऐसे भंवर जाल में उलझा दिया कि वह जन्म भर के लिए उसमें फँसकर रह गई। एक ही मन में अपने अदेह ईश्वर और देह की मांसल इच्छाओं को साथ-साथ रखना-जीना एक अबूझ, अझेल द्वंद्व से उसे भरा रखता।

ऐसे ही न जाने कितने साल बीते थे कि एक दिन नियति ने फिर से उसे रॉय के सम्मुख ला खड़ा कर दिया। वह एक बीमार के लिए प्रार्थना करने किसी के घर गई थी और वहां रॉय को एक बेहद बीमार इंसान के रूप में अपने सामने पाया था। उसकी हालत बहुत बुरी थी। शराब और वर्षों की मनमानी ने उसे एकदम तोड़ कर रख दिया था। डॉक्टर ने बताया था, उसके जीने की उम्मीद बहुत कम है।

रॉय को उसने उसकी आंखों से पहचाना था। बाकी पुराना कुछ भी नहीं था उसमें। प्रार्थना में अपने दोनों हाथ जोड़े बहुत शांत स्वर में साहिबा ने कहा था, ‘यह अपना क्या हाल बना लिया तुमने!’ जवाब में रॉय शायद मुस्कराया था। उसकी मुस्कार उसके चेहरे की गड्डमड्ड रेखाओं में नामालूम कहां खो गई थी- ‘कहा था न, मुझे सहेज कर रखना, बिखरने मत देना! मगर तुमने…’ उसकी गीली चमक से भरी आंखों में उसके आगे के शब्द झिलमिलाते रह गए थे।

‘बिखरा कौन…’, साहिबा ने अपनी आंखें मूंद कर कोरों पर ठहरे आंसुओं को रोका था- ‘कोई अपने बिखराव को भी समेटे रखता है और कोई अपने सारे सहेजे-सिमटे तिनकों को बिखेर कर नुमाइश में रख देता है! शायद इसमें भी एक पर्वर्टेड किस्म का मजा होता है!’

‘तुमसे बहस नहीं करूंगा! जो हूँ जैसा हूँ, तुम्हारे हवाले हूँ। तुम तय करो अब मेरा क्या करना है!’ रॉय ने कहते हुए अपनी आंखें बंद कर ली थीं। तय क्या करना! तय करने के लिए अब कुछ बचा नहीं है! साहिबा की सोच उसके स्तब्ध चेहरे पर उग आई थी।

हर सांस के साथ चमक उठतीं उसके सीने की हड्डियां, गड्ढों में डबडबा उठतीं आंखें, धंसे हुए गाल… देर तक साहिबा खड़ी-खड़ी उसके तहस-नहस हो गए चेहरे पर जाने क्या ढूंढ़ती रही थी। इसी चेहरे पर दहकते दो पलाश के रक्तिम फूलों ने उसे वर्षों अपने ईश्वर से दूर रखा, कनफेशन बॉक्स में रुलाया… देह से अदेह होने के बीच के फासले को तय करते उसका एक पूरा जीवन बीत गया! कितनी जल्दी! मगर कितना धीरे-धीरे…

इसके बाद साहिबा ने न दिन देखा, न रात। चौबीस घंटे रॉय की देख-रेख में लगी रही। लीवर के नष्ट होने से हजार तरह की बीमारियां उसे घेर चुकी थीं। वह हर वक्त दर्द से कराहता रहता था। उससे शराब ला देने के लिए मिन्नतें करता। कभी गिड़गिड़ाता तो कभी चीखता-चिल्लाता। उसे गालियां देता! मगर साहिबा अडिग रहती। उसकी गालियां सुनते, झिड़कियां सहते वह उसकी सेवा में लगी रहती।

शराब छुड़ाने के लिए उसकी दवाई और काउंसिलिंग चल रही थी, मगर वह किसी भी तरह संभल नहीं पा रहा था। कई बार रॉय भी थक जाता और हाथ जोड़ कर उसके सामने गिड़गिड़ाने लगता- ‘मुझे थोड़ी-सी शराब ला दो साहिबा, वर्ना मेरा सर फट जाएगा! मुझपर रहम करो…’ ऐसे समय में साहिबा चुपचाप खड़ी रहती। उससे कह नहीं पाती कि तुम मांगों तो मैं अपनी जान भी दे दूं मगर यह नहीं…

जो शराब साहिबा रॉय को दे नहीं पा रही थी, वह अब खुद कई बार चुपके-चुपके पी लेती थी। उसे यह गलत लगता मगर सोचती, वह रॉय के लिए पी रही है। उसकी प्यास के लिए वह अपना शरीर अर्पित कर रही है। रॉय के पास ज्यादतियां बरदास्त करने के लिए अब कोई शरीर नहीं, मगर उसके पास तो है! वह तो सक्षम है खुद पर रॉय के दुख का भार उठाने के लिए… इतना तो वह कर ही सकती है!


वह घंटों प्रार्थना में बैठी अपनी देह पर रॉय के कष्टों का आवाहन करती रहती। उसके पास आज कुछ भी नहीं है इस बचे
खुचे शरीर के सिवा! काश यही रॉय के किसी काम आ जाए! जैसे उसके मसीहा ने समस्त संसार की पीड़ा और दुख सूली पर चढ़ कर अपने पर ले लिया था, वह भी रॉय के सारे शारीरिक दर्द और मानसिक यंत्रणा को ले लेना चाहती थी।

कभी वह व्हील चेयर पर बैठा कर उसे नशा मुक्ति केंद्र से लगे समंदर के किनारे ले जाती। डॉक्टर फादर रेमो ने कहा था, ‘अब रॉय को क्वालिटी समय की जरूरत है। उसके मन की कर दिया करो, बस शराब एक बूंद नहीं। यह साक्षात मौत होगी उसके लिए।’

समंदर में डूबते हुए सूरज को देखते हुए कई बार रॉय कहता, ‘जानती हो, मैं तुम्हें तुम्हारे कॉटेज के पीछे की पहाड़ी पर अकसर छिप कर देखता था! तुम अकेले घंटों बैठी रहती थी…’

साहिबा को याद आता, त्वचा पर उष्ण उंगलियों-सी चलती हवाओं का स्पर्श, उसका अनायास ही कांप उठना! तो उसने जो भी महसूस किया था, उस वक्त, सब सच था! उसकी बांहों के सिहरे हुए रोएं, त्वचा पर उभरे गुलाबी धब्बे, अकारण बेतरतीब होतीं धड़कनें… ओह! उसने उन खामोश आहटों को सुना कैसे नहीं! वह गहरी सांस लेती और रॉय उसकी सांसों की मादक गंध में भीग जाता। साहिबा बुदबुदाती, ‘बस! इससे ज्यादा नशा नहीं!’ रॉय आंखें मूंद कर एक गहरी सांस के साथ धीरे से ‘थैंक यू’ कहता, जिसे साहिबा अनसुना कर देती।

रात-दिन की सेवा, दवाई, काउंसिलिंग से रॉय महीना भर में एक हद तक स्वस्थ हो उठा था। उसकी तरक्की देखकर फादर डॉक्टर रेमो ने उत्साहित हो कर कहा था, ‘यदि यह इसी तरह परहेज करता रहा और अपनी दवाइयां नियमित लेता रहा तो हम उम्मीद कर सकते हैं यह काफी समय तक…’ -यह सुन कर साहिबा ने आसमान की ओर देखते हुए अपने सीने पर क्रॉस बनाया था।

इसके बाद रॉय को उसके घर पहुंचा दिया गया था, जहां वह एक पुरुष नर्स की देख-रेख में रहने लगा था। रॉय के परिवार में अब कोई बचा नहीं था। पत्नी, बच्चे पहले ही छोड़ कर जा चुके थे।

साहिबा बीच-बीच में समय निकाल कर उसके पास जाती, उसकी जरूरतों का ध्यान रखती, उससे बातें करती। रॉय के पैर में सूजन थी और चलने में दिक्कत होती तो साहिबा उसे कई बार व्हील चेयर पर बैठा कर इधर-उधर टहलाने ले जाती। खासकर साहिबा के ब्लू कॉटेज के पीछे की पहाड़ी पर। यह आज भी उसकी प्रिय जगह थी। रॉय का मुहल्ला उसकी कॉलोनी से लगकर ही था। लगभग सभी उन्हें जानते थे। अतः सिस्टर साहिबा के साथ बीमार रॉय को व्हील चेयर पर साथ देख किसी को ताज्जुब नहीं होता था। फिर सेवा उसका काम ही था।

एक दिन सामने पसरी वादियों में बहुत नीचे ठाठे मारते समुद्र की ओर देखते हुये रॉय ने उससे पूछा था, ‘इतने सारे दिन बीत गए, जीवन की सांझ हो आई, अब भी तुमसे वह चार शब्द नहीं बोले गए!’ बिना किसी संबोधन का यह प्रश्न देर तक उल्टी-पलटी चलती हवा में बैरंग पत्र-सा फिरता रहा था। साहिबा चुप खड़ी थी, जैसे गूंगी हो! रॉय ने फिर अपना प्रश्न दोहराया। अब की बार उसकी तरफ सीधे देखते हुए। अब उसे बोलना ही पड़ा था, रुक-रुक कर बोली थी, ‘हर बात को सुनने-समझने के लिए सिर्फ शब्दों की जरूरत नहीं पड़ती! एक मन का होना ही काफी होता है…’

‘और वह मन मेरे पास कभी नहीं था! नहीं?’ कहते हुए रॉय मुस्कराया था- ‘अच्छा, कभी सोचा है, फिर वह मन कहां था? ईश्वर सबको एक अदद मन देता है न!’

‘नहीं जानती! मगर एक बात कहूंगी, सब कुछ दिया जा सकता है, आत्मसम्मान नहीं! बहुत कुछ लौट सकता है, मगर जिसे तुमने बार-बार ठुकराया, अपमानित किया, वह अब कभी नहीं लौट सकता! उसने इच्छा-मरण लिया है रॉय…!’ कहते हुए साहिबा ने उसका व्हील चेयर घर की ओर मोड़ दिया था। कल उन्हें तीर्थ के लिए निकलना था, महीने भर के लिए। उसकी ढेर-सी तैयारियां करनी थी।          

एक महीने की वह यात्रा साहिबा के लिए एक तरह की मुक्ति भी थी और यातना भी! सामने खुला आकाश था और जेहन पर पड़ी युगों की बेड़ियां। शिकंजों से छूटते ही उसे महसूस हुआ, अपने पिंजरे से उसे कितना प्यार है… सारे बंधन कब उसके आलिंगन बन गए… कब अंधेरे उसे मुफीद लगने लगे! उसके पंख अब बस नाम के रह गए थे, उनमें कोई उड़ान नहीं बची थी। न रिहाई की कोई इच्छा! चलते हुए उसके कदम ही आगे बढ़े थे, मन पीछे वहीं का वहीं रह गया था। गिरजाघरों में वह आंख मूंदकर खड़ी रहती, मगर प्रार्थनाओं से एकदम खाली! देश-विदेश घूमते हुए आखिर उसने समझा था, अपनी कैद से बढ़ कर कोई कैद नहीं! 

महीने भर बाद लौट कर उसने रॉय को फिर से अस्पताल में पाया था। उसका डर सही निकला था। उसके पीछे रॉय ने फिर से पीना शुरू कर दिया था और अब उसकी हालत नाजुक थी। उस रात के अंतिम प्रहर उसका कलेजा फट गया था और उसे लगातार खून की उल्टियां हो रही थीं।

जब वह भागते हुए अस्पताल पहुंची थी, रॉय लगभग बेहोश था। उसके बार-बार पुकारने पर किसी तरह आंखें खोली थीं और शायद मुस्कराया था- ‘तो तुम आ ही गई! मुझे लगा था…’

‘क्या, क्या लगा था…?’ पूछते हुए लाख कोशिश के बावजूद साहिबा का पूरा शरीर कांपने लगा था। मगर इस बार रॉय ने कोई जवाब नहीं दिया। बस पड़ा-पड़ा गहरी सांसें लेता रहा था।

साहिबा उसके सिरहाने बैठी चुपचाप रोती रही। न जाने कितनी देर बाद उसने आंखें खोली थीं। साहिबा ने उसका खून से भीगा सरहाना पोंछा था- ‘तुमने ऐसा क्यों किया रॉय! मुझे हर तरह से हरा दिया! एक बार तो मुझ पर रहम करते, यह कौन-सा वैर है, इस तरह किस दुश्मनी का बदला ले रहे हो…’ बेतरह हिचकियों के बीच साहिबा के सारे शब्द टूट-टूट कर निकले थे।

‘मैं बहुत डर गया था साहिबा! कोई नहीं था, तुम भी नहीं…’ अब उसे तेज हिचकियां आने लगी थीं, सीना मसलते हुए उसकी तरफ जाने कैसी नजरों से देखा था- ‘सुनो संन्यासिन! हमारे यहां कोई दूसरा जन्म नहीं होता न?’

उसके सवाल पर साहिबा ने चौंक कर सर उठाया था- ‘क्यों, क्या यह एक जन्म काफी नहीं था! और कितना सताते!’

‘हाँ! यह तो है! तुम्हें खूब सताना तो रह ही गया… अब इसके लिए एक बार और तो आना ही पड़ेगा… संन्यासिन! अपने भगवान से कहो न मेरी यह आखिरी ख्वाहिश पूरी कर दें!’ तेज सांसों और हिचकियों के बीच उसके शब्द साहिबा को बहुत मुश्किल से समझ में आ रहे थे।

‘ईश्वर को लेकर मुझे तुम्हारा यह मज़ाक अच्छा नहीं लग रहा है!’ साहिबा उसे डांटती हुए भी लगातार रोए जा रही थी।

‘अच्छा, नहीं कहता। मगर… क्या अब भी कुछ नहीं कहोगी, पूरे जीवन में चार लफ्ज सीख नहीं पाई, डैम इट!’ रॉय मुस्कराने की कोशिश कर रहा था- ‘याद रखो, वह चार लफ्ज मुझ पर तुम्हारा उधार रहा! जरूर आऊंगा एक दिन लेने संन्यासिन…’

‘चार लफ्ज क्या, मैं अपढ़ तो कुछ भी सीख न पाई इस जीवन में! यह सब अब रह जाने दो, किसी और दुनिया के लिए…’ साहिबा किसी पाषाण मूर्ति की तरह उठ खड़ी हुई थी, खुद से ही जैसे बोलते हुए- ‘इस जन्म का एक वादा है अपने ईश्वर से, बस वह ही निभा लूं, और तो कुछ हुआ नहीं मुझसे…’

उसकी बात का कोई जवाब इस बार रॉय ने नहीं दिया था। साहिबा ने देर बाद जब उसकी ओर देखा था, उसे अपनी ओर न देखती आंखों से देखते पाकर ठिठक गई थी। उसी समय बाहर चर्च का भारी घंटा गंभीर आवाज में बज उठा था। एक क्षण में जाने कितने युग संघनित होकर सिमट आए थे!

वह समय सिर्फ सच के लिए था। झूठ के सारे पल बीत गए थे। साहिबा को यकायक उन साफ, खाली आंखों में अपने सारे सवालों के अब तक न मिले जवाब मिल गए थे। कुछ कहने के लिए आज किसी शब्द की जरूरत न रॉय को हुई थी न सुनने-समझने के लिए साहिबा को! अपढ़ मन ने देर से सही, आखिर सब पढ़ लिया था! उनके बीच कभी भी, कोई भी न था, सिवाय उन चार मुक़द्दस लफ्जों के- हाव तुका मॉग करता!1

  1. मैं तुमसे प्यार करता हूँ

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