अरुणाचल प्रदेश की कथाकार और लेखिका। ‘दो रंगपुरुष– मोहन राकेश और गिरीश कर्नाड’ (आलोचना) ‘जब आदिवासी गाता है’ (कविता संग्रह), ‘उईमोक’ (न्यीशी लोककथा संग्रह), ‘अयाचित अतिथि और अन्य कहानियां’ (कहानी संग्रह)।
नब्बे बरस की चाची को मिट्टी के अनेक तहों के नीचे निश्चल, निश्चेष्ट सुलाने के बाद, अब सीमेंट की परत चढ़ाई जा रही थी। तभी कब्र के एक ओर शोर-शराबा हुआ। बरबस मेरा ध्यान उस ओर गया। कई सारे नौजवान बेंत की मोटी रस्सी से बंधा बलिष्ठ, तिरछे सींगधारी मिथुन को एड़ी-चोटी का जोर लगाकर खींचे जा रहे थे। चितकबरे रंग का विशाल शरीर वाला मिथुन, एक भी पग आगे धरने को टस से मस नहीं हो रहा था। जवां हाथों को इस कदर विफल होता देख, चंद बुजुर्ग उनकी मदद के लिए आगे बढ़े। एक तरफ़ एक अकेला मिथुन और दूसरी तरफ जवानों और बुजुर्गों का समूह। नायाब नजारा! जानवर और इंसान के बीच शक्ति-प्रदर्शन। अफसोस.. रस्साकशी का यह खेल बहुत देर तक न चल सका।
चाची का मझला बेटा मिजाज, मिर्च से ज्यादा तीखा। वह दर्शकों के बीच से एक लाठी लेकर निकला और गुस्से से उफनते हुए मिथुन के अगले पैरों पर जोरदार वार किया। मिथुन दर्द से तड़पता हुआ घुटनों के बल बैठ गया। आवाजें आईं- ‘जल्दी खींचो, जल्दी।’
तायो, मेरे सबसे अजीज भैया, मेरा हाथ पकड़कर बोले- ‘चलो देखने चलें।’
‘नहीं, नहीं’ मैंने मायूसी में कहा- ‘जानवरों की बलि से मुझे बहुत कोफ्त है। नहीं देखना मुझे वह दहशतनाक नजारा।’
तायो भैया चिढ़ाते हुए- ‘लाई साग, मिर्च, अदरक, तिल और बांस के रेशों के साथ मिथुन का गोश्त पकने वाला है और उसकी सुगंध चारों ओर फैलेगी। तब खाने के लिए जीभ लपलपाना नहीं।’
मैं हँस पड़ी।
चाची का सिर जिस दिशा में था, ठीक उसके ऊपर त्रिकोणीय आकार की बांस की भव्य मीनार बनी थी, लगभग 17 या 18 फुट ऊंची। बहुमंजीली मीनार से बांस की झालरें हवा के झकोर से दाएं-बाएं झूल रही थीं। मीनार के आगे नई-नवेली दुल्हन के वेश में बांस का पुतला खड़ा था। निस्पंद चाची पुतले में तब्दील होकर अपने ही न्युब्लु यानी कब्र की शोभा बढ़ा रही थी। मीनार के नीचे ‘न्यीब’ मतलब पुजारी आसन जमाकर मंत्रोच्चारण में लीन थे।
मेरी आँखों में उलझन देख तायो भैया ने पूछा- ‘कुछ समझ में आ रहा है?’
‘ये न्यीब की क्लिष्ट भाषा मेरी समझ से बिलकुल परे है।’
‘आत्माओं से उनका संवाद चल रहा है। जाहिर है, दुनियावी भाषा में तो वे बोलेंगे नहीं!’
मैंने उन्हें कुहनी मारते हुए- ‘तब यह रहस्य भरी भाषा आप ही खोल दीजिए।’
ताओ भैया ने समझाना शुरू किया, ‘न्यीब मिथुन की याल, यानी आत्मा का महिमा बखान कर रहे हैं। कह रहे हैं कि हमने तुम्हें उदात्त कार्य के लिए चुना है। तुम्हारी योग्यता पर हमें कोई शंका नहीं। मृतक को उनके पुरखों के लोक तक सही-सलामत पहुंचाना तुम्हारा दायित्व होगा। तीन दिनों के बाद जब मृतक की आत्मा अपनी काया की सीमा से मुक्त होगी, तब तुम उसे अपने साथ लंबी यात्रा पर ले जाना। मैं जानता हूँ यह यात्रा बड़ा दुर्गम है, पड़ाव पर पड़ाव। पर तुम धैर्यशील हो।’
‘हमारे ऊपर तुम्हारी दोहरी कृपा है। तुम्हारी आत्मा मृतक को पुरखों से मिलन कराने वाली है तो तुम्हारा तन हमारा पोषण। अगली पांच रातों तक ‘न्युब्लु’ की रखवाली करने के लिए भीड़ इकट्टी रहेगी। तुम्हारा तन व्यर्थ नहीं जाएगा। ये रतजगे तुम्हारे तन से पोषित होते रहेंगे। तुम्हारे इस महात्याग का, मैं नमन करता हूँ।’
मैं उत्साह से भर उठी- ‘सुंदर, सुंदर आह्वान!’
‘पुराने जमाने में बंदर की बलि दी जाती थी।’
‘वह क्यों?’
‘तुमने देखा न, चाची के सारे कपड़े-लत्ते यहां तक कि बर्तन-बासी भी, उन्हीं के साथ ‘न्युब्लु’ में दफन कर दिए गए। कुछ छूट गया तो तीन दिनों के बाद चाची की आत्मा खोजती हुई आएंगी!’
‘अच्छा, इसलिए येया मौसी बार-बार ताकीद कर रही थी कि कुछ छूटा तो नहीं, वरना…’
तायो भैया अपनी बात पर लौटे- ‘बंदर की बलि के पीछे यह सोच है कि बंदर अच्छे सेवक हुआ करते हैं। अब मरने वाले के लिए साजो-सामानों की इतनी गठरियां उठाकर लंबी दूरी की पारलौकिक यात्रा करना कितनी तकलीफदेह होगी। मिथुन का काम मृतक की आत्मा का पुरखों के लोक तक नेतृत्व करना है, तो बंदर का काम गठरियों को ढोना है। आजकल कहां बंदर की बलि! फॉरेस्ट विभाग की ओर से मनाही है।’
कहां से ताग हवा के वेग से आया- ‘क्या बात है! बड़ा लाट साहब बने फिर रहे हो। और हम सब सुबह से चींटियों की तरह काम में खट रहे हैं। अभी और पांच सुअर काटने हैं। सारे रिश्तेदारों में दिन्ताक (गोश्त के बड़े टुकड़े) बांटने हैं। मदद भी करोगे या यूं ही खड़े रहोगे?’
बड़ा बिगड़ैल है यह ताग! मैं चुप न रह सकी- ‘बड़ों से बात करने का शऊर नहीं तुम्हें?’
‘क्या मदद मांगना गलत है?’
‘मदद मांगना वाजिब है, पर लहजा तुम्हारा गलत है।’
हम दोनों को चुप कराने की मंशा से तायो भैया- ‘रोर, रोर कहां है ताग?’
‘पैसों से या सामान देकर जिन-जिन लोगों ने मदद की, रोर उनकी सूची बनाने में बिजी है।’
‘यह तो बड़ा सावधानी का काम है। किसी का नाम छूटने न पाए। उनके जन्म-मरण, हारी-बीमारी जैसे आड़े वक्त में, हमें ये मदद लौटाना होगा।’ इतना कह तायो भैया पास पड़ा एक हगअ, यानी कुल्हाड़ी उठाकर नकचढ़े ताग के साथ चले गए।
पिछली रात की सी-न्यीमार वाली धुन अभी भी मेरे लरजते होठों पर सवार थी। बोल जेहन से उतर जरूर गया, लेकिन धुन नहीं। उसी धुन की उंगली थामकर मैं बीती रात लौट गई। तकरीबन बीस-इक्कीस जिलों से लोग उमड़ आए थे। सबके चेहरे पहचाने नहीं जा रहे थे। एक बेहद बूढ़ी महिला चाची के शव के सिरहाने बैठी सी-न्यीमार गा रही थीं। उनकी असल शक्ल कैसी रही होगी, यह बताना मुश्किल था। पूरी की पूरी शक्ल झुर्रियों का घर बन चुका था। वह चाची के जन्म, लड़कपन, जवानी और बाद के गुजारे जीवन के सोपानों का चांदी की कटोरी सी खन-खन खनकदार सुरीली पर बहुत ऊंची आवाज में वर्णन कर रही थीं।
उनके पीछे बैठे आदमियों और औरतों के जत्थे, गीत की चैन भरी लय के साथ हौले से अपनी देहों को झूला रहे थे। सबके चेहरे खुश्क थे। उन सबके होठों और नैनों में नेह की मुस्कान तारी थीं। लेकिन… लेकिन मेरी आंखें मई-जून की बारिश-सी झमाझम बरसने लगीं। परिवार में, मैं हमेशा से काब्जार यानी रोंदू के रूप में मशहूर हूँ। अपने भाव को चाहे जितना भी नियंत्रित कर लूं, पर आंखें साथ नहीं देतीं। दगाबाज कहीं की..! ज्यों ही येया मौसी की निगाह मुझ पर पड़ी, बड़बड़ाते हुए मुझे बांह से पकड़कर बाहर ले आई-
‘यह क्या, अपशकुन करने का इरादा है? रो क्यों रही है? सुन, रोओगी तो तुम्हें ओरोम कारे!’
‘ओरोम कारे?’
‘और नहीं तो क्या! रोओगी तो चाची की भूत लगेगी तुम्हें। तुमको क्या लगता है कि सिर्फ तुम्हीं को चाची से प्यार है? हमको उनसे प्यार नहीं। लेकिन अब उनके और हमारे रास्ते अलग हो चुके हैं। हमारे रोने से चाची पुरखों तक पहुंच न पाएंगी, रास्ता फिसलन भरा होगा। तुमने भीतर किसी को रोते हुए देखा? नहीं न। यह उत्सव है, समारोह है, रोते नहीं। कल दफन के बाद पांच रातों तक उत्सव चलेगा। जरा सोचो, चाची और जिंदा रहतीं तो उन्हें कितना कष्ट होता। कानों से सुनना बंद हो गया था और आंखों से दिखना। कमजोर हड्डियों के कारण रेंगने लगी थीं। बहुत ही लंबा और सार्थक जीवन जिया उन्होंने। अपने बेटे, पोते, पड़पोते के बेटे, कितनी पीढ़ियों को जनती देखीं। रोते तो तब हैं, जब कोई असमय चले जाए। चल, अपने आंसू पोंछ।’
चाची को शाम का भोजन देने के लिए थाली सजाई जा रही थी। सुनहरे रंग का वजनदार धातु से बना एक बड़ी तिब्बती थाल। थाल पर मुट्ठी भर भात, मांस के दो छोटे टुकड़े, चुटकी भर नमक, मिर्च, लाई साग की दो पत्तियां और मदिरा की दो-तीन बूंदें। येया मौसी चाची की बड़ी बहू को समझा रही थी-
‘देखो, तुम दूसरे समाज से आई हो, हमारे रस्मों-रिवाज से ज्यादा वाकिफ नहीं। इसलिए ध्यान से सुनो। इस तरह एहतियात से थाल सजाकर हर सुबह-शाम, तीन दिनों तक वहां न्युब्लु में रखना तुम्हारे जिम्मे है।
बहू खिसियाकर बोली- ‘यह खाना बहुत कम नहीं है?’
‘याद रहे, आत्माओं के लिए कम माने ज्यादा होता है। और हां, ‘न्युब्लु’ के पास आग बुझने न पाए। लड़कों से कहकर लकड़ियां डलवाते रहना।’
बड़ी बहू दो दुबले हाथों से भारी-भरकम थाल उठाकर चुपचाप चली गई।
लोगों का हुजूम छोटे-बड़े झुंडों में बंटे हुए थे। पहला झुंड देहाती बूढ़ों और बुढ़ियों का। जलती आग के चारों ओर बांस की अनेक दरियां बिछी थीं। कुछ बैठे हुए तो कुछ पसरे पड़े थे। सारे बेहिसाब बाजरे की मदिरा गटक चुके थे। बावजूद इसके फरमाइश पर फरमाइश जारी थी। दूसरा झुंड अधेड़ आदमियों और औरतों का था। सारे चेयर पर जमे थे और टेबल पर महंगी ह्विस्की, रम, वाइन और भुने गोश्त। पंचायती राजनीति से लेकर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर की राजनीति पर बहस-मुबाहिस चल रहे थे।
तीसरा झुंड जवानों का, लेकिन मजमा अभी जमना बाकी था। चौथा झुंड किशोर लड़कों का। लकड़ियां फाड़ने के बाद वे अभी कैरम के खेल में डूबे हुए थे। पांचवां झुंड नन्हें-मुन्नों का था जो पकड़म-पकड़ाई और छुप्पम-छुपाई के खेल में अपनी ऊर्जा खपत कर एकाएक ‘मैंगो जूस, ऐप्पल जूस’ चिल्लाने लगते। सारी किशोर लड़कियां सर्विंग टीम में जुटी हुई थीं। वे हरेक झुंड के पास जातीं, फिर पूछतीं- ‘कुछ लेंगे आप?’ उनके ट्रे पर तरह-तरह के पेय होते- बाजरे की मदिरा, चावल की मदिरा, रम, ह्विस्की, रेड वाइन, ह्वाइट वाइन, बीयर वगैरह।
तायो भैया को दोबारा देख, तेज कदमों से मैं उनके करीब गई।
‘हाऊसी खेलोगी?’
मैं अचकचा गई- ‘हाऊसी मतलब?’
‘बड़ा मजेदार खेल है। इस खेल में हर खिलाड़ी के पास एक पर्ची होती है। पर्ची में कई खाने बने होते हैं और खानों में कुछ रैंडम नंबर। मोबाइल में हाऊसी का बटन दबाने पर मधुर, रिझाती आवाज में नंबर बोले जाते हैं। चौकन्ना खिलाड़ी तुरत-फुरत नंबरों का मिलान करता है। अगर सारे नंबर मिल गए तो जीत उसकी।’
‘और जीत का प्राइज?’
‘जितने खिलाड़ियों ने बाजी में रुपये डाले हैं, सारे रुपये विनर के।’
‘यह तो जुआ है!’
‘हां, जुआ है, बहुत फेमस! राज्य सरकार को इस खेल को स्टेट गेम घोषित कर देना चाहिए। कहां-कहां नहीं खेले जाते! परिवारों में, बाज़ारों में, पिकनिक में, गलियों में, पार्टियों में, मतलब हर जगह। पता है, वहां दापोरिजो के कस्बों में मजदूरिन लोग बाजी में क्या लगाती हैं? बेबी डाइपर!’
मुझे बेसाख़्ता हँसी आई- ‘क्या..?’
‘हां, बेचारी तपती धूप में बच्चा पीठ पर बांधकर पत्थर तोड़ती है। अब बच्चे को क्या मालूम, सूसू आया तो कर दिया। पसीने और पेशाब के गीलेपन से अकसर घमौरियां हो जाया करती हैं- मां को भी और बच्चा को भी। इसलिए मजदूरिन के लिए बेबी डाइपर लाइफ सेवर है।’
मुझसे हँसी रोके नहीं जा रही।
‘यह अकेले-अकेले क्या हँस रही हो, हमें भी हँसाओ।’
इस बड़बोला ताग का मैं क्या करूं। खूंखार भरी नज़रों से मैंने उसे देखा।
ताग अपनी सफाई में- ‘देखो, गुस्सा मत करो। सबके झुंड में गहमा-गहमी है। केवल हम जवानों के झुंड में सन्नाटा पसरा है। तुम हमारे पास क्यों नहीं आ जाती !
ताग के वहां मुझे शरीक होने का इशारा कर, तायो भैया अपने झुंड यानी अधेड़ों की ओर बढ़ गए।
तीन पत्थरों के ऊपर बड़े-बड़े सुराख वाले लोहे की जाली बिछी थी। उसपर मुर्गी, सुअर के गोश्त मद्धम आंच में सेंके जा रहे थे। कामेन चिमटे से गोश्त के टुकड़ों को उलट-पलटकर देख रहा था कि कहीं जल तो नहीं रहा। उसने कुछ याद करते हुए कहा-
‘हां, यह तो चुनावी साल है। राजनीति पर कुछ बात हो जाए।’
कुमी प्याज, मिर्च, अदरक, तानाम- एक तिलनुमा दाने कूट रही थी। यह सुनते ही तुर्श आवाज में बोली-
‘उधर अधेड़ों के बीच पोलिटिक्स की बात से सिर-फुटौवल की नौबत आने वाली थी। पता नहीं, पोलिटिक्स को लेकर लोग इतने पर्सनल क्यों हो जाते हैं। इसलिए रहने दो पॉलिटिक्स। कुछ किस्से-कहानियां सुनाओ। ऐसी किस्से-कहानियां जो सच्ची हों, मनगढ़ंत नहीं।’
इस तरह किस्सों का दौर शुरू!
ऑपनिंग किया कामेन ने- ‘मैं समोसा वाला किस्सा सुनाता हूँ।’
‘नहीं!’ ताग, तिरिन, एका वगैरह एक साथ विरोध में बोले।
ताग दिखावटी गुस्से में- ‘तुमने हमें पचा (मूर्ख) समझ रखा है? यह किस्सा तो अरुणाचल का बच्चा-बच्चा जानता है। कितनी दफा सुनेंगे। कान पक गए।’
मेरी दिलचस्पी बढ़ी- ‘लेकिन मैंने तो कभी नहीं सुना, प्रोमिस!’
तिरिन परिहास के अन्दाज में- ‘हां! कैसे सुनोगी तुम। दिल्ली में जो रहती आई हो। लोगों को दिल्ली से ऐसा क्या लगाव है। मुझे तो दिल्ली बड़ी नामुराद जगह लगती है। गर्मी में भी लोग मरते हैं और ठंड में भी। और प्रदूषण की पूछो मत। जमीन के अंदर से लेकर आसमान तक प्रदूषण ही प्रदूषण। मुझे कोई एक करोड़ भी ऑफर करे तब भी न बसूं वहां। अपना अरुणाचल का नीला आकाश, पहाड़ों का निर्मल पानी, हरे-भरे जंगल से बहती महकती बयार को छोड़, कोई बुड़बक ही वहां बसेगा। मेरा तो मानना है जो लोग दिल्ली जैसी जगह में एडजस्ट कर गए, फिर तो वे दुनिया के किसी भी कोने में एडजस्ट कर लेंगे।’
कामेन बेसब्र हुआ जा रहा था- ‘अरे, तुम मुझे सुनाने दोगे या नहीं? न्योपिंग गांव, वहीं न्योपिंग गांव जहां से करीबन एक सौ किलोमीटर की दूरी पर चाइना का बॉर्डर लगा है। न्योपिंग गांव से एक बूढ़ा पहली बार इधर ईटानगर आ रहे थे। सफर लंबा था। सो भूख लगनी थी, लगी जोरों की भूख। ईटानगर पहुंचते ही तुरंत एक होटल में गए। चार समोसे खूब दबाकर खाने के बाद सुकून भरी डकारें लीं। एक और समोसा लाने के लिए वेटर को संकेत किया। अबकी बार समोसा खाया नहीं, बल्कि समोसा लेकर मैनेजर के काउंटर पर गए। बड़ी संजीदगी से मैनेजर को समोसा दिखलाते हुए पूछा, इसमें न कोई खिड़की है न कोई दरवाजा। तो फिर आलू इसके अंदर कैसे घुसा?’
जोरदार ठहाके फूटे! मैं हँसते-हँसते दोहरी हो गई।
कुमी पुलककर बोली- ‘सच कहूं, जितनी बार इस किस्से को सुनती हूँ, हँसे बगैर रह नहीं पाती।’
ठहाके सुनकर बोम्कार जीजा जी हमारे झुंड में चले आए। बोम्कार जीजा जी भी अपने आप में एक गजब नमूना हैं। न पीयो तो बुत बने रहते हैं और पी लेने के बाद अपने को मुंह और गैरों को कान समझते हैं। उनकी बातों की धारा सियांग नदी की भांति कभी सूखती नहीं। कभी–कभार ज्यादा चढ़ जाने पर नाचने–गाने के अलावा जूडो–कराटे के दो–चार पोज भी देते हैं।
ताग छद्म विरोध की मुद्रा में– ‘जीजा जी, देखिए यह गलत है। आप तो जवान नहीं, यह जवानों का झुंड है। प्लीज आप अपने झुंड में चले जाइए।’
बोम्कार जीजा जी भी ठहरे खिलंदर- ‘क्या कहा? मैं जवान नहीं। मैं तो जवानों का जवान हूँ।’
कुमी ने चटनी कूटना बंद किया और कुर्सी साफकर जीजा जी की तरफ बढ़ाया।
बोम्कार जीजा जी कुर्सी पर बैठते हुए- ‘किस बात पर इतने हँसे जा रहे थे?’
ताग बेमन से बोला- ‘वही समोसा वाला पुराना किस्सा।’
‘पुराना किस्सा से मुझे भी एक रोचक किस्सा याद आ रहा है अपने आलो शहर का।’
हम सब उनका जोश बढ़ाते हुए चिल्लाए- ‘चलिए, सुनाया जाए!’
बोम्कार जीजा ने बाजरे की मदिरा चखी, फिर थोड़े फॉर्म में आए- ‘किस्सा बहुत पुराना है। उस समय तुम लोग पैदा भी नहीं हुए थे। आलो शहर के तिराहे पर नेता की जो कद्दावर मूर्ति है, उसी का किस्सा है। बात उन दिनों की है जब आलो गांव से नया-नया कस्बा बना। इस खुशी में सरकारी प्रशासन ने जनप्रिय राष्ट्रीय नेता की मूर्ति लगवाई। बस! मूर्ति का अनावरण बाकी था। मूर्ति के अनावरण के लिए एक प्रोग्राम रखा। कबा, यानी ग्राम परिषद के मुखिया को चीफ गेस्ट के स्वागत का जिम्मा सौंपा गया। एक समस्या थी- भाषा की। मुखिया असमिया ठीक-ठाक बोल लेते थे और हिंदी टूटी-फूटी। और चीफ गेस्ट को अंग्रेजी और हिंदी के सिवाय कोई तीसरी भाषा आती नहीं थी। अब सुनो, मुखिया ने अपने संबोधन में क्या कहा- ‘हमारे बीच चीफ गेस्ट आ चुके हैं। जैसे ही चीफ गेस्ट राष्ट्रीय नेता का माथा खोलेंगे, तब आप सब जोर-जोर से थप्पड़ बजाएंगे।’
हम सब पागलों की भांति ठठाकर हँसने लगे ‘माथा..थप्पड़..माथा..थप्पड़!’
उदु, यानी बांस का चोंगा। उदु के मुहाने पर हल्के से ठूंसा पत्ता बोम्कार जीजा जी के अधिक हिलने-डुलने से शायद अंधकार में कहीं गिर गया होगा। जैसे ही बोम्कार जीजा जी ने उदु को मुंह से लगाया, वेग से बहती मदिरा ने उन्हें अपने जद में ली। माने बोम्कार जीजा जी के मुंह, गला और पहने शर्ट पर मदिरा फैल गई। तत्काल ही मैंने अपना रूमाल उन्हें दिया।
जोश-खरोश में तिरिन सिर हिलाते हुए- ‘अब मेरा भी मन मचल रहा है, कुछ सुनाऊं?’
सबने कहा- ‘जरूर, सुनाओ, सुनाओ!!’
‘किस्सा यही ईटानगर का है, ईटानगर के एक पूर्व मंत्री का।’
‘वही अनपढ़ वाले मंत्री?’ कामेन ने जानना चाहा।
‘हां! हां! ईटानगर के लोंगेस्ट सर्विंग मिनिस्टर। आज तक उनका रिकॉर्ड कोई तोड़ नहीं पाया। ये जो ईटानगर में इतनी इमारतें हैं, आधी उन्हीं की हैं। सोचो, थोड़ा पढ़-लिख जाते तो कहां से कहां पहुंच जाते। मात्र प्रांतीय नेता नहीं, नेशनल लेवल के टॉप नेता बनते।’
कुमी उतावलेपन में- ‘सीधे किस्से पर आओ।’
तिरिन चिढ़ गया- ‘सुदुम जुग्लेन मा, इक्कअ जुग्लेन । इस कुमी में धीरज नाम की चीज नहीं।’
‘सुदुम जुग्लेन मा..’ मैंने तिरिन पर गहरी निगाह डालकर सवाल किया, ‘यह क्या बोला?’
‘यह लोकोक्ति है। इसका अर्थ है हड़बड़ाहट नहीं करनी चाहिए। अतीत में हमारे पुरखे शिकार के दौरान कुत्ते साथ ले जाया करते थे। हिरन जब अपनी बसाहट से निकलता था, तो कुत्ते का काम भौंकते हुए उसे शिकारी की तरफ खदेड़ना होता था। मगर कई दफा हिरन के निकलने से पहले जल्दबाजी में कुत्ता भौंक पड़ता और सारा मामला बिगड़ जाता।’
कुमी को गलती का अहसास हुआ- ‘सॉरी, सॉरी!’
तिरिन कुमी के माफीनामे पर कोई ध्यान न देकर- ‘तो किस्सा उस वक्त का है जब ये अनपढ़ मंत्री हेल्थ मिनिस्टर हुआ करते थे। हेल्थ डिपार्टमेंट ने ब्रेस्ट फीडिंग वीक के उपलक्ष्य में एक शानदार कार्यक्रम रखा गया। चूंकि ये हेल्थ मिनिस्टर थे इसलिए उद्घाटन समारोह के लिए इन्हें आमंत्रित करना पड़ा। विभाग ने सोचा होगा, इस बहाने कुछ फंड-वंड मिल जाए शायद। बहरहाल मंत्री जी ठाट-बाट के साथ अपना कारवां लेकर वेन्यू पर पहुंचे। प्रोग्राम का आगाज हुआ। अब ब्रेस्ट फीडिंग के महत्व पर बोलने के लिए मंत्री जी की बारी आई। पहले इन्होंने अपना गला खंखार कर साफ किया। इसके बाद पोडियम पर रखा पानी का लबालब गिलास चंद सेकंड में यूं खाली किया गोया अभी-अभी चर्च से ड्राई फास्टिंग खत्म कर आए हों। औपचारिक अभिवादन के बाद ये बोले, ‘मैं ब्रेस्ट फीडिंग को निहायत ही बचत की नजरिये से देखता हूँ।’
नीचे बैठे दर्शकों में कानाफूसी होने लगी। इन्होंने कहना जारी रखते हुए आगे कहा- ‘देखिए, बच्चे किसी के भी हो, जिंदा रहने के लिए दूध तो चाहिए ही। अब पाउडर दूध के साथ बड़ी समस्या है। सबसे पहले आप अपनी गाड़ी में पेट्रोल या डीजल भरवाकर मार्केट निकलेंगे। मार्केट से पाउडर दूध खरीदेंगे, इतना ही नहीं फीडिंग बोतल भी खरीदना होगा। और दूध तैयार करने के लिए गरम पानी चाहिए, जिसके लिए आपको गैस ऑन करना होगा। मतलब समझो कि खर्चा ही खर्चा! लेकिन… लेकिन मां के दूध के साथ यह झमेला नहीं है। जैसे ही बच्चा भूख से बेहाल ऊवां-ऊवां रोने लगे, बस उसके नन्हें से मुंह में ठूंस देना। फिर क्या! बच्चे का रोना बंद, मां भी खुश और कोई खर्चा नहीं, इसलिए बाप डबल खुश!’
जो लोग मंत्री जी का लिहाज कर अपनी हँसी रोककर बैठे थे, अब उन सबकी हालत खराब। भला हँसी कहां तक रुकती। एक साथ भयंकर छतफोड़ ठहाके गूंज उठे।
हँसते-हँसते हम सब बेदम।
यकायक एक भीषण आवाज ने हमारी हँसी में खलल डाली। मारे डर के मैं कुर्सी छोड़ सहमकर खड़ी हो गई। टिन की छत पर मानो हजारों ओले बरस रहे हों। मेरे डर को दूर करने के मकसद से ताग बोला- ‘अरे कुछ नहीं हुआ, बैठ जाओ, बैठ जाओ।’
उसका कहना अनसुना कर मैं ज्यों की त्यों खड़ी रही।
ताग फुसलाहट में- ‘बैठो नहीं, तो मैं हाथ खींचकर अपनी गोद में बिठाऊंगा।’
इस छिछोरे ताग का भरोसा नहीं, मैं झटके से कुर्सी पर बैठ गई।
मेरे झपाटे से बैठने पर ताग जरा निराश हुआ कि खुराफात करने का मौका गंवा दिया- ‘लड़के छत पर पत्थर बरसा रहे हैं। माना कि चाची की आध्यात्मिक यात्रा तीन दिनों के बाद शुरू होगी, मगर यात्रा में रुकावट पैदा करने के लिए बुरी आत्माएं पहले से तैयारी में होती हैं। इसलिए उन्हें भगाने या चेतावनी देने के लिए पत्थर बरसाकर डराना जरूरी होता है।’
‘तो यह बात है।’ मेरी जान में जान आई।
कुमी चटनी लगभग पीस चुकी थी- ‘फिर किस्सों पर लौटें? बोम्कार जीजा जी, कामेन, तिरिन से सुन चुकी हूँ। अब बचा कौन? ताग, हां, ताग अब तुम सुनाओ।’
‘ऑब्जेक्शन’ मैंने प्रतिवाद किया, ‘इसको सुनाने के लिए मत कहो। यह कोई वल्गर किस्सा ही सुनाएगा।’
ताग दिलफेंक मुस्कान भरकर- ‘क्या बात है, तुम मेरे दिल को अच्छी तरह जानने लगी हो।’
मैं जहरबुझी आंखों से उसे देख बोली- ‘कसम से ताग, तुम मेरे रिश्तेदार नहीं होते तो अब तक थप्पड़ों से तुम्हारा गाल लाल पड़ गया होता।’
ताग फिर भी बाज न आया- ‘दबंग’ फ़िल्म का डायलॉग बोलूं? थप्पड़ से डर नहीं लगता…’
बीच में ही उसे टोकते हुए, मैं सुलग उठी- ‘बंद करो अपनी बचकानी बातें। मुझे नहीं मालूम था, हमारे साथ बॉलीवुड का प्रेत बैठा है।’
कुमी बीच-बचाव में- ‘तुम दोनों लड़ना-झगड़ना बंद करो। और ये लो खाओ।’ भुने हुए गोश्त की बोटी पर चटनी का पेस्ट मलकर प्लेटों पर परोसा गया। सर्विंग टीम द्वारा रखकर गई बाजरे की मदिरा के साथ हम सब गोश्त के प्लेटों पर टूट पड़े।
उंगलियां चाटते हुए मेरी दृष्टि एका पर पड़ी– ‘एका! अरे हम तो भूल ही गए कि हमारे संग एका भी है। एका, चलो सुनाओ किस्सा।’
एका वैसे बोलता बहुत कम है– ‘सुनाने वाले ही नहीं, सुनने वाले भी तो चाहिए। मैं तो श्रोता हूँ।’
कुमी ने मेरा साथ दिया– ‘नहीं, नहीं, हम नहीं मानेंगे। तुम्हें सुनाना ही होगा। तुम खार्सांग में जॉब करते हो न? उधर का ही कोई किस्सा सुनाओ।’
एका उदासी से– ‘उधर के किस्सों में हँसी का स्कोप कहां है!’
मैं मशविरे के लहजे में बोल पड़ी- ‘यह जरूरी थोड़ी है कि सारे किस्से हँसने-हँसाने वाले हों।’
कुमी जज्बाती होने लगी- ‘पूर्वी अरुणाचल के उन इलाकों के बारे में खयाल आते ही मेरा कलेजा मुंह को आ जाता है। बारूद और बंदूक के दरमियान लोग किन हालात में जीवन बसर कर रहे हैं!’
एका का चेहरा सख्त होता जा रहा था और आंखें सूनी- ‘वह एक दीगर ही दुनिया है। अफीम की खेती, शराबखोरी, ड्रग्स का नशा, घोर गरीबी, बदहाल शिक्षा, रंगदारी का बोलबाला, आए दिन अपहरण, खूनी सीमा विवाद, भूमिगत संगठनों की आपसी लड़ाई और आर्मी बूटों की मनहूस ठक-ठक।
‘पहले-पहल तांग्सा लोगों ने पूरी गर्मजोशी से भूमिगत संगठन का स्वागत किया। दूरदृष्टि की कमी थी। वे देख नहीं पाए, क्योंकि ये संगठन सपनों के सौदागर थे। देखते भी कैसे! ये अपनी मीठी-मीठी बातों में तांग्सा लोगों को विश्वास दिलाने में कामयाब रहे।’
‘वास्तव में तांग्सा हम नगा लोगों से अलग नहीं है। आप सब हमारे ही भाई-बंधु हैं। हम आप लोगों को एकीकृत करने आए हैं। आपकी सारी परेशानी हमारी अपनी परेशानी है। और हम आपकी परेशानियों से बखूबी वाकिफ हैं। सरकार द्वारा बसाए गए चकमा रिफ्यूजी अपनी मूल जगह से इंच दर इंच आगे बढ़ते हुए तांग्सा जमीनें कब्जा रही है। यह हमसे छुपी नहीं है। असम के रास्ते बांग्लादेशी घुसपैठिए धीरे-धीरे तांग्सा बस्तियों की ओर बढ़ रहे हैं, उसपर हमारी नजर है। और हमारे अपने ही समाज को निगल रही अफीम की खेतीबाड़ी का विकल्प भी हमने खोज निकाला है। वे ऐसा कहते थे। तब किसको पता था, ये मन लुभावन जुबानें आगे चलकर उन्हीं लोगों पर गरजेंगी। और तो और राजनेताओं ने भी अपने फायदों के लिए भूमिगतों को बाहें खोलकर सीने से लगा लिया। इस तरह तांग्सा लोगों को उन भूमिगत संगठनों की आइडेंटिटी और प्रोटेक्शन की बातें बहुत लुभाईं। और जिनको राजनेताओं का वरदहस्त मिला हो, उन्हें नकारने की हिमाकत लोग भी नहीं कर पाए।’
एका का किस्सा जारी था-
‘मेरा किस्सा नब्बे के दशक से जुड़ा है, जब भूमिगत संगठनों का आंदोलन चरम या शिखर पर था। अपने वायदों के मुताबिक भूमिगत कैडरों ने चकमा शरणार्थियों पर चेक एंड बैलेंस रखा। चेक पोस्टों पर सिविल पुलिस के साथ ये भी मुस्तैदी से तैनात हुआ करते थे। एक तरह से समानांतर सरकार की नींव उसी दौरान पड़ी थी। सीमा पार बर्मा से हथियार की खरीद-फरोख्त के लिए ये असम के धन-कुबेरों से वसूली करने लगे। वैसे असम में मूल धन असमिया लोगों के पास नहीं, मारवाड़ियों के पास अधिक है। जैसा कि मैंने पहले कहा भूमिगतों के बीच आपस में अहं और वर्चस्व की लड़ाई होने लगी। नतीजतन संगठन कई गुटों में बंट गए। जागुन और खार्सांग एरिया में जिस गुट का दबदबा था, वह बड़ा ही दुर्दांत था। एरिया कमांडर जुग्ली का इतना आतंक था कि उसका नाम सुनते ही भात खा रहा आदमी की कंपकंपी छूट जाती और गलती से भात का कौर मुंह के बजाय अपनी नाक में ठूंस देता।’
एका बोलता गया-
‘लालच का पेट वाकई बहुत बड़ा होता है, एक अबूझ, अतल और अंधी घाटी की मानिंद। मारवाड़ियों के धन से पेट नहीं भरा तो कमांडर जुग्ली आस्तीन के सांप में बदल गया। अब वह तांग्सा राजनेताओं से भी धन उगाही करने लगा। राजनेताओं के पास पाप की अकूत कमाई पड़ी है, सो उन्हें देने से क्या आपत्ति होती। राजनेताओं के बाद कमांडर जुग्ली अब अपना अगला शिकार तांग्सा धनिकों को बनाने लगा, जिनमें ज्यादातर इंजीनियर और व्यापारी थे।’
एका अब एक खास मामले पर आया :
‘व्यापारियों में एक उम्रदराज महिला थी- चोयेम लुंगफि। हां, यही नाम था। उनका निजी जीवन किसी दुखद महागाथा से कम नहीं था। जीवन में दुख के जितने रूप, रंग और गंध होते हैं, वह सारा पचाकर पी गई थी। दुख से उनका अपनापा था, क्योंकि सुख के दिन कम देखे, दुख के दिन अधिक।
‘बादलों से ढका एक दिन था। धूप शरारती बच्ची की तरह बादलों के दरवाजे से झांकती और फौरन छिप जाती। ऊपर आकाश में बादल और धूप की लुकाछिपी का खेल जारी था और नीचे जमीं पर कमांडर जुग्ली की वसूली का खेल। बाजार सेक्रेटरी के मार्फत कमांडर जुग्ली ने वसूली का खत भिजवाया। डिमांड था दो लाख रुपये। खत पाकर चोयेम लुंगफि तनिक देर सकते में थी। फिर हकबकाकर बद्दुआएं और भद्दी से भद्दी गालियां बकने लगी, ‘इस हरामखोर ने महिला तक को नहीं बख्शा।’ किसी और ने मांगा होता तो बाजार सेक्रेटरी उधारी या चंदा जुटाकर चोयेम लुंगफि की मदद भी करते। मगर यह कमांडर जुग्ली का मामला था। इसलिए कोई बीच में पड़ने का खतरा मोल नहीं लेना चाहता था।
‘उधर कमांडर जुग्ली मोहलत खत्म होने के इंतजार में था। हैरतअंगेज! मियाद पूरी हो गई, मगर अब तलक पैसा पहुंचा नहीं। कमांडर जुग्ली के अहं को तीखी चोट लगी। चोटिल शेर की तरह वह अपने हमलावर पर बदला लेने पर उतारू हो उठा। उसकी मांग को तव्वजो न देना, यह हमला नहीं तो क्या था! वह पिस्तौल उठाकर दनदनाता हुआ सीधा पहुंच गया चोयेम लुंगफि के घर।’
एका कहता गया-
‘जुग्ली को देखकर चोयेम लुंगफि डरी नहीं या मुमकिन है डर भी गई हो, मगर हाव-भाव से झलकने नहीं दिया- ‘पैसे के इंतजामात में देरी हो गई। माफी चाहती हूँ। पैसा तैयार है। बैठिए, क्या पीयेंगे? काली-नमक चाय?’
पैसे के इंतजाम वाली खबर से कमांडर जुग्ली का सारा गुस्सा काफूर हो गया। इसलिए चाय के लिए सिर झटकाकर ‘हां’ किया। हामी पाकर चोयेम लुंगफि ने नौकर को संकेत किया और खुद भीतर से एक ब्रीफकेस उठा लाई। ब्रीफकेस कमांडर जुग्ली को थमाते हुए कहा- ‘पैसे आपको मिल गए, मुझे तसल्ली हुई। कुछ देर चुप रही, फिर सकपकाकर पूछा- ‘मैं आपसे उम्र में बड़ी हूँ। इस नाते क्या एक सवाल कर सकती हूँ?’ सामने से कोई जवाब नहीं आया। एक पल अपने आप जोर से मुस्कुराई और दूसरे ही पल जबरन मुस्कुराना बंदकर- ‘दरअसल मैं पढ़ी-लिखी नहीं हूँ। इसलिए जानना चाह रही थी, आपने कहां तक पढ़ा है?’
कमांडर जुग्ली ने भारी और बुलंद स्वर में कहस- कॉलेज के आखिरी साल में था, तब यह संगठन का काम…’
चोयेम लुंगफि उत्कंठा में– ‘तब तो आप मेरी जीवन की कहानी लिख सकते हैं। मे…मेरा मतलब आपने भी संघर्ष के दिन देखे और मैंने भी। बेटा को लिखने के लिए मिन्नतें किया करती थी, लेकिन मेरी बातों पर जरा भी कान नहीं धरता था। नालायक, नाकारा कहीं का!’ उनकी आंखों के कोर से बूंद–बूंद रिसने लगी, ‘न बेटी के तौर पर मैंने सुख पाया, न पत्नी के तौर पर और न अभी मां के तौर पर। सुख कैसा दिखता होगा, मैं नहीं जानती। लेकिन दुख के हजारों चेहरे आसानी से पहचानती हूँ। बहरूपिया दुख मुझे अनाड़ी समझता है, मगर मैं उसके हरेक रूप को यूं चुटकियों में भांप लेती हूँ जैसे चांद अपनी शीतल उजास को।
कुछ लोग इस संसार में मात्र इसलिए आते हैं, ताकि दुख से दोस्ती कर सकें। दुख भी साथी तलाशता है। मैं उन अभागों में से हूँ।’ कहते-कहते खो गई अपने अनाथ, एकांत और वीरान बचपन में, ‘पैदा होते ही मां-बाप हैजे की महामारी में चल बसे। मैं बच गई, दुख सहने के लिए। कर्तव्यबोध के तहत रिश्तेदारों ने अपने घर पनाह दिए, मगर अंडे की तरह नाजो से नहीं पली मैं। खाना से नहीं लताड़ से ज्यादा पेट भर जाया करता था। तन्हाई में बेआसरा बरसाती घास की तरह उगती मैं जवां हो गई। जीवन में पहली बार जिस इंसान से दो प्यारे बोल सुने, उसी को दिल दे बैठी। चर्च में ‘हॉली मैरिज’ हुआ, मगर वह तो डेविल निकला। अफ़ीम, शराब किस चीज का उसे नशा नहीं था। बाकी कसर जुए की लत ने पूरी की। सोचा, बच्चे का मुख देखने से शायद सुधर जाए। बच्चा हुआ पर सुधरना उसकी फितरत में नहीं था। मुझ पर लात-घूंसें बरसाना तो आम था। पर जब वह धारदार चीजें उठाता, मैं बेटा को लेकर पड़ोसियों के यहां भाग जाया करती थी। पहले अकेली भागती थी, अब बेटा को लेकर भागना होता। अनेक बार मुझे पीटकर जी नहीं भरता तो बेटे की तरफ लपकता।
‘अच्छा हुआ जो जल्दी लीवर सड़ गया। मगर विरासत में मेरे लिए उधारी के अलावा कुछ नहीं छोड़ गया। जीते जी तो सताया ही, मरने के बाद भी…। घर-द्वार बेच-बाचकर उधारी चुकता किया। इसके बाद मैं तीन जगह काम करने लगी। सुबह चाय बागान में पत्तियां तोड़ती, दोपहर को जंगल से जंगली केला लाकर मिसिंग लोगों के सुअरों को खिलाती और रात को चर्च की चौकीदारी करते बेटे को सीने से चिपटाकर वहीं सो जाती। तीनों जगहों से जो रुपये मिल रहे थे, उसे बिलकुल खर्च नहीं किया। रकम थोड़ी बढ़ी तो एक मादा सुअर खरीद लिया। उसने नौ मादा बच्चियां जन्मीं। तब से थोड़ी आमदनी बढ़ने लगी। बेटा को स्कूल में दाखिला दिलाई। यह बिल्डिंग-घर बनवाई और खेती लायक एक बड़ी जमीन खरीदी।
बेटा को जब इंजीनियरिंग कॉलेज में सीट मिली तो वह खेती वाली जमीन बेचनी पड़ी। इतना काफी नहीं था। बेटे की पढ़ाई खत्म होने के बाद नौकरी के लिए तगड़ी घूस देनी थी। इसलिए इस घर को गिरवी रख कर्जा लिया। जब बात बच्चे की भविष्य पर आती है तब कोई मां आगे-पीछे नहीं सोचती।’
एका अब कहानी के क्लाइमेक्स पर पहुंचना चाहता था-
गला भर आया था, इसलिए बोलना बंद किया। उन्होंने यह देखने की कोशिश भी नहीं की कि सामने बैठा शख्स उनकी बातें सुन रहा है कि नहीं। केवल किसी श्रोता के होने का अहसास चाहिए। लुंगफि अपनी कहानी सुनाने के लिए मरी जा रही थी। दुख से सराबोर कहानी…सुनाना नहीं, गोया दुख बांटना हो- ‘बेटा ऐसा दुष्ट निकलेगा, यह खयाल सपने में भी नहीं आया था। जोरहाट में अपने साथ पढ़ने वाली असमिया लड़की से शादी रचाते ही उसने अपनी मां से नजरें फेर लीं और सदा के लिए वहीं बस गया। मैंने सुअर पालना नहीं छोड़ा, बेटे के बाद सुअर ही मेरा सब कुछ था। लोग अपना गम गलत करने के लिए दीगर तरह के नशा करते हैं। और मैं सुअरबाड़े के पास बैठकर उनकी चिचियाहट सुना करती, कलेजे को खूब ठंडक पहुंचती, शायद यही मेरा नशा था। लोगों से और कर्जा लेकर और प्यारे-प्यारे सुअर खरीदे। मगर कोई क्या ही कर सकता था, जब कपाल पर कष्ट भोगना बदा हो।
फ्लू.., क्या कहते हैं, सवाइन फ्लू में मेरे सारे जानवर मर-खप गए। बचा एक भी नहीं! जमीन गई, बेटा गया, जानवर गए और अब यह छत भी जाने वाली है। यह मेरे सिर पर बालों के जितने गुच्छे देख रहे हो न, उससे ज्यादा उधारी है मुझ पर। लोगों ने अब कर्ज देना भी बंद कर दिया।
अचानक एकालाप बंद करके कमांडर जुग्ली को सीधे गिली आंखों से देखते हुए लुंगफि ने कहा- ‘आप जैसे लोग बाहरी चमक-दमक देखते हैं, भीतर का खोखलापन और सड़ांध नहीं!’
‘तो ये रुपये..?’ भूमिगत संगठन के कमांडर ने पूछा।
‘गिरवी, गिरवी रख आई हूँ एक गुर्दा। डिब्रूगढ़ से एक एजेंट पकड़ा। उसके साथ कोलकाता के एक बड़े मेडिकल अस्पताल में गई। डॉक्टर ने कहा, बढ़िया से खाओ-पीओ, सेहत बनाओ। फिर तीन हफ्ते बाद आकर अपना गुर्दा देना। इसलिए रुपयों के इंतजाम में समय लग गया। कहा न मैंने, दुख से मेरा जन्म से पक्का याराना है।’
एका कथा सुनाकर थोड़ी देर रुका, कुमी सुबकने लगी थी। माहौल भारी, गंभीर और दूभर बन गया था। कितनी जल्दी हम यह बिसर गए कि कुछ देर पहले हम सब हँसी-ठिठोली कर रहे थे। कुमी ने आंसू पोंछते हुए पूछा- ‘आगे क्या हुआ?’
‘हां, आगे? आगे यह हुआ कि जैसे ही कमांडर जुग्ली जाने को उद्धत हुआ। चोयेम लुंगफि उसे याद दिलाती है- ‘आप ब्रीफकेस भूलकर जा रहे हैं।’ उनको कमांडर जुग्ली से सख्त जवाब मिलता है- ‘इसकी जरूरत नहीं है। और हां, कल मेरा एक कैडर आकर आपको बीस हजार रुपये दे जाएगा।’ कहने के बाद कमान से छूटा तीर की तरह कमांडर जुग्ली बाहर निकल गया।
चोयेम लुंगफि ने इत्मीनान से नजदीक के स्टूल से लौंग फ्लेवर का एक बर्मी सिगरेट उठाकर होठों पर रखा और लाइटर से सुलगाकर जोरों की एक कश लेने के बाद बोली- ‘बड़े आए वसूली करने, जा खाली हाथ!’
हम सारे भौंचक रह गए।
एका ने किस्सा का अंत यूं किया- ‘गुर्दे की गिरवी, घर की गिरवी और बेटे की नालायकी के सिवा उनकी सारी बातें सच थीं।’
हम सब दो खेमों में बंट गए। एक खेमा चोयेम लुंगफि की शातिरी की वाह-वाही कर रहा था तो दूसरा खेमा कमांडर जुग्ली की चेंज ऑफ हार्ट का!
संपर्क :हिंदी विभाग, राजीव गांधी विश्वविद्यालय, रोनो हिल्स, दोईमुख, अरुणाचल प्रदेश-791112 मो. 9436044327