सुपरिचित कवि। वागर्थका लंबे समय तक संपादन।अद्यतन उपन्यास पानी भीतर फूल’ (उपन्यास), ‘चल हंसा वा देश’ (यात्रा निबंध)।संप्रति दिल्ली में शासकीय सेवा में।

पानी का कोई रंग नहीं होता।उसमे जो रंग पड़ता है, वह उसी रंग का हो जाता है।फिर भी कुछ चीजों के रंग को जल रंग या पानी जैसा रंग कह दिया जाता है।जैसे कांच की गोलियां जिन्हें बांटी या कंचा कहा जाता है।ये लाल, नीले, पीले होते हैं।लेकिन एक कंचा पानी जैसे रंग का होता है, हल्का हरा और पारदर्शी।इसके आर-पार देखा जा सकता है, यद्यपि कुल धुँधला।चित्रकला के संसार में जल रंग उन सब रंगों को कहा जाता है जो पानी में घोलकर तैयार किए जा सकते हैं।लेकिन यहां जल रंग का अर्थ पानी के रंग से या पानी जैसे रंग से है।

छुटपन में कंचे मुझे बहुत पसंद थे – वह भी पानी के रंग वाले।मैं हरिओम के साथ सामने घास के मैदान में कंचे खेलता था जो घर के पास था।हरिओम मेरा पड़ोसी था, यद्यपि वह पांचवी में था और दो बार फेल हो चुका था।मैं दूसरी में था।इस तरह हरिओम मुझसे पांच साल बड़ा था, लेकिन मैं उसे ‘भैया-वैया’ नहीं कहता, सीधे नाम लेकर ही पुकारता, जैसे वह मुझे नाम से पुकारता था, ठीक वैसे ही।उम्र में अंतर होने के बावजूद हरिओम की मजबूरी थी कि वह मुझसे दोस्ती करे, क्योंकि पड़ोसी मैं ही था।एक-दूसरे के घर मां-पिता जी, सबका आना-जाना था।हरिओम के समवयस्क दोस्त दूर-दूर रहते थे।

‘ज्यादा हरिओम के साथ मत खेलो’ – कभी-कभी मां दबे स्वरों में डांटतीं- ‘नहीं तो, तुम भी उसकी तरह फेल हो जाओगे।’

फिर कुछ सावधानी से कहतीं- ‘अब हरिओम से ऐसा मत कह देना।नहीं तो वह सुमित्रा (हरिओम की मां) को बता देगा।’

मैं ‘हाँ’ में सिर हिला देता।लेकिन मां भी समझती थी कि हरिओम के बिना आस-पास मेरा कोई दूसरा साथी नहीं है।इसलिए एकाध दिन की बंदिश के बाद मुझे फिर से हरिओम के साथ खेलने की अनुमति मिल जाती  – इस हिदायत के साथ कि अधिक दूर नहीं जाना।

मैं हाँतो कह देता लेकिन हम कुछ दूर काजू के बगीचे में जाकर खेलते।पास रहने पर मां जबतब पुकार कर मुझे बुला लेती।हरिओम के साथ भी यही दिक्कत थी।उसे भी आंटी छोटामोटा कोई काम पकड़ा देतीं।यह हमें पसंद नहीं था।

कभी-कभी हरिओम हॉफ पेंट की जेब में अपने पिता जी के बीड़ी के कट्टे से दो बीड़ियां चुराकर ले आता, दियासलाई रसोई से उठा लाता जिसे आंटी ढूंढ़ती रह जाती थीं।दूसरी बीड़ी वह मेरे लिए लाता, लेकिन मैं पीने से इनकार कर देता था।तब वह मेरा मजाक उड़ाता —

 ‘तू अभी बच्चा है…’

और बीड़ी का धुआं मेरे मुंह पर छोड़ देता जो मुझे बिलकुल पसंद नहीं था।

‘तू ऐसा करेगा तो मैं चला जाऊंगा…’ -मैं चेतावनी देता।

‘अच्छा… अच्छा…’ -वह हाथ पकड़ कर रोक लेता।

हम काजू की नीचे फैली टेढ़ी-मेढ़ी डगालियों में घने पत्तों के बीच छुपकर बैठते थे।एक बार हरिओम ने जबरवाली जलती हुई बीड़ी मेरे मुंह में लगा दी और बोला —

‘खींच…’

मैंने गहरी सांस खींची तो खूब सारा कसैला धुआं मेरे सीने में चला गया।मैं खांसने लगा।हरिओम जोर-जोर से हँसता हुआ भाग गया।

तब हमारी ‘कट्टी’ हो गई थी।

दो दिनों तक मैं खेलने नहीं निकला।न डर के मारे वह बुलाने आया।लेकिन ऐसी बातों को भला कौन गांठ बांध कर रखता।घर में हम ऊबने लगे और फिर साथ खेलने लगे।

कंचा खेलना भी हरिओम ने ही मुझे सिखाया था।

कंचे शोरूम के सामने मुल्कराज-देशराज की किराना दुकान में मिला करते थे।जहां मां के साथ मैं किराने का सामान खरीदने जाया करता था।पिता जी का कार्यालय भी पास ही था।वे सरकारी कर्मचारी थे – जिला उद्योग केंद्र में निरीक्षक।तब छत्तीसगढ़ अलग राज्य नहीं बना था।यह नारायणपुर की कहानी है जहां पिता जी की तैनाती थी।नारायणपुर बस्तर का एक छोटा-सा कस्बा था जो घने-जंगलों और पहाड़ों से घिरा था।अबूझमाड़ का इलाका यहीं से आरंभ होता था।चारों तरफ मुड़िया-माड़िया आदिवासी रहते थे।दरअसल, हम उन्हीं की मातृभूमि में रहने आए थे, पिता जी की नौकरी के कारण।होश ही मैंने यहीं सम्हाला था।बचपन की स्मृति यहीं से आरंभ होती है।साथ में दीदी थी और छोटा भाई भी।हम सब प्राथमिक शाला में पढ़ते थे।

कंचे कई रंग के होते लाल, नीले, पीले लेकिन मुझे पानी रंग पसंद था।दुकानदार छांटकर मेरी पसंद के कंचे निकालकर दे देता।हरिओम को यह रंग शायद अधिक पसंद नहीं था।उसके कंचे लाल, नीले, पीले होते थे।यह ठीक भी था।इस प्रकार हमारे कंचे आपस में मिलते नहीं थे।

काजू के बगीचे से लगा हुआ ही घास का मैदान था।हम यहीं कंचे खेला करते।हरिओम अपना कंचा मैदान में थोड़ी-सी घास या दूब उखाड़कर वहां रख देता।मैं निशाना लगाकर उसके कंचे को अपने कंचे से मारता।निशाना ठीक लग जाता तो उसका कंचा मेरा हो जाता।निशाना न लगने पर उसका कंचा उसी का रहता और मेरा कंचा मेरा।इस तरह हम कंचे हारते और जीतते थे।मैं छोटा था।शायद इसलिए मेरा निशाना उतना सधा हुआ नहीं था।हरिओम पारंगत था।इस तरह मैं जीतता कम, हारता अधिक था।लेकिन हरिओम अकसर जीत जाता था।खेल में मज़ा तो आता था, लेकिन हार जाने पर मैं रूआंसा भी हो जाता।मेरी हालत देखकर कभी-कभी हरिओम जानबूझकर कम जीतता या नहीं जीतता ताकि मेरा मन छोटा न हो जाए और मैं कहीं खेलना न छोड़ दूं।न जीतने के लिए वह जानबूझ निशाना ग़लत लगाता और ‘फिस्स्…’ से हँस देता।मैं जानबूझकर उसके हार जाने को समझ जाता, लेकिन कुछ बोलता नहीं था।

इस प्रकार हमारा खेल चलता रहता।कभी-कभी हमारे कंचे छिटक कर इधर-उधर घास में खो जाते।हम उन्हें खोजते-फिरते।कभी वे मिलते, कभी नहीं मिलते।इस तरह मेरे कंचों के कम होने का यह दूसरा कारण था।

‘फिर कंचे हारकर आ रहे हो…’ – घर लौटने पर मां मेरा चेहरा देखकर ही समझ जाती -—‘अब खरीदने के लिए मत कहना…’

मैं बहाने बनाता- ‘नहीं मां, मैं हारा नहीं।कंचे घास में खो गए।हमने बहुत खोजा पर मिले ही नहीं…’ -आवाज में पछतावा भरकर मैं सफाई देता।

मां सब समझ जाती।पर कुछ कहती नहीं।बस मुस्कराती और अगली बार देशराज की दुकान जाने पर पुन: मेरी पसंद के कंचे खरीद देती।

खाली समय में मैं कंचे को हथेली में रखकर गौर से देखता।धूप में उसका पानी रंग और पारदर्शी हो उठता।कभी दीदी और छोटे भाई को दिखाता।गुरु जी कहते हैं, पृथ्वी गोल है।तो क्या वह कंचे की तरह गोल होगी! मैं अकसर सोचता।

मैं मां से पूछता।

‘मैं रोटी सेंक रही हूँ न।अपने गुरु जी से पूछना।’ -माँ कहती।

‘क्या पता’ – बहन बोलती – ‘मुझे पढ़ने दो।’

पिता जी आफिस गए होते।भाई तो मुझसे छोटा था।वह क्या बताता।गुरु जी से पूछने की हिम्मत नहीं होती और पिता जी के लौटने पर उनसे पूछना मैं भूल जाता।फिर भी मेरा विश्वास था कि पृथ्वी, कंचे की तरह ही गोल होगी।

एक दिन पिता जी ने कार्यालय से लौटकर बताया कि उनका तबादला हो गया है- दुर्ग – यहां से लगभग तीन सौ किलोमीटर दूर।पिता जी खुश थे।गांव के करीब पहुंच जाएंगे।यहां से दादी का गांव बहुत दूर था।देखते-देखते सामान पैक होने लगा।मां बहुत व्यस्त हो गईं।छोटी-छोटी चीजों को जतन से रखना था।अचार के बड़े-बड़े जार (मर्तबान) थे।मां इन्हें बरनी कहती थीं।वो बुंदेलखंड की थीं तो वहां के शब्द भी हमारे घर में चला करते थे।तो इन बरनियों का क्या किया जाए! अचार तो खैर परिचितों में बांट दिया जाएगा।पिता जी के कार्यालय का चपरासी सहदेव सहायता और सामान आदि बांधने के लिए आ गया था।सुमित्रा आंटी मां का हाथ बंटाने आ जातीं।अंकल भी बाहर के कामों में पिता जी की मदद कर रहे थे।

लेकिन हरिओम और मेरा घर की इस अफरा तफरी से अधिक कुछ लेना देना नहीं था।हम खेलने निकल जाते।मां टोकती नहीं।उन्हें भी कुछ राहत ही लगती।घर में रहने से तो मेरे सवालों का अंत नहीं था।

कल हमें निकलना था।बड़ेबड़े सामान सब मेटाडोर में लदकर चले गए थे।छोटेछोटे नाजुक सामान और जरूरी  कागजात को पिता जी और मां ने लोहे की पेटियों और बैगों में रख लिया था।ये बस में हमारे साथ जाएंगे।

हरिओम और मैं काजू की डगाल पर बैठे थे।दोपहर का समय था।आज कंचे खेलने में मन नहीं लग रहा था।

‘तो कल तुम चले जाओगे…’ हरिओम ने पूछा।

‘हां’ – मैं बोला।

कुछ देर चुप्पी रही।फिर हरिओम ने कहा- ‘मैं तुम्हारे लिए एक चीज लाया हूँ।’

‘क्या?’ -मैंने कुछ आश्चर्य से पूछा।

हरिओम ने अपने हॉफ पैंट की जेब से निकालकर सफेद रूमाल की एक छोटी-सी पोटली मुझे थमा दी।

‘क्या है?’ मैंने पूछा लेकिन पोटली हाथ में लेते ही समझ गया- ‘कंचे?’

‘हाँ’ – हरिओम हँसा – ‘तुम्हारे लिए है…’

मेरा खुश होना उसे अच्छा लगा था।

मैंने पोटली खोलकर देखा तो दोगुनी खुशी से भर उठा।ढेर कंचे थे और सारे पानी के रंग के।

‘अरे, ये सब तो मेरी पसंद के कंचे हैं…’

हरिओम दोबारा हँसा – इस बार नि:शब्द।

लेकिन मेरा खिला हुआ चेहरा कुछ सोचकर तुरंत कुम्हला गया।

‘लेकिन… मैं वहां खेलूंगा किसके साथ?’

‘कोई दोस्त मिल जाएगा…’ -हरिओम की आव़ाज में उत्साह नहीं था।

‘और तुम?’ -मैंने पूछा।

‘मुझे भी…’ – उसने बेपरवाह दिखने की कोशिश की।

फिर हम चुप हो गए।बड़ी देर तक चुप्पी रही।मैं कुछ सोच रहा था।शायद हरिओम भी ऐसा ही कुछ सोच रहा होगा।मैं छोटा था और पहली बार मुझे पता चल रहा था कि किसी से अलग होने का दुख कैसा होता है!

और कैसा होता है जगहों का छूटना!

हम परिंदे नहीं थे जो गाते-गाते एक वन से दूसरे वन को चले जाते हैं।

लौटते हुए मैदान में हरिओम के पांव के नीचे एक कंचा आ गया।हरिओम ने उठाकर देखा।मेरा कंचा था।

‘तुम्हारे जाने के बाद भी ये मिलते रहेंगे…’ -वह फिर नि:शब्द हँसा।

‘तुम रख लेना…’ – मैं और क्या कहता!

हरिओम फिर हँसा।

कभीकभी हम इसलिए भी हँसते हैं कि खुलकर रो नहीं सकते।हरिओम की हँसी भी आज वैसी ही थी।

अगले दिन मां और सुमित्रा आंटी लिपटकर खूब रोईं।तांगा आ चुका था – बस अड्डे तक हमें छोड़ने के लिए।अंकल, सहदेव के साथ सामान पहुंचाने चले गए थे।मां के रोने से मेरी भी आंखें बहने लगीं।बहन उदास-सी खड़ी थी।छोटा भाई अभी नासमझ था।मैंने कमीज की आस्तीन से जल्दी से अपनी आंखें पोंछ लीं।

पिता जी छोटे भाई को गोद में लेकर सामने बैठे तांगे वाले की बगल में।पीछे मां बीच में बैठीं।अगल-बगल बहन और मैं बैठे – तांगा चल पड़ा।आंटी और हरिओम बरामदे में खड़े विदा में हाथ हिला रहे थे।अचानक आंखों के आगे कोहरा-सा छाया और हरिओम धुँधला दिखने लगा।

ये आंसू थे।

तो आंसू भी पानी जैसे होते हैं – मेरे कंचों की तरह – पानी के रंग के।

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