प्लेनेटरी पीस और प्लेनेटरी पॉलिटिकल सिस्टम निर्माण की संस्था वर्ल्ड नेचुरल डेमोक्रेसी के संस्थापक व लेखक जावैद अब्दुल्लाह द्वारा मानवजाति की भावी पीढ़ी पर मंडराते पानी के भूमंडलीय संकट परजल-पुरुष राजेंद्र सिंह से हुई बातचीत के अंश

राजेन्द्र सिंह (बाएं) जावैद अब्दुल्लाह (दाएं)

पानी का नोबेल पुरस्कार कहा जाने वाला स्टॉकहोम वाटर प्राइज़2015 तथा साल2001में रेमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित पर्यावरणविद एवं प्रसिद्ध जल संरक्षणकर्ता राजेंद्र सिंह को ‘वाटरमैन ऑफ़ इंडिया’ भी कहा जाता है । साल 2008 मेंद गार्जियन ने उन्हें पचास ऐसे लोगों की सूची में शामिल किया, जिन्होंने अपने काम से पृथ्वी ग्रह को बचाने की प्रतिबद्धता दिखाई।

ग्यारह हज़ार से अधिक चेक डैम,सात हज़ार से अधिक जोहड़ और दर्जनभर नदियों को पुनर्जीवित करने वाले राजेंद्र सिंह का जन्म 6 अगस्त 1959 कोउत्तर प्रदेश के बाग़पत ज़िले के डौला गांव में हुआ।1981 मेंराजस्थान में पानी की समस्याओं को देखकर अपने विवाह के डेढ़ वर्ष बाद ही सरकारी नौकरी छोड़ी, घर का सारा सामान बेचा,कुल तेईस हज़ार रुपये की जमा पूंजी के साथ1975से निष्क्रिय पड़ी‘तरुण भारत संघ’ नामक संस्था को अपनाकर जिंदा कियाऔर चार मित्रोंके साथ पानी का यह महान पथिक निकल पड़ा मानवता के मार्ग पर। इसी का फल है कि राजस्थान का अलवर क्षेत्र,जो1985 में सूखाग्रस्त था,राजेंद्र के अनथक प्रयास सेआज वहाँ हरियाली का राज है।

राजेंद्र मानते हैं कि प्रकृति हमारी कॉमन प्रॉपर्टी है,जिनके तीन मूल स्रोत हैं –जल, जंगल, और ज़मीन। इन तीनों केसही संरक्षण की जरूरत है। संरक्षण के बिना विकास न हो,बल्कि संरक्षण के साथ विकास हो और यह संभव है। बिना संरक्षण का विकास धीरे-धीरे विनाश की तरफ ले जाएगा। इसलिए हमें अपने जल, जंगल औरजमीन का संरक्षण करना होगा। राजेंद्र बार-बार इस बात पर जोर देते हैं कि जितना हम प्रकृति से अपने जीवन के लिए लेते हैं, उतना ही प्रकृति को वापस दें। इसी विषय पर हमने उनसे बात की।

आपको दो तिहाई यानी लगभग सत्तर प्रतिशत पोषण नेचर के लिए छोड़ना पड़ेगा। तीस प्रतिशत को आप उपयोग कर सकते हैं। वह तीस प्रतिशत भी आपके शोषण के लिए नहीं है। वह आपके केवल जीवन के लिए है। जीवनयापन के लिए अनुमति प्रकृति हमें देती है, शोषण करने की नहीं देती। आपको यह फर्क समझ में आना चाहिए।

जावैद : बच्चेऔर नौजवान पीढ़ी के सामने उनका भविष्य है । मानवजाति के इस वर्ग में सामान्यतःदस-बारह साल से लेकर तीस-पैंतीस साल तक की पीढ़ियां आती हैं। इस युवा वर्ग और भावी पीढ़ी का आनेवाला समय पानी और पर्यावरण की दृष्टि से बेहद गंभीर होगा। इस पर बातें और सभाएं तो बहुत होती हैं, परंतु हासिल इतना ही होता है कि कुछ पेड़ लगा दिए जाते हैं और कुछ टीवी और अखबारों को हेडलाइन्स मिल जाती है। ऐसे में बच्चे और वर्तमान पीढ़ी के लोग अपने स्तर से ऐसा क्या करें,जो उनके जीवन में पंद्रह-बीस साल बाद पानी और पर्यावरण के लिए सार्थक कदम साबित हो?

राजेंद्र : हमें यह समझना जरूरी है कि यह पानी बनता कैसे है? कौन बनाता है यह पानी? सूरज न हो तो आपको पानी न मिलेगा। आपका जो पानी है वह अग्नि बनाता है, सूरज बनाता है। देखिए,यह जो इक्कीसवीं शताब्दी है, इस शताब्दी के बाल्यकाल में जीने वाले इंसानों ने यदि अपने साझे भविष्य (Common future) के बारे में नहीं सोचा तो उनका हेल्थ और लाइफ़ बहुत क्रिटिकल होगाऔर जब मैं हेल्थ कहता हूँ तो मैं कहता हूँ कि अब भारत के पानी की जो गुणवत्ता है, भारत का जो जल है वह प्रदूषित होकर अब हमारे सेहत के अनुकूल नहीं है। पहले हमने नदियों की सेहत बिगाड़ी। उद्योगों के दूषित जल ने नदियों को दूषित किया, अब वह हमारे बच्चों की सेहत बिगाड़ रहा है, क्योंकि हमें या हमारे बच्चों को जो पीने का जल मिलता है उसे धरती के पेट से ही निकालकर पीते हैं। जब धरती के पेट में दूषित पानी जाएगा तो हमारे बच्चों की सेहत ठीक नहीं रह सकती। इसलिए बच्चों की सेहत ठीक रखनी है तो क्या करना है? बच्चों को अपने बाल्यकाल में ही यह सोचना है कि जो गंदगी है और जो शुद्धता है इन दोनों को उनकी जगह पर अलग-अलग रखें। यदि आप शुद्धता में गंदगी मिलाएंगे तो वह सारी शुद्धता को गंदा कर देगी। जिस तरह से एक मटकी दूध में जोड़न कीकुछ बूंदेंडालते हैं तोवह सारे को दही बना देती है। वैसे ही जो गंदगी है वह बड़े ही एफ़ेक्टिवली, एक्टिवली आपकी निर्मलता को अशुद्धता में बदल देती है। इसलिए बच्चों को यह समझना है कि उनके घर का जो गंदा पानी है और जो भी गंदगी है, वहवर्षा के शुद्ध जल में न मिले। वर्षा का जो जल है वह पवित्र होता है। पीने के लिए होता है, जीने के लिए होता है।

पीने के लिए और जीने के लिए केवल और केवल सूरज की लाल गरमी से विलवणीकृत होकर समुद्र का खारा पानी H2O जलवाष्प (Watervapour) होकर बादल बनता है और वह बादल नीली गरमीबन जाता है। इस प्रक्रिया को विलवणीकरण (Desalination) कहते हैं। सूरज से निकलने वाली लाल गरमी जब समुद्र के खारे पानी पर पड़ती है तो उसको वाष्पीकृत करके H2O में परिवर्तित कर नीली गरमी बना देती है। वह जो नीली गरमी है, जो बादल है, वह हमेशा ग्रीन हीट की तरफ़ मूव करता है, क्योंकि हरी गरमी में जो दबाव है वायुमंडलका, वह कम होता है और वहां से ये नीली गरमी H2O हरी गरमी की तरफ बढ़ती है। हरी गरमी भी गरमी होती है,जो पत्तों के वाष्पन-उत्सर्जन (Evapotranspiration) से निकलती है । इसे यूं समझिए, H2O में H अधिक होता है। H2 होता है O1 होता है। यह जो हरी गरमी है इसमें O2 होता है यानी ऑक्सीजन। इसे ही हरी गरमी कहते हैं, यह पेड़ों और जंगलों से निकलती है। तो यह जो O2 है, यह H2O के साथ मिलकर बराबर हो जाता है । पहले वह H2 और O1 था अभी ये O2 है, यह दोनों मिलकर वर्षा जल में बदल जाते हैं। हम हिंदुस्तानी इसको वर्षा कहते हैं। अंग्रेज़ी में रेन्स कहते हैं। तो अभी क्या हुआ? लाल गरमी यानी सूरज की ऊष्मा सूरज से निकली, समुद्र पर पड़ी, समुद्र के खारे पानी को मीठा किया और वह नीली गरमी में बदल गई। यह नीली गरमी जंगलों की तरफ़ जहां आर्द्रता (Humidity) होती है वहां हरी गरमी से मिल जाती है और दोनों गरमी एक साथ मिलकर विस्तारित (Discharged) होती है, ब्लू हीट का भी और ग्रीन हीट का भी। जब यह दोनों एक साथ विस्तारित होती है तब हम लोग उसे वर्षा कहते हैं। इसलिए मैं कहता हूँ क्लाइमेट इज़ वाटर एंड वाटर इज़ क्लाइमेट। क्योंकि एनर्जी और वाटर,यही दो मूलभूत आधार हैं जीवन के लिए।

जावैद : हम देखते हैं कि जब तक हमारी हालत (आर्थिक स्थिति) ठीक नहीं है तब तक तो कोई बात नहीं, लेकिन जैसे ही हमारी हालत यानी आर्थिक स्थिति ठीक होने लगती है और किसी प्रकार की सफलता से धन आने लगता है, उसके बाद आवास के लिए जितनी भूमि हम अर्जित करते हैं उसका अधिकतम भाग और कहीं-कहीं तो सारी आवासीय भूमि को ही सिल्टअप कर दिया जाता है। कंक्रीट और सीमेंट से ठोस पक्का कर दिया जाता है। अब यह शहर ही नहीं, गांव में भी समृद्ध परिवार की जीवन शैली का मापदंड बन चुका है कि वह अपने आस-पास मिट्टी देखना ही नहीं चाहता। क्या यह सही है?

राजेंद्र : ऐसा नहीं करना चाहिए। धरती को आप जितना नेचुरल स्वरूप में रख सकते हैं, वह जितनी नेचुरल रहेगी उतनी वह आपके हेल्थ के लिए आपकी इकोनॉमी के लिए आपकी इकोलॉजी के लिए अच्छी रहेगी। जब आप मिट्टी को सीमेंट से,कंक्रीट से ढक देते हैं तो उस मिट्टी की जो धारक क्षमता है अंग्रेज़ी में जिसेकेयरिंग कैपेसिटीकहते हैं, उस धारक क्षमता को नष्ट कर देते हैं और फिर धारक क्षमता नष्ट होने पर वह नेचर के पानी को अपने अंदर अवशोषित (Absorbed) नहीं कर सकती है।

जावैद : अनुपम मिश्र ने भी इस पर ध्यान आकृष्ट करवाया था, लेकिन अब यह केवल लोगों की बात नहीं है। यह काम स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालयों तथा अन्य संस्थानों के परिसर में भी देखने को मिल रहा है। यहां तक कि जिस यूनिवर्सिटी में पर्यावरण को पढ़ाया जा रहा है और पर्यावरण पर सेमिनार-सम्मलेन आयोजित किया जाता है उस पर्यावरण विभाग के बाहर आसपास के मुक्त परिसर को भी कंक्रीट और सीमेंट से ढक दिया जा रहा है। तो क्या इसकी जन जागरूकता के लिए आप कोई स्टेप लेंगे, ताकि लोग इसकी गंभीरता को समझें और सरकारें ऐसे क़ानून बनाने पर विचार करें जिससे किसी भी प्रकार के भवन निर्माण, आवास, दफ़्तर, निजी हो अथवा सरकारी, सभी स्थानों पर धरती के एक महत्वपूर्ण भूभाग को अनिवार्य रूप से खुला छोड़ा जाए। उससे कोई छेड़छाड़ नहीं की जाए, उस ज़मीन को यूं ही रहने दिया जाए उसके अपने प्राकृतिक स्वरूप में।

राजेंद्र : मैं तो इस बात को तीस-पैंतीस साल से बोल रहा हूँ कि धरती आपके लिए पोषण की सब सामग्री देती है लेकिन आप जमीन का पोषण के बजाय शोषण करते हैं। जब आप शोषण करते हैं तो उसकी उत्पादक क्षमता घट जाती है। इसलिए मैं बस इतना ही कहूंगा कि यदि आप सचमुच पर्यावरण की चिंता करने वाले हैं, पर्यावरण की सुरक्षा पर काम करने वाले, पर्यावरण के शिक्षक हैं, पर्यावरण के विद्यार्थी हैं तो आपको यह देखना होगा कि जिस जमीन पर आप रह रहे हैं वहां दो तिहाई यानी लगभग सत्तर प्रतिशत पोषण नेचर के लिए छोड़ना पड़ेगा। तीस प्रतिशत को आप उपयोग कर सकते हैं। वह तीस प्रतिशत भी आपके शोषण के लिए नहीं है। वह आपके केवल जीवन के लिए है। जीवनयापन के लिए अनुमति प्रकृति हमें देती है, शोषण करने की नहीं देती। आपको यह फर्क समझ में आना चाहिए।

जावैद : बच्चे और युवाओं के लिए क्या संदेश देना चाहेंगे?

 राजेंद्र : बच्चों को, युवाओं को और विद्यार्थियों को यह संदेश देना चाहता हूँ कि आप यदि अपने हेल्थ को सुरक्षित रखना चाहते हैं तो वाटर हेल्थ को ठीक रखना पड़ेगा। पानी को साफ़-सुथरा रखना पड़ेगा। रीवर (River) और सीवर (Sewer) को सेपरेट करना पड़ेगा। गंदे पानी को और अच्छे पानी को अलग-अलग रखना होगा। यह कैसे रखें इस बारे में विद्यार्थियों और टीचर्स को सोचना चाहिए और महात्मा गांधी का यह कथन हम सभी को याद रखना चाहिए- ‘धरती सभी मनुष्यों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त है लेकिन सभी मनुष्यों के लालच को पूरा करने के लिए नहीं।‘